मेरठ दंगा आज़ाद भारत में पुलिस की बर्बरता का सबसे घिनौना अध्याय है. लेकिन, इससे भी शर्मनाक बात यह है कि इसके 26 साल बीत जाने के बाद भी किसी एक गुनहगार को सजा नहीं मिली. इससे भी ज़्यादा शर्मनाक यह है कि इस बात का भी पता नहीं चला कि पीएसी के जवानों ने मलियाना और हाशिमपुरा में मौत का जो तांडव किया, क्यों किया, किसके कहने पर किया? किस अधिकारी या नेता ने इसकी मंजूरी दी थी? उन अधिकारियों को जेल क्यों नहीं भेजा गया? क्या यह संभव है, किसी राज्य में इतनी बड़ी घटना हो जाए और सरकार को 26 साल बाद भी हक़ीक़त का पता न चले? जब मेरठ में यह मौत का तांडव हुआ, तब देश का तमाम मीडिया चुप था. उस वक्त भी चौथी दुनिया अख़बार ने हाशिमपुरा की सच्चाई पूरी दुनिया को बताई थी और आज भी यह अख़बार इस दंगे से जुड़ी नई जानकारियां लगातार अपने पाठकों तक पहुंचाता रहा है. इस रिपोर्ट में हम सीआईडी जांच की पोल खोल रहे हैं. इस रिपोर्ट से यह उजागर होता है कि किस तरह यह मामला पुलिसिया जांच का सबसे शर्मनाक अध्याय है.
सरकार जिस तरह से मेरठ दंगों के मामले में न्याय दिलाने में विफल रही है, वह न स़िर्फ शर्मनाक है, बल्कि प्रभावित परिवारों के लिए कहीं ज़्यादा दु:खदायी भी है. सरकार ने हाशिमपुरा दंगे में जो सीआईडी की जांच बैठाई, उसने अपना काम सही ढंग से नहीं किया. सच्चाई तो यह है कि जांच के नाम पर ही यह एक कलंक है. यह जांच किसने की, जांच सही ढंग से क्यों नहीं हो पाई, जांच का निष्कर्ष क्या निकला और क्यों बड़े-बड़े अपराधी छूट गए? इसके बारे में जानने से पहले यह जानते हैं कि उस मनहूस दिन यानी 22 मई, 1987 को हाशिमपुरा में क्या हुआ था.
शहर में दंगा हो रहा था. कर्फ्यू लगा था. लोग अपने घरों में ही थे. दोपहर क़रीब दो बजे सेना और पीएसी तलाशी के बहाने मुहल्ले में दाखिल हुई. पीएसी के जवान घर-घर में घुसे और जितने भी मर्द थे, उन्हें घर से बाहर आने को कहा. लोगों को बाहर निकालने के बाद पीएसी सबको मुजरिमों की तरह हाथ ऊपर कराकर सड़क पर ले आई. ऐसा लग रहा था कि पूरे मुहल्ले को ही गिरफ्तार कर लिया गया है. पीएसी ने बूढ़ों-बच्चों को अलग बैठाया और हट्टे-कट्टे नौजवानों को अलग. थोड़ी देर बाद बूढ़ों-बच्चों को छोड़ दिया गया. रात क़रीब आठ-साढ़े आठ बजे पीएसी का एक ट्रक आया. ट्रक के पीछे का दरवाजा खुला और वहां मौजूद लोगों को भेड़-बकरियों की तरह ट्रक के अंदर भर दिया गया. पीएसी वाले राइफलें लेकर पीछे खड़े हो गए और फिर उन्हें ट्रक के अंदर बैठा दिया गया. इसके बाद ट्रक चल पड़ा. जो भी पीछे मुड़कर देखना चाहता कि कहां जा रहे हैं, तो उस पर डंडे बरसाए जाते. ट्रक चलता रहा, काफ़ी देर तक चलता रहा.
