उड़ीसा – लोअर सुकतेल प्रोजेक्ट- विकास के बहाने?
क्या सुकतेल प्रोजेक्ट की मांग
कर रहे लोगों की सरकार के साथ बात हो गई है. क्या सहमति बन गई है कि कृषि
क्षेत्र के लिए कितना पानी मिलेगा, प्यासे बोलांगीर के लिए कितना पानी
मिलेगा और कितना पानी एल्यूमिनियम उद्योग के लिए जाएगा? ऐसे कई सवाल हैं,
जिनके जवाब की प्रतीक्षा है. आइए देखते हैं क्या कहती है चौथी दुनिया की यह
रिपोर्ट?
उड़ीसा में एलएसपी विस्थापन कार्य के लिए अब तक 385 करोड़ रुपये की
धनराशि ख़र्च की जा चुकी है, लेकिन अभी तक लोग निर्माण कार्य स्वीकार करने
के लिए तैयार नहीं हैं. स्थानीय पत्रकार पूर्णचंद्र पांडा कहते हैं कि 385
करोड़ रुपये की धनराशि का 30 प्रतिशत से अधिक हिस्सा सरकारी अधिकारियों,
स्थानीय राजनीतिक लोगों एवं चापलूसों की जेब में जा चुका है. आर ऐंड आर
नीति के तहत प्रत्येक डग वेल के लिए मंजूर धनराशि वास्तविक लागत का मुश्किल
से 10 प्रतिशत है. ग्रामीण अपने मकान और कृषि भूमि के लिए दिए जा रहे
मुआवज़ा पैकेज को लेकर असंतुष्ट हैं. दूसरी ओर बाहरी ज़मीन ख़रीदने के लिए
मिल रही मुआवज़ा राशि बिल्कुल अपर्याप्त है. हैरानी की बात तो यह है कि
फलदार पेड़ों के बदले में सरकार ने केवल क्षतिपूर्ति करने का वादा किया है.
हालांकि पहले कुछ लोग सरकार का समर्थन कर ज़रूर रहे थे, लेकिन अब वे भी
नाराज़ हैं.
दरअसल, उड़ीसा में बांधों के लिए जगह खाली कराने और लोगों को बेदखल करने
के लिए बल प्रयोग का एक लंबा इतिहास रहा है. पचास के दशक में ही हीराकुंड
बांध के लिए जगह खाली कराने को लेकर बल का इस्तेमाल किया गया था. जुलाई के
महीने में जब बारिश हो रही थी और रिजर्वायर को भरा जा रहा था, तब उड़ीसा
आर्म्ड पुलिस ने फ्लैग मार्च किया. ग्रामीणों में इतना ज़्यादा आतंक था कि
वे अपने वैध मुआवजे का दावा करने के लिए भी वापस अपने गांवों में नहीं आ
पाए! उनके मन में डर इस कदर व्याप्त था कि उन्होंने अपना क़ीमती सामान
इकट्ठा करने के लिए वापस आना मुनासिब ही नहीं समझा. यह दृश्य फकीर मोहन
सेनापति द्वारा उनके उपन्यास लछमा में वर्णित क्रूर मराठा बरगी हमले की याद
दिलाता है. तब स्वतंत्र भारत बहुत नया था, लेकिन आज 65 साल बाद क्या हो
रहा है? क्या स्वतंत्र भारत परिपक्व हो गया है? क्या इसने अधिक परिपक्वता
के साथ भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के संवेदनशील मुद्दे को संभालने के लिए
कुछ सीखा है? नहीं, इन सवालों का कोई जवाब नहीं है. 1997 के दौरान उड़ीसा
के अविभाजित बोलांगीर जिले में लोअर सुकतेल प्रोजेक्ट (एलएसपी) के बारे में
पहली बार, जब एच डी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री थे, चर्चा हुई थी. लोअर सुकतेल
एक नदी है, जो पश्चिमी उड़ीसा के बोलांगीर शहर से बहुत दूर नहीं है.
उड़ीसा सरकार सुकतेल नदी पर एक बांध बनाने की कोशिश कर रही है. यह बांध
एलएसपी के नाम से जाना जाता है. 1998 में केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी),
नई दिल्ली ने एलएसपी के लिए अपनी मंजूरी दे दी थी. शुरुआत में 1997 में
एलएसपी की परियोजना लागत 217 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया था, जो
कि अब 3200 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है. इस लागत वृद्धि के अनुमोदन के लिए
फाइल सीडब्ल्यूसी, नई दिल्ली के पास लंबित है. आधिकारिक सूत्रों के अनुसार,
अगर इसी तरह देरी होती रही, तो परियोजना की लागत प्रतिवर्ष 100 करोड़
रुपये से ऊपर बढ़ती ही रहेगी.
