रविवार, 4 अगस्त 2013

महंगाई की चक्की में पीस रहा गरीब

महंगाई की चक्की में पीस रहा गरीब


 farmer suicideविकास कुमार गुप्ता

महंगाई दिन-दुनी रात-चैगुनी बढ़ रही है। दूकानों पर एकाएक महंगाई देवता
पधार गये। महंगाई अपने नये-नये आयामों को लांघ रहा है। पहले खाद्य तेलें महंगी हुई थी।  परती
जमीन, फ्लैट, मोबाईल इंटरनेट पर बात करना महंगा हुआ। आये दिन महंगाई बढ़ती ही
जा रही है। आजादी पश्चात 90 के दशक से शुरु हुये वैष्वीकरण की आंधी की हवा के
झोंके महंगाई को साथ-साथ लेके अभी भी उड़ रहे हैं ।
आजादी का जो सपना महात्मा गांधी ने दिखाया था, उस सपने के साथ में उन्हांेने
दो सपने दिखाए थे – ‘स्वाभिमान’ और ‘स्वरोजगार’ का। स्वरोजगार का सपना इसलिए
दिखाया था, क्योकि स्वरोजगार के बिना स्वाभिमान जिन्दा नहीं रह सकता। आजादी
मिली, लेकिन स्वाभिमान और स्वरोजगार का सपना पूंजीवादी सभ्यता की भेंट कब चढ़
गया, पता ही न चला। सत्तासीन कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आते ही कहा था कि हम
सौ दिन में प्राइस राइस कंट्रोल करेंगे लेकिन कांग्रेस महंगाई रोक पाने मे
विफल रही और महंगाई निरंतर नये आयामों को छू रही है। लोकसभा में जब महंगाई पर
बहस चला था तब लगभग सभी दलो के सांसदांे ने योजना आयोग के हलफिया बयान का एक
सुर में विरोध किया था। वर्तमान राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने लोकसभा में पेश
किये गये अपने 11 पन्नों के रिपोर्ट के पहले पांच पन्नों में महंगाई के पक्ष
में 34 तर्क दिये थे। और उस समय कांग्रेस का कोई मंत्री गरीबो के ज्यादा खाना
खाने को महंगाई बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताया तो किसी ने कहा था कि किसानो को
ज्यादा दाम देने से महंगाई बढ़ी है। कभी लोकसभा से सत्तादल की आवाजे आती थी कि
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी कीमते महंगाई के लिए जिम्मेदार है तो कभी 25
फीसदी लोगो के आय को महंगाई में बढ़ोत्त्तरी को जिम्मेदार बताया गया। कृषी
राज्य मंत्री चरण दास महंत का कहना था कि जनसंख्या बढ़ गयी है इसलिए महंगाई
बढ़ी है। प्रणव मुखर्जी लोकसभा में अनेको बार “rising
level of incomes” and “a durable solution to inflation in an economy with
rising income levels” की दुहाई देते नहीं थके थे। सवाल उठता है कि आखिर किसकी
आमदनी बढ़ रही है अथवा बढ़ी थी? नेता, नौकरशाह या गरीब की। यह सत्य है कि 20 प्रतिशत लोगो की आमदनी बढ़ी है लेकिन यह विषमता इतना ज्यादा फैला रही है की भारत में तीसरी दुनिया
बनाम पहली दुनिया के लोगों के अन्तर की खाईं भी बढ़ती जा रही है।
1967 में यूरिया 45 रुपया बोरी, सीमेन्ट 10 रुपये बोरी, कुदाल की कीमत 6
रुपये, हल का फाड़ 2 रुपया, धोती 13 रुपया जोड़ी मिलता था। अगर किसान एक मन
चावल भी बेच देता था तब उसे 76 रुपये मिलते थे और इन पांच समानों को खरीदने के
बाद भी 24 रुपये नकद बचा लेता था। लेकिन आज अगर कोई किसान एक मन चावल बेचे तो
उसे लगभग 800 रुपया मिलेगा जिसमें इन पांच समानों की कीमत यूरिया 320 रुपया
प्रति बोरी, सीमेन्ट 350 प्रति बोरी, कुदाल 125 रुपया, हल का फाड़ा 45 रुपया,
गरीब वाली धोती 250 रुपये। कुल खर्च 1060 होता है और चावल की कीमत रु. 800 तब
महंगाई का स्वतः ही अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले सात सालों में (लगभग) रसोई
गैस 46 परसैंट, मिट्टी तेल 108 प्रतिशत, डीजल 79 प्रतिशत और पेट्रोल में 96
प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दो दर्जन से अधिक बार पेट्रोल के दाम और रिजर्व
बैंक ने 14 बार ब्याज दरे बढ़ायीं।