ट्रक मुरादनगर के पास गंगनहर पर जाकर रुका. यहां बिल्कुल सन्नाटा था. पीएसी के जवान नीचे उतर गए. ट्रक की लाइट बंद कर दी गई और एक-एक करके लोगों को ट्रक से नीचे उतारा जाने लगा. जिसे नीचे उतारा जाता, उसे पीएसी के जवान गोली मार देते और फिर उसकी लाश को नहर में फेंक दिया जाता. एक के बाद एक को मौत के घाट उतारा जाने लगा. ट्रक में बैठे लोगों को जब यह समझ में आ गया कि इसी तरह सब मारे जाएंगे, तो उनमें भगदड़ मच गई. यह देख पीएसी के जवानों ने ट्रक के अंदर ही गोलियां चलानी शुरू कर दीं. कुछ लोग कूद कर भागने लगे, तो पीएसी ने उन्हें खदेड़ कर गोलियां मारीं. पीएसी का मकसद साफ़ था कि एक भी व्यक्ति ज़िंदा न बचने पाए. वह गोली मारने के बाद लोगों को नहर में फेंक रही थी. पीएसी के जवानों ने तो अपने हिसाब से सबको मार दिया था. जब उन्हें यह यकीन हो गया कि अब कोई ज़िंदा नहीं बचा है, तो वे ट्रक में बैठकर वहां से चले गए. पीएसी को यह पता नहीं था कि भगदड़ के दौरान तीन लोग ज़िंदा बच गए. उन्हीं तीन लोगों यानी जुल्फिकार, नईम एवं बाबा ने ही दुनिया को इस घटना की पूरी हक़ीक़त बताई.
वैसे मेरठ में माहौल तनावपूर्ण रहना आम बात है. उस समय भी कुछ छोटी-मोटी घटनाओं की वजह से माहौल तनावपूर्ण था. इस दौरान पीएसी के एक वाहन से एक-दो लोग घायल हो गए. यह मेरठ दंगे का तात्कालिक कारण बन गया. दो दिनों के भीतर मेरठ के अलग-अलग इलाकों में हिंसा भड़क गई. चूंकि यह मामला पीएसी के वाहन से शुरू हुआ, तो मेरठ दंगे में पीएसी का रोल दंगा रोकने से ज़्यादा मुसलमानों को सबक सिखाने का हो गया. यह भी ख़बर आई कि हाशिमपुरा में किसी भाजपा नेता के भतीजे की मौत हो गई. वह अपनी छत पर खड़ा था और उसे गोली लग गई. लोगों का मानना था कि गोली दूसरे समुदाय की तरफ़ से चली. उसी के अगले दिन हाशिमपुरा में पीएसी ने नरसंहार को अंजाम दिया. भाजपा नेता के भतीजे की मौत और पीएसी की कार्रवाई में क्या कोई रिश्ता था, यह जांच रिपोर्ट में शामिल नहीं है. तफ्तीश में ये सारी बातें नहीं पहुंचीं.
शहर में दंगा हो रहा था. कर्फ्यू लगा था. लोग अपने घरों में ही थे. दोपहर क़रीब दो बजे सेना और पीएसी तलाशी के बहाने मुहल्ले में दाखिल हुई. पीएसी के जवान घर-घर में घुसे और जितने भी मर्द थे, उन्हें घर से बाहर आने को कहा. लोगों को बाहर निकालने के बाद पीएसी सबको मुजरिमों की तरह हाथ ऊपर कराकर सड़क पर ले आई. ऐसा लग रहा था कि पूरे मुहल्ले को ही गिरफ्तार कर लिया गया है. पीएसी ने बूढ़ों-बच्चों को अलग बैठाया और हट्टे-कट्टे नौजवानों को अलग. थोड़ी देर बाद बूढ़ों-बच्चों को छोड़ दिया गया. रात क़रीब आठ-साढ़े आठ बजे पीएसी का एक ट्रक आया. ट्रक के पीछे का दरवाजा खुला और वहां मौजूद लोगों को भेड़-बकरियों की तरह ट्रक के अंदर भर दिया गया. पीएसी वाले राइफलें लेकर पीछे खड़े हो गए और फिर उन्हें ट्रक के अंदर बैठा दिया गया. इसके बाद ट्रक चल पड़ा. जो भी पीछे मुड़कर देखना चाहता कि कहां जा रहे हैं, तो उस पर डंडे बरसाए जाते. ट्रक चलता रहा, काफ़ी देर तक चलता रहा.
