शनिवार, 20 दिसंबर 2014

व्यक्ति विशेष: बंधुआ मजदूर कैसे बना मुख्यमंत्री!

व्यक्ति विशेष: बंधुआ मजदूर कैसे बना मुख्यमंत्री!

ये दास्तान बिहार के छोटे से गांव मकहर की है. करीब 68 साल पहले एक खेतीहर मजदूर रामजीत राम मांझी भी इसी गांव में रहा करते थे. मुसहर जाति से संबंध रखने वाले रामजीत मांझी की जिंदगी भी उसके मुसहर समाज से जुदा नहीं थी. मिट्टी की दीवारों से बनी घास फूस के छप्पर वाली रामजीत की ऐसी ही कोठऱी सुअरों के लिए निवास स्थान का काम भी करती थी. दरअसल बिहार के मगध इलाके में मुसहर समुदाय की जिंदगी इस कदर बदहाल रही है कि जिसकी कल्पना भी आपके रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है.
 
खलिहान में मजदूरी करने वाले इस मुसहरों को भुइया कह कर भी पुकारा जाता है लेकिन चूहों को उनके बिल से पकड़ कर उनका मांस खाने की वजह से इस समाज का नाम मुसहर पड़ा है. शराब और ताड़ी की दुर्गंध से महकते ऐसी ही मुसहर टोली में करीब 68 साल पहले एक बंधुआ मजदूर के घर एक बच्चे का जन्म हुआ था. खेतों में बंधुआ मजदूरी करने वाला वह बच्चा वक्त को जीत कर आज बन गया है मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी. लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने जब से पद संभाला है वह अपने बयानों को लेकर अक्सर विवादों में घिरते रहे हैं.

जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बने सात महीने गुजर चुके हैं लेकिन इन सात महीनों में वो अपने काम की बजाए अपने बयानों को लेकर ज्यादा चर्चा में रहे हैं. जीतन राम मांझी के ऐसे बयान जहां आए दिन नए विवाद खड़े करते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ उनकी और उनके समुदाय की दर्दभऱी कहानी भी बयान करते रहे हैं. 
 
चूहा मारके खाना खराब बात है क्या..

बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि झोला छाप डॉ और औझा के चक्कर में न पड़कर डॉक्टर के पास जाओ..हॉस्पिटल में कोई दिक्कत है डॉक्टर नहीं है दवा नहीं है उसकी सूचना जिलाधिकारी को दो. नहीं तो सिर्फ एक लेटर लिख दो मुख्यमंत्री के नाम पर जिस डॉक्टर का नाम लिखोगे उसे हम सजा देंगे. हमने कई लोगों को घर बैठाया है.सजा दी है. जीतन मांझी गरीबों के साथ है. हाथ कटा देंगे. 

पिछले कुछ दिनों से अपने बयानों को लेकर चर्चा में रहने वाले बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की जद में अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आ चुके है. बुधवार को नरेंद्र मोदी के संसंदीय क्षेत्र वाराणसी पहुंचे मांझी ने मोदी के स्वच्छ भारत अभियान पर जम कर कटाक्ष किया.

अपने विवादित बयानों को लेकर जीतन राम मांझी को विपक्षी दल ही नहीं अपनी ही पार्टी जेडीयू में भी विरोध का सामना करना पड़ा है लेकिन वो ना तो रुकने को तैयार है और ना ही किसी के आगे झुकने के लिए तैयार है.
 
मुख्यमंत्री ने कहा कि मांझी टूट जाएगा झकेगा नहीं. दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड का बिहार में प्रदर्शन बेहद खराब रहा था. उसे सिर्फ दो ही लोकसभा सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. जेडीयू की इस हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यंत्री नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था लेकिन सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने सबसे विश्वस्त और करीबी रहे जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था.

जीतन राम मांझी मई 2014 में बिहार के मुख्यमंत्री बनाए गए थे लेकिन एक मुख्यमंत्री के तौर पर वह अपने काम से ज्यादा अपने बयानों को लेकर ज्यादा चर्चा में रहे हैं. जीतन राम मांझी अपने विवादित बयानों की वजह से कई बार नीतीश कुमार के लिए भी मुसीबत बनते नजर आए हैं और यही वजह है कि विपक्षी दल ही नहीं बल्कि खुद उनकी पार्टी जेडीयू में भी मांझी के खिलाफ विरोध की तलवारें खिंचती रही हैं.

जीतन राम मांझी ने कहा कि भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है नीतीश कुमार ने काम किया लेकिन करप्शन दूर नही हुआ. शरद यादव ने कहा कि वह खुद भी जिम्मेदार है. 
वह खुद मंत्रीमंडल में थे तो उनकी जिम्मेदारी बराबर की है उनको उस समय इस बात को कैबिनेट के भीतर उठाना चाहिए था. मैं सोचता हूं कि ये मर्यादा के भीतर की बात नहीं है.

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि अगर आप हमे विशेष राज्य का दर्जा दे देते है तो जीतन मांझी आपका(मोदी) समर्थक हो जाएगा..

विवादित बयानों पर जेडीयू विधायक ने कहा कि पागल है. उसको सीएम बनाकर गलती कर दी. जबसे बना है कैसे बयान देता है बयान का जनता पर कुछ असर नही होता है लोग बोलते है पागल है इसे जल्दी से हटा दो.

