शनिवार, 26 अप्रैल 2014

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गुजरात: नैनो से कोई करोड़पति, कोई भूख से बेहाल

 शनिवार, 26 अप्रैल, 2014 को 16:20 IST तक के समाचार

गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
"कौन सा विकास हुआ है? किसके लिए विकास हुआ है?"
गुजरात की पक्की सड़क पर, तपती गर्मी में टूटी चप्पल पहने, ट्रैक्टर की ओट में कंधे पर फावड़ा लिए खड़े मज़दूर, मुझसे ये सरल सा सवाल पूछते हैं.
हम हैं गुजरात के साणंद में. वही तालुका जहां टाटा कंपनी ने नैनो कार का प्लांट लगाया है. यहां क़रीब तीन हज़ार एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण हुआ है और बड़ी-बड़ी फैक्ट्री बन गई हैं.
एक बीघा ज़मीन के लिए मुआवज़े के तौर पर 28 लाख रुपए तक दिए गए हैं और आसपास के गांवों में क़रीब 1,500 ज़मींदार रातोंरात करोड़पति बन गए हैं.
ये सड़क साणंद शहर से ऐसे ही एक गांव की ओर जाती है. पर वहां पहुंचने से पहले ही बीच में विकास का ये सवाल खड़ा हो गया है.

भूमिहीनों का दर्द

आखिरकार सवाल पूछने वाले हिम्मत भाई गाग्जी भाई पढार ख़ुद ही जवाब देते हैं, "विकास तो कुछ ही लोगों के लिए हुआ है. जिनके पास ज़मीन थी, उन्हें मुआवज़ा मिल गया. हम आदिवासी तो औरों के खेत पर काम करने वाले किसान मज़दूर हैं. ज़मीन गई तो हमारा रोज़गार भी चला गया."
गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
इस इलाके में हिम्मत भाई जैसे क़रीब 15,000 भूमिहीन किसान हैं जो दूसरों की ज़मीन पर काम करके जीविका चलाते थे.
अब हिम्मत भाई पिछले दो साल से दिहाड़ी मज़दूरी कर रहे हैं. बताते हैं कि शहर तो लगभग रोज़ जाते हैं लेकिन काम महीने में दस या बारह दिन ही मिलता है. वो भी सड़क बनाने, मलबा ढोने या गटर साफ़ करने जैसा.
ये काम मुश्किल भी है और पसंद का भी नहीं. हिम्मत भाई कहते हैं, "पहले खेत पर काम करते थे तो साल के पैसे बंधे होते थे. ज़मींदार फ़सल का एक-तिहाई या एक-चौथाई हिस्सा उनको देता था. अब तो कल का भी नहीं पता."
पर कुंहार गांव के अंदर कुछ और ही मंज़र है. यहां मायूसी नहीं, किसानों की आवाज़ में चहक सुनाई देती है. नैनो का नाम लेते ही आंखों में चमक है और चेहरे पर मुस्कान आ जाती है.

बदल गई ज़िंदगी

45 साल के भरत भाई पोपट भाई बताते हैं, "नैनो प्लांट बना तो मेरी ज़िन्दगी ही बदल गई. सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं ऐसा घर बना पाऊंगा. ट्रैक्टर भी ख़रीद लिया. अब ज़िन्दगी बहुत मज़े में चल रही है."
गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
जब नैनो और फ़ोर्ड कंपनी के प्लांट के लिए साल 2011 में भूमि अधिग्रहण हुआ तो उनकी ज़मीन भी ली गई. क़रीब छह बीघा ज़मीन के लिए उन्हें 28 लाख रुपये प्रति बीघा के हिसाब से पैसे मिले.
अब उनके पास दो माले का सुंदर घर है, ट्रैक्टर है. एक दूसरे गांव में एक करोड़ रुपये देकर ज़मीन उधार पर ली है जहां खेती करवाते हैं.
उनकी पत्नी जशीबेन के हाथ और कान सोने के ज़ेवरों से सजे हैं. हालांकि वो इससे ख़ुश नहीं.
जशीबेन कहती हैं, "ज़मीन तो ज़रूरी है. उसी से हर साल पैसा आता है. बाप-दादा की ज़मीन रहती है तो ज़मींदार कहलाते हैं, इज़्ज़त रहती है. अब उधार की ज़मीन न जाने कब वापस हो जाए फिर बच्चों के जीवन का क्या आधार है? वो किस गांव के कहलाएंगे? आगे जाकर कहीं मज़दूर न बनना पड़े उन्हें?"

क्या खोया-क्या पाया?

गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
आखिर फ़ायदा उनका हुआ जिनके पास ज़मीन थी, भूमिहीन किसान मज़दूर ही तो बेरोज़गार हुए.
गुजरात में पिछले एक दशक के दौरान तेज़ी से औद्योगिक विकास हुआ है़, जिसके लिए हज़ारों एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया.
ज़्यादातर इलाकों में किसानों ने इसका विरोध भी किया पर आखिरकार ज़मीन दे दी. साणंद में ज़मीन के लिए अच्छा मुआवज़ा मिला लेकिन कई इलाकों में ऐसा नहीं हुआ.
फिर भी साणंद के ज़मींदार वर्तमान में आई चमक में अपने भविष्य को आंकने में डरते दिखे. ऐसा हो भी क्यों ना. उनके बड़े-बड़े ख़ूबसूरत मकानों से दूर गांव के सिरे पर मज़दूर किसानों की छोटी झोंपड़ियां हैं.
हिम्मत भाई की पत्नी और बच्चे भी वहीं रहते हैं. दस लोगों का परिवार है और एक छोटी सी झोंपड़ी.

बरक़त से तंगी

गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
हिम्मत भाई की पत्नी कहती हैं, "जब खेत पर काम करते थे तो ज़मींदार अनाज, पानी, लकड़ी सब देता था. और आमदनी अलग थी. अब तो खाने के लिए भी उधार लेकर दुकान से ख़रीदना पड़ता है. पिछले एक हफ़्ते से कोई काम नहीं मिला है तो आप ही सोचो कैसे चलेगा."
हिम्मत भाई का परिवार यहां से चालीस किलोमीटर दूर नानी कथकी गांव का रहने वाला है. रोज़गार की तलाश पंद्रह साल पहले उन्हें इस कुंहार गांव में लाई थी.
अब शहर जाना पड़ रहा है. पर ये सफ़र बरक़त की ओर नहीं बल्कि तंगी की ओर ले गया है.
नया उद्योग उनके जैसे अनपढ़ किसानों के लिए कोई उम्मीद नहीं लाया है.
हिम्मत भाई के मुताबिक, "मोदी जी ने ज़मीन तो ले ली और जो प्लांट लगे वहां हमारे लिए अच्छा काम नहीं है. तकनीकी समझ वाले शहरी लोग ही वहां नौकरी पाते हैं. हम तो दिहाड़ी मज़दूर बनकर रह गए हैं."
हिम्मत भाई से विदा लेकर मैं फिर गांव की टूटी सड़क पर चल पड़ती हूं. कभी पीने का पानी भरने के लिए सर पर मटकी रखे महिलाएं दिखती हैं तो कभी शौच करने के लिए हाथ में लोटा लिए कोई सामने से गुज़र जाता है.
सड़क के उस ओर हरियाली के पार औद्योगिक क्षेत्र की पक्की सड़कें और ऊंची इमारतें दिखाई देती हैं. विकास का वो वायदा जो किसी के चेहरे की मुस्कान बना है और किसी के माथे की सिलवट.

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