ट्रक मुरादनगर के पास गंगनहर पर जाकर रुका. यहां बिल्कुल सन्नाटा था. पीएसी के जवान नीचे उतर गए. ट्रक की लाइट बंद कर दी गई और एक-एक करके लोगों को ट्रक से नीचे उतारा जाने लगा. जिसे नीचे उतारा जाता, उसे पीएसी के जवान गोली मार देते और फिर उसकी लाश को नहर में फेंक दिया जाता. एक के बाद एक को मौत के घाट उतारा जाने लगा. ट्रक में बैठे लोगों को जब यह समझ में आ गया कि इसी तरह सब मारे जाएंगे, तो उनमें भगदड़ मच गई. यह देख पीएसी के जवानों ने ट्रक के अंदर ही गोलियां चलानी शुरू कर दीं. कुछ लोग कूद कर भागने लगे, तो पीएसी ने उन्हें खदेड़ कर गोलियां मारीं. पीएसी का मकसद साफ़ था कि एक भी व्यक्ति ज़िंदा न बचने पाए. वह गोली मारने के बाद लोगों को नहर में फेंक रही थी. पीएसी के जवानों ने तो अपने हिसाब से सबको मार दिया था. जब उन्हें यह यकीन हो गया कि अब कोई ज़िंदा नहीं बचा है, तो वे ट्रक में बैठकर वहां से चले गए. पीएसी को यह पता नहीं था कि भगदड़ के दौरान तीन लोग ज़िंदा बच गए. उन्हीं तीन लोगों यानी जुल्फिकार, नईम एवं बाबा ने ही दुनिया को इस घटना की पूरी हक़ीक़त बताई.
वैसे मेरठ में माहौल तनावपूर्ण रहना आम बात है. उस समय भी कुछ छोटी-मोटी घटनाओं की वजह से माहौल तनावपूर्ण था. इस दौरान पीएसी के एक वाहन से एक-दो लोग घायल हो गए. यह मेरठ दंगे का तात्कालिक कारण बन गया. दो दिनों के भीतर मेरठ के अलग-अलग इलाकों में हिंसा भड़क गई. चूंकि यह मामला पीएसी के वाहन से शुरू हुआ, तो मेरठ दंगे में पीएसी का रोल दंगा रोकने से ज़्यादा मुसलमानों को सबक सिखाने का हो गया. यह भी ख़बर आई कि हाशिमपुरा में किसी भाजपा नेता के भतीजे की मौत हो गई. वह अपनी छत पर खड़ा था और उसे गोली लग गई. लोगों का मानना था कि गोली दूसरे समुदाय की तरफ़ से चली. उसी के अगले दिन हाशिमपुरा में पीएसी ने नरसंहार को अंजाम दिया. भाजपा नेता के भतीजे की मौत और पीएसी की कार्रवाई में क्या कोई रिश्ता था, यह जांच रिपोर्ट में शामिल नहीं है. तफ्तीश में ये सारी बातें नहीं पहुंचीं.
