रविवार, 8 सितंबर 2013

बापू साधु हैं या बहेलिया

बापू साधु हैं या बहेलिया


asharamआशाराम बापू के ‘कुकृत्य’ से धर्म की पुन: हानि हुई है। दुष्टता जब किसी कथित महापुरूष के सिर चढ़कर ‘पाप के घड़े’ के रूप में फूटती है, तो दुख ना केवल ऐसे किसी महापुरूष के अनुयायियों को होता है, अपितु उसके ना मानने वालों को भी होता है। क्योंकि ऐसे ‘पापकृत्यों’ के कारण लोग फिर देर तक किसी वास्तविक ‘पुण्य पुरूष’ को भी ढोंगी-पाखण्डी और छलिया मानते रहते हैं। एक वास्तविक पुण्य पुरूष को इस प्रकार अपनी विश्वसनीयता को स्थापित करने में अवांछित पुरूषार्थ करना पड़ता है। यह अवांछित पुरूषार्थ ऐसे पुण्य पुरूष के लिए एक अघोषित कठोर दण्ड भी होता है। आज के बहुत से बाबाओं ने अपने अपने मंदिरों, मठों और आश्रमों को संसार भर की सुख सुविधाओं और चेले चेलियों का अड्डा बनाकर रख दिया है। ‘माया और काया’ का खेल चल रहा है।
हमारे ऋषियों ने तो काम को जीतने के लिए स्वयं के लिए कितने ही कठोर नियम/व्रत बनाए। न ारी से दूरी बनाने के लिए बेटी तक से एकांत सेवन ना करने का कठोर लेकिन समाजहितकारी नियम बनाया। आपके मित्र की पत्नी तो घर में है, परंतु मित्र नही है-तो घर के द्वार से ही  लौट जाने का प्राविधान किया। साधना में नारी के सौंदर्य का भी बोध ना हो-इसलिए नीची नजरें करके नारी से वार्ता करने की मर्यादा बनायी। परंतु हमारे अधिकांश कथित साधुओं की स्थिति इसके विपरीत है। एक मामले में मैं फैजाबाद गया हुआ था, गाजियाबाद के एक बड़े मठ के मठाधीश्वर मेरे साथ थे। उनके साथ एक युवा सन्यासी भी था। उस सन्यासी के पास एक फोन आया-जिसे देखकर वह थोड़ा भीड़ में से अलग को हुआ और फोन सुनने लगा। महोदय कह रहे थे कि मैं तुम्हें ‘एबार्सन’ की दवाई देकर तो आया था, वह नही ली। मैं उस सन्यासी के ये शब्द सुनकर दंग रह गया था। इसी प्रकार के एक सन्यासी ऋषिकेश में अपना आश्रम चलाते हैं जिन्हें एक सफाई कर्मी महिला ने अपने साथ की गयी बदतमीजी के लिए आश्रम में ही झाड़ुओं से पीटा था। एक मठाधीश्वर कुछ समय पहले गाजियाबाद से एक उद्योगपति की लड़की के साथ अमेरिका घूमने चले गये थे। बड़ी बदनामी झेलनी पड़ी थी। ऐसे गंदे कारनामों को देखकर इन लोगों के प्रति यही कहा जा सकता है :-
खुदा के बन्दों को देखकर ही खुदा से मुनकिर है दुनिया।
कि ऐसे बंदे हैं जिस खुदा के वो कोई अच्छा खुदा नही है।।
सचमुच नास्तिकवाद का प्रचलन संसार में बदमाश धार्मिक लोगों के कारण हुआ है। धर्म के ठेकेदारों ने ही धर्म का बेड़ा गर्क किया है। भक्त बलिराम औरंगजेब के दरबार में रहता था। हर रोज की तरह उस दिन भी वह दरबार में सही समय पर पहुंचा। बादशाह आया, उसने खड़े होकर बादशाह के लिए सिर झुकाया, कोर्निश की। बादशाह बिना जवाब दिये आगे बढ़ गया। बलिराम को बात अखर गयी। थोड़ी देर में ही वह दरबार से उठकर बाहर चला गया। आज वह घर नही गया, बल्कि जमुना की रेती में जाकर नदी किनारे बैठ गया और अपने स्वामी परमेश्वर के नाम की माला जपने लगा-समाधि लगा ली।
बलिराम बादशाह का खजांची था। बादशाह को आवश्यकता पड़ी धन की, तो बलिराम को बुलवाया। वह नही मिला-तो इधर उधर देखा गया, नही मिला। तब बादशाह ने सोचा कि किसी खास काम से कहीं चला गया होगा। कल आ जाएगा। वह कल भी नही आया तो उसकी ढूंढ पड़ गयी। घर जाकर देखा गया। नही मिला, इधर उधर खोजा गया। पांचवें दिन जनाब, जुमना की रेती में बैठे  भजन करते देखे गये। सिपाहियों ने चलने के लिए कहा, नही गये। बड़े बड़े हाकिम और मंत्री तक आ गये। पर वह था कि चलने को तैयार ही नही था? अंत में बादशाह स्वयं पहुंचा। बादशाह ने उसका पद बढ़ाने और वेतन बढ़ाने का भी लालच दिया। तब वह बोल पड़ा:-
चाह गयी चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए सो शाहन के शाह।।
भक्त बलिराम ने कहा–
भागती फिरती थी दुनिया जब तलब करते थे हम। 
जब से नफरत हमने की, बेताब आने को है।।
बादशाह थककर चला गया।
पर यह भक्त बलिराम ही था जिसके सामने औरंगजेब जैसा बादशाह वापस चला गया। यदि आज का आशाराम होता तो खजाने को भी ही पचाने की तैयारी कर सकता था। क्योंकि ये वो नही है जिनकी चाह और चिंता दोनों मिट गयीं हों। 18,000 करोड़ की लंबी चौड़ी संपत्ति खड़ी करके आशाराम ‘अय्यास राव’ बना पड़ा था। जिन्हें संपत्ति चाहिए, उनसे काम पर विजय पाने की आशा करना स्वयं को मूर्ख बनाने के समान है। इसीलिए हमारी संत परंपरा में माया को साधना में विघ्न उत्पन्न करने वाली माना गया है। यही कारण रहा है कि कामिनी कंचन दोनों से ही वास्तविक सन्यासी दूरी बनाकर रहता है, लेकिन आज के संतों की तो बात ही अलग है।
पता नही, इस देश की जनता को कब समझ आएगी? इन ढोंगी बाबाओं के चक्कर काटने  और अपनी संपत्ति को इन्हें देने में देश की जनता स्वयं ही संभले तो ही अच्छा है। पिछले दिनों ढोंगी निर्मल बाबा का पाखण्ड मीडिया में सुर्खियों में रहा था। लेकिन जनता तो अब भी वहां समोसे और लड्डू खाने जा रही है। हमें इन जैसे पाखण्डियों के विषय में जानकारी मिली है कि जब ये लोग दरबार लगाते हैं तो उसमें जो लोग रो रोकर अपनी व्यथा कथा बताते हैं कि मेरे को आपके यहां आने से ये लाभ हुआ और मुझे ये हुआ? वह इन ढोंगी बाबाओं का प्रायोजित कार्यक्रम होता है-जिसे अन्य भक्तों पर अपना सिक्का जमाने के लिए ये अपने ही खास चेले चेलियों से कराते हैं। इस प्रायोजित कार्यक्रम का इनके लिए मनोवांछित सकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है, और अन्य लोग भी अज्ञानतावश अपनी जेब कटा जाते हैं। धर्म का पतित स्वरूप है ये। हमारे यहां तो भक्त ईश्वर से कहा करता था-ओउम तेजोअसि तेजोमयि धेहि। वीर्यंमसि वीर्यं मयि धेहि। बलमसि बलं मयि धेहि। ओजोअस्योजो मयि धेहि। मन्युरसि मन्युं मयि धेहि। सहोअसि सहोमयि धेहि।
अर्थात हे प्रभो! तुम तेज स्वरूप हो, मुझे भी तेजस्वी बनाओ, तुम वीर्यवान हो, मुझे भी वीर बनाओ। तुम बलधारी हो, मुझे भी बलवान बनाओ, तुम मन्युस्वरूप हो, मुझे भी सात्विक क्रोध दो। तुम सहिष्णु हो, मुझे भी सहिष्णु बनाओ।
