मंगलवार, 29 जुलाई 2014

यह अमीरों का बजट है,जनता का नहीं

मोदी की पांच साल चलने वाली सरकार का पहला बजट सामने आ गया. जब रेल के किराये में 14.20 प्रतिशत की वृद्धि बजट का इंतज़ार किए बिना की गई थी, तब हमें लगा था कि शायद बजट इससे भिन्न होगा, लेकिन जैसे ही यह तर्क आया कि यह वृद्धि हमने नहीं की है, यह तो पिछली मनमोहन सिंह सरकार की प्रस्तावित वृद्धि थी, जिसे हमने लागू कर दिया, तो लगा कि नरेंद्र मोदी की सरकार भी देश को उसी तरह बातों के जाल में उलझाने की कोशिश कर रही है, जिस तरह पिछली सरकार कर रही थी. कहानियां कई तरह की फैलाई गईं कि रेलवे की हालत खराब है, रेलवे बंद हो जाएगा, इसलिए किराया बढ़ाना मजबूरी थी. जब भी पिछली सरकार में किराया बढ़ाने की बात होती थी, तो भारतीय जनता पार्टी छाती पीट-पीट कर सियापा करती थी और कहती थी कि यूपीए सरकार के पास न कोई योजना है, न कोई काम करने का सलीका है और न कोई भविष्य की दृष्टि. वह स़िर्फ फौरी तौर पर उपाय करना चाहती है. और, जब रेल के किराये में वृद्धि के समय मोदी सरकार ने उन्हीं तर्कों का सहारा लिया, जिनका सहारा पिछली सरकारें लेती रही हैं, तब भी हमने इस आशंका को सही नहीं माना.
लेकिन जब रेल बजट आया, तब हमें लगा कि हमारी आशंकाएं गलत नहीं थीं. नरेंद्र मोदी को छह महीने काम करने का मौक़ा देकर सरकार को पूरी आज़ादी रहनी चाहिए, लेकिन इसी बीच नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी किया कि हमें सौ दिन का हनीमून का समय भी लोग क्यों नहीं दे रहे हैं. इससे हमें लगा कि नरेंद्र मोदी किसी कशमकश में फंसे हैं और यह कशमकश सबसे पहले रेल बजट में सामने आई. इस देश में जो लोग रेल पर चढ़ते हैं, उनमें स़िर्फ मुश्किल से पांच प्रतिशत लोग लंबी दूरी की यात्रा करते हैं, एयर कंडीशन में बैठते हैं और उन सुविधाओं में सुधार चाहते हैं, जो उन्हें पसंद नहीं आतीं. लेकिन बाकी 95 प्रतिशत लोग उन टे्रेनों में यात्रा करते हैं, जिनमें पानी नहीं होता, जिनमें गंदगी की भरभार है और जो 200 से 400 किलोमीटर की दूरी के बीच में चलती हैं. नरेंद्र मोदी का रेल बजट पांच प्रतिशत यात्रियों की सुविधाओं का रेल बजट था. जितनी ट्रेनों की शुरुआत हुई, वे इन्हीं पांच प्रतिशत लोगों के लिए हैं. लेकिन, 95 प्रतिशत लोग किसी भी तरह की सुविधा से, रेल परिवहन में किसी भी प्रकार के सुधार के दायरे से बाहर रहे. तब भी हमें लगा कि शायद जब देश का आर्थिक मसौदा यानी बजट सामने आएगा, तब यह स्थिति बदल जाएगी. पर अब देश के सामने मोदी सरकार का बजट आ गया है और इस बजट के प्रावधान आ गए हैं.
