25000 मौतें, सज़ा 35 मिनट प्रति मौत
- 3 घंटे पहले
साल 1984 में दो और तीन दिसंबर की मध्यरात्रि में अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित संयंत्र से जानलेवा गैस लीक होनी शुरू हुई.
इस दुर्घटना में क़रीब 25 हज़ार लोगों की मौत हुई. एक लाख से ज़्यादा लोग इस हादसे में बेघर, बीमार या फिर अपंग हुए.
पीड़ित आज भी पर्याप्त मुआवज़ा नहीं मिलने की शिकायत करते हैं. वहीं मामले के दोषियों को नाममात्र की सज़ा मिली.
पढ़ें विशेष लेख विस्तार से
भोपाल गैस त्रासदी के तीस साल गुज़र गए. इन सालों में हज़ारों लोग भी गुज़र गए. जो बाक़ी हैं, वे भी गुज़रते वक़्त के साथ गुज़रने वालों की कतार में हैं.
लगता है अमरीकी मल्टी-नेशनल कम्पनी यूनियन कर्बाइड के पास कोई जादू की छड़ी थी. इस 'जादू' का नाम था मिथाईल आइसो-साइनेट उर्फ एम.आई.सी. उर्फ मिक.
इस मिक गैस के ज़ोर से सबसे पहले भोपाल के हज़ारों बेगुनाह और मासूम लोग दो और तीन दिसम्बर की मध्य रात्रि में गुज़र गए.
उस रात जो पांच लाख लोग बचे उनमें से एक-एक कर अब तक कोई 25 हज़ार लोग गुज़र चुके हैं. कोई डेढ़ लाख लोग अपंग या शदीद तौर पर बीमार हैं.
सर्द रात में रेंगती मौत
दिसम्बर की उस सर्द रात, शहर के लोग रविवार की छुट्टी मनाकर, अपने-अपने बिस्तर में न जाने किन सपनों में खोए थे.
इन सपनों में चाहे जो कुछ हो लेकिन यह कतई नहीं था कि मौत ने एम.आई.सी गैस का रूप धर लिया है और शहर के हर इंसान को अपना निशाना बना लिया है. लेकिन उस घड़ी का सच यही था.
ज़हरीली मिथाईल आइसो-साईनेट ने हवा का सहारा लेकर धुएं का रूप ले लिया और भोपाल के सोते-जागते-भागते हर इंसान के फेफड़ों में घुसकर घर बना लिया.
मौतों की शुरुआत
उस एक रात में जो कुछ हुआ, वह महज़ एक शुरुआत थी. तीस साल गुज़र चुके हैं और इसका अब तक कोई अंत नज़र नहीं आता.
शायद तब तक, जब तक अंतिम गैस पीड़ित का अंत नहीं हो जाता. यह सब लोग हैं तो लेकिन ये नहीं जानते कि इनके साथ ऐसा क्यों हुआ ? क्यों उन्हें बेवक़्त ही मौत के हवाले कर दिया गया.
हमारे भारतीय समाज की यही त्रासदी है कि हर दौर की सरकारें हमें इस बात का अंदाज़ा ही नहीं होने देतीं कि हमारे साथ कब, क्या हो सकता है.
भोपाल की गैस त्रासदी, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी मानव निर्मित त्रासदी क़रार दिया गया है, इसी सच्चाई का एक सुबूत है.
'लाश पर विकास'
विकास के नाम पर किस तरह इंसानी ज़िंदगियों की अनदेखी होती है. यह त्रासदी इस शर्मनाक हक़ीक़त का एक नुमाया सुबूत है कि हमारे देश में दुनिया के तमाम मोटे उद्य़ोगपतियों के मोटे मुनाफे के सामने इंसान को किस क़दर बौना और किस कदर सस्ता बना दिया गया है, यह त्रासदी सुबूत है उसी ग़लीज़ और गंदी सरकारी सोच का.
