शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

मानव-निर्मित धर्म की क्रूरता से खुद को बचायें

मानव-निर्मित धर्म की क्रूरता से खुद को बचायें



संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें से अधिकतर के पीछे धार्मिक कारण रहे हैं। धर्म या धार्मिक लोगों या कथित धार्मिक महापुरुषों ने कितने लोगों को जीवनदान दिया, इसका तो कोई पुख्ता और तथ्यात्मक सबूत नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि धर्म हर रोज ही लोगों को लीलता जा रहता है। ऐसे में क्या मानव निर्मित धर्म के औचित्य के बारे में हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत नहीं है?
India Gang Rape
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
मध्य प्रदेश के दतिया जिले से लगभग 60 किलोमीटर दूर रतनगढ़ स्थित देवी के मंदिर में नवरात्रि के अंतिम दिन देवी के दर्शन के लिए दूर-दूर से आये हजारों श्रृद्धालुओं में पुलिस लाठीचार्ज के कारण मची भगदड़ में अकाल मृत्यु के शिकार लोगों की संख्या 100 से पार पहुँच गयी। मरने वालों में ज्यादातर निर्दोष बच्चे और महिलाएं थे।
सूचना माध्यमों को लोगों की मौत का जो आंकड़ा मध्य प्रदेश प्रशासन द्वारा बताया गया, असल में वह सही नहीं था। क्योंकि स्थानीय लोगों का कहना है कि अनेक ग्रामीण बिना पोस्टमार्टम कराये ही अपने सगे-संबंधियों के शव लेकर अपने-अपने गांव चले गए। ऐसे में, इस हादसे में मरने वालों की संख्या प्रशासन द्वारा बतायी जा रही संख्या से कहीं अधिक होने की पूरी सम्भावना है।
यहाँ पर यह सवाल उठाना भी प्रासंगिक लगता है कि हादसों में मरने वाले निर्दोष लोगों को मुआवजा देने की शर्त के साथ मृतकों का पोस्टमार्टम कराये जाने की कानूनी शर्त क्यों प्रभाव में है? जबकि ऐसे मामलों में पोस्टमार्टम करवाने से मृतक परिवार अधिक आहत होते हैं। जिसके चलते इस हादसे में मरे लोगों के परिजन मुआवजे की चिन्ता किये बिना अपने सगे-सम्बन्धियों के शवों को पोस्टमार्टम से बचाने के लिये सीधे अपने-अपने गांव ले गये। जिन्हें मुआवजा इसी कारण नहीं मिलने वाला है। दूसरी ओर इस कारण से हादसे में मरने वालों की संख्या का वास्तविक आंकड़ा भी देश के सामने कभी नहीं आ सकेगा। इसलिये इस प्रकार के बेहूदा कानून को तत्काल बदले जाने की जरूरत है।
हिन्दू धर्म में जोरशोर से मनाये जाने वाले नवरात्री त्यौहार के अंतिम दिन रविवार 13 अक्टूबर को बड़ी संख्या में श्रद्धालु रतनगढ़-माता के मंदिर में दर्शन करने पहुंचे थे। मंदिर से पहले सिंध नदी पुल पर भारी भीड़ थी। पुल के संकरा होने और उस पर बड़ी संख्या में टैक्टरों के पहुंचने से जाम की स्थिति बन गई। जाम के कारण भीड़ बेकाबू हो गई। जिसे काबू करने के लिये पुलिस ने वहां बल प्रयोग कर दिया, जिससे भगदड़ मच गई। एक तरफ श्रृद्धालु जहां एक-दूसरे को कुचलते हुए भागने की कोशिश में लगे थे, वहीं दूसरी ओर कई लोग जान बचाने के लिए नदी में छलांग लगा दी।
उक्त दर्दनाक घटना पर प्रदेश और देश के राजनैतिक प्रतिनिधियों ने संवेदनाएं व्यक्त की और मृतकों तथा घायलों के परिवारजनों को फौरी राहत पहुंचाने के लिये मुआवजे की घोषणाएं की गयी। सरकार ने जांच के आदेश दे दिये हैं, जिससे कि विधानसभा चुनावों से ठीक पूर्व सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ जनता में उपजे आक्रोश को कुछ सीमा तक नियन्त्रित किया जा सके। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि हम इस प्रकार के हादसों से कब तक सबक नहीं सीखेंगें?
सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि हजारों-लाखों जानें धार्मिक यात्राओं, धर्मस्थलों या धर्म के नाम पर चलने वाले युद्धों के कारण जाती रही हैं। हमारे देश में ही नहीं, बल्कि संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें से अधिकतर के पीछे धार्मिक कारण रहे हैं। धर्म या धार्मिक लोगों या कथित धार्मिक महापुरुषों ने कितने लोगों को जीवनदान दिया, इसका तो कोई पुख्ता और तथ्यात्मक सबूत नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि धर्म हर रोज ही लोगों को लीलता जा रहता है। ऐसे में क्या मानव निर्मित धर्म के औचित्य के बारे में हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत नहीं है?