जेडीयू की तरफ से अस्थायी इंतजाम के तौर पर मुख्यमंत्री बनाए गए मांझी की बयानबाजी को दरअसल उनकी खास रणनीति और राजनीतिक महत्वकांक्षा के तौर पर देखा जा रहा है. माना जा रहा है कि जीतन राम मांझी अपने बयानों से ना सिर्फ विवाद खड़ा करना चाहते हैं बल्कि उन विवादों को हवा देना भी चाहते हैं ताकि बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में इसका राजनीतिक लाभ उठाया सके.

जीतन राम मांझी के विवादित बयानों को लेकर राजनीति के जानकार ये भी वजह मानते है कि वह एक कमजोर मुख्यमंत्री की छवि से बाहर निकलना चाहते है और साथ ही अपनी पार्टी जेडीयू के लिए आने वाले वक्त में भी एक मजबूरी बने रहना चाहते हैं.

राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन ने कहा कि  कुलमिलाकर उनके बयान उनकी राजनीति को पीते गए है.. वो खुद को मजबूत करना चाहते है जितना वो कमजोर होकर सीएम बने है वह स्थिति हटाना चाहते है. वह एक मजबूरी बनाना चाहते है कि कल को नितीश कुमार और लालू एक पार्टी में आते है तो वही कनसेस बनके रहे. दो तीन तरह की राजनीति है एक तो यही कि इन दोनों के बीच कोई कॉमन आदमी आना चाहिए. जो वह खुद बनना चाहते हैं. दोनो आपस में एक-दूसरे को नेता माने न माने वह खुद नेता बन जाना चाहते है. तीसरा टॉरगेट भी लोग बोल रहे हैं लेकिन मुझे भरोसा नहीं हो रहा है कि अगर वह वोट को अपने साथ कर पाते है तो कलको बीजेपी में कोई अच्छा सौदा करके वह उस तरफ भी जा सकते हैं.

आखिर कौन है जीतन राम मांझी और क्यों लगातार विवाद पैदा करने वाले बयान दे रहे हैं. मांझी के बयानों के पीछे छिपे असल मकसद क्या है.

साफ है कि मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पहले बयान देते हैं और जब उनके बयान पर हंगामा खड़ा होता है तो वह फौरन ही उस पर अपनी सफाई भी पेश कर देते हैं. मुख्यमंत्री मांझी की क्या है ये बयाननीति? क्या इसमें छुपी है चुनाव से जुड़ी कोई रणनीति. मांझी के इस चुनावी गणित की गहराई में भी हम उतरेंगे लेकिन पहले कहानी उस मुसहर समुदाय की जिससे मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की जड़े जुड़ी हुई हैं.

बिहार के मगध इलाके में मुसहरों की एक बस्ती हैं. जाहिर है मुसहर समुदाय आज भी अभिशप्त जिंदगी जीने को मजबूर है. कुछ गज जमीन पर बने जर्जर मकान और गंदगी के बीच सांसे लेती जिंदगी दशकों से मुसहर समुदाय का नसीब रही है. सितुहा, घोंघा और चूहे पकड़ कर जिंदगी की नैया खेते –खेते थक हार चुका मुसहर समुदाय आज भी समाज के हाशिये पर खड़ा है. खास बात ये है कि मुसहरों की जिंदगी की बात सुअर, शराब और ताड़ी के बिना अधूरी ही रहती है क्योंकि ये तीनों ही चीजें इनकी जिंदगी में खास अहमियत रखते हैं. गंदगी में रहने और पलने वाले ये सुअर ही मुसहर समुदाय के लिए विपत्ति के वक्त सबसे बड़ा आर्थिक सहारा बनते हैं. खेतों में मजदूरी करके पेट पालने वाले मुसहर समुदाय के लिए चूहे भी जिंदगी का सबसे बड़ा सहारा रहे हैं और यही वजह है कि चूहों को पकड़ने औऱ उनके बिलों से अनाज निकालने में मुसहरों को महारत हासिल है.

राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन ने कहा कि  एक बिल में से कम से कम 8-10 चूहे निकलते है. और अलग-2 रास्ता बनाते है. तो ये लोग एक तरफ बंद करके खुदाई करते है उसमे भी इनको अन्दाजा हो जाता है कि किसमे वो रहते हैं किसमें अनाज है. तो अगर 15 चूहे मिल गए तो उस दिन का खाना हो गया. और 15 चूहे वाला बिल मिल गए तो 15-20-30 किलो गेहूं का इन्तजाम हो गया. तो फिर खेद को खोदना ज्यादा हो जाता है काफी गहराई तक जाता है . 5-6-8 फीट तक जाता है. ये चीजें बहुत कॉमन है जैसे अनाज कटता है वैसे ही ये लोग लग जाते है. बच्चे खोदने में साथ दे रहे है. 2-3-4 आदमी का ग्रुप होता है.