ज़रा ग़ौर फ़रमाएं कि ख़ुद को ‘जन कल्याणकारी सरकार’ कहने वाली सरकार ने बिना ज़रूरी सुरक्षा शर्तों के इतने ख़तरनाक कारख़ाने को लगाने की इजाज़त दे दी.
एजेंसियों ने मूँदी आँख
जब इस कारख़ाने ने सामान्य सुरक्षा व्यवस्थाओं पर भी ख़र्च में कटौती करके सारे सिस्टम बंद कर दिए तब भी सरकारी एजंसियों ने आंख मूंदना बेहतर समझा.
और जब गैस लीक हुई तो लोगों को मरने के लिए बेसहारा छोड़कर सरकार के आला अफसर और आला मंत्री अपनी जान बचाने दूर जा छिपे. लेकिन जब यूनियन कारबाईड को बचाने की बारी आई तो यही भगोड़ी सरकार उसके बचाव में सामने आकर खड़ी हो गई.
इसी मक़सद से सरकार ने एक कानून बनाकर गैस पीड़ितों से कार्बाईड के ख़िलाफ कानूनी कार्यवाही का अधिकार छीनकर अपने हाथ में ले लिया. और अधिकार लेकर एक दिन, 14-15 फरवरी 1989 को गुपचुप तरीके से सुप्रीम कोर्ट के सामने एक समझौते का मसविदा पेश कर दिया.
मुआवज़ा और दावा
इस समझौते के मुताबिक यूनियन कार्बाईड को 3.3 बिलियन डालर (लगभग 4500 करोड़ रुपए) के क्लेम के बदले महज़ 470 मिलियन डालर(715 करोड़ रुपए) का मुआवज़ा देना था और बदले में उसके ख़िलाफ मुवाअज़ा दावे के साथ ही साथ लापरवाही से हत्या करने वाला आपराधिक केस भी समाप्त होना था.
इस समझौते को अदालत की मान्यता भी मिल गई और हज़ारों हत्याओं की ज़िम्मेदार कंपनी चंद रुपए देकर बरी हो गई. यह अलग बात है कि इस समझौते को बाद में चुनौती दी गई तो आपराधिक प्रकरण फिर से चलाया गया लेकिन मुआवज़ा राशि जस की तस ही बनी रही.
आठ रुपए का वित्तीय भार
एक शर्मनाक लेकिन हमेशा याद रखने लायक बात यह है कि यह मुआवज़ा राशि चुकाने के बाद यूनियन कार्बाईड कार्पोरेशन अमरीका ने अपने शेयर धारकों को बधाई देने वाले अंदाज़ में बताया था कि इस समझौते के नतीजे में कंपनी पर बेहद मामूली वित्तीय भार आया है.
और जानते हैं कितना था वह वित्तीय भार ? मात्र 50 सेंट प्रति शेयर. मतलब आधा डालर. मतलब कोई आठ रुपए. जी हां, 1989 में डालर का मूल्य मात्र 16 रुपए था.
जब इस रक़म का बंटवारा गैस पीड़ितों के बीच हुआ तो पांच लाख दावेदारों में से 90 प्रतिशत लोगों के हिस्से में आया 25-25 हज़ार रुपए.
वह भी इसलिए कि मुआवज़ा बांटने के लिए अदालतें बनाने और अदालते बनने के बाद फ़ैसले होने में इतने बरस लग गए कि तब तक गैस पीड़ितों की उम्र भले ही कम होती चली गई हो लेकिन डालर की कीमत लगातार बढ़ती जा रही थी. 16 रुपए वाला डालर 2002 के आते-आते 45-46 रुपए तक जा पहुंचा था.
'भ्रष्टाचार की मांद'
मुआवज़े की रकम का बंटवारा किसी हैबतनाक हादसे से कम नहीं है. भोपाल गैस पीड़ितों के लिए बने ‘क्लेम कोर्ट’ भ्रष्टाचार की एक ऐसी मांद में तब्दील हो गई जिसमें घुसकर निकलने वाला ख़ुद को ख़ुशनसीब समझता था.
