शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हम ना मुसलमान हैं, ना हिंदू, हम तो गरीब हैं...'

हम ना मुसलमान हैं, ना हिंदू, हम तो गरीब हैं...'

 शुक्रवार, 20 सितंबर, 2013 को 15:27 IST तक के समाचार

बीबीसी हिन्दी न्यूज, हिन्दी न्यूज़
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों ने हज़ारों लोगों को शरणार्थी बना दिया. राहत कैंपों में पड़े लोगों की दुनिया चंद घंटों में बदल गई. शामली के लिसाढ़ गाँव के मोहम्मद यासीन काँधला के एक राहत शिविर में रह रहे हैं. यासीन राहत कैंपों के शरणार्थियों की कहानी बयाँ कर रहे हैं. उनकी बातें समाज और सरकार के सामने कई गंभीर सवाल खड़े करती हैं
वे कहते हैं, ''हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारे गाँव लिसाढ़ में झगड़ा हो जाएगा. गाँव में झगड़ा कहाँ था, ये तो उन्होंने किया. इसमें हमारी क्या गलती थी, कवाल (जहाँ से दंगे की शुरुआत हुई) से हमारा क्या जोड़. ये ही तो जोड़ था कि वे भी मुसलमान हैं और हम भी. लेकिन हमारे पास एक बीघा ज़मीन तक नहीं. आप ही लोगों की मज़दूरी की और आपने ही मारा."
उनकी बातों से उनका दर्द झलकता है, ''जो बाड़ ही खेत को खाने लगे तो फिर खेत का क्या हो? लुहार उनका काम करे थे, तेली उनकी रज़ाई भरे थे, लोग उनके नौकर लगे थे, धोबी उनके कपड़े धोए थे. क्लिक करें उनके ही घर फूंक दिए. अगर बराबर की जात होती तो रिश्तेदार संभाल लेता. हमारे तो रिश्तेदार भी ऐसे कि साँझ की रोटी ना खिला सकें.''

''रात उनका, गांव उनका''

''.. उनके हाथ में क़ानून है. राज उनका, गाँव उनका, उन्हीं की चलेगी. जब उनकी ही चलेगी तो अब हमे ऐसी जगह भेज दो, जहाँ उनकी ना चले और हम अपनी कर खा लें. वो कहते हैं कि तुम तो पाकिस्तानी हो. क्रिकेट खेलते हुए एक ग़रीब बच्चे की गेंद अच्छी पड़ गई तो कहते हैं कि तू तो पाकिस्तानी वसीम अकरम हो रहा है.''
यासीन देश के क़ानून पर भी सवाल उठाते हैं, ''ये कह रहे हैं कि ये क्लिक करें भाजपा की साज़िश है. ये तो सन 47 से हो रहा है. हमें एक नए पैसे का क़ानून का सहारा नही. यहाँ जो हमें मिल रही है, वो जातीय हमदर्दी है. हमारे इस्लाम में होने के नाते लोग हमारी मदद कर रहे हैं. व्यापारी लोग खाने के लिए भेज रहे हैं. नहीं तो हमारा कौन है.''

''हमारा दर्द तुम्हारा दर्द कैसे''

"मुख्यमंत्री आए और बोले कि मुझे दर्द है. तुम्हारा दर्द हमारा दर्द. जरा बताओ कि हमारा दर्द तुम्हारा दर्द कैसे? तुम महल में हो और हमारी झोपड़ी भी फुँक गई."
मोहम्मद यासीन, शरणार्थी, कांधली राहत कैंप
''ये कौम का अहसान है कि हम यहाँ पड़े हैं. हुक़ूमत ने क्या हमारा पता लिया. मुख्यमंत्री आए और बोले कि मुझे दर्द है. तुम्हारा दर्द हमारा दर्द. ज़रा बताओं कि हमारा दर्द तुम्हारा दर्द कैसे? तुम महल में हो और हमारी झोपड़ी भी फुँक गई. हम तो बैंया हैं, बैंया का घर ढहा दिया.''
वह पूछते हैं कि आखिर उन्हें क्यों बेघर किया गया, ''हम किसी का विरोध नहीं करते. नहीं कहते कि उन्हें पकड़िए, सज़ा दीजिए. किसी ने जाट मारे, किसी ने मुसलमान मारे. लेकिन हमने किसे मारा? हमने तो कभी उनकी ओर बेअदबी की निगाह से नहीं देखा और हम मार दिए गए. घर से बेघर कर दिए गए.''

