शनिवार, 6 सितंबर 2014

गरीबी, भूख, और भूखमरी : आखिर क्यों और कब तक?


poverty-in-indiaभूख से उपजी भुखमरी और इन दोनों से विवश हो जब कोई व्यक्ति भिखारी बन जाता है, तो वह व्यक्ति समाज के लिए अभिशाप बन जाता है और उसे सामाजिक समस्या करार दिया जाता है। सन् 2000 में ये अनुमान लगाया गया था कि 2010 के बाद दुनियां में बेशुमार प्रगति होगी, और आर्थिक स्तर भी ऊँचा होगा। इसी के आधार पर 2020, 2030 और 2050 के तामाम सपने संजो लिए गए। लेकिन इन सभी के बीच किसी ने शायद दुनियां के उस तबके के बारे में नहीं सोचा, जहाँ फटे-टूटे फूस के आंगन में भूख, भूखमरी और भिखारी एक साथ जन्म लेते हैं।
अर्थशास्त्री चाहें कुछ भी कहें, लेकिन उनके खोखले सिद्धान्त जब इन कमज़ोर झोपडि़यों से टकराते हैं तो उनके बड़े-बड़े दावें खोखले नज़र आते हैं। आज के इस महंगाई के दौर में जब खाने-पीने के दाम आसमान छू रहे हो ऐसे में उच्चवर्ग और मध्यवर्ग भी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जद्दोजहद में लगे हुए हैं। इसके बावजूद भी हम रईसों की दुनियां में गिने ही जाते है।
गरीबों के लिए बनी दम तोड़ती योजनाए
यूँ तो गरीबी, भूख, भूखमरी और भिखारी का चोली दामन का साथ है लेकिन इस देश की बदकिस्मती है कि यहाँ भूख, भूखमरी और गरीबी किसी को नजर नहीं आती है। भूखमरी और गरीबी जैसे शब्द न तो उदारवादी कहे जाने वाली राजनैतिक नौकरशाही को जऩर आती है, और न ही उनके खातों और बहियों में। जैसे हम किसी भूखे भिखारी को देखकर मुँह फेर लेते हैं ऐसे ही खातों और बैलेंस सीटों से इन शब्दों का नदारद होना भी मुँह फेरने जैसा ही है। वैसे तो सरकार निजी हित और औपचारिक निर्ण का विचित्र मेल है। आकड़े सरकार के कुछ काले कोनों में शोर करते घूमते हैं और गरीबों की झोपडि़यों के भीतर भूख से कुलमुलाते बच्चों की चीख में गुम हो जाते हैं।
भारत में योजनाएं तो बड़ी-बड़ी बनती हैं लेकिन उन योजनाओं का लाभ भी अधिकारी वर्ग को ही मिलता है। आम आदमी तक आते-आते या तो यह योजनाएं दम तोड़ चुकी होती हैं या अधिकारियों की फाईलों में ही गुम हो जाती है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया संतुलित विकास के लिए राज्यों को अनुकूल योजनाएं बनाने कर नसीहत दी। उन्होंने कहा कि सभी राज्यों के लिए उनकी जरूरत के हिसाब से योजनाएं बनाई जानी चाहिए। लेकिन इन योजनाओं के बनने के बाद इनको क्रियान्वित करने की प्रक्रिया इतनी लचर और भ्रष्ट है कि भूख से पीडि़त व्यक्ति तक इनका लाभ नहीं पहुँचता और उस पर प्रति वर्ष खाद्यान्न पर बढ़ती कीमतें भुखमरी और भिखारी की उत्पत्ति का कारण बनती है।
विश्व बैंक का अनुमान है कि अगर कीमतें दस फीसदी और बढ़ती है, तो दुनिया के एक करोड़ लोग और गारीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे। ऐसे में भारत के न जाने कितने लोग भूख से दम ही तोड़ देंगे। आज खाद्यानों पर बढ़ती कीमतों की चिन्ता भले ही विश्व बैंक व दुनिया के सरताज़ करें लेकिन यह कड़वा सच है कि बढ़ती आबादी घटते क्षेत्रफल और इन सब से ऊपर दिन प्रति दिन सीमित होते कृषि क्षेत्र की चिन्ता किसी को दिखाई नहीं देती। धीरे-धीरे भारत सहित पूरी दुनिया में कृषि योग्य भूमि समाप्त होती जा रही है। सच तो यह है कि दुनिया भर के देशों में निजी और सामूहिक तौर पर इतनी राजनैतिक इच्छाशक्ति नहीं है कि भूख और मुखमरी से ग्रस्त गरीब आदमी को उसकी मुश्किलों से बाहर निकाल सके।
