नरेगा से नाराजगी क्यों ?
सीतापुर,
हरदोई, रायबरेली, उन्नाव व बाराबंकी ये पांचों जिलों की सरहदें सूबे की
राजधानी से जुड़ी हुई है। यहां पर नरेगा योजना में करोड़ों का घोटाला होता
रहा और मण्डलायुक्त, डीएम, सीडीओ स्तर के जिम्मेदार अफसर हाथ पर हाथ धरे
रहे। राज्य में कमोबेष हर जिले में यही हालात है। पूर्वांचल हो या पष्चिमी
अंचल के जिले, बुंदेलखंड हो या रूहेलखण्ड, राज्य सरकार की लापरवाही का
शिकार हो गई केन्द्र की महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी
योजना (नरेगा)। इसका मुख्य कारण रहा मायावती का केन्द्र सरकार से टकराव।
यूँ हजारों करोड़ की स्मारकों, प्रतिमाओं, उद्यानों एवं अन्य सुन्दरीकरण योजनाओं पर राज्य सरकार विकास में आए धन को पानी की तरह बहाती रही। हार कर हाई कोर्ट व मानसिकता के अधिकारियों को लताड़ सुनानी पड़ी। बजट का बड़ा हिस्सा बसपा के कथित आदर्श एवं मुख्यमंत्री की प्रतिमाओं, बसपा के चुनाव चिन्ह हाथियों के निर्माण, स्मारकों पर लखनऊ एवं नोएडा में खर्च करने की चिंता मुख्य सचिव अतुल गुप्ता, मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव कुं. फतेह बहादुर सिंह, पंसदीदा अफसर शंषाक शेखर, विजय शंकर पाण्डेय, महेष गुप्ता, सहित पुलिस आला अधिकारियों को रही। वहीं आम ग्रामीण, गरीबों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के घरो में चूल्हा जलवाने वाली नरेगा योजना के प्रति राज्य सरकार की संवेदना व सक्रियता क्यों मद्विम पड़ गई।
यही कारण है कि इस योजना में ग्राम प्रद्यानों, ग्राम विकास अधिकारियों व अन्य जिम्मेदार नौकरषाहों ने जमकर लुटाई की। चूंकि इस योजना को कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने शुरू किया था और अब इसका नाम महात्मा गांधी के नाम पर हो गया इसलिए बसपा सुप्रीमों का रूख इसके प्रति टेढ़ा-टेढ़ा सा है। नरेगा योजना की लोकप्रियता का फायदा पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने ही उठाया एवं बसपा नेत्री मायावती को आषातीत सफलता नहीं मिली इसलिए शायद वे नरेगा से खुन्नस रखे हुए है।
यदि इस योजना में हुए घोटालों की सही ढंग से जांच हो जाए तो अनेक आला अफसर नप जाएंगे। क्योंकि इस योजना की मॉनीटरिंग की जिम्मेदारी डीडीओ, सीडीओ, और डीएम कमिष्नर की है। बहिन जी को खुश रखने व कृपा पात्र बने रहने के चक्कर में अफसरों ने इस योजना को हासिए पर रखा। जबकि इसका सबसे ज्यादा फायदा दलितों-गरीबों को ही मिलता। लेकिन राज्य सरकार के केन्द्र से छत्तीस के आंकड़े के चलते यह महत्वाकांक्षी योजना दम तोड़ रही है।
इस योजना का हश्र इतना बुरा है कि कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में उन्होंने स्वयं कई गड़बड़ियां पकड़ी। राहुल के संसदीय क्षेत्र अमेठी में भी नरेगा की हालत पतली है। चूंकि योजना का क्रियान्वयन सूबे की सरकार को करना है, इसलिए नरेगा का असली लाभ लाभार्थियों को नहीं मिल पा रहा है।
सिर्फ सितम्बर माह में राय में नरेगा में करीब १३ सौ गड़बड़ियों की षिकायत मिली। यह संख्या बढ़ भी सकती। न केवल बसपा के ग्राम प्रधान बल्कि सपा, कांग्रेस व भाजपा मानसिकता के ग्राम प्रधानों ने इस योजना में डाका डाला। हालांकि सत्ता से जुड़े ग्राम प्रधानों को बचाने के लिए क्षेत्रीय विधायक ब्लाक प्रमुख, अफसरों ने कथित रूप से कोषिषे भी की। लेकिन कहीं-कहीं प्रबल जनविरोध एवं विपक्षी नेताओं की सक्रियता के पहले रिपोर्ट दर्ज की गई। मात्र सैतालिस एफआईआर दर्ज हो पाई। क्योंकि राजनीतिक दबाव के चलते पुलिस भी हाथ-पांव बचा कर काम कर रही है।