मुसहरों को कहीं भुइयां, कहीं वनमानुष तो कहीं वनराज के नाम से भी पहचाना जाता है. माना जाता है कि भुइयां कभी आदिवासी थे जो छोटा नागपुर और तैमूर की पहाडियों से आकर बिहार के अलग – अलग इलाकों में फैल गए थे. खास बात ये है कि देश में आदिवासियों के पास अपनी जमीनें हैं लेकिन मुसहर समुदाय आज भी भूमिहीन है. मुसहर अब आदिवासी नहीं रहे हैं. वह अब जाति व्यवस्था का एक हिस्सा बन चुके हैं लेकिन आदिवासियों का असर आज भी उनकी जिंदगी और उनके रीति रिवाजों पर बना हुआ है. गौर करने वाली बात ये है कि मुसहर समुदाय को हिंदू वर्ण व्यवस्था में भी सबसे नीचे स्थान मिला है. वह भी इतना नीचे की बिहार के मगध इलाके में बसी अनुसूचित जातियां भी इनसे अपनी पहचान जोड़ना नहीं चाहती. मुसहर समुदाय के ऐसे पिछड़ेपन को ध्यान में रख कर ही बिहार सरकार ने महादलित के नाम से एक अलग वर्ग बनाकर उसमें इस समुदाय को रखा है. 

बिहार की अनुसूचित जातियों में मुसहर तीसरी बड़ी जाति है.  महादलित आयोग की पहली अंतरिम रिपोर्ट के मुताबिक इनकी संख्या 21 लाख 12 हजार के करीब है लेकिन 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में मुसहर जाति के सिर्फ 8 विधायक ही है और जीतन राम मांझी इस समुदाय से मुख्यमंत्री बनने वाले पहले शख्स है. गरीबी और अशिक्षा से जूझते मुसहर समुदाय की 98 फीसीदी महिलाएं और 90 फीसदी पुरुष आज भी अशिक्षित बताए जाते हैं.  हांलाकि मुसहरों के विकास के लिए सरकार ने कई योजनाएं बनाई हैं लेकिन आज भी इनके हालता बदल नहीं सके हैं. मुसहर जाति की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है. इन्हें रोजगार की तलाश में अपने गांव से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. और यहीं वजह है कि मुसहरों की बस्ती में बच्चे, औरतें और बूढें ही ज्यादा नजर आते हैं.

बिहार में मुसहर सबसे ज्यादा मगध क्षेत्र में आबाद है. मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में फैले इस पूरे इलाके में सबसे ज्यादा धान की खेती की जाती है. बरसों से मुसहर समुदाय भी धान की इस खेती से जुड़ा रहा हैं. दरअसल बहुत पहले से यहां के जमीन मालिक अपने यहां मुसहरों को मजदूरी पर ऱखा करते थे जिन्हें वो कमियां कहते है.

बिहार के संपन्न किसानों के यहां काम करना मुसहरों की मजबूरी थी. क्योंकि उनके सामने इसके अलावा कोई रास्ता ना था. दशकों से इन खेतों में मुसहर जी तोड़ मेहनत करते रहे हैं और इसीलिए जमीन मालिकों ने भी इस कमियां व्यवस्था को खूब पनपने दिया है. पीढी दर पीढी एक ही मालिक के यहां काम करने का ये सिलसिला बरसों बरस यूं ही चलता चला गया और कभी ना चुकने वाले कर्ज के बोझ ने मुसहर समुदाय की कई पीढियों को बंधुआ मजदूर बनने पर मजबूर कर दिया. मुसहरों के ऐसे ही परिवारों में से एक परिवार महकार गांव के रामजीत राम मांझी का भी था. 

जीतन राम मांझी ने कहा था कि हम एक मजदूर परिवार के घर में जन्म लिया. जाति में उसको घुईया, मुसहर कहा जाता है. हमारे ग्रैंड फादर मजदूर थे. और स्वभाविक है कि फादर का जो बच्चा होता है वो भी मजदूर बना. तो मेरे पिताजी स्वर्गीय रामजीत राम मांझी भी एक मजदूर थे. लेकिन वह दो कला में उस समय निपुण माने जाते थे. एक कला थी उनके पास ओझई का. वह अपना इधर उधर करते थे. और दूसरा कला उनकी थी नांच का. नांच में जो नेटवा का नांच हुआ करता था वह नाचंते थे. सुबह चार बजे से ही वह अपना भजन शुरु करते थे. उनको एक आध हजार गाना भजन ये आता था और नाचते थे.

गया जिले के महकार गांव में मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का मकान आज दूर से देखने पर ही नजर आ जाता है लेकिन 67 बरस पहले उनके इस पुश्तैनी घर की तस्वीर ऐसी नहीं थी. दोमंजिला मकान की जगह तब घास-फूस के छप्पर वाली मिट्टी की एक कोठऱी बनी थी जिसमें मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का पूरा बचपन गुजरा था. जीतन राम मांझी को आज भी अपने पिता की कहीं वो बातें याद है कि किस तरह मुश्किलों से जूझते हुए उन्होंने जमीन मालिक से मिली जगह पर अपनी पहली कुटिया बनाई थी. 

जीतन राम मांझी बताते हैं कि महकार जहां पर मेरे मकान है वह उस वक्त फूस से सीज से कांटा से भरा हुआ था. वह जमीन को दिया कि लो तुम इसी में अपना बनाओ. तो हमारे पिताजी सब चीज को साफ सुथरा कर करके. किसी ना किसी रुप में दो कोठऱी बना कर के. हम लोग रहने लगे. कोठरी बनी हुई थी मिट्टी की और फूस की. वो हमको याद है. और फूस मिट्टी से ही घेराबंदी कर दिया गया था. और घर में किवाड़ - विवाड नहीं था. बाद में जब हम लोग आगे बढे तो हमने देखा कि पिताजी वह कहीं से किवाडी आगे लगाए. और घर हमारा वह किवाड़ी नहीं वो टाटी लगती थी. वह जीवन हमारा वहां से शुरु हुआ.

लेकिन जीतन राम मांझी का जन्म उनके पिता के महकार गांव में बसने से एक साल पहले ही हो चुका था. चालीस के दशक की शुरुवात में इस गांव से करीब एक किलोमीटर दूर पांच -छह मुसहर परिवारों के साथ जीतन राम मांझी का परिवार भी रहा करता था. मुख्यमंत्री मांझी बताते हैं कि जिस जमीन मालिक के यहां उनके पिता मजदूरी किया करते थे उन्हीं के कहने पर वह महकार गांव में बस गए थे लेकिन जब वो सात साल के हुए तो मुसहर समुदाय की परंपरा के मुताबिक उन्हें भी अपने पिता की तरह जमीन मालिक के यहां बंधुआ मजदूर बना दिया गया था.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि हमारा आफर आ गया जिस मालिक के यहां पिताजी कमाते थे. उनके यहां से. भगत कहते थे. ऐ भगत तुम करबे करते हो जितना है वहां जानवरो को देखेगा खाएगा पिएगा. पिताजी को भी लगा कि ठीक है सात बरस का है. अब वहां रह सकता है तो हम वहां चले गए. रात में तो हम आ ही जाते थे वहां काम करना हमने शुरु किया. काम मेरा था कि सोलह या सतरह बैल, एक दो भैंस और दो तीन गाय इतना उनके पास पशुधन थे. उन सबको खाना खिलाने का काम शुरु हुआ पहले तो एका एक नहीं हुआ कुछ और लोग रहते थे लेकिन हम भी उसी काम में लग गए.

वक्त का पहिया अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था. सात साल के जीतन राम मांझी जब ग्यारह बरस के हो गए तो उनके पिता रामजीत राम मांझी को उनकी पढ़ाई लिखाई का ख्याल आया. इस बारे में जब रामजीत मांझी ने अपने जमीन मालिक से बात की तो उन्हें बदले में दुत्कार ही मिली थी. लेकिन जब रामजीत राम मांझी ने बेटे की पढाई के खातिर गांव तक छोड़ देने की धमकी दी तो आखिरकार जमीन मालिक को भी झुकना पड़ा औऱ फिर सामने आया जीतन राम मांझी की पढाई का एक फॉर्मूला.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि सब कोई एकदम गुस्सा में आ गए कि पढा कर क्या आप अपने बेटा का कलेक्टर बनाओगे. पढाने की क्या जरुरत है. लेकिन पिताजी के दिमाग में भी ये बात बैठी थी कि हम बेटा को पढाए. तो उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति है तो हम गांव छोड़ देंगे. और चले जाएंगे हम बाहर. और बेटा को हम पढाएंगे. ये बात उनको सेट बेक लिया कि एक विश्वासी मजदूर हमारा चला जाएगा तो ठीक नहीं होगा. तो उन्होंने एक कॉम्प्रोमाइज का फॉर्मूला निकाला कि हमारे बच्चे को पढ़ाने के लिए मास्टर आता है. जीतन काम धाम करके पांच छह बजे के बाद उन्हीं लोगों के साथ बैठ जाएगा. बैठ जाएगा तो पढेगा. हमको उस समय कुछ दिमाग में बात नहीं थी कि पढना है कि क्या करना है हम कुछ नहीं जानते थे.

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी बताते है कि ग्यारह साल की उम्र में एक टूटी सिलेट और कलम के साथ उनकी पढाई की शुरुवात हुई थी. दिन भर गाय भैसों को संभालने और खिलाने पिलाने के बाद जब शाम होती तो वो जमीन मालिक के बच्चों के साथ मास्टर जी से सबक सीखते थे. ये सिलसिला कुछ दिनों तक यूंही चलता रहा फिर बाद में उनका नाम गांव के स्कूल में लिखा दिया गया था. ये अलग बात है कि बालक जीतन राम मांझी का वक्त स्कूल में पढ़ने की बजाए जमीन मालिक की गाय –भैंसों की सेवा करते हुए गुजरता था.

जीतन राम मांझी ने कहा कि वहां पढने तो जाते नहीं थे लेकिन नाम मेरा चलता था. तो चौथा पांचवा छठा का वहां चलने लगा. क्लास बदलाने लगा हम तो यहां काम करते थे जाते नहीं थे. फिर पांचवा के बाद सातंवा क्योंडी है एक बगल में स्कूल, मिडिल स्कूल वहां भी मेरा नाम लिखाया.