गरीबों की ओबामा से लगी उम्मीद भी टूटी
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की उदारता देख शुरू में दुनिया भर के गरीब देशों को उनसे उम्मीदें बंधी थी लेकिन ये किसे पता था कि ओबामा प्रशासन सबसे ज्यादा दिवालिया प्रशासन साबित होगा। जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रश्न है वह आज भी काफी हद तक खेती पर निर्भर है भले ही सकल घरेलू उत्पाद या विकास दर में उसका योगदान उतना न दिखाई पड़ता हो लेकिन सच्चाई तो यही है कि कृषि ही इस देश का बांधे रखती है। लेकिन यहाँ सर्वाधिक मुश्किल है कि हमारी कृषि का तीन चैथाई हिस्सा आज वर्षा पर आश्रित है। अगर वर्षा अच्छी हुई तो खेती अच्छी होती है और यदि वर्षा पहीं होती तो न ताने कितने गरीब किसानों को भूख और कर्ज से बेहाल होकर परिवार समेंत आत्महत्या करनी पड़ती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था बना गरीबों के लिए मजाक
वैसे तो भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबों के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन फिर भी कभी-कभार ऐसे लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाते हैं जिससे गरीब थोड़ा बहुत लाभान्वित हो जाता है। यूँ तो हमारे संसाधन सीमित हैं इसलिए अगर सब्सिडी ऐसी योजनाओं में दी जाए जो सीधे गरीबों तक पहुँचती हो, तो अमीर इसका अधिक फायदा नहीं उठा पायेंगे। इसलिए लक्षित वित्त -प्रणाली बनाई गई थी। योजना आयोग के आकड़ों के अनुसार 1993-94 में जब वितरण प्रणाली सबके लिए खुली थी तो इसका रिसाव 28 प्रतिशत था लेकिन 2004 -05 में जब यह प्रणाली सिर्फ गरीबों के लिए रह गई तो लीकेज़ 54 प्रतिशत हो गई। इससे गरीबों को तब भी कोई विशेष फायदा नहीं हुआ। लेकिन यहाँ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि इसका फायदा किसे ज्यादा होगा। सस्ते अनाज या नगद सब्सिडी का फायदा सच में गरीबों का होगा या अमीरों को इसमें भी लाभ होगा।
यद्यपि अर्थशास्त्रियों का मत है कि कैश ट्रांसफर प्रणाली से गरीबों के खातों में सीधे धन जायेगा लेकिन क्या वो यह अनुमान लगाना भूल गये कि कैश डालने के लिए जो बैंक एकाउंट खुलते हैं उन्हें खुलवाने से लेकर रकम आने और निकलवाने तक में ठकेदारों,जागीदारों अथवा बाबुओं का कमीशन तय होता है। 