बुधवार, 12 जून 2013

मिशन 2014 : सपा बनाम बसपा

विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार बसपा सुप्रीमो मायावती ने यह स्वीकार किया है कि भितरघात के कारण ही उनकी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा था. उनकी पार्टी के कुछ स्वार्थी लोगों ने विरोधी दलों के हाथों में खेलकर घिनौना कार्य किया है. पार्टी में एक बड़ा बदलाव करते हुए मायावती ने बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य को बसपा का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया है. मायावती लगातार विधानसभा चुनाव के परिणाम की समीक्षा कर रहीं हैं. 2014 उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है. किसी भी तरह वह लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करना चाहती हैं. उनके इस सफर को अखिलेश की अनुभवहीनता आसान बना रही है. दूसरी तरफ सपा सुप्रीमो भी सरकार के कामकाज को लेकर खुश नहीं दिखाई दे रहे हैं. उन्होंने अगले दो महीने में सरकार को अपने कामकाज में सुधार करने की नसीहत दे डाली है जबकि कुछ दिन पहले ही अखिलेश सरकार के 100 दिन पूरे होने पर मुलायम ने उन्हें सौ में सौ अंक दिए थे. अपनों की लड़ाई में मायावती की ताकत को फिर से बढ़ता देख मुलायम व्याकुल से हो गए हैं. अगर सरकार का कामकाज का रवैया ऐसा ही रहा तो मुलायम का प्रधानमंत्री बनने का सपना कभी पूरा नहीं हो पाएगा.
बसपा ने 2014 के चुनाव की अहमियत को देखकर फूंक फूंक कर कदम रखना शुरू कर दिया है. सबसे पहले बसपा ने जमीनी स्तर पर चुनाव परिणामों की समीक्षा की इसके बाद पार्टी के संगठन में मूलभूत बदलाव कर दिए. पूर्व प्रदेश को अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य को उनके पद से हटाते हुए राष्ट्रीय संगठन की जिम्मेदारी दे दी. इसके साथ ही उन्होंने प्रदेश की जिम्मेदारी पूर्व मंत्री रामअचल राजभर को सौंप दी. प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा था कि उन्हें 2014 के चुनाव को ध्यान में रखकर अन्य जिम्मेदारियां दी गई हैं. इसलिए मुझे इस पद की जिम्मेदारी ली गई है. उन्होंने कहा कि राजभर को रणनीति के तहत अध्यक्ष बनाया गया है. अब स्वामी प्रसाद को राष्ट्रीय महासचिव बनाया जाना सीधे सीधे पार्टी का जनाधार अन्य पिछड़े वर्ग के बीच में बढाने की ओर इशारा करता है. बसपा सपा के पिछड़े वर्ग के उस वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है जिसका सपा को हमेशा से समर्थन मिलता रहा है.
उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार बन गई है. अगला विधान सभा चुनाव होने में अभी देरी है लेकिन लोक सभा का चुनाव निकट है. उसके लिए उत्तर प्रदेश की दोनो बड़ी पार्टियां तैयारी में जुट गई है. बसपा ने भी पिछले चुनाव में अपनी हार के कारणों को तलाशना शुरु कर दिया है तथा उसी के अनुसार आगे की रणनीति बनाना भी शुरू कर दिया है.
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी सरकार में रहते हुए लोगों के लिए नई नई योजनाओं की घोषणा करने में लगी हुई है. लेकिन सत्ता के बहुध्रुवीय होने और अखिलेश की अनुभवहीनता के कारण सरकार क़ानून व्यवस्था पर लग़ाम लगा पाने में लगातार नाकामयाब हो रही है. हाल ही में मथुरा के कोसीकलां, प्रतापगढ और बरेली में हुए सांप्रदायिक दंगों पर सरकार काबू नहीं कर पाई. सरकार सामान्य क़ानून व्यवस्था में भी मूलभूत सुधार नहीं कर पा रही है. एक तरफ लखनऊ में मायावती की मूर्ती का तोड़ा जाना और अफरा तफरी में दूसरी मूर्ति का लगाया जाना सरकार की डामाडोल स्थिति को दिखाता है. प्रदेश में बाबासाहब अंबेडकर सहित दलित महापुरुषों की मूर्तियों के तोड़े जाने की धटनाओं के बढ़ने के बाद बसपा ने सपा सरकार पर आरोप लगाया है कि प्रदेश में शरारती तत्व समानांतर सरकार चला रहे हैं. इसे देखते हुए प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिए.