महकार गांव के प्राइमरी स्कूल से जीतन राम मांझी बिना स्कूल गए ही एक के बाद एक क्लास पास करते चले गए थे लेकिन जब वो आठवीं क्लास में पहुंचे तो उनकी पढाई की गाड़ी एक बार फिर अटक गई थी. दूसरे विषयों में हीरो और गणित में जीरो रहे जीतन राम मांझी बताते हैं कि वो सांतवी क्लास में फेल हो गए थे लेकिन गांव के सरपंच की मेहरबानी से जब उन्हें सातवीं क्लास पास का सर्टिफिकेट मिल गया तो आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने पास के गांव के स्कूल में दाखिला ले लिया था. इसी हाई स्कूल से जीतन राम मांझी ने दसवीं क्लास तक की पढाई पूरी की है.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि करते करते नौवा पांस किया. मेथेमेटिक्स तो था नहीं वहीं किताबे पढ वड़ कर करते थे. तो फेल कर गए लोग फेल करा दिए. लेकिन एक मास्टर थे चंद्र देव बाबू नाम था उनका. थे भूमिहार लेकिन वह हमारे मेरिट को समझ रहे थे. तो सब लोगों से कहा कि भई मेथेमेटिक्स इसको नहीं आता बाकी सभी में तो ये लडका तेज है. दसवां से उस वक्त गणित नहीं होता था आप्शनल हो जाता था. और इधर था नेसेसरी तो नेसेसरी होता था तो हम फेल होते थे. दसवां में उन्हीं की कृपा से मेरा नाम लिखाया.  

महकार गांव से 7 किलोमीटर दूर इस हाई स्कूल में जब जीतन राम मांझी दसवीं क्लास की पढ़ाई कर रहे थे. तब किस्मत ने उन्हें एक बार फिर झटका दिया. दसवीं के इम्तिहान से पहले जीतन राम मांझी की तबीयत अचानक बेहद खराब हो गई थी और खऱाब सेहत के चलते उन्होनें परीक्षा नहीं देने का फैसला भी कर लिया था लेकिन जीतन राम मांझी को गणित विषय में फेल होने के बावजूद स्कूल के जिस टीचर चंद्रदेब बाबू ने नौवीं क्लास से दसवीं क्लास में पहुंचा दिया था उनके कहने पर मांझी को अपना फैसला बदलना पड़ा और इस एक नेक सलाह ने जीतन राम मांझी के लिए कामयाबी का एक नया दरवाजा खोल दिया था. 

जीतन राम मांझी बताते हैं कि वही चंद्रदेव बाबू कहे कि देखो तुम गरीब घर के बच्चे हो तुम दो घंटा है अगर आंधा घंटा ही लिख दोंगे तो पास हो जाओगे. लेकिन फर्स्ट नहीं आएगा अगर फर्स्ट के लिए रुकोगे तो एक साल तुम्हारा बर्बाद होगा. तुम्हारा मां बाप मजदूर है. इससे अच्छा तो ये है कि तुम पास करो हो सकता है तुम कॉलेज में अच्छा करोगे. और करके कही नौकरी में होगे तो बाप मां को देखोंगे. हमको अपील किया उसके बाद हम परीक्षा में बैठ गए. पंद्रह नंबर के चलते फर्स्ट डिवीजन मेरा छूटा. पांच सौ पच्सीस मेरा नंबर आया.

बिहार के छोटे से गांव से राजधानी पटना के इस मुख्यमंत्री निवास तक जीतन राम मांझी ने कामयाबी की एक लंबी छलांग लगाई है. लेकिन इस बड़ी कामयाबी के लिए उन्हें जिंदगी में कई बार कड़े इम्तिहान भी देने पड़े हैं. विरीपत हालात के बीच जीतन राम मांझी ने जिंदगी में आने वाली हर तरह की मुश्किलों का सामना किया है. मुख्यमंत्री मांझी के संघर्ष की ये दास्तान खेतों में बंधुआ मजदूरी के चक्रव्यूह से निकल कर, गांव के इन खस्ताहाल स्कूलों की खाक छानते हुए गया के डिग्री कॉलेज तक जा पहुंचती है. मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने गया के कॉलेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की है. कॉलेज के दिनों को याद करते हुए मांझी बताते हैं कि उन दिनों उनके पास एक पायजामा, एक हॉफ शर्ट, एक बनियान और एक लुंगी हुआ करती थी. वो पांच दिनों तक शर्ट और पायजामा पहनते थे और फिर छुट्टी के दिन उन्हें धो दिया करते  थे. मांझी पैरों में टायर से बनी चप्पल पहना करते थे जो उन्होंने 12 आने में खरीदी थी. जीतन राम मांझी का कहना है कि पढ़ाई के दौरान उन्हें सरकार से 25 रुपये महीने का वजीफा भी मिला करता था लेकिन इस रकम को खुद पर खर्च करने की बजाए वो ये पैसा अपने पिता को गांव भेज दिया करते थे और अपना खर्च चलाने के लिए उन्होंने कॉलेज के स्टूडेंट को ही ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया था.  