20 सितंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट में भेजी गई योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार तो गरीबी रेखा तय करने के लिए भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रूपये और शहरी क्षेत्रों में 32 रूपये प्रतिदिन व्यक्तिगत रूप से खर्च किया जाना पर्याप्त है। यह तो सीधे-सीधे गरीबों के मुँह पर एक तमाचा है, इससे गरीबी रेखा नहीं मुखमरी रेखा माना जाना चाहिए। क्योंकि दिन प्रतिदिन बढ़ती महंगाई और खाद्य पदार्थों की कीमतों में दिनों दिन होती बढ़ोतरी के चलते 26 और 32 रूपये में कोई एक वक्त की रोटी भी नहीं खा सकता। फिर सब्जी, दूध, चाय, चीनी, दाल, ईधन, बिजली, पानी, शिक्षा, बीमारी, दवाई और डाक्टर 32 रूपये में कैसे उपलब्ध हो सकता है। अब तो अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (I.F.P.R.I) International Food Policy Research Institute  द्वारा विकसित इंडियन स्टेट हंबर इंडेक्स के अनुसार भी भारत में भूखे लोगों की तदात सबसे ज्यादा है।
शहरों की ओर पलायन करता गरीब कैसे बन जाता है भिखारी
यद्यपि आज देश में गरीब और भूखमरी के खतरनाक हालात पैदा हो गए हैं। इससे निपटन के लिए बहुत जरूरी हो गया है कि सरकार सार्वजनिक खाद्य सुरक्षा प्रणाली लाये जिसके तहत आमदनी के हिसाब से ही उसे अनाज अन्य खाद्य पदार्थों में सब्सिडी मिल सके और आज तो भारत में छठे वेतन आयोग के बाद सरकारी कर्मियों की आय में कई गुना वृद्धि हुई है, यही नहीं मल्टीनेशनल कंपनियों और कोरपर्रेट सेक्टर से जुड़े लोगों को अपने करियर की शुरूआत से ही अच्छी खासी रकम प्राप्त हो जाती है। इसके बावजूद भी गरीबी रेखा के नीचे आने वाले व्यक्त्तियों में निरंतर वृद्धि हो रही है। उसका सबसे बड़ा कारण है बुनियादी आवश्यकताओं से महरूम होकर, कभी बाढ़ कभी सूखे के कारण प्रति वर्ष कितने ही किसान गाँव से पलायन कर शहर आ जाते हैं। यहाँ भी कोई समुचित सुविधा न मिल पाने की स्थिति में या तो मजदूरी करते हैं और मजदूरी भी न मिलने पर भीख मांगने लगते हैं।
यदि आज अकेले दिल्ली की बात करें तो दिल्ली की सड़कों पर प्रत्येक चैराहे, बसों, स्टेशनों पर सड़कों पर सैकड़ों भीखारी मिल जायेंगे। एक रूपये के लिए गिड़गिड़ाते ये भिखारी शहर की चकाचैध से आकर्षित होकर धीरे-धीरे अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं। चलती गाडि़यों से पर्स, मोबाइल चुराना इन भीख मांगने वालों के लिए साधारण बात है। यह भारत के लिए बहुत दुःखदायी प्रकरण है कि जहाँ आज काला धनकुबेरों की तिजोरियों में सड़ रहा है वहाँ करोड़ों लोग भूख और भुखमरी से त्रस्त से होकर या तो भीख मांग रहे हैं या अपराधी बन रहे हैं।
कहीं अनाज सड़ जाते हैं जो कहीं गरीब भूखे मर रहे हैं
wheat-stockप्रतिवर्ष लाखों टन अनाज भारतीय खाद्य निगम के गोदामों और अन्य स्थानों पर रखा-रखा सड़ जाता है। रिपोर्ट के अनुसार जन खाद्यान्न FCI (Food Corporation of India) के गोदामों में खराब पाया गया। जिससे दस साल तक छः लाख लोगों को भरपेट खाना लि सकता था। वर्ष 1997 से 2007 के बीच 1.83 लाख टन गेहूँ, 6.33 लाख टन चावल, 2.20 लाख टन और 111 लाख टन मक्का FCI के विभिन्न गोदामों में सड़ गई। यही नहीं ऐसे कितने ही लाखो टन अनाज हर साल सड़ जाते हैं। लेकिन यह सोचने की बात है कि यह अनाज सड़ गये या सड़ा दिए गये। क्योंकि जिस देश में गरीबों को पेट भरने के लिए दो मुट्ठी अनाज नहीं मिलता हो उसी देश में बीयर या शराब बनाने के लिए उसे किसी न किसी बहाने सड़ा दिया जाता है। क्योंकि उस पर भारी सब्सिडी तो मिलती ही है साथ ही सरकार को कई गुना राजस्व भी प्राप्त होता है।
