शनिवार, 24 मई 2014

माता रमाबाई

त्याग, बलिदान और साहस की प्रेरणा - माता रमाबाई भीमराव आंबेडकर


त्याग, बलिदान और साहस की प्रेरणा - 
माता रमाबाई भीमराव आंबेडकर

इनकी ७८ वी पुण्यतिथी पर समस्त बहुजन समाज परिवार द्वारा
विनम्र अभिवादन व कोटी कोटी नमन
माता रमाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वानाड गावं में ७ फरवरी  1898 में हुआ था. पिता का नाम भीकू वालंगकर था. रमाई के बचपन का नाम रामी था. रामी के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था. रामी की दो बहने और एक भाई था. भाई का नाम शंकर था. बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में रहने लगे थे. रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुभेदार रामजी सकपाल के सुपुत्र भीमराव आंबेडकर से सन 1906 में  हुआ था. भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष थी. तब, वह 5 वी कक्षा में पढ़ रहे थे.शादी के बाद रामी का नाम रमाबाई हो गया था.  भले ही डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को पर्याप्त अच्छा वेतन मिलता था परंतु फिर भी वह कठीण संकोच के साथ व्यय किया करते थे. वहर परेल (मुंबई) में इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट की चाल में एक मजदूर-मुहल्ले में, दो कमरो में, जो एक दुसरे के सामने थे रहते थे. वह वेतन का एक निश्चित भाग घर के खर्चे के लिए अपनी पत्नी रमाई को देते थे. माता रमाई जो एक कर्तव्यपरायण, स्वाभिमानी, गंभीर और बुद्धिजीवी महिला थी, घर की बहुत ही सुनियोजित ढंग से देखभाल करती थी. माता रमाईने प्रत्येक कठिनाई का सामना किया. उसने निर्धनता और अभावग्रस्त दिन भी बहुत साहस के साथ व्यत्तित किये. माता रमाई ने कठिनाईयां और संकट हंसते हंसते सहन किये. परंतु जीवन संघर्ष में साहस कभी नहीं हारा. माता रमाई अपने परिवार के अतिरिक्त अपने जेठ के परिवार की भी देखभाल किया करती थी. रमाताई संतोष,सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी.डा. आंबेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे.वे जो कुछ कमाते थे,उसे वे रमा को सौप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे.रमाताई  घर खर्च चलाने में बहुत ही किफ़ायत बरतती और कुछ पैसा जमा भी करती थी. क्योंकि, उसे मालूम था कि डा. आंबेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की जरुरत होगी. रमाताई  सदाचारी और धार्मिक प्रवृति की गृहणी थी. उसे पंढरपुर जाने की बहुत इच्छा रही.महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मनी का प्रसिध्द मंदिर है.मगर,तब,हिन्दू-मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मनाही थी.आंबेडकर, रमा को समझाते थे कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उध्दार नहीं हो सकता जहाँ, उन्हें अन्दर जाने की मनाही हो. कभी-कभार माता रमाई धार्मिक रीतीयों को संपन्न करने पर हठ कर बैठती थी, जैसे कि आज भी बहुत सी महिलाए धार्मिक मामलों के संबंध में बड़ा कठौर रवैया अपना लेती है. उनके लिये  कोई चांद पर पहुंचता है तो भले ही पहुंचे, परंतु उन्होंने उसी सदियों पुरानी लकीरों को ही पीटते जाना है. भारत में महिलाएं मानसिक दासता की श्रृंखलाओं में जकडी हुई है. पुरोहितवाद-बादरी, मौलाना, ब्राम्हण इन श्रृंखलाओं को टूटने ही नहीं देना चाहते क्योंकि उनका हलवा माण्डा तभी गर्म रह सकता है यदि महिलाए अनपढ और रुढ़िवाद से ग्रस्त रहे. पुरोहितवाद की शृंखलाओं को छिन्न भिन्न करने वाले बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने पुरोहितवाद का अस्तित्त्व मिटाने के लिए आगे चलकर बहुत ही मौलिक काम किया.

