मामला विचाराधीन, उम्र कट रही है जेल में
- 1 दिसंबर 2014
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक भारत की जेलों में उनकी क्षमता से काफ़ी ज़्यादा क़ैदियों को रखा गया है और इनमें से अधिकतर विचाराधीन क़ैदी ही हैं.
इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने भी एक अहम फैसले में ज़िला एवं सत्र न्यायाधीशों से कहा है कि वो जेलों का निरीक्षण करें और ऐसे क़ैदियों को निजी मुचलके पर रिहा करें जिनका मामला लंबे समय से विचाराधीन है और उन्होंने संभावित सज़ा का आधा समय जेल में बिता दिया है.
देश की विभिन्न जेलों में रह रहे विचाराधीन कैदियों के हाल और हालात पर बीबीसी हिन्दी पेश कर रही है विशेष शृंखला. पढ़ें इस शृंखला की पहली कहानी.
पढ़ें विशेष रिपोर्ट
वर्ष 1994 की बात है, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला लखनऊ गए हुए थे. इस शहर से उनकी पुरानी यादें जुड़ी हुईं थीं. इसी शहर से पढ़कर उन्होंने क़ानून की डिग्री भी ली थी.
पूर्व राज्यपाल और मुख्यमंत्री रहे बरनाला 24 घंटे सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहने से ऊब चुके थे. वो अकेले ही खुली हवा में सांस लेना चाहते थे और छात्र जीवन की पुरानी यादें ताज़ा करना चाहते थे.
शहर के अमीनाबाद के बाज़ार में बिना सुरक्षाकर्मियों के वो घूमने निकले ही थे कि बस पुलिस के लोगों को उनपर 'आतंकवादी' होने का शक हुआ और वो उनका पीछा करने लगे.
कुछ ही देर में उन्होंने अपने आप को थाने में पाया जहाँ उनसे गहन पूछताछ की जाने लगी. चूंकि पुलिस को उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिल पाए थे इसलिए उनसे दो स्थानीय लोगों की ज़मानत मांगी गई.
बरनाला ने पुलिस को बताया कि लखनऊ में वो सिर्फ मुलायम सिंह यादव को पहचानते थे जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. कई घंटों तक चली चली पूछताछ के बाद आखिरकार पुलिसवालों ने उन्हें छोड़ दिया. बरनाला ने यह आपबीती अपनी किताब 'स्टोरी आफ ऍन एस्केप' में लिखी है.
मुख्यमंत्री की पहचान
चूंकि बरनाला पढ़े-लिखे थे और उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से क़ानून की डिग्री भी ली थी इसलिए पुलिसवालों ने उन्हें छोड़ दिया. मगर भारत की विभिन्न जेलों में बंद सारे कैदी उतने खुशकिस्मत नहीं हैं.
यही वजह है कि छोटे मोटे मामलों में कइयों को ना तो निजी मुचलके पर छोड़ा जाता है और ना ही उन्हें समय पर ज़मानत मिल पाती है. कम पढ़े लिखे होने की वजह से उन्हें यह भी पता नहीं लग पाता कि उनके ख़िलाफ़ कौन सी धाराएं दर्ज की गईं हैं.
ताज़ा सरकारी आंकड़ों के अनुसार जेलों में बंद 74 प्रतिशत कैदी या तो अनपढ़ हैं या फिर दसवीं कक्षा तक ही पढ़े हुए हैं.
यही कारण है अपने लिए वकील रखने या फिर अपने लिए ज़मानत का इंतजाम करने में उन्हें मुश्किलें आती हैं. जेलों की बढ़ती आबादी का ये एक बड़ा कारण है.
कैदियों की संख्या
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट की अगर बात की जाए तो भारत में कैदियों की संख्या 4, 11, 992 है जिनमे विचाराधीन कैदियों की संख्या 2, 78, 508 है.
इसका मतलब यह हुआ कि जेलों में बंद 67.6 फ़ीसदी लोगों के मामले अदालतों में विचाराधीन हैं. विचाराधीन क़ैदी का मतलब होता है ऐसा क़ैदी जिसे अदालत ने दोषी क़रार नहीं दिया हो और उसके खिलाफ चल रहा मामला अदालत में लंबित हो.
इन कैदियों में से 3,113 ऐसे हैं जिन्हें स्थानीय सुरक्षा क़ानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया है.
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार देश में सबसे ज़्यादा कैदी उत्तर प्रदेश की जेलों में हैं जहाँ इनकी संख्या 83, 518 है. उसके बाद मध्य प्रदेश का नंबर है जहाँ 34708 कैदियों को रखा गया है.
बिहार में 31529, पंजाब में 27449 और महाराष्ट्र की जेलों में 27400 कैदी बंद हैं.