पहले ही दिन एलएसपी के प्रस्तावित कार्यान्वयन की सुनवाई में 30 गांवों
(सरकार द्वारा घोषित 26 गांव) के 35,000 से अधिक लोगों ने इसका विरोध किया.
दरअसल, इस तरह का जनविरोध देखकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने एलएसपी फ़ाइल
को ठंडे बस्ते में रख दिया. जब नवीन पटनायक पहली बार सत्ता में आए, तो फिर
से यह फाइल खोली गई और उन्होंने 24 नवंबर, 2001 को शिलान्यास करने के लिए
मागरूबेडा गांव का दौरा किया, लेकिन उन्हें ग्रामीणों के विरोध और क्रोध का
सामना करना पड़ा. मजबूरी में यहां से 2 किलोमीटर दूर एक गांव में एलएसपी
की नींव का पत्थर रखा गया. हालात की गंभीरता को देखते हुए बोलांगीर के
पुलिस अधीक्षक और कलेक्टर भी एलएसपी के मामले में आगे न बढ़ने की सलाह देते
नज़र आए.
एलएसपी विरोधी देश की अन्य बांध परियोजनाओं का विरोध कर रहे लोगों से
पूरी तरह अलग हैं. अपने घर और आजीविका के साधन बचाने के लिए लोग करने और
मरने के लिए तैयार हैं. उन्होंने आत्मघाती दस्ते, जिसका नाम मारोनो सेना
है, बना लिए हैं. एलएसपी की वजह से 26 बड़े गांवों के डूब जाने और क़रीब
10,500 परिवारों का जीवन, संस्कृति, विरासत और इतिहास बर्बाद हो जाने का
खतरा है. चितरंजन मिश्रा कहते हैं कि यदि एलएसपी पर काम शुरू हो जाता है,
तो आंदोलनकारी निश्चित रूप से ख़ून बहाने के लिए तैयार हो जाएंगे. शुरू से
ही राज्य सरकार ने लोगों को परेशान किया है और वह भी बिना किसी कारण के.
सरकार, जल संसाधन विभाग और विभिन्न दलों के नेता एलएसपी के पक्ष में बहस कर
रहे हैं. वे कहते हैं कि बोलांगीर एक निरंतर सूखा प्रभावित क्षेत्र है.
अविभाजित बोलांगीर जिले में सिंचाई के साधन दुनिया में सबसे कम हैं यानी
केवल तीन प्रतिशत. बोलांगीर में आज तक कोई बड़ी सिंचाई परियोजना नहीं शुरू
हुई, अल्प वर्षा होती है और पेयजल की समस्या गंभीर है. एलएसपी से इन
समस्याओं का समाधान निकलेगा. लेकिन विरोधी कहते हैं कि यह केवल राजनीतिक
बयान भर है. एलएसपी स़िर्फ कुछ लोगों के लिए ही है. गांव के लोग एवं वरिष्ठ
नागरिक सवाल करते हैं कि हज़ारों ग्रामीणों के जीवन की क़ीमत पर आ़िखर
क्यों चाहिए एलएसपी?
राज्य सरकार भूमि पुनर्वास के लिए ज़मीन देने की ज़िम्मेदारी से दूर
क्यों भाग रही है? वह पुनर्वास नीति के तहत इसे अनिवार्य क्यों नहीं मान
रही है? इसे लागू करने में उसे क्या मुश्किलें पेश आ रही हैं? अगर सरकार
परियोजना से प्रभावित लोगों के लिए ज़मीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती, तो फिर
विस्थापित लोगों को वह कैसे मिलेगी? पुनर्वास सार्वजनिक उद्देश्य का
हिस्सा क्यों नहीं है? सार्वजनिक उद्देश्य के नाम पर लोगों को बेदखल तो
किया जा रहा है, लेकिन जब बात पुनर्वास की आती है, तो यह परियोजना से
प्रभावित लोगों के लिए एक निजी मामला हो जाता है. राज्य सरकार अगर लोगों के
भविष्य की देखभाल नहीं कर सकती, तो वह इन गांवों को डुबोने पर क्यों उतारू
है? क्या सुकतेल परियोजना क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले लोगों को पता है कि
उनका मुआवज़ा पैकेज क्या है. क्या उन्हें पता है कि कहां और कैसे उन्हें
दूसरी जगह पुनर्वासित किया जाएगा?