सच तो यह है कि गरीबी और भूख से मरने वालों में अधिकांश लोग ग्रामीण किसान और आदिवासी ही होते हैं। गांव-देहात और खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति लगभग विदर्भ जैसी ही है। जहां एक ओर गरीब पेट भरने के लिए अनाज को तरस रहे है वहीं दूसरी ओर बड़े-बड़े महानगरों में शराब और बियर बनाने के लिए कई टन अनाजों को सड़ा दिया जा है। जिस देश में 23 करोड़ लोग प्रतिदिन भूखे रहते हैं, वहाँ 30 प्रतिशत खाद्य सामग्री भंडार के अभाव में खराब हो जाती है।
पाँच सितारा होटलों और शहरों में बसने वाले अमीरों के आयोजन बहुत भव्य होते हैं एक-एक प्लेट की कीमत कम से कम हजार रूपये से शुरू होकर दो हजार तीन हजार तक होती है। खाने वाले भी रईस तबके के लोग होते हैं। जो प्लेट में भोजन तो लेते हैं थोड़ा खाने के बाद उसे झूठा छोड़ना अपनी स्टेट्स सिंबल मानते हैं। होटल के सफाई कर्मचार उसे कूड़े में डाल देते हैं जिन्हें कुत्ते, बिल्ली, सुअर, गाय आदि जानवर खाते हैं। लेकिन यदि आयोजन के बाहर गेट पर कोई भिखारी या भूखा व्यक्ति थोड़ा सा खाना भीख में मांगता है तो उसे या तो दुत्कार दिया जाता है या फिर उसे दरबान द्वारा धक्का मारकर भगा दिया जात है।
यहाँ अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब
rich-poorsदेखा जाए तो हमारे देश में अमीर बहुत अमीर है, उसके पास इतना पैसा है कि कुछ व्यक्तियों के खजाने के बल पर पूरे देश में खुशहाली स्मृद्धि लाई जा सकती है, और जो गरीब है, वह बढ़ती महंगाई के कारण प्रतिदिन इतना गरीब हो रहा है कि जीवनयापन की (रोटी, कपड़ा, मकान) जैसी बुनियादी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर सकता है। देखा जाए तो देश में बढ़ती बेरोजगारी भी गरीबी और भुखमरी को एक बड़ा कारण बनी हुई है। शहरों में अगर हम भिखारियों की बात करें तो अकेले दिल्ली की सड़कों पर लगभग 58500 भिखारी होते हैं। जो सड़क के किनारे, हर ट्रेफिक सिग्नल के आस-पास हर अंडरपास फ्लाई ओवर, मंदिर-मस्जिद के बाहर, पार्कों में यहाँ तक की हर चैराहों या पब्लिक प्लेस पर यही नजारा देखने को मिलता है। इनमें से 95 प्रतिशत भिखारी दिल्ली के बाहर से आते हैं। 30 प्रतिशत भिखारी ज्यादातर युवा वर्ग यानी 18 वर्ष की आयु के हाते हैं। हर वर्ष लगभग 2500 भिखारी देश के अन्य राज्यों से दिल्ली आते हैं।
सच तो यह है कि भारत की चकाचैंध फैलाने में लगी भारतीय सरकार रोशनी के नीचे व्याप्त अंधियारे को या तो देखना नहीं चाती, या वह जान बूक्ष कर इस कड़वे सच से आँख मूंद वैश्विक पटल पर अपने झंडे गाड़ना चाहती है। तमात प्रयासों के बाद भी वह न तो गरीब पर अंकुश लगा पायी हैं। और न ही गांवों में ऐसी तकनीक ला पायी है जिससे लोगों का गाँवों से पलायन रूक जाये। यदि कोई योजना या कानून बनता भी है तो वह सिर्फ कागजों तक ही रह जात है।

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