सरकार ने जो जांच कराई, उसमें स़िर्फ उन्हीं लोगों के नाम सामने आए, जो पीएसी की उस टुकड़ी में शामिल थे. उनमें से कई लोगों की मौत हो गई है. ज़्यादातर रिटायर हो गए हैं. उन पर मुकदमा चल रहा है. दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि 1987 से लेकर आज तक लगभग 26 साल हो गए हैं, लेकिन मुकदमा किसी तार्किक नतीजे तक नहीं पहुंचा है. जो लोग इसमें शामिल थे, उन्हें सजा नहीं मिली. कुछ समय के लिए उन्हें सस्पेंड ज़रूर किया गया, लेकिन फिर से बहाल भी कर दिया गया. दरअसल, सीआईडी ने जो तफ्तीश की, वह जांच का सबसे बुरा नमूना है. बहुत ही खराब तरीके से इस दंगे की जांच हुई. कांग्रेस सरकार ने बहुत हल्के- फुल्के तरीके से इस मामले को डील किया. यह आज तक किसी को पता नहीं चल सका कि किसके आदेश से और किस योजना के तहत आज़ाद भारत के इस सबसे जघन्य ज़ेरे हिरासत हत्याकांड (कस्टोडियल किलिंग) को अंजाम दिया गया. दंगे पर काबू पाने के लिए तैनात सुरक्षा बल किसी बस्ती में घुस जाए, मर्दों को घरों से बाहर निकाले, ट्रक में बैठाकर तक़रीबन 50 किलोमीटर दूर लेकर आ जाए, एक-एक करके सबको गोलियां मारकर मौत के घाट उतार दे, इसके बाद उनकी लाशें नहर में फेंक दे और किसी वरिष्ठ अधिकारी को इसकी भनक तक न लगे! यह विश्वास करने वाली बात नहीं है.
इतने सारे लोगों की हत्या की योजना बनाना और फैसला करना सड़क पर तैनात सुरक्षाबल के किसी छोटे अधिकारी का काम नहीं हो सकता. इतनी बड़ी घटना को अंजाम देने की हिमाकत कोई छोटा अधिकारी नहीं कर सकता. एक सब-इंस्पेक्टर स्तर का अधिकारी चालीस-पचास लोगों की हत्या की योजना बनाने की हिम्मत नहीं कर सकता. इसका मतलब यही है कि हाशिमपुरा में तैनात पीएसी की टुकड़ी वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश का पालन कर रही थी. वे अधिकारी, जो मा़ैका-ए-वारदात पर स्वयं मौजूद नहीं थे. इस आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उन वरिष्ठ अधिकारियों ने इतनी बड़ी घटना की योजना किसी राजनीतिक संरक्षण के तहत बनाई और इसे अंजाम दिया. अगर यह योजना वरिष्ठ अधिकारियों ने बनाई थी, तो तत्कालीन सरकार ने उन्हें सजा क्यों नहीं दी? इस घटना के बाद तो पीएसी और सेना का पूरा महकमा गिरफ्तार किया जाना चाहिए था. लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ. सरकार ने सीआईडी को जांच की ज़िम्मेदारी दे दी और सीआईडी ने बड़ी आसानी से छोटे अधिकारियों को निशाना बनाया. उसने यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि इस घटना के पीछे कौन था, किस बड़े अधिकारी या राजनेता का हाथ था?
हैरानी की बात यह है कि हाशिमपुरा नरसंहार की जांच कर रही सीआईडी टीम का नेतृत्व एक वरिष्ठ मुस्लिम पुलिस अधिकारी कर रहे थे. बताया जाता है कि वह जिन बड़े अधिकारियों को पूछताछ के लिए तलब करते, वे नहीं आते. इस घटना में सेना की भी भूमिका रही है, लेकिन एक भी सैन्य अधिकारी जांच टीम के सामने उपस्थित नहीं हुआ. दो वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों को लाई-डिटेक्टर टेस्ट के लिए बुलाया गया, लेकिन वे नहीं आए. इससे भी ज़्यादा हैरानी इस बात की है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी स्वयं इस मामले की जांच की जानकारी समय-समय पर लेते रहते थे, इसके बावजूद जांच टीम ने एक हाफ-हार्टेड जांच की. बड़े और असली गुनहगार बच गए तथा सारा आरोप उन लोगों पर आ गया, जो स़िर्फ अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश का पालन कर रहे थे. यह किस तरह की जांच है, जिसमें इस हत्याकांड में इस्तेमाल हथियारों की फोरेंसिक जांच तक नहीं हो सकी. वे हथियार एक सुबूत थे, लेकिन हैरानी की बात यह है कि घटना के कुछ दिनों के बाद वे हथियार वापस पीएसी को दे दिए गए और उन्हें इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी गई.
