नेहरू खानदान यानी गयासुद्दीन गाजी का वंश
[अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश चन्द्र मिश्र ]
जम्मू-कश्मीर
में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक
नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था
कि वह कश्मीरी पंडित थे। नाते-रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न
कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू राजवंश कि खोज में
सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल
नेहरू के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला
दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा
था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव हाफीजा मुज्जफर से
मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके | अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के पास
पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश
का पोस्टमार्टम करने आए हैं क्या? हंसकर सवाल टालते हुए कहा कि मैडम ऐसा
नहीं है, बस बाल कि खाल निकालने कि आदत है इसलिए मजबूर हूं। यह सवाल काफी
समय से खटक रहा था। कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक
से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज कि किताब ए लैम्प फार
इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित। उस किताब मे तथाकथित गंगाधर का चित्र
छपा था। जिसके अनुसार गंगाधर असल में एक सुन्नी मुसलमान थे जिनका असली
नाम था गयासुद्दीन गाजी। इस फोटो को दिखाते हुए हाफीजा ने कहा कि इसकी
पुष्टि के लिए नेहरू ने जो आत्मकथा लिखी है, उसको पढऩा जरूरी है। नेहरू की
आत्मकथा भी अपने रैक से निकालते हुए एक पेज को पढऩे को कहा। इसमें एक
जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के पिता गंगा धर थे। इसी तरह
जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत
बहादुरशाह जफर के समय में नगर कोतवाल थे। अब इतिहासकारो ने खोजबीन की तो
पाया कि बहादुरशाह जफ र के समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर
नहीं था। और खोजबीन करने पर पता चला कि उस वक्त के दो नायब कोतवाल हिन्दू
थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे।
लेकिन किसी गंगा धर नाम के व्यक्ति का कोई रिकार्ड नहीं मिला है। नेहरू
राजवंश की खोज में मेहदी हुसैन की पुस्तक बहादुरशाह जफर और 1857 का गदर
में खोजबीन करने पर मालूम हुआ। गंगा धर नाम तो बाद में अंग्रेजों के
कहर के डर से बदला गया था,असली नाम तो था गयासुद्दीन गाजी।
जब
अंग्रेजों ने दिल्ली को लगभग जीत लिया था तब मुगलों और
मुसलमानों के दोबारा विद्रोह के डर से उन्होंने दिल्ली के सारे हिन्दुओं
और मुसलमानों को शहर से बाहर करके तम्बुओं में ठहरा दिया था। जैसे कि आज
कश्मीरी पंडित रह रहे हैं। अंग्रेज वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे जो
हिन्दू राजाओं-पृथ्वीराज चौहान ने मुसलमान आ•्रांताओंजीवित छोडकर की
थी,इसलिये उन्होंने चुन-चुन कर मुसलमानों को मारना शुरु किया । लेकिन कुछ
मुसलमान दिल्ली से भागकर पास के इलाको मे चले गये थे। उसी समय यह परिवार
भी आगरा की तरफ कुच कर गया। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा
जाते समय उनके दादा गंगा धर को अंग्रेजों ने रोककर पूछताछ की थी लेकिन
तब गंगा धर ने उनसे कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं कश्मीरी पंडित हैं और
अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया बाकी तो इतिहास है ही । यह धर उपनाम
कश्मीरी पंडितों में आमतौर पाया जाता है और इसी का अपभ्रंश होते-होते और
धर्मान्तरण होते-होते यह दर या डार हो गया जो कि कश्मीर के अविभाजित
हिस्से में आमतौर पाया जाने वाला नाम है। लेकिन मोतीलाल ने नेहरू उपनाम
चुना ताकि यह पूरी तरह से हिन्दू सा लगे। इतने पीछे से शुरुआत करने का
मकसद सिर्फ यही है कि हमें पता चले कि खानदानी लोगों कि असलियत क्या होती
है।
एक
कप चाय खत्म हो गयी थी, दूसरी का आर्डर हाफीजा ने देते हुए के एन प्राण
कि पुस्तक द नेहरू डायनेस्टी निकालने के बाद एक पन्ने को पढऩे को
दिया। उसके अनुसार जवाहरलाल मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और
मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर । यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल
कि एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू । कमला नेहरू उनकी माता का
नाम था। जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी। कमला शुरु से ही
इन्दिरा के फिरोज से विवाह के खिलाफ थीं क्यों यह हमें नहीं बताया जाता।
लेकिन यह फि रोज गाँधी कौन थे? फिरोज उस व्यापारी के बेटे थे जो आनन्द
भवन में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था। आनन्द भवन का असली
नाम था इशरत मंजिल और उसके मालिक थे मुबारक अली। मोतीलाल नेहरू पहले
इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे। सभी जानते हैं की राजीव गाँधी
के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के
साथ ही दादा भी तो होते हैं। फि र राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या
था? किसी को मालूम नहीं, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान। एक
मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाई करता था और जिसका मूल
निवास था जूनागढ गुजरात में है। नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और
उसे मुस्लिम बनाया। फिरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम
था घांदी (गाँधी नहीं)घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था। विवाह से
पहले फि रोज गाँधी ना होकर फिरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली
कारण भी यही था। हमें बताया जाता है कि फिरोज गाँधी पहले पारसी थे यह मात्र
एक भ्रम पैदा किया गया है । इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार
थीं । शांति निकेतन में पढ़ते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित
व्यवहारके लिये निकाल बाहर किया था। अब आप खुद ही सोचिये एक तन्हा जवान
लडक़ी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया
पर पड़ी हुई हों थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी विपरीत लिंग
की ओर, इसी बात का फायदा फिरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फुसलाकर
उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली। नाम
रखा मैमूना बेगम। नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए लेकिन अब
क्या किया जा सकता था। जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो
उन्होंने नेहरू को बुलाकर समझाया। राजनैतिक छवि की खातिर फिरोज को मनाया
कि वह अपना नाम गाँधी रख ले, यह एक आसान काम था कि एक शपथ
पत्र के जरिये बजाय धर्म बदलने के सिर्फ नाम बदला जाये तो फिरोज खान
घांदी बन गये फिरोज गाँधी। विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले
और सत्य के साथ मेरे प्रयोग नामक आत्मकथा लिखने वाले गाँधी ने इस बात का
उल्लेख आज तक नहीं नहीं किया। खैर उन दोनों फिरोज और इन्दिरा को भारत
बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुन: वैदिक रीति से उनका
विवाह करवाया गया ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक का भ्रम बना रहे । इस
बारे में नेहरू के सेकेरेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक प्रेमेनिसेन्सेस ऑफ
नेहरू एज ;पृष्ट 94 पैरा 2 (अब भारत में प्रतिबंधित है किताब) में लिखते
हैं कि पता नहीं क्यों नेहरू ने सन 1942 में एक अन्तर्जातीय और
अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी
जबकि उस समय यह अवैधानिक था का कानूनी रूप से उसे सिविल मैरिज होना चाहिये
था । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद
इन्दिरा और फि रोज अलग हो गये थे हालाँकि तलाक नहीं हुआ था ।
फिरोज
गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे और
नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे। तंग आकर
नेहरू ने फिरोज के तीन मूर्ति भवन मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था ।
मथाई लिखते हैं फिरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बड़ी राहत मिली
थी। 1960 में फिरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी जबकी वह
दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे। संजय गाँधी का असली नाम दरअसल
संजीव गाँधी था अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम
रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार
चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था। ब्रिटेन
में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का
नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था, इन्हीं कृष्ण
मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था ।
अब संयोग पर संयोग देखिये संजय गाँधी का विवाह मेनका आनन्द से हुआ। कहा
जाता है मेनका जो कि एक सिख लडकी थी संजय की रंगरेलियों की वजह से उनके
पिता कर्नल आनन्द ने संजय को जान से मारने की धमकी दी थी फि र उनकी शादी
हुई और मेनका का नाम बदलकर मानेका किया गया क्योंकि इन्दिरा गाँधी को यह
नाम पसन्द नहीं था। फिर भी मेनका कोई साधारण लडकी नहीं थीं क्योंकि उस
जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के लिये सिर्फ एक तौलिये में विज्ञापन
किया था। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संजय गाँधी अपनी माँ को ब्लैकमेल
करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कामो पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला
और उसे अपनी मनमानी करने कि छूट दी । एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ 206
पर लिखते हैं - 1948 में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक
नाम श्रद्धा माता था। वह संस्कत की विद्वान थी और कई सांसद
उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे । वह भारतीय पुरालेखों और सनातन
संस्कृत की अच्छी जानकार थी। नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय
ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को
एक इंटरव्यू देने को राजी हुए । चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत
था। नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये ।
मथाई के शब्दों में एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा वह बहुत
ही जवान खूबसूरत और दिलकश थी। एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय
श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर
नेहरू के पास आये नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया और अचानक एक दिन श्रद्धा
माता गायब हो गईं किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं । नवम्बर 1949 में
बेंगलूर के एक कान्वेंट से एक सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर
आया। उसने कहा कि उत्तर भारत से एक युवती उस कान्वेंट में कुछ महीने पहले
आई थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया । उस युवती ने अपना नाम पता नहीं
बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को वहाँ छोडकर गायब
हो गई थी । उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो
प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने
अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया । मथाई लिखते हैं . मैने उस बच्चे और उसकी
माँ की खोजबीन की काफी कोशिश की लेकिन कान्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस जो कि
एक विदेशी महिला थी बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक
शब्द भी किसी से नहीं क हा लेकिन मेरी इच्छा थी कि उस बच्चे का पालन-पोषण
मैं करुँ और उसे रोमन कथोलिक संस्कारो में बड़ा करूँ चाहे उसे अपने पिता
का नाम कभी भी मालूम ना हो लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था। नेहरू
राजवंश की कुंडली जानने के बाद घड़ी की तरफ देखा तो शाम पांच बज गए थे,
हाफीजा से मिली ढेरों प्रमाणिक जानकारी के लिए शुक्रिया अदा करना दोस्ती
के वसूल के खिलाफ था, इसलिए फिर मिलते हैं कहकर चल दिए अमर उजाला जम्मू
दफ्तर की ओर।
•्रमश:
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