चौंकाने वाली बात यह लगभग 60 प्रतिशत सज़ायाफ़्ता कैदियों को हत्या के इल्ज़ाम में सज़ा हुई है.
सबसे अधिक कैदी
जेलों में सबसे अधिक भीड़ छत्तीसगढ़ राज्य में हैं. यहां की जेलों की क्षमता 6,070 कैदियों की है, लेकिन यहां 15,840 कैदी बंद है.
इन कैदियों में ज़्यादातर लोग ऐसे हैं जो आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं या फिर समाज के पिछड़े तबके से ताल्लुक़ रखते हैं. रिपोर्ट के अनुसार इन जेलों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले कैदियों की संख्या ही ज़्यादा है.
मानवाधिकार के लिए काम करने वाले संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल की शोधकर्ता नुसरत ख़ान का कहना है, "कैदियों की संख्या के मामले में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है. पिछले दस सालों में जेल की आबादी बढ़ी ही है. इस वक़्त क्षमता से 118. 4 प्रतिशत अधिक कैदी भरे हुए हैं."
जेलों की क्षमता
मगर सबसे गंभीर पहलू यह है कि 4, 11, 992 कैदियों की यह आबादी सिर्फ 1391 जेलों में ही रह रही है जिनकी क्षमता सिर्फ 3,47,859 कैदियों को रखने की है.
यही वजह है कि पिछले चार सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी जिला एवं सत्र न्यायाधीशों को ख़ास निर्देश दिया है. निर्देश के मुताबिक एक दिसंबर तक वो अपने ज़िलों की जेलों का दौरा कर उन विचाराधीन कैदियों की सूची अपने उच्च न्यायालयों को सौंपें जिन्होंने काफी समय क़ैद में बिताया है.
हालांकि सीआरपीसी की धारा 436 ए के तहत ऐसा प्रावधान है कि संभावित सज़ा का आधा समय अगर किसी कैदी ने विचाराधीन ही रहकर गुज़ार दिया हो तो उसे निजी मुचलके पर ज़मानत दी जा सकती है. मगर इस प्रावधान के बावजूद लम्बी खिंचती हुई क़ानूनी प्रक्रिया की वजह से विचाराधीन कैदी सालों तक जेलों में बंद रहते हैं और उन्हें राहत नहीं मिल पाती.
विचाराधीन कैदियों के लिए राहत
नुसरत खान कहती हैं कि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने एक अभियान शुरू किया है जिसके तहत वो सरकार के साथ-साथ निचली अदालत के न्यायाधीशों से मिलकर उन्हें धरा 436 ए के तहत विचाराधीन कैदियों को राहत पहुंचाने का अनुरोध कर रहे हैं.
विचाराधीन कैदियों पर चल रही बहस के बीच वर्ष 2013 में 13,95,994 विचाराधीन कैदियों को रिहा किया गया.
सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि वैसे कैदियों की सूची बनाई जाए जिन्होंने दोषी पाये जाने पर होने वाली संभावित सज़ा का आधा समय जेल में ही बिता दिया हो और जिनका मामला अभी तक लंबित है.
ऐसे विचाराधीन कैदियों को निजी मुचलके पर छोड़ने की बात सुप्रीम कोर्ट ने कही है.
हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा आयोजित कार्यशाला में बोलते हुए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन का कहना था कि जेलें सज़ायाफ़्ता कैदियों के लिए हैं ना कि विचाराधीन बंदियों के लिए.
उन्होंने कहा, "अगर आरोप पत्र दाखिल हो गया हो और ऐसे इमकान न हों कि अभियुक्त गवाहों और सबूतों को प्रभावित कर सके, तो फिर कोई कारण नहीं है कि उसे सलाखों के पीछे ही रखा जाये."
इस साल 26 नवम्बर को भारत के संविधान की 65 वीं वर्षगाँठ मनाई गई. जाने-माने सामजिक कार्यकर्ता पलाश बिस्वास कहते हैं कि संविधान का पालन अगर सही मायनो में किया जाए तो इस तरह की परिस्थिति की नौबत नहीं आएगी.
बिस्वास कहते हैं कि जो लोग कमज़ोर तबके से आते हैं, मसलन, आदिवासी या पिछड़े वर्ग से, सबसे ज़्यादा न्याय से वंचित रहने वाले वही हैं.
वो कहते हैं, "यही वो तबक़ा है जिसकी जनसुनवाई का कोई ज़रिया भी नहीं है. आजकल तो मीडिया में भी इनकी सुनवाई नहीं हो पाती है. जेलों में इस तबके की बढ़ती आबादी इस बात का संकेत है कि इन्हें कहीं नहीं सुना जाता है."
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