बाबासाहब डॉ. आंबेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिण दिन व्यतीत किये. पति विदेश में हो और खर्च भी सीमित हों, ऐसी स्थिती में कठिनाईयां पेश आनी एक साधारण सी बात थी. रमाबाई ने यह कठिण समय भी बिना किसी शिकवा-शिकायत के बड़ी वीरता से हंसते हंसते काट लिया. बाबासाहब प्रेम से रमाबाई को "रमो" कहकर पुकारा करते थे. दिसंबर १९४० में डाक्टर बाबासाहब बडेकर ने जो पुस्तक "थॉट्स ऑफ पाकिस्तान" लिखी व पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी "रमो" को ही भेंट की. भेंट के शब्द इस प्रकार थे. ( मै यह पुस्तक) "रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं.."उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाई ने बाबासाहब डॉ. आंबेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और बाबासाहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था. 

बाबासाहब डॉ. आंबडेकर जब अमेरिका गए तो माता रमाई गर्भवती थी. उसने एक लड़के (रमेश) को जन्म दिया. परंतु वह बाल्यावस्था में ही चल बसा. बाबासाहब के लौटने के बाद एक अन्य लड़का गंगाधर उत्पन्न हुआ.. परंतु उसका भी बाल्यकाल में देहावसान हो गया. उनका इकलौता बेटा (यशवंत) ही था. परंतु उसका भी स्वास्थ्य खराब रहता था. माता रमाई यशवंत की बीमारी के कारण पर्याप्त चिंतातूर रहती थी, परंतु फिर भी वह इस बात का पुरा विचार रखती थी, कि बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के कामों में कोई विघ्न न आए औरउनकी पढ़ाई खराब न हो. माता रमाई अपने पति के प्रयत्न से कुछ लिखना पढ़ना भी सीख गई थी. साधारणतः महापुरुषों के जीवन में यह एक सुखद बात होती रही है कि उन्हें जीवन साथी बहुत ही साधारण और अच्छे मिलते रहे. बाबासाहब भी ऐसे ही भाग्यसाली महापुरुषों में से एक थे, जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक और आज्ञाकारी जीवन साथी मिली.

इस मध्य बाबासाहब आंबेडकर के सबसे छोटे बच्चे ने जन्म लिया. उसका नाम राजरत्न रखा गया. वह अपने इस पुत्र से बहुत लाड-प्यार करते थे. राजरत्न के पहले माता रमाई ने एक कन्या को जन्म दिया, जो बाल्य काल में ही चल बसी थी. मात रमाई का स्वास्थ्य खराब रहने लगा. इसलिए उन्हें दोनों लड़कों यशव्त और राजरत्न सहीत वायु परिवर्तन के लिए धारवाड भेज दिया गया. बाबासाहब की ओर से अपने मित्र श्री दत्तोबा पवार को १६ अगस्त १९२६ को लिए एक पत्र से पता लगता है कि राजरत्न भी शीघ्र ही चल बसा. श्री दत्तोबा पवार को लिखा पत्र बहुत दर्द भरा है. उसमें एक पिता का अपनी संतान के वियोग का दुःख स्पष्ट दिखाई देता है.

पत्र में डाक्टर बाबासाहब आँबेडकर लिखते है -

"हम चार सुन्दर रुपवान और शुभ बच्चे दफन कर चुके हैं. इन में से तीन पुत्र थे और एक पुत्री. यदि वे जीवित रहते तो भविष्य उन का होता. उन की मृत्यू का विचार करके हृदय बैठ जाता है. हम बस अब जीवन ही व्यतित कर रहे है. जिस प्रकार सिर से बादल निकल जाता है, उसी प्रकार हमारे दिन झटपट बीतते जा रहे हैं. बच्चों के निधन से हमारे जीवन का आनंद ही जाता रहा और जिस प्रकार बाईबल में लिखा है, "तुम धरती का आनंद हो. यदि वह धरती कोत्याग जाय तो फिर धरती आनंदपूर्ण कैसे रहेगी?" मैं अपने परिक्त जीवन में बार-बार अनुभव करता हूं. पुत्र की मृत्यू से मेरा जीवन बस ऐसे ही रह गया है, जैसे तृणकांटों से भरा हुआ कोई उपपन. बस अब मेरा मन इतना भर आया है की और अधिक नहीं लिख सकता..."