जीतन राम मांझी बताते हैं कि एक आशा चरन नाम की लड़की थी एरिया डीसी थे तो उनकी बेटी थी. तो वो हमपर आकर्षित हुई और कहा कि हमारे पिता जी आपसे मिलना चाहते है तो हम मिले उनसे. तो उन्होंने कहा कि तुम अपने नोट आशा को दिया करो इसके बदले हम तुम्हे 10-20-50 रु दिया करेंगे. अब इसे लड़की के प्रति आकर्षण कहिए या पैसा का हमने बहुत मेहनत की. और जो पहली कॉपी होती थी हम आशा को दे दिया करते थे. यो यही से पढाई का सिलसिला शुरु हुआ. हम 25 रु पिताजी को भेजते थे. और उसने अपनी सहेली को भी बता दिया और उसके अच्छे नंबर आने लगे. तो दो तीन लड़कियो के पिता और आ गए कि हम आपसे ट्यूशन पढ़वाना चाहते है.तो हमने कहा हमारी क्लासमेट है हम ट्यूशन कैसे पढ़ाएंगे तो उन्होंने कहा  आप पढ़ाइये..तो दो उन लड़कियों को पढ़ाने लगे तो 75 रु. मिलने लगा हमारा खाना पीना सब मिलने लगा.

कॉलेज के दौर में जीतन राम मांझी का ज्यादातर वक्त तो पढ़ने और पढ़ाने में गुजरता रहा लेकिन इसी दौरान उनके जहन में राजनीति के बीज भी पड़ चुके थे. जिन दिनों गया के इस कॉलेज में दूसरे लड़के कलेक्टर और जज बनने की ख्वाहिश लिए घूम रहे थे उस वक्त जीतन राम मांझी के जहन में नेतागिरी के ख्याली पुलाव पका करते थे. हांलाकि उस वक्त भी उनके परिवार की आर्थिक हालात बेहद खराब थी. यहीं वजह थी की जीतन राम मांझी को अपने छोटे भाई की नौकरी लगने का इतंजार था ताकि मां – बाप की जिम्मेदारी से मुक्त होकर वो खुले दिल से राजनीति के मैदान में उतर सके.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि एक हम ही पढ़ने वाले थे. तेज थे, वोकल थे. तो लोग जब चुनाव पर जाते थ तो हमको बैठा लेते थे गाड़ी पर. और हर हरिजन टोली में जाकर कहते थे कि यहां का लड़का है, मजदूर का लड़का है पढ़ता है इसको सरकार स्टाइफन देती है. तुम लोग कांग्रेस को वोट दो तो तुम लोगों का काम होगा, हम भी यही कहते थे. तो उसके बाद हमारे मन में आया कि जब हम दूसरे के लिए वोट मांग सकते है तो हम अपने लिए क्यों वोट नहीं मांग सकते.

ये 1968 की बात है जब जीतन राम मांझी की जिंदगी ने एक बार फिर उस वक्त यू टर्न मारा जब बिहार में अकाल के हालात पैदा हो गए थे. खेतों में मजदूरी करके पेट पालने वाले जीतन राम मांझी के पिता को जब अकाल के चलते मजदूरी मिलनी बंद हो गई तो मजबूरी में जीतन राम मांझी को अपने ख्वाब से समझौता करना पड़ा. और राजनीति में जाने के ख्याल को दिल से निकालकर मांझी ने क्लर्क की एक मामूली सी नौकरी से समझौता कर लिया था.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि हमने कहा पिताजी जैसा आप चाहते है वैसा ही होगा. तो हम अगले दिन  होस्टल गए तो देखा सब फॉर्म भर रहे है तो टीएस क्लर्क में जॉब निकली थी. तो हम तो कहते थे कि हम नौकरी में नही जाएंगे, राजनीति में जाएंगे तो हम कैसे नौकरी की बात कहे तो . 33 लोगों में से 2 लोगों का हुआ जिसमे एक जीतन मांझी और एकराम स्वरुप था उसका हुए तो हम खुश हुए कि पिताजी का रिंज छूटा. 1968 के जुलाई महीने से पॉस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट को ज्वाइन कर लिया. 13 साल तक  को नौकरी करी और भगवान ने हमें मौका दिया और हमारा भाई 76 में सब इंस्पेक्टर हो गया.

पोस्ट एंड टेलीग्रॉफ ऑफिस में 13 साल तक नौकरी करने के बाद एक दिन अचानक जीतन राम मांझी ने 1980 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. दरअसल कांग्रेस की राजनीति में कॉलेज के दिनों से सक्रिय रहे जीतन राम मांझी को 1980 के विधानसभा चुनाव में विधायक का टिकट मिलने की पूरी उम्मीद थी लेकिन एन वक्त पर उनकी टिकट कट गई. लेकिन किस्मत फिर भी जीतन राम मांझी पर मेहरबान थी.