90 फ़ीसद लोग बजट से बाहर
मोदी के इस बजट के आंकड़ों के ऊपर हम इसलिए बात नहीं करेंगे क्योंकि वे लोगों की ज़िंदगी से जुड़े हुए हैं और लोग उनकी गर्मी या नमी अपनी ज़िंदगी में महसूूस करेंगे. लेकिन, हम उसके उस पहलू का जिक्र करेंगे, जो नरेंद्र मोदी सरकार को दिखाई नहीं दे रहा है. और अगर दिखाई दे रहा है, तो इसका मतलब है कि नरेंद्र मोदी सरकार देश को जानबूझ कर उसी रास्ते पर ले जाना चाह रही है, जिस पर चलकर हम त्राहि-त्राहि कर रहे हैं और ज़िंदगी में आशा की किरण देखना चाहते हैं. अच्छे दिन सचमुच आ गए, लेकिन अच्छे दिन किसके लिए आ गए? यहां पर अगर हम देश या लोगों की बात करते हैं, तो देश दो भागों में बंटा हुआ है. एक तरफ़ 90 प्रतिशत लोग हैं और दूसरी तरफ़ 10 प्रतिशत. ये 10 प्रतिशत लोग पूंजी बाज़ार में रहते हैं, ये 10 प्रतिशत लोग मॉल में जाते हैं, एयर कंडीशन ट्रेनों में सफर करते हैं, हवाई जहाज में सफर करते हैं और सड़कों पर चमचमाती बड़ी गाड़ियां इन्हीं 10 प्रतिशत लोगों की होती हैं. यह बजट इन्हीं 10 प्रतिशत लोगों का बजट है. इसके दायरे से 90 प्रतिशत लोग बाहर हैं. अगर हम देश में रहने वाली संपूर्ण आबादी को एक इकाई मानें, तो उस इकाई का 90 प्रतिशत इस बजट से बाहर है.
नरेंद्र मोदी के लिए यह याद रखना ज़रूरी है कि उनकी सरकार इन 10 प्रतिशत लोगों के वोट से नहीं आई, क्योंकि इन 10 प्रतिशत लोगों ने मोदी के लिए ज़ुबान चलाने से ज़्यादा कुछ नहीं किया. वोट देने तो ये गए ही नहीं. नरेंद्र मोदी की पार्टी को जो 30 या 32 प्रतिशत वोट मिले, वे उन 90 प्रतिशत लोगों के थे, जिन्हें पिछली सरकारों से निराशा हाथ लगी थी. नरेंद्र मोदी के भाषणों में दिलाई गई आशा ने उन्हें नरेंद्र मोदी को वोट देने के लिए प्रेरित किया. उन 90 प्रतिशत लोगों के लिए बजट में क्या है? मेरे सामने पूरा बजट खुला हुआ पड़ा है और वे 90 प्रतिशत लोग इसमें कहीं नहीं हैं. जिन युवाओं को नरेंद्र मोदी ने सपना दिखाया था, वे इस बजट में कहीं नहीं हैं. जो अशिक्षित हैं, उनके लिए शिक्षा प्राप्त करने का कोई रास्ता इस बजट में नहीं है. जो बेरोज़गार हैं, उनके लिए रोज़गार पाने का कोई दरवाजा इस बजट में नहीं है और यह बजट कहीं से भी भ्रष्टाचार एवं महंगाई से लड़ता हुआ दिखाई नहीं देता.
विदेशी निवेश को लूट की छूट
आज नरेंद्र मोदी की शान में अख़बारों एवं टेलीविजन पर कसीदे पढ़े जा रहे हैं, पर अख़बार एवं टेलीविजन भी अब 10 प्रतिशत लोगों के लिए हो गए हैं, जिनकी ख़बरें वे दिखाते हैं, जिनकी ज़िंदगी के सपने वे दिखाते हैं और उन सपनों में बहकर इस देश के 90 प्रतिशत लोग अपना वोट दे देते हैं. इस बजट का पहला महत्वपूर्ण हिस्सा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है. इस सरकार ने अपना रोल कम करना प्रारंभ कर दिया है और विदेशी पूंजी निवेश लगभग हर क्षेत्र में खोल दिया है. इसका दूसरा मतलब है कि हमारे देश की सारी सरकारी कंपनियों में अब विदेशी कंपनियों का नियंत्रण भी बढ़ेगा, हस्तक्षेप भी बढ़ेगा और हमारे देश का पैसा बाहर जाने के रास्ते तलाशने लगेगा. सीधे 49 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए राह खोल देने पर लगभग पूर्ण रूप से सारी उत्पादन इकाइयों और पूंजी को संभालने में लगी संस्थाओं का नियंत्रण विदेशी कंपनियों के हाथ में देना होगा. विदेशी कंपनियां पहले विदेशों में नागरिकता लिए हुए भारतीयों के माध्यम से हमारे देश में हस्तक्षेप करती थीं. अब उन्हें इसके लिए उस परदे की भी ज़रूरत नहीं है. वे सीधे हमारे देश के पूंजी बाज़ार और हमारी अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में लेने के लिए पहला क़दम बढ़ा देंगी.