बाबासाहब का पारिवारिक जीवन उत्तरोत्तर दुःखपूर्ण होता जा रहा था. उनकी पत्नी रमाबाई प्रायः बीमार रहती थी. वायु-परिवर्तन के लिए वह उसे धारवाड भी ले गये. परंतु कोई अन्तर न पड़ा. बाबासाहब के तीन पुत्र और एक पुत्री देह त्याग चुके थे. बाबासाहब बहुत उदास रहते थे. २७ मई १९३५ को तो उन पर शोक और दुःख का पर्वत ही टुट पड़ा. उस दिन नृशंस मृत्यु ने उन से उन की पत्नी रमाबाई को छीन लिया. दस हजार से अधिक लोग रमाबाई की अर्थी के साथ गए. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की उस समय की मानसिक अवस्था अवर्णनीय थी. बाबासाहब का अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था. बाबसाहब को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही साथ था. रमाबाई ने अतीव निर्धनता में भी बड़े संतोष और धैर्य से घर का निर्वाह किया और प्रत्येक कठिणाई के समय बाबासाहब का साहस बढ़ाया. उन्हें रमाबाई के निधन का इतना धक्का पहुंचा कि उन्होंने अपने बाल मुंडवा लिये, उन्होंने भगवे वस्त्र धारण कर लिये और वह गृह त्याग के लिए साधुओं का सा व्यवहार अपनाने लगे थे. वह बहुत उदास, दुःखी और परेशान रहते थे. वह जीवन साथी जो गरीबी और दुःखों के समय में उनके साथ मिलकर संकटों से जूझता रहा था और अब जब की कुछ सुख पाने का समय आया तो वह सदा के लिए बिछुड़ गया.

बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा बहन मायावतीजी ने अपने शासनकाल में माता रमाई के त्याग, बलिदान और साहस से प्रेरणा लेते हुए माता रमाई के नाम पर अनेक योजनाओं का शिलान्यास किया.. बल्कि माता रमाई के नाम पर अनेक योजनाएं अंमल में भी लाई.. और देश के सबसे बड़े स्मारक में बाबासाहब डॉ. आंबडेकर के साथ माता रमाई की भी प्रतिमा स्थापित की.. ताकि यहां आनेवाली महिलाओं को माता रमाई के कार्यों से कुछ प्रेरणा मिल सके..

रविवार, 11 मई 2014

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भारतीय राजनेताओं का 'गुप्त जीवन'

By: Inextlive | Inextlive Editorial Team

Publish Date: Sat 10-May-2014 11:53:41  |  Modified Date: Sat 10-May-2014 06:55:07

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जब मामला निजी जीवन की गोपनीयता का होता है तो भारतीय राजनीतिज्ञ दुनिया के सबसे बड़े तानाशाहों में बदल जाते हैं. बल्कि उनमें एक तरह का अलिखित क़रार सा होता है कि चाहे वो लोग एक दूसरे का कितना भी विरोध करेंगे लेकिन एक दूसरे के प्रेम प्रसंगों, विवाहेत्तर संबंधों और तथाकथित ‘दूसरी औरतों’ की चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं करेंगे.

भारतीय राजनेताओं का 'गुप्त जीवन'
एकाध अपवादों को छोड़ कर भारतीय राजनीतिज्ञों ने इस क़रार को निभाया भी है. इसकी शायद वजह ये है कि हर कोई शीशे के घर में रह रहा है लेकिन गवर्नेंस नाऊ के संपादक अजय सिंह इसके पीछे दूसरा कारण मानते हैं.

वो कहते हैं, ''शीशे के घर तो विदेश में भी होते हैं, लेकिन वहाँ तो पत्थर फेंके जाते हैं. यहाँ का एक सामंती अतीत है जहाँ हम मान कर चलते हैं कि राजा को कुछ चीज़ें अधिकार में मिली हुई हैं."

वो कहते हैं, "एक इटालियन शब्द है ओमार्टा जिसका अर्थ है कि अपराधियों में एक गुप्त समझौता होता है, जिसके अनुसार हम आपके बारे में नहीं बताएंगे और न ही आप हमारे बारे में बताएंगे. भारतीय राजनीति में भी कुछ कुछ ओमार्टा जैसा है. कुछ मामलों में चुप्पी इतनी ज़्यादा है और उन बातों पर चुप्पी है जहाँ बिल्कुल नहीं होनी चाहिए."