चक्रवर्ती कमेटी ने संस्तुति की थी कि महंगाई चार प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी
चाहिए फिर रंगराजन कमेटी ने कहा था कि 6 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
और तारापोर ने कहा था कि तीन प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। लेकिन  20
फीसदी तक खाद्य पदार्थो में बढ़ोतरी दर्ज की गयी। आज डाॅलर की कीमत 56 रुपये
तक पहुंच गयी है। आजादी पश्चात् जो समान हम 1 रुपये में खरीदते थे वह आज 55
में भी उपलब्ध नहीं।
लोहिया ने बढ़ती हुई कीमतों के बारे में एक बार लोकसभा में कहा था, ”कानून
बनाने वाले चीजों के दामों को घटायें, न कि अपनी तख्वाहों को बढ़ायें, अपनी
ताकत, अपनी तख्वाहे बढ़ाने के बजाय चीजों के दाम घटाने के लिए क्यों नहीं लगते
हो“। इस देश में चार प्रकार के लोग हैं, एक ऐसे लोग हैं जिनका जीवन सरकार के
खजाने से चलता है, जो वेतन लेते हैं, भत्ते लेते हैं, पेंशन लेते हैं, और
ज्यो-ज्यो महंगाई बढ़ती है, त्यों-त्यों उनका महंगाई भत्ता बढ़ता है। एक तरफ
व्यवसायी, उद्योगपति हैं, जो मुनाफा कमाते हैं, इसलिए उनपर महंगाई की मार नहीं
पड़ती और अगर मार पड़ती भी है तो हिन्दुस्तान के 85 प्रतिशत लोगों पर जो गांव
के मजदूर और किसान हैं, जो बेबस और लाचार हैं। आपने गांव की उस गरीब मां को
देखा होगा जो जाड़े की रात में पुआल पर सोती है, अपने बच्चे को कलेजे से लगाती
है, बच्चा ठिठुर-ठिठुरकर रोता है तो वह अपने तन की साड़ी उतारकर अपने बच्चे को
ओढ़ाती है और अपने बच्चे को सीने से लगाकर सोती है। कभी इसी दृश्य को देखकर
रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा था-”श्वानों को मिलता दूध-भात, भूखे बच्चे
अकुलाते हैं, माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़े की रात बिताते हैं”। आज हर
जन्मने वाला गरीब का बच्चा अमेरिका का कर्जदार है। 2010 में प्रतिव्यक्ति 233
अमेरिकी डाॅलर हम पर ऋण था। हिन्दुस्तान का हर आदमी विदेशी कर्ज में जन्मता
है, विदेशी कर्ज में बढ़ता है और विदेशी कर्ज में ही मरता है। कफन भी विदेशी
लूटकर ले जाते हैं, क्या यही हमारे सपनो का भारत है। लोहिया के समय में एक
नारा बहुत प्रचलित हुआ था ”पेट है खाली मारे भूख, बंद करो दामों की लूट। अन्न
दाम का घटना बढ़ना आना सेर के अंदर हो, डेढ़ गुनी की लागत पर करखनियां माल की
बिक्री हो।“
आज एक तरफ कुछ लोग 2000 रुपये प्रति प्लेट का खाना पांच-सितारा होटल में खाते
है और दूसरी तरफ जनता को दो समय की नमक रोटी भी नसीब नहीं। देश में रेड़ी
वाले, फेरी वाले, छाबड़ी वाले जोकि अपने परिवार का पेट पालने के लिए अपने
दोनों हाथ, दोनांे पावं और अपना गला एक साथ थकते हंै। उनकी चिन्ता सरकार को
नहीं। कड़ाके की सर्दी में जब अमीर कोट की जेब से अपना हाथ निकालने में सहमता
है तब गरीब ठंडी साइकिल का हैंडल दोनों हाथ से पकड़ कर, दोनो पावों से पैडल
मारता हुआ मौहल्ला-मौहल्ला कबाड़ी-कबाड़ी चिल्लाता है उसकी भी चिन्ता कांग्रेस
को नहीं है। वह रेड़ी वाला जो भरी दोपहरी में, जब बाहर झांकने को दिल नहीं
करता, उस समय दोनो हाथों से रेड़ी धकेलते हुए बीसियों किलोमीटर का सफर तय करता
हुआ ऊंची आवाज लगाते हुए ग्राहको को बुलाता है और वह छाबड़ी वाला जो अधेड़
कंधो पर बहंगी उठाए हुए चना, मूंगफली और मक्का की खील लेकर ऊंची-ऊंची आवाज में
अपने बाल ग्राहको को बुलाता है। क्या यह केन्द्र को नहीं पता? शरद पवार ने
लोकसभा में कहा था कि किसानो को ज्यादा दाम दे दिये इसलिए महंगाई बढ़ी है तब
आखिर पूरे देश में किसान गैर खरीदी को लेकर त्राहि-त्राहि क्यो कर रहा था?