जो धर्म एक ओर तो वर्ग विशेष को आजीवन, आजीविका प्रदान करने का पुख्ता साधन बना हुआ है, वहीं दूसरी ओर भोले-भाले लोगों के शोषण का कारण भी बना हुआ है। जिसमें महाकुम्भ में रेल पुल का हादसा हो जाता है। केदारनाथ दर्शन को जाने वाले लोग बेमौत मारे जाते हैं। अनेकों स्थानों पर देवी और बालाजी के दर्शन करने के बजाय मौत को गले लगा लेते हैं। इसी धर्म की आड़ में नित्यानन्द और आशाराम जैसे लोग पैदा होते हैं। यही धर्म की बीमारी लोगों को धर्म में बांटकर देश के विकास के मुद्दों से विमुख कर देती है।
इसी धर्म की ओट में स्वयं को हिन्दूवादी वोटरों का सबसे बड़ा पेरोकार दिखाने की होड़ में 2014 में होने जा रहे लोक सभा चुनावों से पूर्व ही भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी स्वयं को राष्ट्रभक्त या राष्ट्रवादी कहने के बजाय हिन्दू राष्ट्रवादी कहकर हिन्दूओं की भावनाओं को भड़काने और गैर-हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करने से पीछे नहीं रहते हैं।
ऐसे में आज देश के लोगों को ये समझने की सख्त जरूरत है कि वास्तव में धर्म क्या है और धर्म की मानव को किसलिये और कितनी जरूरत है? क्या मानव निर्मित धर्म मानव का सच में उत्थान करने वाला है या मानव को पुलों से नदियों और रेल की पटरियों पर धकेल कर उनकी जिन्दगी छीनने वाला है? या केदारनाथ, देवियों, बालाजियों या महाकुम्भों के दर्शन करने या धार्मिक आयोजनों में आस्था एवं श्रृद्धा लिये जाने वाले लोगों के बच्चों को अनाथ, पत्नियों को विधवा, पतियों को विधुर और माता-पिताओं को बेसहारा बनाने वाला है?
हमारी रुग्ण और विकृत मनोस्थिति के लिये हमारे धर्म और संस्कृति की उपज हमारा पारिवारिक व सामाजिक परिवेश और निराशावादी माहौल जिम्मेदार है, जो प्रारम्भ से ही हमारे नजरिये और हमारी सोच को नकारात्मक, संकीर्ण, रुग्ण और विध्वंसात्मक बना देता है। जिसके चलते अनेक लोग निराशा, अवसाद, दुख, तकलीफ और तनावों में डूबकर अस्वास्थ्यकर रास्तों को अपनाने लगते हैं। इस प्रकार लोग एक परेशानी या दुख से मुक्ति पाने की आशा में अनेकों प्रकार की की न मिटने वाली मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं तथा अनेक प्रकार की मुसीबतों में हर दिन घिरते ही चले जाते हैं। इस मानव निर्मित धार्मिक दुष्चक्र में फंसकर सम्पूर्ण मानवता बुरी तरह से तड़प रही है।
इसी मानवनिर्मित धर्म की कथित धार्मिक लोगों द्वारा निर्मित शास्त्रीय राह पर चलने और चलाने वाले आशाराम और नित्यानन्द जैसे कथित संतों के कारण लोगों को अपने ही स्वजनों से चाहे अनचाहे अनेक ऐसे दुखद विचार संस्कारों में मिलते रहते हैं, जो पीड़ा के सिवाय और कुछ नहीं देते हैं। धर्म का चोला ओड़कर स्वयं को धार्मिक दिखाने वाले ये कथित धार्मिक संत नकारात्मक, निराशावादी या जीवन से पलायन करने वाली बातें कहने वाले, आम और भोले भाले लोगों को जाने-अनजाने हर दिन मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार बना रहें हैं, उनके अन्तर्मन में डर और निराशा का बीज बो रहे हैं। जिसके चलते लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य एवं आर्थिक हालातों और पारिवारिक, सामाजिक, कार्यालयीन तथा व्यावसायिक रिश्तों और दाम्पत्य सम्बन्धों पर निश्चित रूप से कुप्रभाव पड़ रहा होगा।
इसके बावजूद भी धर्म के चंगुल में फंसे लोग कुछ नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि वे इस माहौल को और इसके प्रभाव को बदलने की स्थिति में नहीं है। अर्थात् इतनी सारी नकारात्मक और निराशा से भरी एवं भय पैदा करने वाली बातों से बचाव का सही एवं सफल रास्ता उनको ज्ञात ही नहीं हैं। ऐसे में मानवनिर्मित धर्म की शरण में जाना उनकी जन्मजात सामाजिक मजबूरी बना हुआ है। यदि हम अपने आपको स्वस्थ बनाये रखना चाहते हैं और हम सुखी तथा सफल होना चाहते हैं तो हमको इस स्थिति पर तत्काल काबू पाना होगा, लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि सम्पूर्ण समाज ही धर्म जनित नकारात्मकता एवं निराशा में डूबा हुआ है, ऐसे में धार्मिक चंगुल में फंसे लोगों को कैसे रोका या बदला जा सकता है? बदलना सम्भव भी है या नहीं? लगता है कि मुश्किल है। बिलकुल सही, क्योंकि दूसरों को बदलना असम्व है, लेकिन हमारे पास एक रास्ता तो है-दूसरों को न सही हम खुद अपने आपको तो बदल ही सकते हैं।

 

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