1 जुलाई को 5000 करोड़ रुपये की नई योजनाओं का अखिलेश यादव ने शिलान्यास किया. यहां उन्होंने प्रदेश में सड़क, पुल, मंड़ी परिषद से संबंधित कई योजनाओं की घोषणा की. इस दौरान उन्होंने प्रदेश के विकास की बात कही लेकिन अखिलेश की अनुभवहीनता यहां भी आड़े आई और उन्होंने प्रोटोकॉल को तोड़ते हुए आज़म खां को संबोधन के लिए मंच पर बुला लिया जबकि वहां शिवपाल यादव सहित अन्य वरिष्ठ नेता भी मौजूद थे. संबोधन में विकास की बात करने की जगह आज़म ने मायापुराण पर ही ध्यान केंद्रित रखा. वह मायावती के कार्यकाल में हुए घोटालों पर ही बात करते रहे. चार माह बीत जाने के बाद भी सरकार के मंत्री विकास की बात न करते हुए केवल मायावती के कार्यकाल में हुए धोटालों की बात कर रहे हैं. उनके पास प्रदेश को उस परिस्थिति से निकालने का कोई प्लान नहीं है. दूसरी तरफ सत्ता के सुपर सीएम, सीएम और मिनी सीएम की रस्साकसी जारी है. कुछ दिन पहले आज़म खां का अखिलेश को मंत्री पद से इस्तीफा देने की पेशकश करना इसी रस्साकशी का उदाहरण है. सरकार पर दबाव डालकर फिर मेरठ का प्रभारी मंत्री बनना यह दिखा रहा है कि समाजवादी पार्टी के अंदर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. एक तरफ बसपा अपनी कमजोरियों को दूर करने में लगी हुई है वहीं सपा के अंदर मदभेद बढ़ रहे हैं. रोज उनकी कमजोरियां उजागर हो रही हैं.
अखिलेश सरकार द्वारा कोई निर्णय लेकर उसे वापस ले लेना एक रीत सा हो गया है. इससे तो यही लग रहा है कि सरकार के अंदर कोई भी निर्णय साथ बैठकर नहीं लिए जा रहे हैं. सरकार में मंत्रियों के बीच आपसी समन्वय नहीं है. बदलाव को लेकर सिर्फ अधिकारियों और कर्मचारियों के तबादले हो रहे हैं. इनमें से कई अधिकारी ऐसे हैं जिनका इस छोटे से अंतराल में कई बार तबादला हो गया. अधिकारियों की क़ाबीलियत को नज़रअंदाज कर जीहुजूरी करने वालों को मलाईदार विभाग दिए जा रहे हैं. विकास के नाम पर इटावा में लॉयन सफारी बनाने की योजना पर सरकार काम कर रही है. लेकिन इस काम में कितने गांवों को विस्थापित किया जाएगा. इसका अंदाजा सरकार नहीं लगा रही है. मीडिया में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर बहुत खबरें आईं. मायावती के कार्यकाल में हुए एनएचआरएम घोटाले को लेकर सरकार हर वक्त आलोचना करती दिखाई देती है मगर अपने स्तर पर वह स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास पर कोई गंभीर निर्णय ले रही है. सरकार अपना सारा समय पूर्ववर्ती सरकार की आलोचना और लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र अपने वोटबैंक को लुभाने में लगी हुई है. नया शिक्षा सत्र प्रारंभ हो गया है अभी तक छात्रों को न तो लैपटाप और टेबलेट कंपयूटर उपलब्ध हो पाए हैं न ही बेरज़गारों को बेराज़गारी भत्ता मिलना शुरू हो पाया है. 2014 के चुनावों में अभी बहुत समय बचा है. सरकार लोक कल्याण के कार्यों पर ध्यान नहीं दे रही है. क़ानून व्यवस्था में सुधार के लिए कड़े कदम उठाने में झिझक रही है. सपा सुप्रीमो ने 6 महीने के अंदर सकारात्मक बदलाव होता न देख नाराज़ दिखाई दे रहे हैं. उनकी इस नाराज़गी का परिणाम अखिलेश को हो सकता है और उन्हें मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ सकता है. सपा सुप्रीमो खुद मुख्यमंत्री के पद पर क़ाबिज हो सकते हैं. सपा उसी समय के इंतज़ार में बैठी हुई है. सपा नेतृत्व में यदि बदलाव हुआ तो इसका सीधा-सीधा फायदा बसपा को ही मिलेगा. इस समय का उपयोग संगठन को मज़बूत करने में कर रही है. वहीं सपा में लोग अंदर ही अंदर दीमक की तरह पार्टी को कमजोर कर रहे हैं. सरकार के स्तर पर कोई भी बड़ा बदलाव होते बसपा सत्ताविरोधी लहर का फायदा उठाने में जुट जाएगी और खामियाजा सपा को भुगतना पड़ेगा.

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