हरियाणा में बासमती का किसान सिर पकड़ कर रो रहा था और महाराष्ट्र में 72
दिनों में ही 13 आत्म हत्याएं किसानो की थी। महंगाई बढ़ने के पीछे अगर कोई
जिम्मेदार है तो वह है सरकार की गलत नीतियां, सरकार में फैला भ्रष्टाचार और
कुछ नहीं। एक दिन में सीएजी (कैग) ने 6-6 घोटाले बाहर निकाल कर रख दिये और
उनपर पर्दा कैसे डाला गया वह सर्वविदित हैं। और तो और अभी घोटालो का जिन्न
थमने का नाम नहीं ले रहा। इटली से हेलिकाॅप्टर वाला मामला अभी सबके सामने है?
आजादी पश्चात अगर किसी सरकार में सबसे ज्यादे घोटाले हुये है तो वह है सोनिया
की मनमोहनी सरकार। कांग्रेस के गलत नीतियो का ही परिणाम है कि रुपये का इतना
ज्यादा अवमूल्यन हुआ। सरकार की गलत नीतियो का ही परिणाम है कि एक तरफ गरीब की
अंतड़ी सूख रही है तो दूसरी तरफ साठ हजार टन अनाज स्टोरेज में सड़ने के कगार
पर पहुंच गये।
इतिहास गवाह है कि आजादी पश्चात् भारत के रुपये की कीमत विश्व के चार अग्रणी
देशों के बराबर था लेकिन आज पचास गुने से ज्यादा कम है। इस सरकार में अनेकों
अर्थशास्त्री है मनमोहन, पी. चिदम्बरम, प्रणव मुखर्जी भी थें और मोंटेक सिंह
आहलुवालिया जोकि योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी। तब भी महंगाई सरकार के नियंत्रण
से बाहर हो चुकी है। जब सरकार को एक्सपोर्ट करना चाहिए तब वह इम्पोर्ट करती है
और जब इम्पोर्ट करना चाहिए तो एक्सपोर्ट करती है। उदाहरण के तौर पर 09-10 में
चीनी को भारत ने 12 रुपये की दर से निर्यात किया और निर्यात के 6 महीने बाद ही
32 रुपये की दर से चीनी को आयात किया। यह सरकार की गलत नीतियां नहीं तो और
क्या है? आज देश के 8200 पूंजीपतियो के पास देश की तीन चैथाई सम्पत्ति है और
यह आंकड़ा समाजवाद की अवधारणा को नेस्तनाबूद करता नजर आ रहा है। इन 8200 लोगों
का ही हर चीज पर कब्जा है।
आज कारखानों से बना हुआ जो समान है उसकी लागत पांच रुपये है तो बाजार में
उसकी कीमत सैकड़ो गुनी देखी जाती है और इसे देखने वाला कोई नहीं। सरकार को
नियंत्रण रखना चाहिए। लेकिन सरकार खुद इसमें लिप्त है।
पिछले 63 सालों से हम भटक रहे है और जबतक कोई समाज, देश राह नहीं पकड़ता भटकता
ही रहता है। कभी हमारे नेता सोचते है कि देश बदलेगा तो रुस के रास्ते बदलेगा
और कभी सोचते है कि यूरोप के रास्ते बदलेगा और यह हम कभी नहीं सोचते की यूरोप
ने दुनिया को चार सौ वर्षो तक लूटा। जापान को लूटा, चीन को लूटा, भारत को लूटा
इत्यादि। और आज जो यूरोप की सम्पन्नता हम देखते है वह चार सौ वर्षों की लूट की
वजह से है। यूरोप ने भारत पर 2 सौ वर्षो तक राज किया। उसकी जो सम्पन्नता है वह
तो लूट से जुड़ी है। और हम उसी की राह चलना चाहते है। वह राह कभी भी ठीक नहीं
हो सकती। अगर हम यूरोप की सभ्यता का टीका भी ले तो भी हम संवर नहीं सकते और
उबर नहीं सकते। भारत यूरोप के रास्ते को छोड़ने को तैयार नहीं। और इस रास्ते
पर डूबे बगैर अन्य कोई बचाव नहीं। और भारत इसे मानने को तैयार नहीं।
रेपो रेट में कमी, रिवर्स और रेपो रेट बढ़ोत्तरी। कांग्रेस ने इसे 13 बार
किया। और यह बेअसर रहा। क्योंकी यूरोप में व्हाइट इकोनामी है और भारत में उससे
कहीं ज्यादा ब्लैक इकोनामी है। डीएपी तीन गुना ज्यादा रेट पर बिक रहा है और
कालाबाजारी भी हो रही है। यह विदेशो से मंगाया जाता है। 63 सालों में एक खाद
का कारखाना तक यहां नहीं लग पाया। तो हमारी सरकार किसानो की सेवा कैसे करेगी?