हमारे देश के बैंक राष्ट्रीयकरण से पहले हिंदुस्तान के चौदह बड़े घरानों के लिए काम करते थे. स्वर्गीय इंदिरा गंधी ने इनका राष्ट्रीयकरण इसलिए किया था, ताकि ये इस देश के ग़रीबों के आर्थिक विकास में अपना महत्वपूर्ण रोल निभा सकें, लेकिन बाद की सरकारों के रवैये ने बैंकों को फिर से पूंजीपतियों या बड़े पैसे वालों या कॉरपोरेट के लिए काम करने वाले हथियार के रूप में बदल दिया. नतीजे के तौर पर जितने भी बड़े उद्योग हैं या बड़े कॉरपोरेट हैं, वे बैंकों का खुला इस्तेमाल अपने लिए करते हैं और बैंकों का पैसा भी नहीं लौटाते और बैंक उन्हें आसानी से राइट ऑफ कर देते हैं, लेकिन इस देश के 90 प्रतिशत लोगों, जिनमें किसान भी शामिल हैं, को दिए गए पैसे की वसूली बड़ी बेरहमी के साथ होती है. जहां एक तरफ़ बड़े उद्योगों और बड़े कॉरपोरेट को दिया गया पैसा बट्टे खाते में डाला जाता है, वहीं इन ग़रीबों को पैसा न देने की एवज में जेल में डाल दिया जाता है. अब इन बैंकों में विदेशी एवं देशी पूंजीपतियों को शेयर खरीदने के दरवाजे खोलकर इन्हें फिर से उनके नियंत्रण में देने की योजना मोदी सरकार ने शुरू कर दी है.
नरेंद्र मोदी ने सौ शहरों की योजना, जिन्हें उन्होंने स्मार्ट शहर का नाम दिया है, अपने चुनाव अभियान के दौरान कही थी. उनका कहना है कि दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, कोलकाता एवं लखनऊ जैसे शहरों पर बढ़ रहा बोझ ये स्मार्ट शहर, जिनमें सारी सुविधाएं होंगी, जिन्हें वे विकसित करेंगे, बांटेंगे. सवाल यह है कि ये सौ शहर किसकी ज़मीन पर बनेंगे, इनके लिए कितनी ज़मीन की ज़रूरत होगी और कितने किसान विस्थापित होंगे? ये स्मार्ट शहर जहां बनाए जाएंगे, वहां की सारी की सारी उपजाऊ ज़मीन अधिग्रहीत किए बिना ऐसा संभव नहीं होगा. इसका मतलब यह कि उपजाऊ ज़मीनें किसानों से छीनी जाएंगी और सौ शहरों के नाम पर पूंजीपतियों या बड़े बिल्डर्स को दे दी जाएंगी, जो एक तरफ़ शहर का निर्माण करेंगे और दूसरी तरफ़ शहर के आसपास की ज़मीन को एक ऐसी संपत्ति बनाएंगे, जिसे भविष्य में महंगे दामों पर देश के लोगों को बेचा जा सके.
इन शहरों के निर्माण में विदेशी सरकारों का सहयोग लिया जाएगा और विदेशी कंपनियों के हाथों में इन शहरों की संपूर्ण संपत्ति सौंपकर एक दीर्घकालिक समझौता किया जाएगा, ताकि हमारे देश का, किसानों से छीना हुआ ज़मीन के रूप में महत्वपूर्ण अर्थस्रोत विदेशी कंपनियों के पास चला जाए. मौजूदा बजट का सबसे ज़्यादा जोर रियल स्टेट पर है. सरकार का कहना है कि रियल स्टेट में रोज़गार के अवसर बढ़ते हैं. हम जब रोज़गार कहते हैं, तो यह थोड़े दिनों के लिए निर्माण में लगे हुए मज़दूरों का रोज़गार नहीं होता. हम जब रोज़गार कहते हैं, तो चाहे वे पढ़े-लिखे हों या ग़ैर पढ़े-लिखे, उनके जीवन में आमदनी की सतत आवक रहे, उसे रोज़गार माना जाता है. लेकिन, रियल स्टेट को बढ़ावा देने का मतलब बिल्डर्स को बढ़ावा देना है.