पेट में बच्चे को मार दिया

यासीन की बीबी के पेट में बच्चा था, जो अब नहीं रहा, '' मेरी बीवी के पेट में बच्चा था. लात मार कर ख़त्म कर दिया. मुझे नहीं पता कि वो बच्ची थी या बच्चा था. मेरी दाढ़ी खींच दी, किसी के तबल मार दिया. एक नब्बे साल के बुड्ढे को जिंदा जलाया. उसे क्यों मार दिया. वो तो चार दिन रोटी ना मिलती तो खुद ही मर जाता? ये क्या था कि हमारे बच्चों को मार दिया.''

...तो लिसाढ़ वालों को क्यों मारा?

वह आगे कहते हैं, '' सुना कि क्लिक करें कवाल में बवाल था. लेकिन कवाल और हममें क्या जोड़. हमें तो ये भी नहीं पता कि कवाल हैं कहाँ, वहाँ कौन लोग रहते हैं. तो लिसाढ़ वालों ने हमें क्यों मार दिया. एक डर होता है, एक दहशत होती है. 1947 की दहशत आज तक दिमाग से नहीं निकली थी हमारे बुड्ढों के, हमें भी डराते थे. क्या ये दहशत हमारे बच्चों के दिमाग से निकल पाएगी?''
'' वे ये क्यों कहते हैं कि तुम्हारा क्या हैं यहाँ? हमारा क्या है भई, पचास-पचास गज के घर, और क्या? रोज सुबह उठते थे. दिन भर नमस्ते चौधरी जी, और ठीक हैं चौधरी जी. बस यही दुआ सलाम थी हमारी, जो ख़त्म कर ली उन्होंने. अगर कोई भी, एक भी आदमी ये कह दे कि लिसाढ़ में हमने किसी की ओर एक उंगली भी उठाई तो हम अपने बच्चों को लेकर चलते हैं, उन्हें गोली मार देना.''
बीबीसी न्यूज़, बीबीसी हिन्दी न्यूज़

क्या राम उनका ही है...

उनके आवाज दर्द है सबकुछ खोने का, ''हम ग़रीब हैं, रोज़ी छूट गई तो गए, बीमार हुए तो मर गए, औरत बच्चा जनने में बीमार हुई तो मर गई. हमें उन्हीं लोगों का तो सहारा था. वो भी हमसे छिन गया. रात को रात काट रहे थे वो भी छिन गया. ये क्या था? हमें ये लग रहा है कि हमारा कुछ था ही नहीं लिसाढ़ में. हम पुश्तों से रहते चले आ रहे थे वहाँ और एक ही दिन में उजड़ गए.''
वह सवाल उठाते हैं, ''हम हिंदुस्तान के मुसलमान हैं कि पाकिस्तान के? हम तो ना मुसलमान हैं ना हिंदू, हम तो गरीब हैं. इंदिरा ने कहा था कि गरीबी हटाओ. हट गई गरीबी. भाजपा कहती है रामराज लाएंगे. क्या राम उनका ही है? हमारा नहीं है. जब हम उसके राज में हैं तो राम हमारा भी है."
"भाजपा कहती है रामराज लाएंगे. क्या राम उनका ही है? हमारा नहीं है. जब हम उसके राज में हैं तो राम हमारा भी है."
मोहम्मद यासीन, शरणार्थी, कांधला राहत शिविर

सोते-सोते रात को भागना पड़ा

'' हमें सोते-सोते को रात को भागना पड़ा. बस यही आवाज़ आ रही थी कि मार लो-मार लो, लगा दो आग इनमें. पकड़ो भाग गए. हमारे घरों में आग दे दी. भले ही मेरा घर बच गया हो लेकिन वो मेरा कहाँ रह गया. मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि अपने घर को अपना कह दूँ. ये कह दूँ कि मेरा घर है, मेरा गाँव हैं, क्यों छीन लिया मेरा अधिकार ये, क्यों छीन ली मेरी नागरिकता. बस इसका जबाव दे दो.''
अब कैंप में रह रहे क्लिक करें शरणार्थियों के सामने हैं चिंताओं का बड़ा बोझ, '' कहाँ ले जाएं अपने बच्चों को. किसका सहारा, कोई सहारा नहीं. अब मजदूरी भी नहीं कर सकते. आगे कौन काम देगा. जहाँ जाएँगे, वहाँ लोग कहेंगे तुम तो ख़राब हो, जो बढ़िया होते तो तुम्हारे गाँव के लोग तुम्हें क्यों काटते, क्यों निकालते. कागज जल गये, नागरिकता का प्रमाण नहीं दे सकते.''
और आखिर में यासीन में एक सवाल करते हैं, ''हमें तो बस ये जबाव दे दो कि दुनिया हमसे पूछे कि तुम क्यों सताए गए तो हम क्या ज़बाव दें?''

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