लोकतंत्र का माखौल उड़ाते स्लम एरिया |
रिक्शा चलाने वाले, सेक्स वर्कर, सीजनल वर्कर, फेरीवा, घरेलू नौकरों सहित छोटे मोटे कार्य कर असहनीय वातावरण एवं सुविधाओं में जिन्दगी बसर करने वाले स्लम एरिया में रह रहे बच्चे, उम्रदराज, युवा और महिला मजदूर लोकतंत्र के सीने पर धब्बें सरीखे हैं और समानता के अधिकार का गला घोंटते प्रतीत हो रहे है।
एशिया में पहला स्थान और विश्व का तीसरा सबसे बड़ा स्लम एरिया मुम्बई का धारावी है। वैश्विक आंकड़ों में अपना नाम अव्वलों में दर्ज करवा चुके धारावी के 1 वर्ग मील में लगभग दस लाख लोग रहते है। भारत के दस शीर्ष स्लम एरियाओं में दूसरे स्थान पर दिल्ली का भालवासा स्लम है जिसमें दिल्ली की लगभग 20 फीसदी आबादी रहती है। तीसरे स्थान पर चेन्नई का नोचीकुप्पम, चैथा कोलकाता का बसंती स्लम, पांचवा बैंगलोर का राजेन्द्र नगर स्लम, छठा हैदराबाद का इंदिराम्मा स्लम, सातवां नागपुर का सरोज नगर स्लम, आठवां लखनऊ का मोहिबुल्लापुर स्लम, नौवा भोपाल का सतनामी नगर स्लम और दसवां अहमदाबाद का परिवर्तन स्लम है। 2008 में स्लम एरिया की जि़न्दगी को रेखांकित करती डैनी बाॅयल निर्देशित फि़ल्म आयी थी स्लमडाॅग मिलेनियर। इस फिल्म ने आॅस्कर अवार्ड भी जीता था। इस फिल्म ने काफी हद तक स्लम एरिया की जिन्दगी को पर्दे पर उकेरा था। स्लम एरिया में रहने वाले लोग जिस तरह की जिन्दगी गुजर बसर करने को मजबूर है उसे देखकर शायद ही कोई हो जो सहमने पर विवश न हो जाये। दो-दो किलोमीटर तक चलकर पानी भरना और फिर उसे अपने बदबूदार और संकरे झोपड़े में लाना, सड़न, बदबू, गर्मी की तपीस, शीतलहर की मार, बारिश के पानी और अन्य प्राकृतिक समस्यायों और आपदाओं से जुझते यहां रहने वाले लोग मजबूर, बेबस और लाचार है। और इनकी जिम्मेदारी उठाने वाला आखिर है कौन? और प्रश्न उठता है कि अगर कोई हैं भी तो इनका नामोनिशान ही क्यो है?
भारत में एक तरफ जहां अरबपतियों की संख्या और समाजवाद के गिरते ग्राफ तले पूंजिवाद में ईजाफा हो रहा है वही दूसरी तरफ गरीबों और स्लम एरियाओं की संख्या में भी बढ़ोत्तरी जारी हैं। स्लम एरियाओं का बढ़ता हुआ जाल न सिर्फ लोकतंत्र का माखौल उड़ा रहा है वरन् हमारे शासन प्रशासन की कलई भी खोल रहा है। क्या यह लोकतंत्र के लिए शर्म की बात नहीं? झोपड़पट्टों में रहने वाले लोग आखिर हम ही लोगों के बीच के हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि बांग्लादेशियों की पर्याप्त संख्या भी भारत के प्रत्येक शहरों में व्याप्त झोपड़ पट्टों के बीच हैं लेकिन यह कहना कि स्लम एरिया के सभी निवासी बांग्लादेश सरीखे जगहों के हंै, यह भारत के लोगों के साथ नाइंसाफी होगी।
जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता पर जो लोकतंत्र की अवधारणा है और जो पब्लिक इंटरेस्ट के नारे हमारे संसदों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक चिंघारतें और इसी चिंघार तले अनुमोदनों पर मंजूरी पाते जो लाखो योजनायें शामिल हैं उनमें इंसान की जरुरतों में शामिल रोटी, कपड़ा और मकान की आबरू आखिर क्यो लूटी जा रही है? एक तरफ सरकार विभिन्न प्रकार के योजनाओं जैसे छात्रवृत्तियों, कल्याण योजनाओं, मेट्रो योजनाओं से लेकर अन्य योजनाओं में लाखो करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं और जरुरत पड़ने पर इन योजनाओं के लिए वल्र्ड बैंक और विश्व के अन्य देशों और कंपनीयों से दोनों हाथों से कर्ज भी लिया जा रहा है तो फिर इन स्लम एरियाओं को हटाने को लेकर आखिर नजरअंदाज क्यो किया जा रहा है। मान लिया जाये कि ये स्लम एरिया के लोग बांग्लोदशी हैं तो आखिर बिना वीजा पासपोर्ट ये यहां कर क्या रहे हैं?