ग्रामीण विकास की अनदेखी
जब हम ग्रामीण विकास के हिस्से में आते हैं, तो हमें कहीं पर भी ग्रामीण विकास का रोडमैप नहीं मिलता. ग्रामीण विकास का मतलब होता है कि गांवों में हुए उत्पादन की फिनिशिंग करने की इकाइयां गांवों में ही लगाई जाएं, उन इकाइयों द्वारा फिनिश्ड उत्पादों को बाज़ार तक पहुंचाने की उचित व्यवस्था की जाए और खेतों में हुए उत्पादन का भंडारण करने की रणनीति बनाई जाए. लेकिन, ग्रामीण विकास की योजनाओं में इनका कहीं कोई जिक्र नहीं है. इस सरकार का नज़रिया अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े एवं अल्पसंख्यक जैसे वर्गों को विशेष रूप से देखने का नहीं है. इसलिए समाज के कमजोर वर्गों को आर्थिक रूप से उठाने की कोई योजना इस बजट में दिखाई नहीं देती. इसकी आशा भी नहीं थी, पर जिस चीज की आशा थी, वह इस बजट में क्यों नहीं है, यह समझ में नहीं आता.
लोगों को कड़वी गोली देने का मतलब पैसे को लोगों की जेब से निकाल कर अनुत्पादक सुविधाओं में डालना नहीं होता. अगर पैसा चाहिए, तो लोगों को उसमें शामिल कीजिए और उन्हें उसकी एवज में वह पैसा दीजिए, जो कमीशन के रूप में आप खाना चाहते हैं. उदाहरण के तौर पर इस देश में लाखों टन अनाज बर्बाद हो जाता है, चूहे खा जाते हैं. हमारे देश में कुछ उत्पादनों के लिए कोल्ड स्टोरेज की ज़रूरत है, लेकिन ज़्यादा ज़रूरत उस अनाज के लिए है, जिसका एक निश्‍चित तापमान पर भंडारण किया जा सके, ताकि उसमें नमी न आए. इसके लिए एफसीआई को कुछ सौ करोड़ रुपये दिए गए. एफसीआई के गोदामों में किस तरह की देखभाल की जाती है, वह सबको मालूम है. वहां प्रति वर्ष लाखों टन अनाज जान-बूझ कर बर्बाद किया जाता है और कुछ अनाज बर्बाद होने के नाम चोरी-छिपे खुले बाज़ार में बेच दिया जाता है.
अगर सरकार के पास थोड़ा भी विजन होता, तो वह घोषणा करती और देश के लोगों से अपील करती कि हम आपको पैमाना देते हैं, आप तापमान नियंत्रित करने वाले गोदाम बनाइए, जिनकी देखभाल जिलाधिकारी करेगा. उनका किराया हम इतने वर्ग फुट और इन सुविधाओं के हिसाब से देंगे. अगर अनाज खराब होता है, तो उसके बदले में हम दंड लेंगे, तो देश में करोड़ों भंडारण के गोदाम लोग बना लेते. सरकार का एक पैसा उन गोदामों को बनाने में नहीं लगता. लोग अपने पैसे से बनाते, अपनी ज़मीन देते और अपने स्तर से ताप नियंत्रित उपकरण लगाते. सरकार को स़िर्फ उसका एक निश्‍चित किराया देना पड़ता और हमारा अनाज 95 प्रतिशत सुरक्षित रहता. अभी जितना जमा होता है, उसका महज 20 प्रतिशत ही सुरक्षित रह पाता है.