नेता विपक्ष षिवपाल सिंह यादव का आरोप है कि जनता के धन को भ्रष्ट अधिकारी व प्रधान खा रहे है। इसमें सत्तारूढ़ दल के कतिपय नेताओं का भी हाथ है। मात्र ४५ अधिकारियों को दोषी पाया गया और ३० कर्मचारियों सहित ४५ लोगों पर कार्यवाही की गई। यदि इस मामले की सही जांच हो जाए तो हजारों ग्राम प्रधान व ग्राम विकास अधिकारी जेल की सलाखों के पीछे होते। शायद राज्य सरकार ग्राम प्रधानों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती।
जब विपक्ष व मीडिया ने नरेगा में हो रहे घोटालों पर निषाना साधना शुरू कर दिया तो केन्द्र को चुप कराने की गरज से मुख्यमंत्री ५० फीसदी लोगों को रोजगार दिया जाना चाहिए। लेकिन सूबे की सरकार महज २० फीसद लोगों को ही रोजगार मुहैया करा पाई। पूर्वांचल व बुंदेलखण्ड में तो मात्र १७ प्रतिषत लोगों को नरेगा से जोड़ा जा सका। यानी ,एक तिहाई लोग ही इस महत्वाकांक्षी योजना का लाभ उठा पाए। योजना के तहत सिर्फ १५ दिन के भीतर ही मजदूरी का भुगतान का किया जाना चाहिए। लेकिन नौकरशाहों की वजह से तीन-तीन महीने मजदूरी के लिए इंतजार करना पड़ रहा है।
राज्य शासन की इस नाकामी पर अब केन्द्र ने मॉनीटीिंग शुरू की है। इसके चलते मुख्यमंत्री ने नरेगा से संबंधित षिकायतों पर तुरंत निस्तारण किए जाने व पीड़ितों को शीघ्र व सुलभ लाभ दिलाने का आदेष दिया। मजदूरों की षिकायत पर रसीद दी जाएगी और उस पर उसका नम्बर अंकित होगा। पीड़ित फैक्स से भी षिकायत दर्ज करा सकेगा। लेकिन षिकायत दर्ज करने के लिए सहायक विकास अधिकारी एवं ग्राम पंचायत को अधिकृत किया गया है। जबकि षिकायत करने वालों की समस्या की जड़ ही ये लोग है। ऐसे में सूबेदार की यह योजना अव्यवहारिक है। मजदूर न तो ई-मेल करना जानता है और न ही सक्षम है। ऐसे में नरेगा की असफलता राज्य सरकार के माथे पर बदनुमा दाग बन रही है। यदि शासन चाहता तो इस योजना का पूरा लाभ दलितों मजलूमों व बेकारी झेल रहे लोगों को मिल जाता। पर सियासत की चौसर में केन्द्र का पंगा अपने ही मोहरों को पीट रहा है।
यूँ हजारों करोड़ की स्मारकों, प्रतिमाओं, उद्यानों एवं अन्य सुन्दरीकरण योजनाओं पर राज्य सरकार विकास में आए धन को पानी की तरह बहाती रही। हार कर हाई कोर्ट व मानसिकता के अधिकारियों को लताड़ सुनानी पड़ी। बजट का बड़ा हिस्सा बसपा के कथित आदर्श एवं मुख्यमंत्री की प्रतिमाओं, बसपा के चुनाव चिन्ह हाथियों के निर्माण, स्मारकों पर लखनऊ एवं नोएडा में खर्च करने की चिंता मुख्य सचिव अतुल गुप्ता, मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव कुं. फतेह बहादुर सिंह, पंसदीदा अफसर शंषाक शेखर, विजय शंकर पाण्डेय, महेष गुप्ता, सहित पुलिस आला अधिकारियों को रही। वहीं आम ग्रामीण, गरीबों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के घरो में चूल्हा जलवाने वाली नरेगा योजना के प्रति राज्य सरकार की संवेदना व सक्रियता क्यों मद्विम पड़ गई।
यही कारण है कि इस योजना में ग्राम प्रद्यानों, ग्राम विकास अधिकारियों व अन्य जिम्मेदार नौकरषाहों ने जमकर लुटाई की। चूंकि इस योजना को कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने शुरू किया था और अब इसका नाम महात्मा गांधी के नाम पर हो गया इसलिए बसपा सुप्रीमों का रूख इसके प्रति टेढ़ा-टेढ़ा सा है। नरेगा योजना की लोकप्रियता का फायदा पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने ही उठाया एवं बसपा नेत्री मायावती को आषातीत सफलता नहीं मिली इसलिए शायद वे नरेगा से खुन्नस रखे हुए है।