हीराकुंड के बाद कई बांध बने. हर जगह राज्य सरकार ने भूमि अधिग्रहण के
लिए बल का इस्तेमाल किया, चाहे वह रेंगाली में हो या इंद्रावती या फिर
दूरदराज के एक कोने में एक छोटा सा बांध बनाने के लिए. रेंगाली मामले में
जलाशय भले ही भरा था, लेकिन लोगों को आखिरकार बेदखल नहीं किया जा सका.
हालांकि बाद में नाव की मदद से असहाय ग्रामीणों को बचाया गया था. हीराकुंड
से लेकर सुकतेल तक के बीच साठ साल बीत गए, लेकिन भारत अपनी विस्थापित आबादी
का मसला हल करने में अभी तक परिपक्व नहीं हुआ. इन आधुनिक मंदिरों के
निर्माण के नाम पर लोगों को बेदखल करने के लिए बल प्रयोग नहीं रुका. शायद
ही कोई विकास का मंदिर ऐसी ज़मीन पर बना हो, जहां की मिट्टी अपने बेटों एवं
बेटियों के खून से नहाई न हो. दरअसल, सुकतेल में भी यही हो रहा है.
राज्य सरकार का इस सबके प्रति एक बहुत ही साधारण जवाब होता है कि सब कुछ
क़ानून के अनुसार किया जा रहा है. वह कहती है कि यह भूमि सार्वजनिक
उद्देश्य के लिए ज़रूरी है. भले ही विस्थापित सहमत न हों, वह एकतऱफा इसे
प्राप्त कर लेती है. जिनके पूर्वजों ने यह ज़मीन हासिल की, इसका विकास
किया, उन्हें ही इसे फिर से हासिल करने के लिए लड़ना पड़ रहा है. इसी
मिट्टी के बेटों एवं बेटियों को अतिक्रमणकारी बताया जा रहा है. पूर्णचंद्र
पांडा कहते हैं कि सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाता
है. कहा जाता है कि यह राष्ट्रीय हित के लिए है, इसलिए कुछ लोगों को बलिदान
देना ही होगा, लेकिन सवाल यह है कि राज्य उन्हें वापस क्या देता है? लाठी
या जलसमाधि? राज्य ने कभी यह सोचा कि जिन विस्थापित लोगों के बलिदान की वजह
से देश प्रगति कर रहा है, क्या उन्हें कभी पुरस्कृत किया गया?
एक विशेष परियोजना का विश्लेषण किए जाने के कई तरीक़े हैं. किसी भी
उद्योग, बांध या अन्य परियोजना को जब क्रियान्वित किया जाता है, तब उससे
जुड़े लोगों पर विभिन्न प्रभाव पड़ते हैं. प्रभाव के दो प्रमुख कारक हैं,
लागत और लाभ. इस मामले में यहां बांध डूब क्षेत्र में लोग अपनी ज़मीन,
आजीविका और घर खो देंगे. दूसरी ओर बांध परियोजना से उद्योगों, विद्युत
उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण, मछली पालन, पेयजल और सिंचाई जैसे लाभ मिलेंगे.
इसमें सिंचाई सबसे सीधा लाभ है. इस वजह से परियोजना के विस्थापितों या
जलग्रहण आबादी और कमांड एरिया के किसानों के बीच बंटवारा हो जाता है. दूसरी
ओर कमांड क्षेत्र में लोगों को ख़री़फके दौरान सिंचाई के लिए पानी मिल
जाता है. कमांड क्षेत्र में जिस किसान के पास केवल 5 एकड़ ज़मीन है, उसे
ज़बरदस्त ़फायदा हो जाएगा. पानी मिलने से उसकी फसल पांच एकड़ ज़मीन में 10
एकड़ का लाभ देगी. लेकिन सवाल यह है कि इस परियोजना के लिए कमांड क्षेत्र
के लोगों ने क्या बलिदान किया? कुछ भी नहीं. सारा भुगतान तो जलग्रहण
क्षेत्र के लोग करते हैं और लाभ मिलता है कमांड क्षेत्र के लोगों को.