ब्रह्मचर्य का प्रयोगमीडिया और राजनीतिज्ञों के बीच भी उनकी निजी जिंदगी को ले कर एक तरह का सामाजिक समझौता हुआ दिखता है कि एक हद के बाद उन पर सार्वजनिक चर्चा या बहस नहीं होगी. भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, भाई-भतीजावाद के मुद्दों पर भले ही आम लोग या मीडिया बहुत ही नृशंस हो लेकिन निजी जीवन के तथाकथित स्केंडल्स को मीडिया नज़रअंदाज़ ही करता है.

टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पूर्व संपादक इंदर मल्होत्रा कहते हैं, "तमाम दुनिया में ये हो गया है कि हर चीज़ खुली है. सोशल मीडिया भी है. नेताओं के निजी जीवन के बारे में अख़बारों में बिल्कुल नहीं छपता था. रेडियो और टेलीविजन सरकार के थे."

वो कहते हैं, "अब पंडित नेहरू को ही ले लीजिए. तमाम देश में मुंहज़ुबानी चर्चा होती थी कि इनका लेडी माउंटबेटन के साथ सिलसिला है. फिर एक शारदा माता थीं जिनके बारे में कहा जाता रहा उनकी ज़िंदगी के दौरान भी. उनके मरने के बाद उस पर किताब भी छप गई. उनसे पहले गांधी के बारे में भी, जो कोई चीज़ छिपाते नहीं थे, उनके एक अनुयायी ने किताब लिखी कि वो ब्रह्मचर्य के अपने प्रयोग के दौरान अपने दोनों तरफ़ युवा लड़कियों को सुलाते थे."

इंदर मल्होत्रा ये भी कहते हैं कि साठ के दशक में गांधी के सेक्स और ब्रह्मचर्य के प्रयोगों पर निर्मल कुमार बोस की किताब छपने से पहले इसके बारे में लोगों को शायद पता भी नहीं था. इससे पहले इस विषय पर लिखने की भी कल्पना नहीं की जा सकती थी.

नेहरू-एडविना का इश्कजवाहरलाल नेहरू के एडविना माउंटबेटन से संबंधों पर भी विदेश में अधिक चर्चा हुई है.

इंदर कहते हैं, "इस विषय पर इंग्लैंड में एक किताब छपी. माउंटबेटन ट्रस्ट ने ये किताब छापने की बाक़ायदा इजाज़त दी. नेहरू ने जितने भी पत्र एडविना को लिखे, उन्हें उस किताब में शामिल किया गया."

वो कहते हैं, "माउंटबेटन की जीवनी में भी नेहरू एडविना के रोमांस का ज़िक्र है लेकिन जब जेनेट मॉरगन ने एडविना पर किताब लिखी तो उसने बहुत कोशिश की कि एडविना के नेहरू के लिखे गए ख़तों को छापने की इजाज़त मिल जाए लेकिन उन्हें छापने की इजाज़त उन्हें नहीं मिली."

इंदिरा-फ़िरोज़ का वैवाहिक जीवन


इंदिरा गांधी के वैवाहिक जीवन पर भी सार्वजनिक रूप से बहुत कम कहा गया है सिवाए इसके कि उनके अपने पति फ़िरोज़ गांधी के साथ संबंध बहुत अच्छे नहीं थे.

इंदर मल्होत्रा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, "फ़िरोज़ गांधी मेरे बहुत अज़ीज़ दोस्त थे. वो कभी ज़िक्र भी कर देते थे और उनके यहाँ जो महिलाएं आती थीं वो मुझे भी जानती थीं. उनकी दोस्ती हम्मी नाम की एक बहुत ख़ुबसूरत महिला के साथ थी जिनके पिता उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री हुआ करते थे. इंदिरा नेहरू की देखभाल के लिए बच्चों को ले कर दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास में आ गईं. वहाँ से फ़िरोज़ का रोमांस शुरू हुआ. फ़िरोज़ हैड अ काइंड ऑफ़ ग्लैड आई.''

हम्मी को लेकर इंदिरा गांधी को ज़िंदगी भर मलाल रहा है.

इस बारे में इंदर मल्होत्रा ने बताया, "एक बार जब फ़िरोज़ नहीं रहे और इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बन गईं तो इमरजेंसी से पहले हम्मी प्रधानमंत्री कार्यालय में किसी बात पर एक अर्ज़ी देने आईं. जब वो प्रधानमंत्री कार्यालय से निकल कर बाहर जा रही थी तो उसी समय कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ऑफ़िस में घुस रहे थे. इंदिरा गाँधी ने बरुआ से कहा कि बाहर नज़र डालो. जिस औरत को तुम देख रहे हो, इस औरत के लिए फ़िरोज़ ने सारी ज़िंदगी हमारी ख़राब कर दी."

राजीव-सोनिया की प्रेम कहानी

राजीव गांधी और सोनिया गांधी के प्रेम प्रसंग पर भी राष्ट्रीय मीडिया में बहुत कम चर्चा हुई है. राशिद किदवई ने ज़रूर सोनिया गांधी पर लिखी जीवनी में इस मुददे पर अपनी नज़र दौड़ाई है.

क़िदवई ने बीबीसी को बताया, "शुरू में सोनिया गाँधी को ये भी पता नहीं था कि राजीव गांधी जवाहरलाल नेहरू के नवासे हैं. वो पहली बार केम्ब्रिज में एक ग्रीक रेस्तराँ ‘वरसिटी’ में मिले थे. वो अपनी एक दोस्त के साथ बैठी हुई थीं. राजीव गाँधी भी अपने दोस्तों के साथ थे."

किदवई बताते हैं, "सोनिया गाँधी का ख़ुद का कहना है कि जिस नज़र से राजीव ने उन्हें देखा.... पहली ही नज़र में उन्हें उनसे इश्क हो गया. फिर राजीव गांधी ने उन्हें एक कविता लिख कर भेजी. सोनिया गांधी को ये बहुत अच्छा लगा और इसके बाद दोनों का मिलना-जुलना शुरू हो गया. लेकिन जब एक बार इंदिरा गाँधी ब्रिटेन की यात्रा पर गईं और उनकी अख़बार में तस्वीर छपी तो उन्हें डर सा महसूस हुआ."

किदवई ने बताया, "एक बार वो आधे रास्ते से लौट आईं और इंदिरा से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं. जब उनकी पहली बार इंदिरा से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने उनसे फ़्रेंच में बात की क्योंकि इंदिरा को फ़्रेंच आती थी और सोनिया का हाथ अंग्रेज़ी में तंग था. बाद में जब सोनिया के पिता को पता चला कि वो राजीव से शादी करने जा रही हैं तो उन्होंने इसका विरोध किया. जब राजीव गांधी सोनिया का हाथ मांगने गए तो उन्होंने कहा मैं देखना चाहता हूँ कि आप दोनों में कितनी मोहब्बत है.. इसलिए आप एक साल तक एक दूसरे से न मिलें. एक साल बाद सोनिया गांधी ने पहल की लेकिन तब भी उनके पिता इस शादी के लिए दिल से तैयार नहीं हुए और उन्होंने इन दोनों की शादी में शिरकत भी नहीं की."

राजीव के छोटे भाई संजय गांधी का भी नाम कई महिलाओं से जोड़ा गया. उनमें से एक रुख़्साना सुल्ताना भी थीं.

राशिद क़िदवई कहते हैं, "रुख़्साना सुल्ताना कोई बहुत बड़ी पब्लिक फ़िगर नहीं थीं. लेकिन उनको संजय गाँधी ने आगे बढ़ाया. उनका जो लाइफ़स्टाइल था, उस ज़माने में मेक अप करके, हाई हील्स पहन कर निकला करती थीं. उनका एक डॉमिनेटिंग कैरेक्टर था. कांग्रेस के लोग कहते थे कि वो संजय पर अपना हक़ जताती थीं और वो एक ऐसा हक़ था जिसे किसी रिश्ते का नाम नहीं दिया गया था. संजय का कई लड़कियों के साथ उठना बैठना था. बल्कि जब संजय की मेनका से शादी का पता चला तो कई लोगों को हैरत हुई कि ऐसा कैसे हो गया और कई लड़कियों के दिल टूट गए."