भारत वर्ष के लोगों की ऐसी प्रार्थना ही नही होती थी बल्कि उनका जीवन भी इसी प्रकार का उन्नत होता था। तभी तो रैवरैण्ड ने अपनी पुस्तक ‘ऐंटिक्विटी ऑफ हिंदुस्तान’ खण्ड चार में लिखा है-कोई भी समझदार व्यक्ति इस बात से इंकार नही करेगा कि पूर्व समय के भारतीय बड़े ज्ञानवान थे। जितने विविध विषयों पर उन्हेांने लिखा है, उस सबसे यह प्रमाणित होता है कि वे विज्ञान संबंधी सभी बातों से सुपरिचित थे। उन विषयों का जिस ढंग से उन्होंने प्रतिपादन किया है, उससे यह भी सिद्घ होता है कि हिंदू पंडितों को किसी भी पुरानी अन्य जाति के समक्ष विद्या की दृष्टि से झुकने की आवश्यकता नही है। उनके दार्शनिक ग्रंथों का और विधि संबंधी ग्रंथों का ज्यों ज्यों अध्ययन बड़ेगा त्यों त्यों जिज्ञासुओं को उनकी बुद्घिमत्ता की गहराई का निश्चय होता जाएगा। भारत के और भारत के ज्ञानवान लोगों के विषय में विदेशी लोगों का दृष्टिकोण ऐसा रहा है। जबकि आज के तथाकथित बाबा धर्म की जिस प्रकार फजीहत करा रहे हैं उसे देखकर भारतीयता का और भारतीय संत परंपरा का सिर लज्जा से झुक जाता है। आसाराम जैसे व्यक्ति को तो अपनी अवस्था का भी लिहाज नही रहा-72 वर्ष की अवस्था में इतना बुरा आरोप? सचमुच शर्म को भी शर्म आ गयी है।
यद्यपि कुछ लोगों ने बापू की इस काली करतूत को हिंदू संत के साथ होने वाली अपमान जनक प्रायोजित घटना कहा है और इसे ये कहकर हल्के में लेने की बात कही है कि शाही इमाम के साथ अमुक अमुक घटनाएं हुई हैं यदि वह गिरफ्तार नही किया गया तो बापू ही क्यों गिरफ्तार किये गये? ऐसा कहने वालों ने स्वयं ही प्रथम तो बापू को इमाम के जैसा दोषी मान लिया। दूसरे, अपराधी तो अपराधी हैं। सरकार यदि कहीं शाही इमाम के साथ कुछ नही कर पा रही है तो यह उसकी दुर्बलता हो सकती है-इसके लिए उसकी नीतियों में दोष हो सकता है। परंतु सरकार की ढिलाई और दोषपूर्ण नीतियों का लाभ दूसरा, तीसरा और फिर चौथा व्यक्ति भी उठाये यह भी तो उचित नही कहा जा सकता। बापू का बचाव इस तर्क से करने वाले इमाम की गिरफ्तारी की मांग कर सकते हैं और उन्हें गिरफ्तार करा सकते हैं। परंतु कानून के समक्ष सबको समान रखकर ही ऐसा किया जाए तो ही अच्छा रहेगा। अब जिस साधु की स्थिति रविन्द्र संगीत के इस गीत जैसी हो उसे आप क्या कहेंगे-मेघ का साथी मेरा मन दिग-दिगंत की ओर उड़ा जा रहा है। श्रावण की वर्षा के रिमझिम संगीत में निस्सीम शून्य की ओर। पूर्व सागर की ओर से बहती वायु तटिनी की तरंगों को छल छल करके उछाल रही है मेरा मन उसके उन्मत्त प्रवाह में बहा जा रहा है। ताल मताल से भरे अरण्य में चंचल शाखाएं डोल रही हैं। मेघ का साथी है मेरा मन। मेरा मन चकित कहीं तड़ित आलोक में हंसों की पंक्ति की तरह पंख फैलाए उड़ा जा रहा है। झंझावात घोर आनंद में मंजीर को झन झन बजा रहा है। मंद स्वर से कल कल करती निर्झरणी प्रलय का आवाहन कर रही है और मेघ का साथी मेरा मन उड़ा जा रहा है। साधु को जब अपनी साधना सफल होती दीखने लगती है तो ये आनंद आता है। गृहस्थी को जब अपना प्रेममयी संसार बसता और सफल होता दीखता है उसकी साधना रंग लाती है तो उसे भी ये ही आनंद आता है और जब किसी वासना के रसिक की वासना की तृप्ति के लिए नित नये सपनों के पलंग सजने लगते हैं तो उसे भी ये ही आनंद आता है। पर सबसे बड़ा आनंद तो मन पर अधिकार कर लेने पर आता है, उसके पीछे-2 बहेलिया बनकर दौड़ने में नही। अब बापू निश्चित करें कि वो साधु है, गृहस्थी है, रसिक है या बहेलिया है?

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