कभी-कभार यूं भी हुआ कि दुख-दर्द और अन्याय से बग़ावत करके किसी गैस पीड़ित ने अदालत में ही अदालत की नीयत पर सवाल खड़ा कर दिया.
ऐसे मौकों पर वहां मौजूद दलालनुमा लोगों ने हमदर्द की भूमिका अपना ली और कमीशन कुछ कम कर दिया. लेकिन इस सबके बावजूद आख़िर में बेहक़ का हक़ जताने वाले फ़र्ज़ी दावेदारों को को मुआवज़े की भारी रकम मिल गई और हक़दार के हिस्से आईं कौड़ियां.
बैंक वालों की भूमिका
इन हालात को और बदतर बनाने के लिए बैंक वाले भी क़तार में खड़े थे.
इस फैसले की आड़ में कि अशिक्षित लोगों को मुआवज़े की रकम तत्काल न देकर छह माह के लिए बैंक़ में फिक्स डिपाज़िट के तौर पर रखा जाए, दावा अदालतों और बैंक लाबी के गठजोड़ के नतीजे में अधिकांश पढ़े-लिखे लोगों का मुआवज़ा भी बैंक में डिपाज़िट करने के आदेश होते चले गए.
बड़े व्यापारिक घरानों के कर्ज़े के लिए काम आने वाले इन डिपाज़िट्स के बदले कुछ लोगों को कमीशन ज़रूर मिल गया. ज़ाहिर है, करोड़ों रुपए पर लाखों का कमीशन तो बनता ही है.
'नापाक समझौता'
सरकार और कार्बाईड के बीच हुए इस नापाक और नाजायज़ समझौते पर तूफ़ानी तेज़ी से अदालत की मंज़ूरी की मुहर लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएस पाठक रिटायरमेंट के बाद हॉलैंड के इंटरनेशनल कोर्ट में जज की कुर्सी पर जा बैठे.
इस नियुक्ति को इसी नाजायज़ और नापाक समझौते पर मुहर लगाने का इनाम माना जाता है.
इसी तरह 1996 में सर्वोच न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एएम अहमदी ने भोपाल नरसंहार के अपराधियों के ख़िलाफ भारतीय दंड विधान की धारा 304–II के अंतर्गत दर्ज अपराध की धारा को बदलकर 304-ए में बदल दिया.
इसका मतलब था अपराध की गंभीरता और सज़ा दोनो में कमी. पहली धारा में जहां दस साल की सज़ा का प्रावधान है, वहीं दूसरी धारा में मात्र दो साल की सज़ा.
पहली धारा में मामला संघातक हत्या का बनता है जबकि बदली हुई धारा में विश्व के सबसे भीषण मानवीय त्रासदी को एक सड़क दुर्घटना के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया गया.
फ़ैसले के बाद
इस फ़ैसले के कुछ अरसे बाद जब जस्टिस अहमदी रिटायर हुए तो उन्हें यूनियन कार्बाईड के पैसों से बने अस्पताल – भोपाल मेमोरियल हास्पीटल और रिसर्च सेंटर के ट्रस्ट का चेयरमैन बना दिया गया.
इसी आपराधिक निर्णय का नतीजा था कि अपराध के 26 साल बाद, सात जून 2010 को जब भोपाल जिला न्यायालय में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी मोहन तिवारी ने एक बंद कमरे में फ़ैसला सुनाया तो इन सात मुलज़िमों में से हर एक को दो-दो बरस की सज़ा सुनाई गई.
अगर आप ज़रा सा हिसाब लगाएं तो भोपाल में हुई 25 हज़ार मौतों में से हर मौत के लिए महज़ 35 मिनट की सज़ा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें