काले धन की कालिमा और सफ़ेद धन की सफ़ेदी एक छलावा है
अखिल कुमार
काले धन का मुद्दा इन दिनों एक बार फिर सुखि़र्यों में है। इस मुद्दे को लेकर लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा द्वारा जो बड़े-बड़े वायदे किये गये थे, उन्हें पूरा करने से सरेआम मुकरने पर मोदी सरकार की इन दिनों ख़ूब छीछालेदर हो रही है। लोकसभा चुनाव-प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी और उनके सिपहसालारों ने काला धन वापस लाने के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद कांग्रेस सरकार द्वारा की जा रही ढिलाई को लेकर उस पर जमकर हमला बोला था। नरेन्द्र मोदी और भाजपा के अन्य नेताओं का आरोप था कि कांग्रेस सरकार दोहरे कराधान बचाव समझौतों की आड़ में विदेशी बैंकों में काला धन रखने वालों का बचाव कर रही है। काले धन को चुनावी मुद्दा बनाते हुए नरेन्द्र मोदी ने जनता को मुँगेरी लाल के हसीन सपने दिखाये। मोदी ने यहाँ तक दावा किया कि विदेशी बैंकों में जमा 27,72,000 करोड़ रुपये काला धन जब भारत लाया जायेगा तो हर भारतीय के खाते में 3-4 लाख रुपये आ जायेंगे। योगगुरू की आड़ में भाजपा के प्रचारक की भूमिका अदा करने वाले रामदेव भी सिंह-आसन मुद्रा में काले धन को लेकर हुँकारें भरते रहे, हालाँकि अब पिछले लम्बे समय से इस मुद्दे पर मौन धारण किये हुए हैं। उस समय भाजपा दावा कर रही थी कि सत्ता में आने के 100 दिनों के भीतर ही वह काला धन रखने वालों का नाम उजागर कर देगी और उनके खि़लाफ़ कठोर कार्रवाई करेगी। लेकिन सत्ता में आने पर मोदी सरकार ने तुरत-फुरत में जाँच एजेंसी का गठन कर पल्ला झाड़ लिया और डाबर तथा टिम्बलो जैसे दो-तीन छुटभैया पूँजीपतियों के नामों का “खुलासा” कर दिया। काले धन को लेकर जब मोदी सरकार घिरने लगी तो आखि़रकार उसने दोहरे कराधान बचाव समझौतों के उसी (कु)तर्क को अपने बचाव में इस्तेमाल किया, जिसका उपयोग कर पिछली कांग्रेस सरकार अपना असफल बचाव कर रही थी। भाजपा और कांग्रेस की काले धन को लेकर टालमटोल की नीति इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि दोनों पार्टियों के बताये अनुसार उन्हें हर साल अरबों रुपये का चन्दा अज्ञात स्रोतों से मिलता है, अब ये “अज्ञात स्रोत” कौन हैं इसका अन्दाज़ा पाठक ख़ुद-ब-ख़ुद लगा सकते हैं।
लम्बे समय से काले धन का मुद्दा चुनावी पार्टियों का चहेता मुद्दा रहा है। लोकसभा चुनाव आते ही इसे भुनाना शुरू हो जाता है। जनता को बड़े-बड़े सपने दिखाये जाते हैं। संसद के सुअरबाड़े में गत्ते की तलवारें भाँजी जाती हैं। इसी दौरान अन्ना हज़ारे, केजरीवाल और रामदेव जैसे कुछ मदारी जन्तर-मन्तर से लेकर रामलीला मैदान तक अपने रामबाण नुस्ख़ों की नुमाइश लगाते फिरते रहते हैं। फिर जैसे ही चुनाव समाप्त हो जाते हैं चुनावी राजनीति के पुराने खिलाड़ी नयी भूमिकाओं के साथ यही नौटंकी फिर से शुरू कर देते हैं। बीच-बीच में सर्वोच्च न्यायालय भी संसदीय सुअरबाड़े के रेफ़री के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने पहुँच जाता है। मज़ेदार बात यह है कि इस धींगामुश्ती से काले धन की सेहत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उल्टा वह पहले से ज़्यादा तेज़ी के साथ बढ़ने लगता है और अपनेआप को सफ़ेद धन में परिवर्तित कर देशी-विदेशी निवेश के रूप में अर्थव्यवस्था के विभिन सेक्टरों में लग जाता है। फ़्रांस सरकार द्वारा मुहैया करवाये गये 627 खातों में से कई खातों में एक भी आना-पाई का न पाया जाना इसी बात का प्रमाण है।
काले धन के बारे में फैलाये भ्रम और सच्चाई
निस्सन्देह काला धन एक गम्भीर समस्या है। लेकिन काले धन को लेकर पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों, अर्थशास्त्रियों, मीडिया, न्यायपालिका आदि द्वारा जनता के भीतर जो भ्रम पैठाये गये हैं, उनका पर्दाफ़ाश करना बेहद ज़रूरी है। ये सारे लोग विदेशों में जमा काले धन को ही मुख्य समस्या के रूप में पेश करते हैं और जनता में इसे वापस लाये जाने के उपरान्त ख़ुशहाल जनजीवन की नक़ली आशा पैदा करते हैं। इन भ्रमों के सम्मोहन से मुक्त होने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि काले धन की समस्या को गहराई से समझा जाये और काले धन और सफ़ेद धन के बीच के भ्रामक विभाजन की असलियत को जाना जाये।
सफ़ेद धन और काला धन और कुछ नहीं बल्कि पूँजीपतियों द्वारा मज़दूरों के श्रम को निचोड़ कर हासिल किये गये अतिरिक्त मूल्य का हिस्सा है। उत्पादन के दौरान उत्पादित कुल मूल्य में से मज़दूर एक छोटा सा हिस्सा मज़दूरी के रूप में पाता है और शेष मूल्य मुनाफ़े, लगान, किराया, कमीशन, टैक्स आदि के रूप में विभिन्न पूँजीपतियों और उनकी मैनेजिंग कमेटी यानी सरकार के बीच बँट जाता है। मज़दूरों के शोषण से हासिल किये गये अतिरिक्त मूल्य का वह हिस्सा जिसका हिसाब पूँजीपति सरकारी संस्थाओं को देता है सफ़ेद धन कहलाता है और वह हिस्सा जिसे वह सरकारी संस्थाओं से छुपाकर रखता है काला धन कहलाता है। मुनाफ़े की हवस में अन्धा पूँजीपति कभी भी मज़दूरों के शोषण से हासिल सफ़ेद पूँजी तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि वह पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा तय किये गये लूट के नियमों का अतिक्रमण करने के एक हज़ार एक तरीके अपनाता है ताकि मज़दूरों की लूट का अधिक से अधिक हिस्सा स्वयं हड़प सके। विदेशों में जमा जिस काले धन को चुनावी पार्टियों द्वारा दैत्य के रूप में पेश किया जाता रहा है, उससे कई गुना ज़्यादा काला धन तो भारत के भीतर मौजूद है। राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार 1990 में उदारवादी नीतियों के लागू होने से पहले कुल सकल घरेलू उत्पाद का 30 फ़ीसदी काले धन के रूप में भारत में मौजूद था, जो अब बढ़कर 70 फ़ीसदी के करीब पहुँच चुका है। और कुल काले धन का जो हिस्सा विदेशी बैंकों में जमा भी होता है, वह भी मृत नहीं पड़ा रहता, बल्कि अधिक मुनाफ़े वाली जगह पर लगने के लिए छटपटाता रहता है और ऐसी जगह मिलते ही निवेशित हो जाता है। ज्ञात हो कि आज के समय में एफ़डीआई का लगभग 50 फ़ीसदी हिस्सा मॉरीशस रूट से भारत में दाखि़ल होता है, जो दुनिया में काले धन को निवेश करने के सबसे प्रचलित रास्तों में से एक है।
अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य निचोड़ने और अतिरिक्त मूल्य का अधिक से अधिक हिस्सा हड़पने के लिए पूँजीपति अनगिनत उपाय करता है। श्रम क़ानूनों को लागू न करके भी पूँजीपति अपने काले धन में वृद्धि करता है। वह मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी से कम भुगतान करता है। वह ओवरटाइम का भुगतान डबल रेट की बजाय सिंगल रेट पर करता है। वह मज़दूरों का पीएफ़ तो काट लेता है लेकिन जमा नहीं करवाता। वह उत्पादन की ख़तरनाक परिस्थितियों से बचाव हेतु मज़दूरों को दिये जाने वाले सुरक्षा उपकरणों को लाने में कोताही बरतता है। श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के ये तमाम तरीके हैं जिन्हें लगभग सभी पूँजीपति अपनाते हैं। इसके अलावा पूँजीपति बैंकों से सस्ती दरों पर क़र्ज़ लेकर उत्पादन करते हैं और अपनी कम्पनी को दिवालिया घोषित करके सारा पैसा हड़प जाते हैं, यह भी काले धन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। राष्ट्रीकृत बैंकों की लगभग दो लाख करोड़ रुपये की रकम पूँजीवादी घरानों ने कर्ज़ के रूप में लेकर दबा ली है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट, पूँजीपतियों द्वारा ज़मीनों के हथियाये जाने से लेकर, बिजली चोरी और कर चोरी जैसे और भी कई ऐसे स्रोत हैं जिनसे काला धन पैदा होता है। इसके अलावा पूँजीपति वर्ग की सेवा हेतु उनके सेवादारों – नेताओं और अफ़सरों को निर्धारित लूट के नियमों को तोड़ने-मरोड़ने के बदले में पूँजीपतियों द्वारा जो घूस और कमीशन दी जाती है, वह काले धन का एक छोटा सा हिस्सा है।
काले धन की समस्या अकेले भारत की विशिष्टता नहीं है। विश्व बैंक की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 162 देशों के कुल सकल घरेलू उत्पाद का औसतन 34.5 फ़ीसदी काला धन है। इन देशों में अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी, बेल्जियम जैसे विकसित देश भी शामिल हैं। मतलब दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यवस्था में बड़ी मात्रा में काले धन की मौजूदगी है। भूमण्डलीकरण के युग में पूरी दुनिया में सामाजिक-आर्थिक ग़ैरबराबरी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। हालिया रिपोर्टों के अनुसार ग़ैरबराबरी पिछले तीन दशकों का रिकॉर्ड तोड़कर अभूतपूर्व स्तर पर जा पहुँची है। दुनिया भर के शीर्ष 85 अमीर लोगों के पास दुनिया की आधी ग़रीब आबादी के बराबर धन इकट्ठा हो गया है। दुनिया के केवल एक प्रतिशत अमीरों के पास दुनिया की आधी ग़रीब आबादी से 65 गुना अधिक धन जमा है। भारत में जहाँ 1990 में 2 अरबपति थे वहीं 2014 में इनकी संख्या 65 पहुँच चुकी है। वहीं दुनिया की एक तिहाई नितान्त ग़रीब आबादी भारत में रहती है। इन आँकड़ों से यह स्पष्ट है कि पूँजीवाद ने किस क़दर एक बड़ी आबादी को कंगाली में धकेल दिया है। इन आँकड़ों से पूँजीवादी अर्थशास्त्री और पूँजीवादी सरकारें सहमे हुए हैं। उन्हें पता है कि अगर ग़ैरबराबरी यूँ ही बढ़ती रही तो इसके नतीजे बढ़ते जनअसन्तोष के रूप में सामने आयेंगे जो इतने ताक़तवर हो सकते हैं कि इस पूँजीवादी व्यवस्था के लिए ही ख़तरा पैदा कर दें। ऐसे में पूँजीपति वर्ग काले धन को जनता के सामने ऐसे राक्षस के रूप में खड़ा करता है जो कि उनकी सभी समस्याओं का कारण है ताकि जनता पूँजीवाद के खि़लाफ़ न खड़ी हो जाये।
मीडिया तथा राजनीतिक पार्टियों द्वारा अकसर यह शोर मचाया जाता है कि अगर विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत लाया जाता है तो इससे देश की ग़रीबी ख़त्म हो जायेगी और जनजीवन ख़ुशहाल हो जायेगा। वैसे तो सरकारों की मंशा को देखते हुए इस बात की कोई सम्भावना नहीं नज़र आती कि इस काले धन को भारत में लाया जा सकेगा। लेकिन यदि यह हो भी जाये तब भी यह उम्मीद करना कि इसका इस्तेमाल जनकल्याण के लिए किया जायेगा, मूर्खता ही होगी। तब भी यह पूँजीपतियों की ही सम्पत्ति बना रहेगा और पूँजीवादी तौर-तरीक़ों के अनुसार ही निवेशित होगा। काला धनधारकों को सज़ा देकर भी काले धन के सृजन की प्रक्रिया को रोका जाना असम्भव है। कुछ काला धन रखने वालों को अगर फ़ाँसी भी दे दी जाये तो काले धन के पैदा होने की प्रक्रिया वहीं पर नहीं रुक जायेगी, पूँजीवादी व्यवस्था में पैदा होने वाली सम्पत्ति लगातार काले तथा सफ़ेद धन में बँटती रहती है और यह प्रक्रिया पूँजीवाद का आन्तरिक गुण है, जिसे क़ानून बनाकर ख़त्म नहीं किया जा सकता है। सम्पत्ति की व्यवस्था के रहते, जिसमें उत्पादन के समस्त साधनों पर मुठ्टीभर लोग काबिज़ हों, राजनीतिक ढाँचे में अगर कुछ पैबन्द लगा भी दिये जायें तो जनता के जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आयेगा।
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