दिल्ली सरकार के आंकड़ों के मुताबिक शहर में 55 हजार ऐसे लोग हैं जिनके पास अपना कोई ठौर-ठिकाना नहीं है, कोई घर नहीं है. हालांकि इस संख्या को लेकर मतभेद भी है. इसी मुद्दे पर काम करने वाली आश्रय अधिकार अभियान नामक स्वयंसेवी संस्था का दावा है कि सरकार का आंकड़ा गलत है. संस्था के मुताबिक इस वक्त दिल्ली में बेघर लोगों की संख्या लगभग 1.5 लाख है. सरकार जिस आंकड़े की बात कर रही है वह सर्वे 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के समय हुआ था और उस वक्त पूरे शहर से बेघर लोगों को निकाल दिया गया था. उन्हें दिल्ली से बाहर के इलाकों में भेज दिया गया था. इसीलिए सरकार वास्तविक संख्या से अंजान है.
खैर, संख्या चाहे जो भी हो, सच इतना भर है कि ठंड के इस मौसम में शहर में एक बड़ी आबादी सड़कों पर रह रही है. इनमें एक बड़ी आबादी उन लोगों की है जो सड़कों पर, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों के आगे भीख मांगते हैं. कुछ नशेबाज भी होते हैं. अमूमन ये लोग शाम होते ही सरकार द्वारा चलाए जा रहे रैन बसेरों में आश्रय ले लेते हैं. इसकी वजह यह है कि इन रैन बसेरों में ठहरने के लिए कोई पैसा नहीं देना पड़ता. लेकिन इनमें गंदगी इतनी ज्यादा होती है कि कोई सामान्य आदमी यहां थोड़ी देर के लिए रुक भी नहीं सकता, पूरी रात सोना तो दूर की बात है.
बेघर-बार लोगों में और भी कई तरह के लोग हैं. कुछ ऐसे हैं जो दूसरे राज्यों से काम की तलाश में यहां आए हैं. ये लोग दिनभर दिहाड़ी पर मजदूरी करते हैं और रात में सड़कों के किनारे ही सो जाते हैं. गर्मी के मौसम में तो खुले आसमान के नीचे रात कट जाती है, लेकिन जाड़े में ये लोग किसी ऐसे ठौर की तलाश करते हैं जहां रात की नींद पूरी हो जाए. लोगों की यह मजबूरी कुछ लोगों के लिए रोजगार का मौका है. पुरानी दिल्ली के कुछ इलाके इसी तरह के एक अनोखे धंधे की उर्वर जमीन है. यहां कई ऐसी जगहें हैं जहां लोगों को रात में सोने के लिए चारपाई, दरी और रजाई किराए पर दी जाती है और अलसुबह ही छीन ली जाती है. एक की मजबूरी से दूसरे की रोजी-रोटी का यह अद्भुत अर्थशास्त्र है.
खुले आसमान के नीचे सो रहे इनलोगों के पास किराये का कमरा या घर नहीं है. इन्हें हर महीने का किराया नहीं देना होता बल्कि ये रोज सुबह किराया देते हैं.
एक रात के लिए चारपाई के साथ रजाई का किराया 30 रुपये से 50 रुपये तक लिया जाता है. जिन इलाकों में सुबह 6 बजे जगा दिया जाता है, वहां 30 रुपये बतौर किराया लिया जाता है और जहां 7 से 7.30 बजे तक सोने दिया जाता है, वहां 50 रुपये लिया जाता है. अमूमन रात में 10 से 11 बजे के बीच ग्राहकों को सुलाया जाता है.
पुरानी दिल्ली की एक गली में चैन की नींद सोते इस आदमी को सुबह 50 रुपया किराया के तौर पर देना होगा.
जब इलाके की बाकी दुकानें बंद हो जाती हैं, तो इस दुकान का शटर खुलता है. मोलभाव शुरू होता है. किराए का पैसा लेने के बाद रजाई, दरी और चारपाई दी जाती है. सुबह जब तक बाकी दुकानें खुलती हैं, तब यह दुकान एक बार फिर से शाम तक के लिए बंद हो जाती है.
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चारपाई और रजाई किराए पर नहीं ले पाते. ऐसे लोगों के लिए जमीन पर एक बड़ी दरी बिछा दी जाती है. केवल रजाई किराए पर लेकर लोग साथ-साथ सो जाते हैं. केवल रजाई का किराया 10 रुपये से 20 रुपये के बीच है. सुबह इनके जगने का इंतजार नहीं किया जाता. सुबह होते ही रजाई छीन ली जाती है.
जैसे-जैसे ठंड बढ़ती है वैसे-वैसे सोनेवालों की संख्या बढ़ती है. कारोबार बढ़ता है. सोने का सामान किराए पर देनेवाले लोग अपने साथ दो-चार लोग रखते हैं जो सुबह होते ही हरकत में आ जाते हैं और कुछ ही समय में सारी रजाई, खाट और दरी एक जगह जुटा देते हैं. इन मजदूरों को सोने के लिए मुफ्त में रजाई मिलती है और मेहनताने के तौर पर 50 रुपये भी मिलते हैं.
यमुनापार रहनेवाले रफीक पिछले कई सालों से यह काम कर रहे हैं. इनके यहां एक रात में तकरीबन दो सौ लोग सोते हैं. ठंड बढ़ने पर हर रात चार सौ लोग तक यहां सोते हैं. रफीक दिल्ली पुलिस से नाराज हैं. वह कहते हैं कि पुलिस उन्हें परेशान करती है और उनसे घूस लेती है. वह कहते हैं, ‘हम किसी को सोने के लिए गर्म रजाई, खाट और दरी देते हैं. बदले में किराया लेते हैं. इसमें गलत क्या है. अगर सरकार इनके सोने का इंतजाम कर दे तो ये लोग हमारे यहां आएंगे ही नहीं. हमारा काम बंद हो जाएगा. सरकार को इन बेघरों के लिए इंतजाम करना चाहिए न कि हमें भगाना चाहिए.’
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