उस वक्त गाजियाबाद में तैनात आरक्षी अधीक्षक वी एन राय के मुताबिक, हाशिमपुरा के असल गुनहगारों की पहचान और इस मामले में किसी को सजा इसलिए नहीं हो पाई, क्योंकि सरकार में इच्छाशक्ति की कमी थी. अगर उसमें इच्छाशक्ति होती, तो सब पता चल जाता. वी एन राय ने हाशिमपुरा नरसंहार पर काफी रिसर्च की है और वह इसके हर पहलू से वाकिफ हैं. वह हाशिमपुरा पर एक किताब भी लिख रहे हैं. वह कहते हैं कि तब केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी और शीर्ष नेताओं में कोई सांप्रदायिक दुर्भाव भी नहीं था, लेकिन कांग्रेस पार्टी का एक तबका इस पूरी घटना की लीपापोती करना चाहता था. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की प्राथमिकताएं कुछ और थीं, जिसकी वजह से गुनहगार छूट गए. राय उस दंगे की याद करते हुए कहते हैं कि वह दौर ऐसा था, जिसमें मीडिया का भी सांप्रदायिक चेहरा दिखाई दिया. हाशिमपुरा की ख़बर सबसे पहले एक राष्ट्रीय अख़बार को मिली. उस अख़बार में बड़े-बड़े दिग्गज पत्रकार थे, लेकिन उन्होंने पूरी जानकारी हासिल करने के बाद भी ख़बर छापने की हिम्मत नहीं दिखाई. वह कहते हैं कि सबसे पहले चौथी दुनिया ने हिम्मत दिखाई और इस दंगे की पूरी कहानी दुनिया के सामने रख दी. उसके बाद एशियन एज नामक अख़बार ने चौथी दुनिया से यह ख़बर उठाकर अपने यहां छापी.
हाशिमपुरा का मामला सबसे पहले गाज़ियाबाद की अदालत में पहुंचा. यहां यह मामला घिसट-घिसट कर चलता रहा. फिर इकबाल अंसारी ने इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई और इसका दिल्ली स्थानांतरण कराने में कामयाब रहे, जिसकी वजह से कुछ तेजी आई. लेकिन, यहां भी तरह-तरह की रुकावटें आईं. जो पब्लिक प्रोसीक्यूटर था, उसकी नियुक्ति में विवाद हुआ. कई लोग कहते हैं कि उसकी नियुक्ति ग़लत तरीके से हुई. जिन गवाहों को अदालत आना था, वे नहीं आए. सेना के गवाह तो अंत तक अदालत नहीं पहुंचे. किसी तरह से अदालत की कार्रवाई चलती रही. वर्तमान में हाशिमपुरा का मामला आख़िरी दौर में है. ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि इस मामले का फैसला तीन-चार महीने में आ जाएगा.
अगर न्याय में देरी का मतलब न्याय से वंचित होना है, तो हम कह सकते हैं कि मेरठ के मुसलमानों के साथ अन्याय हुआ है. इस दंगे की सबसे दर्दनाक दास्तां मलियाना और हाशिमपुरा में लिखी गई. खाकी वर्दी वालों का जुर्म हिटलर की नाजी आर्मी की याद दिलाता है. मलियाना और हाशिमपुरा की सच्चाई सुनकर रूह कांप जाती है. देश की क़ानून व्यवस्था पर यह एक ऐसा काला धब्बा है, जिस पर सहज विश्वास नहीं होता है. निहत्थे और मासूम लोगों को गोली मारने वाले गुनहगार आज़ाद घूम रहे हैं और जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़ों को खो दिया, वे दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं.
इतने सारे लोगों की हत्या की योजना बनाना और फैसला करना सड़क पर तैनात सुरक्षाबल के किसी छोटे अधिकारी का काम नहीं हो सकता. इतनी बड़ी घटना को अंजाम देने की हिमाकत कोई छोटा अधिकारी नहीं कर सकता. एक सब-इंस्पेक्टर स्तर का अधिकारी चालीस-पचास लोगों की हत्या की योजना बनाने की हिम्मत नहीं कर सकता. इसका मतलब यही है कि हाशिमपुरा में तैनात पीएसी की टुकड़ी वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश का पालन कर रही थी. वे अधिकारी, जो मा़ैका-ए-वारदात पर स्वयं मौजूद नहीं थे. इस आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उन वरिष्ठ अधिकारियों ने इतनी बड़ी घटना की योजना किसी राजनीतिक संरक्षण के तहत बनाई और इसे अंजाम दिया. अगर यह योजना वरिष्ठ अधिकारियों ने बनाई थी, तो तत्कालीन सरकार ने उन्हें सजा क्यों नहीं दी? इस घटना के बाद तो पीएसी और सेना का पूरा महकमा गिरफ्तार किया जाना चाहिए था. लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ. सरकार ने सीआईडी को जांच की ज़िम्मेदारी दे दी और सीआईडी ने बड़ी आसानी से छोटे अधिकारियों को निशाना बनाया. उसने यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि इस घटना के पीछे कौन था, किस बड़े अधिकारी या राजनेता का हाथ था?
हैरानी की बात यह है कि हाशिमपुरा नरसंहार की जांच कर रही सीआईडी टीम का नेतृत्व एक वरिष्ठ मुस्लिम पुलिस अधिकारी कर रहे थे. बताया जाता है कि वह जिन बड़े अधिकारियों को पूछताछ के लिए तलब करते, वे नहीं आते. इस घटना में सेना की भी भूमिका रही है, लेकिन एक भी सैन्य अधिकारी जांच टीम के सामने उपस्थित नहीं हुआ. दो वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों को लाई-डिटेक्टर टेस्ट के लिए बुलाया गया, लेकिन वे नहीं आए. इससे भी ज़्यादा हैरानी इस बात की है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी स्वयं इस मामले की जांच की जानकारी समय-समय पर लेते रहते थे, इसके बावजूद जांच टीम ने एक हाफ-हार्टेड जांच की. बड़े और असली गुनहगार बच गए तथा सारा आरोप उन लोगों पर आ गया, जो स़िर्फ अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश का पालन कर रहे थे. यह किस तरह की जांच है, जिसमें इस हत्याकांड में इस्तेमाल हथियारों की फोरेंसिक जांच तक नहीं हो सकी. वे हथियार एक सुबूत थे, लेकिन हैरानी की बात यह है कि घटना के कुछ दिनों के बाद वे हथियार वापस पीएसी को दे दिए गए और उन्हें इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी गई.