जल प्रबंधन विशेषज्ञ तपन पाधी कहते हैं कि एक बांध परियोजना इन दोनों
समुदायों, कैचमेंट एरिया और कमांड एरिया के बीच असमानताएं बढ़ाने में खासी
भूमिका निभाती है. एक बहुत ही वास्तविक सवाल यहां उठता है कि कमांड क्षेत्र
के किसान बांध के लिए बलिदान के रूप में जलग्रहण क्षेत्र के किसानों के
साथ अपनी ज़मीन में हिस्सेदारी क्यों नहीं कर सकते? यह क़दम लागत के साथ ही
परियोजना के लाभ भी साझा करने में मदद करेगा. स्थानीय पत्रकार संजय मिश्रा
कहते हैं कि सरकार ने निश्चित रूप से प्रतिरोध का कारण कम करने के बारे
में नहीं सोचा. वह 15 जनवरी से यह परियोजना शुरू करने के लिए सहमत हो गई
है. जिस तरह से परियोजना प्रभावित लोगों (जलग्रहण क्षेत्र) का कोई
प्रतिनिधि उस बैठक में नहीं था, उससे सा़फ है कि सरकार को स़िर्फ कमांड
क्षेत्र के हितों की चिंता है. प्रभावित समूह से दो लोगों को इसके लिए चुना
गया था, लेकिन वे सरकार के साथ सीधे बातचीत करना चाहते थे. अब आगे क्या
होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन सरकार को एक दशक से अधिक समय के बाद
सुकतेल प्रोजेक्ट पर आगे बढ़ने का मौक़ा ज़रूर मिल गया है, क्योंकि उसे
गंधमर्दन पहाड़ियों से एल्यूमिनियम की निकासी के लिए पानी की सख्त ज़रूरत
है.
जन्मभूमि और श्मशान भूमि को बचाना है
युवा किसान पवित्र कुमार गरतिया पिछले 13
सालों से एलएसपी का विरोध करते आ रहे हैं. उनके ख़िलाफ़ प्रशासन द्वारा कई
झूठे मामले दर्ज कराए जा चुके हैं. वह कई बार जेल भी जा चुके हैं. पेश है
उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश.
आप एलएसपी का विरोध क्यों कर रहे हैं?
मुझे अपने जन्म स्थान के साथ-साथ श्मशान भूमि को भी बचाना है. जंगल और
ज़मीन पर हमारा अधिकार है. मेरे अलावा, 29 गांवों के लोग एलएसपी का विरोध
कर रहे हैं.
बोलांगीर सूखा प्रभावित क्षेत्र
है, सिंचाई की सुविधा नहीं है, वर्षा कम होती है और पेयजल की भी कमी है.
राज्य सरकार कहती है कि एलएसपी से इन समस्याओं का समाधान हो जाएगा. आपकी
क्या प्रतिक्रिया है?
लोअर सुकतेल नदी कभी भी बोलांगीर में बारहमासी सूखे की स्थिति के लिए एक
समाधान नहीं हो सकती, क्योंकि इस नदी में मानसून के दौरान ही कुछ पानी
मिलता है. हमारे इलाके में सूखे का कोई डर नहीं है. एलएसपी को 1997 में
शुरू किया गया था. सरकार हमें यह बताए कि तबसे हमारा इलाका कितनी बार सूखे
से पीड़ित हुआ. खापराखोल, टिटलागढ़, कांताबांझी और नौपारा ज़्यादा सूखा
प्रभावित क्षेत्र हैं. बड़ी नदी तेल वहां है. क्यों नहीं वहां प्रोजेक्ट ले
जाया जाता? लोअर सुकतेल नदी अपर सुकतेल नदी की छोटी सहायक नदी है और तेल
नदी की उपशाखा है. हमारे क्षेत्र में सिंचाई या पेयजल की कोई समस्या नहीं
है. यह 60,000 से अधिक ग़रीब ग्रामीणों के विस्थापन और परेशानी की क़ीमत पर
कुछ समुदायों को लाभ पहुंचाने के लिए एक सुनियोजित रणनीति मालूम पड़ती है.
यहां सरकार की क्या गतिविधियां चल रही हैं?
सरकार केवल हमारे आंदोलन को नाकाम करने की कोशिश कर रही है. वह बांटो और
राज करो की नीति चला रही है, लेकिन अब तक नाकाम रही है. अब सरकारी
अधिकारियों ने भूमि बंधक के बदले बड़े पैमाने पर ऋण वितरण का नया खेल खेला
है. मक़सद है कि लोग अपना ऋण चुकाने में असमर्थ हो जाएंगे और भूमि सरकार को
मिल जाएगी. इसके अलावा, जिला प्रशासन ने चुपके से ग्रामीणों से भूमि
ख़रीदने के लिए स्थानीय व्यापारियों का इस्तेमाल किया. ग्रामीणों को लगा कि
वे स्थानीय व्यापारियों के हाथों ज़मीन बेच रहे हैं, न कि सरकार के
हाथों. 7 गांवों के लोग सरकार की इस चालबाज़ी में फंसकर अपनी ज़मीन गंवा
चुके हैं. इस प्रक्रिया के माध्यम से दलालों की जेब में पैसे चले गए. दलाल
जुआ और शराब व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं. इस तरह गांव वालों को ज़मीन
बेचने से मिले लाखों रुपये केवल एक वर्ष के भीतर खत्म हो जाएंगे.
सरकार की नीतियों के बारे में और क्या कहेंगे?
अब नए दलाल ग्रामीणों की ज़मीन ख़रीदने के लिए सामने आ रहे हैं. यह
जानकारी तब मिली, जब खापसाबहल और बिजापुट गांव की खबर सामने आई. नए दलालों
ने वहां बहुत कम क़ीमत पर ज़मीन ख़रीदी और बहुत ऊंची क़ीमत पर सरकार को बेच
दी. उक्त ग्रामीण मदद के लिए हमारे पास आए थे. सरकार से हमारा सवाल है कि
जब उसने खुद ही 1997 के बाद से इस इलाके की ज़मीनों कीख़रीद-बिक्री को
ग़ैर-क़ानूनी बना दिया है, तब ऐसे में दलाल किस तरीक़े से ग्रामीणों से
ज़मीन ख़रीद रहे हैं?
सरकार जब भूमि एवं घर आदि की सुविधा प्रदान करेगी, तो फिर आप क्यों विरोध कर रहे हैं?
कहने और करने में बहुत फर्क़ है. 50 साल बीत चुके हैं, हीराकुंड से
विस्थापित लोगों के लिए सरकार ने अब तक क्या किया? मैं जल संसाधन विभाग को
चुनौती दे रहा हूं कि वह उड़ीसा में कोई एक ऐसा उदाहरण बताए कि उसने कब
अपने वादे के मुताबिक पुनर्वास के लिए कुछ किया? फिर, कृषि भूमि और बंजर
भूमि के बीच एक अंतर है. कालीमति गांव में सरकार ने उपजाऊ भूमि के बदले
बंजर भूमि दे दी. एक परिवार जंगल के उत्पाद से सालाना 20 से 50 हज़ार रुपये
कमाता है. हम वृक्षों एवं पहाड़ियों की पूजा करते आए हैं. विस्थापन के बाद
सरकार हमें यह सब कैसे दे पाएगी? इस विस्थापन से हमारी जीवनशैली, धर्म,
संस्कृति और विरासत के विलुप्त हो जाने का ़खतरा है. शहरी और औद्योगिक
घरानों के लिए सरकार हमें भेड़ के बच्चे के रूप में कसाईखाने भेजना चाहती
है.
क्या आपको लगता है कि सरकार गोपनीयता बरत रही है और उसके इरादे नेक नहीं हैं?
हां, बिल्कुल. गंधमर्दन बॉक्साइट माइन्स और उद्योगों की पानी की
आवश्यकता इस परियोजना के माध्यम से पूरी होगी. एलएसपी से पहले यह प्रोजेक्ट
अंगा नदी पर बनाने की योजना थी, लेकिन स्थानीय राजनीतिक नेताओं ने अपने
निजी हितों के चलते ऐसा होने नहीं दिया.
आप 19 सालों तक जल संसाधन विभाग
के फील्ड स्टाफ रहे हैं. आपने विस्थापन का दंश क़रीब से देखा है. अपने
व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में बताएं…
मैंने विस्थापित लोगों की समस्याएं देखी हैं. मैं नहीं चाहता कि मेरे
गांव के लोग भी वही सब झेलने पर मजबूर हो जाएं. एक बार तत्कालीन उप कलेक्टर
नागेंद्र मूंद मेरे गांव आए और बताया कि उन्होंने कई विस्थापित गांवों में
काम किया है और सफलतापूर्वक लोगों का पुनर्वास कराया है. अब वे ख़ुश हैं
और शांतिपूर्ण जीवन जी रहे हैं. उन्होंने कहा कि आप और आपके गांव के लोग
हमें सहयोग दें, हम सफलतापूर्वक विस्थापन और पुनर्वास का काम कर लेंगे.
मैंने कहा कि सर, मैंने आपके साथ काम किया था. आपने हरिहर जोर गांव के लिए
क्या किया? मैंने 40 अनब्याही मांओं के लिए कुछ करने को कहा था, आपने क्या
किया? कुछ भी नहीं. आप केवल बांधों के निर्माण के लिए कुछ प्रवासी मज़दूर
ले आएंगे, ग़रीबों की ज़िंदगी बर्बाद करेंगे, लेकिन विस्थापितों के लिए कुछ
नहीं करेंगे. जब मैंने ऐसा कहा, तो मुझे आईपीसी की धारा 475 के तहत
गिरफ्तार कर लिया गया. मैं जब जेल में बंद था, तो मेरे 16 बड़े आम के पेड़
जबरन काट दिए गए.
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