कुछ समय पहले एक समाजसेवी का पुलिस वालों के लिए वक्तव्य आया था कि ”पुलिस वालों की अहमियत आम जनता की नजर में हफ्ता वसूलने वाले से ज्यादा कुछ नहीं“ बहुत हद तक यह वक्तव्य पुलिस वालों की हकीकत बयां कर रहा है। डीएम, एसपी और पुलिस प्रशासन आखिर है तो जनता के नौकर ही तो फिर ये क्यों जनता से बदतमीजी से पेश आते है। एक कहावत है की रस्सी जल जाती है लेकिन उसका अइठन खतम नहीं होता। पुलिस प्रशासन की ब्रिटिश इंडिया में आमजन से बद्तमीजी, जोर आजमाइस, लाठी भाजने वाली आदतें अभी भी जुलूसों, आन्दोलनों में देखने को मिल ही जाती हैं। इंडियन पुलिस एक्ट का एक अधिकार ‘राइट टू आॅफेन्स’ आज भी पुलिसवालों को वैसे ही संरक्षण दे रहा है जैसे आजादी से पहले ब्रिटिश इंडिया में लाला लाजपत राय की पुलिस की लाठी से हुई मौत में ब्रिटिश पुलिस वाले के खिलाफ चले मुकदमें में इसने दी थी। देश की आजादी के बाद एवं संविधान लागू होने से पहले और अंग्रेजी करतूतों को समझने वाले गांधी की हत्या के बाद इंडियन कान्स्यूक्वेंसियल प्रोविजन एक्ट जोकि 16 दिसम्बर 1949 को ब्रिटिश संसद ‘हाउस आॅफ काॅमन्स’ द्वारा पास किया गया जिसमें यह प्राविधान था कि भारत सभी कानूनों को हूबहू लागू करेगा जोकि ब्रिटिश इंडिया में लागू थे और बाद में भारत अपने संविधान में दिये गये संविधान संशोधन को प्रयोग में लाकर इनमें परिवर्तन कर सकेगा। गुलामों पर शासन करने के वास्ते बनाये गये वही कानून कुछ परिवर्तनों के साथ आज भी चल रहे है। अंग्रेजों की भांति प्रशासन, पुलिस सब कानून की चपेट से उतना ही दूर है जितना की झोपड़ पट्टे वाले सरकारी योजनाओं सें। झोपड़ पट्टों में अगर आधे से ज्यादा बांग्लोदशी है भी तो यह किनकी गलती है? सीमा पर तैनात सुरक्षा प्रशासन और स्थानीय पुलिस और सरकार की अनदेखी की। स्थानीय पुलिस को जहां आम आदमी के सिर पर हेलमेट, और अन्य गैरकानूनी कार्य एक नजर में दिख जाता है वहीं सड़क किनारे कूड़ा बीनते, चैराहों पर रात को सोते बांग्लादेशियों समेत अन्यों के चेहरे नहीं दिखते। अगर दिखते तो निश्चय ही ऐसी स्थिति आज न उफनती। आपलोगो में से किसी ने पुलिस वालों की दारू पार्टी देखी होगी। राजा-महाराजाओं के जोश और आवाजें इनके सामने फींकी पड़ जायेगी। दारू पीकर टून्न पुलिस वालों की पार्टी की आवाजें लोकतंत्र की समग्र वातावरा चीरकर ऐसे उभरती है जैसे कभी बंगाल विजय पर राबर्ट क्लावईव की उपजी होगी।
लोकतंत्र की जिम्मेदारी है कि नागरिकों को मुलभूत सुविधा मुहैया करायें लेकिन संसद, विधानसभा से लेकर पुलिस प्रशासन सब अपने कागजी खानापूर्ति करने में व्यस्त है। और इसी व्यस्तता का प्रतिफल ये झोपड़पट्टें हैं। अगर आजादी के 67 सालों में जनता के बीच सरकारी योजनाओं का लाभ पहंुचता, हमारी सीमाएं सुरक्षित रहती तो ये स्थिति आज देखने को नहीं मिलती।
मुलभूत सुविधाओं से महरूम इन लोगों की जिन्दगी मरघट जैसी हो चुकी है। मजबूर, फैलने पर मजबूर किया है और यह सरकार के चेहरे पर वो धब्बा है जिसे 67 सालों का स्वतंत्र भारतीय लोकतंत्र अगर मिटाना भी चाहे मिट नहीं सकता। यह धब्बा तभी मिटेगा जब झोपड़ पट्टों का नामोनिशान मिटेगा।
विकास कुमार गुप्ता,
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