उस वक्त गाजियाबाद में तैनात आरक्षी अधीक्षक वी एन राय के मुताबिक, हाशिमपुरा के असल गुनहगारों की पहचान और इस मामले में किसी को सजा इसलिए नहीं हो पाई, क्योंकि सरकार में इच्छाशक्ति की कमी थी. अगर उसमें इच्छाशक्ति होती, तो सब पता चल जाता. वी एन राय ने हाशिमपुरा नरसंहार पर काफी रिसर्च की है और वह इसके हर पहलू से वाकिफ हैं. वह हाशिमपुरा पर एक किताब भी लिख रहे हैं. वह कहते हैं कि तब केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी और शीर्ष नेताओं में कोई सांप्रदायिक दुर्भाव भी नहीं था, लेकिन कांग्रेस पार्टी का एक तबका इस पूरी घटना की लीपापोती करना चाहता था. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की प्राथमिकताएं कुछ और थीं, जिसकी वजह से गुनहगार छूट गए. राय उस दंगे की याद करते हुए कहते हैं कि वह दौर ऐसा था, जिसमें मीडिया का भी सांप्रदायिक चेहरा दिखाई दिया. हाशिमपुरा की ख़बर सबसे पहले एक राष्ट्रीय अख़बार को मिली. उस अख़बार में बड़े-बड़े दिग्गज पत्रकार थे, लेकिन उन्होंने पूरी जानकारी हासिल करने के बाद भी ख़बर छापने की हिम्मत नहीं दिखाई. वह कहते हैं कि सबसे पहले चौथी दुनिया ने हिम्मत दिखाई और इस दंगे की पूरी कहानी दुनिया के सामने रख दी. उसके बाद एशियन एज नामक अख़बार ने चौथी दुनिया से यह ख़बर उठाकर अपने यहां छापी.
हाशिमपुरा का मामला सबसे पहले गाज़ियाबाद की अदालत में पहुंचा. यहां यह मामला घिसट-घिसट कर चलता रहा. फिर इकबाल अंसारी ने इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई और इसका दिल्ली स्थानांतरण कराने में कामयाब रहे, जिसकी वजह से कुछ तेजी आई. लेकिन, यहां भी तरह-तरह की रुकावटें आईं. जो पब्लिक प्रोसीक्यूटर था, उसकी नियुक्ति में विवाद हुआ. कई लोग कहते हैं कि उसकी नियुक्ति ग़लत तरीके से हुई. जिन गवाहों को अदालत आना था, वे नहीं आए. सेना के गवाह तो अंत तक अदालत नहीं पहुंचे. किसी तरह से अदालत की कार्रवाई चलती रही. वर्तमान में हाशिमपुरा का मामला आख़िरी दौर में है. ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि इस मामले का फैसला तीन-चार महीने में आ जाएगा.
अगर न्याय में देरी का मतलब न्याय से वंचित होना है, तो हम कह सकते हैं कि मेरठ के मुसलमानों के साथ अन्याय हुआ है. इस दंगे की सबसे दर्दनाक दास्तां मलियाना और हाशिमपुरा में लिखी गई. खाकी वर्दी वालों का जुर्म हिटलर की नाजी आर्मी की याद दिलाता है. मलियाना और हाशिमपुरा की सच्चाई सुनकर रूह कांप जाती है. देश की क़ानून व्यवस्था पर यह एक ऐसा काला धब्बा है, जिस पर सहज विश्वास नहीं होता है. निहत्थे और मासूम लोगों को गोली मारने वाले गुनहगार आज़ाद घूम रहे हैं और जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़ों को खो दिया, वे दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं.
मलियाना-अब न्याय मिलने की उम्मीद नहीं:
1983 के मेरठ दंगे के दौरान मलियाना शांत रहा. यहां हिंदू-मुसलमान हमेशा से साथ-साथ रहे हैं, लेकिन 1987 में अचानक यह अफवाह फैली कि मलियाना में गिरफ्तारियां होंगी. अफवाह उस वक्त सच साबित हो गई, जब पुलिस-पीएसी ने क़रीब ग्यारह बजे पूरे गांव को घेर लिया और तलाशी के नाम पर उसने लोगों को घरों से बाहर निकालना शुरू किया. पीएसी के जवान गोलियां चलाने लगे. तीन घंटे तक लगातार गोलियां चलती रहीं.