जीतन राम मांझी के मुताबिक उस वक्त उनका टिकट कांग्रेस नेता रामस्वरुप के कहने पर काट दिया गया था लेकिन बिहार में कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे जगनाथ मिश्र ने उनके लिए राजनीति की राह खोल दी थी.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि डॉ राजेंद्र रोड़ 32 नंबर में हम बैठ गए कि राजनाथ मिश्रा आएंगे तो उनको ये बात याद दिलांएगे. वह फिर से आएं, कहे क्या जीतन क्या हाल चाल, हम कहे हाल-चाल तो आपके हाथ में है हमने सुना है कि हमारा टिकट कट गया सिर्फ यही कहने के लिए आए है सर. हमको बहुत भरोसा था आप पर जब तालकटोर स्टेडियम में आपने हमारा नाम लिया था तो हमको लगा था कि एक राष्ट्रीय आदमी हमे जानते है और हमारे समाज से कोई है नहीं तो हम नौकरी करते थे उसको रीजाइन कर दिया. तो आज किसी बात का अफसोस नहीं है अफसोस बस यही है कि हम और हमारे बाल बच्चा जैसे भी कर लेगा. हमारे परिवार का भविष्य बड़ा खराब हो जाएगा इसमे. तो 1 मिनट सोचने के बाद कहा कि तुम सचमुच नौकरी में थे. तो हमने कहा जी हां सर, रीजाइन कर दिया. इतने कहने के बाद कहे जाओ, हम फिर चले आएं हमको लगा क्या होगा क्या न होगा मन में एकदम संतुष्टि हो  गई. तो नेक्सट 4 बजे वही आदमी प्रोफेसर अनुरोध सिंह, पहले कहे कि टिकट कट गया वही कहे कि जीतन कि चलो तुमको बधाई है. हमारा टिकट तो नहीं दिया लेकिन तुमको टिकट मिल गया है. तो हमारा राजनीति में जल रोपने वाले तो वही है इसलिए हम उन्हे इतना मानते है.

जीतन राम मांझी ने 1980 में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार चुनाव लड़ा था. गया जिले की फतेहपुर विधानसभा सीट से मांझी ये चुनाव जीत भी गए और तीन साल बाद चंद्रशेखर सिंह की सरकार में राज्य मंत्री भी बनाए गए थे. नब्बे के दशक में बिंदेश्वरी दुबे, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगननाथ मिश्र एक के बाद एक बिहार के मुख्यमंत्री बने. लेकिन मुख्यमंत्री बदलने के बावजूद जीतन राम मांझी का कांग्रेस सरकार में मंत्री पद सात सालों तक सलामत ही रहा. लेकिन जीतन राम मांझी ने उस वक्त कांग्रेस पार्टी छोड़ दी जब 1995 के विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिला था. कांग्रेस से निकलकर वो लालू प्रसाद यादव के जनता दल में शामिल हो गए और जब 2005 में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव से अलग होकर जनता दल यूनाइटेड यानी जेडीयू बनाया तो जीतन राम मांझी ने नीतीश कुमार का दामन थाम लिया था.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि छह बार चुनाव जीते है. हम जनता का काम करते हैं इसलिए विपरित परिस्थिती में भी वोट दिए थे. विपरित परिस्थिति क्या जब हम जब  हम फतेहपुर में जमने लगे तो ये लोग बारहचिट्टी भेज दिए. बारहचिट्टी में जमने लगे तो लालू यादव का बोधगया. बोधगया से जीते तो फिर बारहचिट्टी गए. अब सोचे इसे अपना टाउन बना ले तो नीतीश कुमार मकपुला लाकर खड़ा कर दिया. बाहर जाकर जीतते गए तो मेरा कन्फिडेंस बढ़ता गया कि लोग समझते हैं कि जीतनमांझी काम करने वाला है बस यही मेरे लिए सुकून की बात थी न मंत्री न मुख्यमंत्री की बात थी.

अपने पूरे राजनीतक करियर में हमेशा जीते हुए घोड़े पर सवार होने वाले जीतन राम मांझी को कभी नीतीश कुमार ने ही मंत्री पद से हटा भी दिया था. 2005 में जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तब बाराचट्टी से विधायक बने मांझी को भी उनकी सरकार में शामिल किया गया था लेकिन फर्जी डिग्री घोटाला में नाम आने की वजह से शपथ ग्रहण के कुछ घंटे बाद ही मांझी को मंत्री पद से हटा दिया गया था.

दरअसल बिहार में 1999 में बीएड डिग्री घोटाला सामने आया था. उस वक्त जीतन राम मांझी लालू प्रसाद यादव की सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री हुआ करते थे. लेकिन मांझी बाद में इन आरोपों से बरी हो गए थे और साल 2010 में नीतीश कुमार की सरकार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण मंत्री बनाए गए थे.

जीतन राम मांझी जब नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री थे तब उन्होने चूहों का मांस खाने को लेकर ये बयान दिया था. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद से तो उन्होने जैसे विवादित बयानों की झड़ी ही लगा दी है.

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी कहते हैं कि गरीबों का इलाज ना करने वाले डॉक्टरों के हाथ काट देंगे. तो कभी उनका बयान आता है कि उच्चवर्गीय लोग विदेशी है. कभी वो दलितों को दवा के तौर पर दारु पीने की सलाह देते नजर आते हैं तो कभी पुरुषों के रोजगार की वजह से घर से बाहर रहने के पीछे महिलाओं की नैतिकता पर सवाल उठाते हैं. यही नहीं जीतन राम मांझी दलित युवाओं को अपनी जाति से बाहर अगड़ी जातियों में शादी करने की सलाह भी देते है ताकि तादाद बढ़ने से वो बिहार में एक राजनीतिक ताकत के तौर पर उभर सके. मांझी ने सत्ता संभालने के कुछ दिन बाद ही ये भी कहा था कि उन्होनें बिजली का बिल दुरुस्त करने के लिए पांच हजार रुपये रिश्वत दी थी. मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की छवि उनके ऐसे बयानों के चलते ही एक विवादित मुख्यमंत्री के तौर पर बनती नजर आ रही है.