वाजपेई- राजकुमारी कौल प्रकरण


पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेई के ‘परिवार’ पर दबेज़ुबान कुछ चर्चा भले ही होती रही हो लेकिन इससे उनकी लोकप्रियता पर बिल्कुल फ़र्क नहीं पड़ा. वाजपेई ने कॉलेज के दिनों की अपनी दोस्त राज कुमारी कौल के साथ विवाह नहीं किया लेकिन उनकी शादी के बाद उनके पति के घर रहने लगे.

सैवी पत्रिका को दिए गए एक साक्षात्कार में श्रीमती कौल ने कहा, "मैंने और अटल बिहारी वाजपेई ने कभी इस बात की ज़रूरत नहीं महसूस की कि इस रिश्ते के बारे में कोई सफ़ाई दी जाए.''

श्रीमती कौल का कुछ दिनों पहले निधन हो गया लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में उनकी शख्सियत के बारे में इसलिए चर्चा नहीं हुई क्योंकि उनके बारे में लोगों को कुछ पता ही नहीं था. बीबीसी ने श्रीमती राजकुमारी कौल की दोस्त तलत ज़मीर से बात की.

तलत कहती हैं, ''वो बहुत ही ख़ुबसूरत कश्मीरी महिला थीं... बहुत ही वज़ादार. बहुत ही मीठा बोलती थीं. उनकी इतनी साफ़ उर्दू ज़ुबान थी. मैं जब भी उनसे मिलने प्रधानमंत्री निवास जाती थी तो देखती थी कि वहाँ सब लोग उन्हें माता जी कहा करते थे. अटलजी के खाने की सारी ज़िम्मेदारी उनकी थी. रसोइया आ कर उनसे ही पूछता था कि आज खाने में क्या बनाया जाए. उनको टेलिविजन देखने का बहुत शौक था और सभी सीरियल्स डिसकस किया करती थीं. वो कहा करती थी कि मशहूर गीतकार जावेद अख़्तर जब पैदा हुए थे तो वो उन्हें देखने अस्पताल गई थीं क्योंकि उनके पिता जानिसार अख़्तर ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उन्हें पढ़ाया करते थे. वो जावेद से लगातार संपर्क में भी रहती थीं.''

मुलायम की दूसरी शादी


मुलायम सिंह यादव की दूसरी शादी के बारे में भी लोगों को तब पता चला जब आय से अधिक धन के मामले में मुलायम सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामा दिया.

अजय सिंह कहते हैं, ''हम जब लखनऊ में काम करते थे तो हमें पता था कि ऐसा है. उनकी पत्नी तो नहीं हैं लेकिन पत्नी जैसी ही हैं जिनके यहाँ वो जाते थे. लेकिन न तो इस पर लिखना होता था न कोई बात होती थी. वो तो एक बार सुप्रीम कोर्ट में उन्हें एक हलफ़नामा देना पड़ा कि उनकी पहली पत्नी नहीं है. तब जा कर पता चला कि इनकी दूसरी पत्नी भी हैं और उनसे उन्हें एक लड़का भी है.''

इश्क और सेक्स की बात छोड़ भी दी जाए, राजनीतिज्ञों के निजी जीवन से जुड़े दूसरे पहलुओं पर चर्चा करने से बचा गया है. नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई अपनी किताब 'रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ नेहरू एज' में लिखते हैं कि मौलाना आज़ाद को जीवन की बेहतरीन चीज़ों का शौक था.

एक बार जब वो ब्रिटेन की यात्रा पर गए थे तो वहाँ भारत की उच्चायुक्त विजयलक्ष्मी पंडित ने उनके सम्मान में एक भोज दिया था जिसमें एंथनी ईडन और लॉर्ड माउंटबेटन जैसे लोगों को बुलाया गया था. जैसे ही खाना ख़त्म हुआ मौलाना कमरे से बाहर निकल आए.

ईडन ने पूछा भी कि मौलाना गए कहाँ. विजयलक्ष्मी पंडित को कूटनीतिक झूट बोल कर बहाना बनाना पड़ा जबकि सच ये था कि मौलाना अपने कमरे में बैठ कर शैंपेन का अंनंद ले रहे थे.

इंदर मल्होत्रा इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं, "वो शाम के सात बजे के बाद पीना शुरू करते थे और इसको छिपाते भी नहीं थे. अपनी किताब ‘ग़ुबारे ख़ातिर’ में जब भी वो ज़िक्र करते थे कि वो चाय पी रहे हैं, वो वास्तव में विहस्की पी रहे होते थे."