सरकार का कहना है कि वह पूर्व की तरह हरित क्रान्ति करेगी वह सिर्फ 400 करोड़
के दम पर। महर्षि चार्वाक ने कहा था-“यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्, ऋणं कृत्वा
घृतम पिवेत।” यह केन्द्र सरकार पर पूरी तरह लागू होता है। ब्याज दर बढ़ती है
तो हाउसिंग सैक्टर तबाह होने लगता है। विशेषज्ञ कहते है कि अगर कोई
अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त होती है तो दो चीजे उसे उबारती है एक हाउसिंग सेक्टर
और दूसरा इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर। और इसके लिये स्टील, सीमेन्ट, भारी वाहन,
बजरी, लेबर्स, कारखाने की जरुरत होती है। आज निर्माण कार्य और इंफ्रास्ट्रक्चर
की हालत ये है कि राष्ट्रीय राजमार्ग इतनी तेज गती से चल रहे है कि उनका हाल
खस्ता हो चुका है और उनकी मरम्मत तक नहीं हो पा रही। हां अगर विदेशो में जमा
काला धन वापस आ जाये और विदेशी ऋण चुकता कर दिये जाये तो महंगाई थम सकती है।
लेकिन केन्द्र सरकार उसपर भी मौन साधे है। महंगाई से निपटने के लिए सरकार
विदेशी पूंजी निवेश की ओर ताक रही है। भारत में पहले से 5000 से अधिक विदेशी
कंपनिया मौजूद है। अगर इतिहास के पन्नो में पीछे झांके तब वित्त मंत्रालय से
लेकर रिजर्व बैंक के आंकड़े चिल्ला चिल्लाकर कह रहे है कि विदेशी निवेश और
विदेशी कंपनियों से जितना भी पैसा भारत में आता है उससे कई गुना ज्यादा पैसे
वे भारत से लेके जाती है। 1933 से भारत में कार्य कर रही हिन्दुस्तान युनीलीवर
जोकि ब्रिटेन और हालैण्ड की संयुक्त कंपनी है ने मात्र 35 लाख रुपये से भारत
में व्यापार शुरु किया था और उसी वर्ष यह 35 लाख से अधिक रुपया भारत से लेकर
चली गयी। उसी तरह प्राॅक्टर एण्ड गैम्बल, फाइजर, गैलेक्सो, गुडईयर सरीखी अनेको
कंपनीयों ने जितना निवेश किया उससे लगभग तीन गुना उसी वर्ष भारत से वापस लेके
चली गयी। यह बात केन्द्र सरकार के पल्ले में नहीं समाती। आज भारत के प्राकृतिक
सम्पदा, रोड, खाद्यान्ने तक विदेशी कंपनीयों को बेचे जा रहे है। जिसमें लूट भी
खूब हो रही है। अभी कोयला और सेना का घोटाला सबके सामने है।
महंगाई कहां से कम होगी। जो दौलत यहां किसान बनाते है भारत उसे भी समेटने में
विफल है। हमारी सरकार ने कभी एफसीआई का विस्तार नहीं किया। आलू रखने के लिए
जनता ने अपने आप इंतजाम किया फिर भी दाम ठीक नहीं मिल रहे। पहले जहां फसल पैदा
होती थी अब सरकार सेज की आड़ में पूंजीपतियों को सौंप दिये। गेहूं का रुतबा नौ
फीसदी कम हो चुका है। देखा जाये तो आज देश में कालाबाजारी, मुनाफाखोरी,
जमाखोरी, भ्रष्टाचार, लूट, घोटाले दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ रहे हंै और सरकार
कही न कही, किसी न किसी तरह से इसमें लिप्त भी नजर आ रही है। आज भी देश का एक
बड़ा तबका विकास से कोसो दूर है और यही वह तबका है जिसकी आय में वृद्धि की जगह
कमी निरंतर जारी है।

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