यदि इस योजना में हुए घोटालों की सही ढंग से जांच हो जाए तो अनेक आला अफसर नप जाएंगे। क्योंकि इस योजना की मॉनीटरिंग की जिम्मेदारी डीडीओ, सीडीओ, और डीएम कमिष्नर की है। बहिन जी को खुश रखने व कृपा पात्र बने रहने के चक्कर में अफसरों ने इस योजना को हासिए पर रखा। जबकि इसका सबसे ज्यादा फायदा दलितों-गरीबों को ही मिलता। लेकिन राज्य सरकार के केन्द्र से छत्तीस के आंकड़े के चलते यह महत्वाकांक्षी योजना दम तोड़ रही है।
इस योजना का हश्र इतना बुरा है कि कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में उन्होंने स्वयं कई गड़बड़ियां पकड़ी। राहुल के संसदीय क्षेत्र अमेठी में भी नरेगा की हालत पतली है। चूंकि योजना का क्रियान्वयन सूबे की सरकार को करना है, इसलिए नरेगा का असली लाभ लाभार्थियों को नहीं मिल पा रहा है।
सिर्फ सितम्बर माह में राय में नरेगा में करीब १३ सौ गड़बड़ियों की षिकायत मिली। यह संख्या बढ़ भी सकती। न केवल बसपा के ग्राम प्रधान बल्कि सपा, कांग्रेस व भाजपा मानसिकता के ग्राम प्रधानों ने इस योजना में डाका डाला। हालांकि सत्ता से जुड़े ग्राम प्रधानों को बचाने के लिए क्षेत्रीय विधायक ब्लाक प्रमुख, अफसरों ने कथित रूप से कोषिषे भी की। लेकिन कहीं-कहीं प्रबल जनविरोध एवं विपक्षी नेताओं की सक्रियता के पहले रिपोर्ट दर्ज की गई। मात्र सैतालिस एफआईआर दर्ज हो पाई। क्योंकि राजनीतिक दबाव के चलते पुलिस भी हाथ-पांव बचा कर काम कर रही है।
नेता विपक्ष षिवपाल सिंह यादव का आरोप है कि जनता के धन को भ्रष्ट अधिकारी व प्रधान खा रहे है। इसमें सत्तारूढ़ दल के कतिपय नेताओं का भी हाथ है। मात्र ४५ अधिकारियों को दोषी पाया गया और ३० कर्मचारियों सहित ४५ लोगों पर कार्यवाही की गई। यदि इस मामले की सही जांच हो जाए तो हजारों ग्राम प्रधान व ग्राम विकास अधिकारी जेल की सलाखों के पीछे होते। शायद राज्य सरकार ग्राम प्रधानों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती।
जब विपक्ष व मीडिया ने नरेगा में हो रहे घोटालों पर निषाना साधना शुरू कर दिया तो केन्द्र को चुप कराने की गरज से मुख्यमंत्री ५० फीसदी लोगों को रोजगार दिया जाना चाहिए। लेकिन सूबे की सरकार महज २० फीसद लोगों को ही रोजगार मुहैया करा पाई। पूर्वांचल व बुंदेलखण्ड में तो मात्र १७ प्रतिषत लोगों को नरेगा से जोड़ा जा सका। यानी ,एक तिहाई लोग ही इस महत्वाकांक्षी योजना का लाभ उठा पाए। योजना के तहत सिर्फ १५ दिन के भीतर ही मजदूरी का भुगतान का किया जाना चाहिए। लेकिन नौकरशाहों की वजह से तीन-तीन महीने मजदूरी के लिए इंतजार करना पड़ रहा है।
राज्य शासन की इस नाकामी पर अब केन्द्र ने मॉनीटीिंग शुरू की है। इसके चलते मुख्यमंत्री ने नरेगा से संबंधित षिकायतों पर तुरंत निस्तारण किए जाने व पीड़ितों को शीघ्र व सुलभ लाभ दिलाने का आदेष दिया। मजदूरों की षिकायत पर रसीद दी जाएगी और उस पर उसका नम्बर अंकित होगा। पीड़ित फैक्स से भी षिकायत दर्ज करा सकेगा। लेकिन षिकायत दर्ज करने के लिए सहायक विकास अधिकारी एवं ग्राम पंचायत को अधिकृत किया गया है। जबकि षिकायत करने वालों की समस्या की जड़ ही ये लोग है। ऐसे में सूबेदार की यह योजना अव्यवहारिक है। मजदूर न तो ई-मेल करना जानता है और न ही सक्षम है। ऐसे में नरेगा की असफलता राज्य सरकार के माथे पर बदनुमा दाग बन रही है। यदि शासन चाहता तो इस योजना का पूरा लाभ दलितों मजलूमों व बेकारी झेल रहे लोगों को मिल जाता। पर सियासत की चौसर में केन्द्र का पंगा अपने ही मोहरों को पीट रहा है।
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