पुलिस-पीएसी और दंगाइयों ने सबसे पहले सत्तार वल्द मोहम्मद अली के घर को लूटा. यहां पुलिस ने दहशत फैलाने के लिए एक घर को जला दिया. घर के साथ-साथ उसमें रहने वाले परिवार के छह सदस्य भी जलकर खाक हो गए. देखते ही देखते मलियाना गांव के सौ-सवा सौ घरों में आग लगा दी गई. क़रीब 73 लोग मारे गए. जबकि सरकारी आंकड़े यह संख्या बहुत ही कम बताते हैं. दंगाइयों में आसपास के अलावा बाहर के भी कई लोग थे. घटना के तुरंत बाद मोहम्मद याकूब ने थाने में एफआईआर की. सोचा कि कम से कम दंगाइयों को क़ानून से सज़ा मिल जाए. जिन पुलिस-पीएसी वालों ने बेगुनाहों की जान ली है, उन्हें सज़ा मिल जाए, लेकिन यह पता नहीं था कि इस दंगे से ज़्यादा गहरा घाव न्याय दिलाने वाले संघर्ष से मिलने वाला है. मलियाना के दंगे में 93 लोगों के ख़िलाफ़ एफआईआर हुई और 75 लोग गवाह बनाए गए थे. आज इतने साल बीत गए हैं, लेकिन अभी तक इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई. घटना के बीस साल बाद कोर्ट से सम्मन आया कि मामले की सुनवाई होने वाली है. मलियाना के लोग अदालत पहुंचे, अपना वकील किया. जो कुछ कर सके, वह उन्होंने किया.पहले ही दिन विपक्ष के वकील ने कहा कि इसमें एफआईआर नहीं है. जब तक एफआईआर की सर्टिफाइड कॉपी नहीं होगी, तब तक मुक़दमा नहीं चलेगा. उसके बाद जज ने पूछताछ की कि एफआईआर कहां है. वैसे तो यह ज़िम्मेदारी पुलिस की होनी चाहिए थी, लेकिन पुलिस ने हाथ खड़े कर दिए. फिर मलियाना के लोग थाने गए और उन्होंने 23 मई, 1987 को दर्ज एफआईआर की कॉपी मांगी. थानेदार ने कहा कि हमारे पास नहीं है. हम स़िर्फ पांच साल का ही रिकॉर्ड रखते हैं. हम सारे काग़ज़ात अदालत में जमा करके साइन करा लेते हैं. अब तो हमारे पास न रिकॉर्ड है और न हम कुछ बता सकते हैं. यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक उस एफआईआर का पता नहीं चल सका. बिना एफआईआर के ही जज ने गवाही की इजाजत दे दी. फास्ट ट्रैक कोर्ट था, तो हर हफ्ते तारीख़ लगती थी, लेकिन एक साल तक एक ही आदमी की गवाही होती रही. फिर एक साल बाद दूसरी गवाही पेश की गई. अगर इसी तरह से गवाही चलती रही, तो फैसला आते-आते पचहत्तर साल लग जाएंगे. पच्चीस साल ऐसे भी बीत चुके हैं. तब तक न तो कोई मुजरिम बचेगा और न कोई गवाह. इस मामले को फिर फास्ट ट्रैक कोर्ट से दूसरी अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया. यहां फिर वही सवाल उठा कि एफआईआर कहां है? और, जज ने साफ़-साफ़ कह दिया कि बिना एफआईआर के सुनवाई नहीं होगी. इस मामले को पेंडिंग में डाल दिया गया. न तो नक़ल मिली है और न मुक़दमे की कोई सुनवाई हो रही है. मेरठ दंगे की यह हक़ीक़त देश का मीडिया जानता है, मुस्लिम वोटों के लिए सेकुलर बने राजनीतिक दल जानते हैं, दंगों के लिए लड़ने का दम्भ भरने वाले सामाजिक कार्यकर्ता जानते हैं, पुलिस जानती है, प्रशासन जानता है, राज्य सरकार जानती है, केंद्र सरकार जानती है, लेकिन सब चुप हैं. मलियाना के मुसलमानों को न्याय दिलाने वाला कोई नहीं है. हाशिमपुरा के मामले में तो कम से कम सुनवाई हुई और कुछ महीने में फैसला आने की उम्मीद भी है, लेकिन मलियाना के लोगों को न्याय मिलने की उम्मीद भी ख़त्म हो गई है.
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