अगर सरकार ग्रामीण उद्योगों की शृंखला लगाने की योजना बनाती और उन्हें बाज़ार में लाने के लिए मार्केटिंग यूनिट की बात करती, तो इस देश के करोेड़ों लोगों, और जब मैं करोड़ों कहता हूं, तो दो-तीन करोड़ की बात नहीं कहता, बल्कि कम से कम 25-30 करोड़ लोग कहता हूं, उनके लिए रोज़गार के अवसर खड़े हो जाते और गांव विकसित होना शुरू हो जाते. जिसकी एवज में उन गांवों में स्कूल भी खुलते और अस्पताल भी खुलते. जिसकी शुरुआत स़िर्फ और स़िर्फ स्थानीय स्तर पर ग्रामीण उद्योग लगाए जाने की घोषणा के साथ हो सकती थी. लेकिन, सरकार के दिमाग में वह नब्बे प्रतिशत है नहीं, जो गांव में रहता है या जो उसका वोटर है. उसकी चिंता उस 10 प्रतिशत के लिए है, जो टेलीविजन में, अख़बारों में, स्टॉक मार्केट या पूंजी बाज़ार में रहता है.
बाज़ारवाद का राज
दरअसल, आर्थिक नीतियां ही बजट में झलकती हैं. हमारे देश की आर्थिक नीतियां नब्बे प्रतिशत लोगों के पक्ष में नहीं हैं. ये पूर्णतय: बाज़ार आधारित हैं और खासकर उन लोगों के पक्ष में हैं, जो बाज़ार का समर्थन करते हैं. जो बाज़ार का समर्थन नहीं कर पाते या जिनकी जेब में पैसा नहीं होता, उन लोगों की जेब से भी पैसा निकालने का रास्ता या संकेत यह बजट दे रहा है. हमारा देश ग़रीबों का देश है, जिसमें यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह बाज़ार को नियंत्रित रखे, जिससे ग़रीबों की जेब का पैसा बाहर न निकले. और जो भूखे हैं, नंगे हैं, उन्हें तब तक जीने के साधन उपलब्ध कराए जाएं, जब तक वे स्वयं जीने के साधनों के उत्पादन की प्रक्रियाओं में शामिल नहीं हो जाते. सरकार ने इस स्थिति से अपना हाथ खींच लिया है. अब सरकार ने सारी ज़िम्मेदारी 10 प्रतिशत लोगों के हाथ में छोड़ दी है, जो 10 प्रतिशत या उनका प्रतिनिधित्व करने वाले वित्त मंत्री चाह रहे हैं कि सरकार की ओर से सब्सिडी के नाम पर जो मदद ग़रीबों को दी जाती है, उसे भी छीन लिया जाए और उसे भी 10 प्रतिशत लोगों की श्रेणी में शामिल कर लिया जाए. जो सत्ता में होते हैं, वे हर तरह से पैसा खींचने की योजना बनाते हैं, लेकिन वे सबके लिए विकास की योजना नहीं बनाते हैं, तब एक डर सामने आता है. वह डर है इस देश में असंतोष का डर, आंदोलन का डर, अराजकता का डर, ग़रीबों के विद्रोह का डर और नौजवानों के विद्रोह का डर.
शिक्षा की कोई नीति इस बजट में दिखाई नहीं दी. प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का स्तर सुधारने का कोई प्रावधान इस बजट में नहीं है. हर शख्स को किस तरह से स्वास्थ्य सुविधाएं मिल सकती हैं, इसकी कोई रूपरेखा इस बजट में नहीं है. पेयजल एवं सिंचाई का पानी लोगों को कैसे मिलेगा, इसकी कोई रूपरेखा इस बजट में नहीं है. स़िर्फ यह कहा गया है कि आर्सेनिक, फ्लोराइड, भारी विषैले पदार्थों, कीटनाशकों एवं उर्वरकों से प्रभावित 20 हज़ार बसावटों को अगले तीन सालों में सामुदायिक जल सुदृढ़ीकरण संयंत्रों द्वारा साफ़ और सुरक्षित पेयजल मुहैया कराया जाएगा. दरअसल, हमारे देश में पिछले साठ सालों में पेयजल और सिंचाई के पानी की जो बर्बादी हुई है, जिसकी योजना नहीं बनाई गई, उसे नए सिरे से जनाभिमुख योजना बनाने में बदलना चाहिए था, जिसका इस बजट में कोई संकेत नहीं है. स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी, सूचना प्रसारण, शहरी विकास एवं आवास आदि मुद्दे ऐसे हैं, जो आम लोगों के पक्ष में कम और 10 प्रतिशत लोगों के पक्ष में ज़्यादा नज़र आते हैं. सरकार का पूरा ध्यान 10 प्रतिशत लोगों के सुख-सुविधाओं पर है. सरकार का सारा ध्यान विदेशी पूंजी पर है.