भोलाराम पासवान शास्त्री और राम सुंदर दास के बाद जीतन राम मांझी बिहार के तीसरे दलित मुख्यमंत्री हैं और ये बात वो खूब समझते हैं कि मुख्यमंत्री की ये गद्दी उन्हें सीमित समय के लिए मिली है लेकिन साथ ही साथ उन्हें बिहार में पिछड़ा और दलित वोट की बड़ी ताकत का अहसास भी है. यही वजह है कि नीतीश कुमार के रिमोट कंट्रोल मुख्यमंत्री माने जाने वाले मांझी ने राजनीति की बिसात पर तेजी से खुद को आगे बढाने की कोशिश की है और अपने विवादित बयानों के चलते ही सही वो चर्चा में बने हुए भी हैं.

जीतन राम मांझी ने कहा कि समाज के कुछ लोगों ने हमारे लोगों ने भी मिलकर वातावरण ये बनाया था  कि हम SC तो है लेकिन हम ढोईयां, मोसढ, ढोम, मेहतल, अजवाल, धोबी, पासी इस नाम पर बंटे हुए थे दूसरे लोग इस नाम पर लाभ उठा  रहे थे. तो तुम अपने को देखो तो तुम क्यों करते हो कि दुशार है, चमार है, भुईया है. सब कहो कि शेडुल कास्ट हैं अगर तुम शेडुल कास्ट तो आज आबादी तुम्हारी 23 फीसदी की है. और इतनी आबादी बिहार में किसी की नहीं है और तुम एक हो जाओगे तो आगे की राजनीति तुम्हारी होगी. ये नारा हमने दिया और भगवान को धन्यवाद इसका प्रभाव सबपर पड़ा है. दुशाद भाई भी एकसाथ आ रहै है और कह रहे है कि हम एक ही बैनर पर चलेंगे. जीननमांझी सीएम है ये मुद्दा नहीं है. हम नहीं चाहते है कि हम रहे लेकिन कोई शेडयुल कास्ट का आदमी आगे बड़े  23 फीसदी के बिना पर, हम ये परिस्थिति पैदा करना चाहते है.

बिहार में अगले साल अक्टबूर - नंबवर में विधानसभा के चुनाव होने वाले है. इसी बात को ध्यान में रख कर नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था. लेकिन मांझी के बयानों के तीर विरोधी दल ही नहीं खुद उनकी पार्टी जेडीयू और नीतीश कुमार को भी घायल करते रहे हैं. लेकिन जानकारों का मानना है कि मांझी को पद से हटाना अब जेडीयू को आने वाले चुनावों में भारी पड़ सकता है और यही सत्ता का यही समीकरण मुख्यमंत्री मांझी के लिए संजीवनी का काम कर रहा है.

राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन कहते हैं कि जिस किस्म की राजनीति बिहार या मुल्क में हो रही है कि अब पिछड़े कि और हिंदु-मुस्लिम की राजनीति नहीं है. मैं कहूंगा कि कुल मिलाकर एक-2 ब्लाक की राजनीति है..कि कौन किसका ग्रुप है कौन किस समूह में है क्योंकि जो अलायंस बनाने का बात है सोशल अलायंस. सोशल कॉलिएशन वो दिखाई नहीं दे रही है ऐजेंड़ा साफ नहीं है. जैसे लालू को साफ एजेंड़ा मिला. आज की तारीख मे कुछ नहीं बचा है. ओबीसी पुराना ग्रुप भी नहीं बचा है दलित ग्रुप भी 3 हिस्से में बंटा दिख रहा है. जाटो को वोट, पासवानों का वोट इसके अलावा मुसा लीडरशिप. मुसअरों को वोट कुछ ज्यादा नहीं है लेकिन कुछ जिलो में कंसट्रेट है तो ये पूरे दलित लीडर को टारगेट कर रहे है. अगर 15-16 फीसदी बिहार में दलितों की आबादी है और उनका वोट मांझी के चलते बनता बिगड़ता है तो बनने से भी ज्यादा बिगड़ने की बात कर रहा हूं. कल को मांझी को हटा दिया गया गया तो जनता दल, जेडीयू  से दलित टूट जाएगा. ये मांझी की भी उपलब्धि होगी कि उन्होंने ऐसा मुद्दा तब तक बना दिया कि दलित का वोट उनसे खिसक जाएं. ये हाल आपको दूसरे ग्रुप में दिखाई नहीं देगा.

जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बना कर नीतीश कुमार ने अपना मास्टर स्ट्रोक खेला था लेकिन गुजरते वक्त के साथ उनका ये मास्टरस्ट्रोक उन्हीं के लिए मुसीबतें खड़ी करते नजर आ रहा है. ठोकर खाते-खाते मुख्यमंत्री बनने का दावा करने वाले मांझी का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि वह हमेशा जीत के साथ खड़े नजर आए हैं और इस बार भी जीतन राम मांझी की नजरें जीत के घोड़े पर ही गड़ी हुई है.

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