अब इस बजट में सबसे महत्वपूर्ण मसला है कृषि ऋण का. बेशक, कृषि ऋण की ब्याज दर घटाकर 7 प्रतिशत की गई और समय पर ब्याज लौटाने वाले किसानों को इसमें 3 प्रतिशत की छूट दी गई है, लेकिन समूचा कृषि क्षेत्र कैसे लाभकारी बने, इसकी कोई योजना इस बजट में नहीं है. कृषि यानी किसान की ज़िंदगी अब और परेशान होने वाली है, क्योंकि किसान द्वारा पैदा की गई उपज, चाहे वह कपास हो, गेहूं हो, आलू हो या जितनी चीजें खेत में पैदा हुई हैं, के लिए बाज़ार बिचौलियों के हाथों में ही रहने वाला है. किसान अपनी उपज सस्ते में बेचते हैं और बाकी चीजें काफी महंगी खरीदते हैं. यही कहानी पिछले साठ सालों से चली आ रही है और यही कहानी अगले पांच वर्षों तक चलने वाली है. इस बजट में सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ऊर्जा का होना चाहिए था, पर बजट में ऊर्जा के ऊपर जोर नहीं है. इस देश में सौर ऊर्जा का व्यापक इस्तेमाल होना चाहिए, पर सौर ऊर्जा के बारे में सरकार स़िर्फ 500 करोड़ रुपये आवंटित करती नज़र आ रही है. सौैर ऊर्जा ही पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस से निकलने वाली ऊर्जा का जवाब है, जिसका हमारे पास अपूर्व स्रोत है, लेकिन उस स्रोत का हम इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.
कुल मिलाकर यह बजट सबसे ज़्यादा किसी को प्रसन्नता प्रदान कर रहा होगा, तो वह हैं भारत के पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम, जिनका जिक्र बिना नाम लिए कई बार वर्तमान वित्त मंत्री ने अपने भाषण में किया. जैसा उन्होंने कहा था, जैसा वह सोचते थे, जैसा उन्होंने प्रावधान किया था, हम उसी को आगे बढ़ा रहे हैं. चिदंबरम ने इस देश की ज़िंदगी को ज़हरीला और कमजोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, क्योंकि उन्होंने बाज़ार आधारित नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को और ज़्यादा सख्त, ज़्यादा क्रूर बनाने में अपनी ताकत लगा दी थी. हमारे वर्तमान वित्त मंत्री भी वही कर रहे हैं और वह यह भूल रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव में क्या वादे किए थे.
आख़िर में हम यह आलोचना इस अनुरोध के साथ कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी जी, अगर हमारी इस आलोचना में आपको कहीं पर तर्क नज़र नहीं आता और वह परिणाम नहीं निकलने वाला, जो हम कह रहे हैं, तो हम आपकी दृष्टि का समर्थन करेंगे, क्योंकि हम नहीं चाहते कि हमारी आशंकाएं सच साबित हों, बल्कि हम चाहते हैं कि आपके वे सभी वादे सच हो, जो आपने अच्छे दिनों के नाम पर किए. लेकिन, आपका बजट हमारी समझ में अब तक नहीं आ रहा कि यह महंगाई कैसे दूर करेगा. दूर करना तो दूर, कम कैसे करेगा, भ्रष्टाचार कैसे दूर करेगा, बेरोज़गारी कैसे दूर करेगा? इस देश के नब्बे प्रतिशत लोगों के मन में निराशा पैदा हो गई है, जिसे आपने अपने भाषणों से विश्‍वास दिलाया था कि नई सरकार के आते ही उसके सामने दरवाजे खुलते नज़र आएंगे, लेकिन ये दरवाजे तो और मजबूत ताले में बंद दिखाई दे रहे हैं. आपने यह बजट सोच-समझ कर संसद में पेश करने की अनुमति दी होगी. यह देखना दिलचस्प होगा कि अगले दो से तीन महीने में हमारी ज़िंदगी के ऊपर या देश की ज़िंदगी के ऊपर इस बजट का क्या असर पड़ता है? देश की ज़िंदगी का मतलब दस प्रतिशत की ज़िंदगी नहीं, बल्कि नब्बे प्रतिशत की ज़िंदगी है.
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