जिन्ना का हैम प्रेम

इसी तरह बहुत कम लोग जानते थे कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को हैम सैंडविचेज़ खाने का बहुत शौक था.  

उनके असिस्टेंट रहे और बाद में भारत के शिक्षा और विदेश मंत्री बने मोहम्मद करीम चागला ने अपनी आत्मकथा 'रोज़ेज़ इन दिसंबर' में लिखा है, "जिना बॉम्बे म्यूनिसिपिल कॉरपोरेशन का चुनाव लड़ रहे थे. मैं और जिन्ना टाउन हॉल में थे जहाँ एक मतदान केंद्र हुआ करता था. लंच इंटरवेल के दौरान जिन्ना की पत्नी रूटी एक बड़ी गाड़ी में एक टिफ़िन बास्केट ले कर उतरीं और टाउन हॉल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए जिन्ना से बोलीं, जे, गेस करो मैं तुम्हारे लिए लंच में क्या लाई हूँ.''

इस किताब में आगे लिखा गया है, ''(वो जिन्ना को जे कहा करती थीं) जिन्ना ने कहा मुझे क्या पता. इस पर उन्होंने जवाब दिया, मैं तुम्हारे लिए बेहतरीन हैम सैंडविच लाई हूं. इतना सुनते ही जिन्ना के होश उड़ गए. बोले ये तुमने क्या किया. क्या तुम चाहती हो कि मैं ये चुनाव हार जाऊं. क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैं मुस्लिम इलाके से चुनाव लड़ रहा हूँ और अगर उन्हें पता चल गया कि मैं लंच में हैम सैंडविच खा रहा हूँ तो क्या वो मुझे वोट देंगे. इतना सुनते ही रूटी जिन्ना का मुँह उतर गया. उन्होंने टिफ़िन बास्केट उठाई. गुस्से में सीढ़ियां उतरीं और पैर पटकते हुए अपनी गाड़ी में बैठ कर चलीं गईं.''

बाद में ये किताब पाकिस्तान में बैन कर दी गई.

रशीद क़िदवई कहते हैं, "इस ज़माने में एक दर्जन नाम गिनवाए जा सकते हैं जिनकी काफ़ी रंगीन ज़िंदगी रही है. विद्याचरण शुक्ला के बारे में बात होती थी. चंद्रशेखर के बारे में बात होती थी. नारायणदत्त तिवारी भी जब राज भवन में पकड़े गए और इसके अलावा उन पर एक पैटरनिटी सूट दाख़िल किया गया जो लोग बहुत चटख़ारे ले कर उस पर बात करते थे. लोहिया के इश्क पर भी बात होती थी."

इसके अलावा किदवई ने कुछ और नेताओं के प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए बताया, ''इंदरजीत गुप्त का एक अलग किस्म का सूफ़ियाना किस्म का इश्क था. 62 साल की उम्र में उन्होंने शादी की. आरके धवन ने भी 74 साल की उम्र में अपनी शादी को सार्वजनिक रूप से स्वीकारा. हमारे समाज में जो होता है... शादी, प्रेम प्रसंग, विवाहेत्तर संबंध... राजनीति इससे अछूती नहीं रही है. सियासत का ये रंगीन पहलू है जिसे हम अंडरप्ले करते हैं."

शुक्रवार, 9 मई 2014

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'पूरे 72 घंटे तक चलता रहा कत्लेआम'

 गुरुवार, 11 अप्रैल, 2013 को 15:30 IST तक के समाचार
त्रिलोकपुरी में हुई हिंसा में कुल 320 लोग मारे गए थे.
मुझे आज भी याद है कि जब क्लिक करें इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो वह बुधवार का दिन था और तारीख थी, 31 अक्तूबर 1984.उस दिन दिन भर पूरी दिल्ली में तनाव बना रहा. शाम क़रीब चार-साढ़े चार बजे इसकी घोषणा हुई. इसके बाद से दंगा-फसाद शुरू हो गया. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से शुरू होकर यह पूरी दिल्ली में फैल गए.
उस समय मैं अंग्रेजी अखबार 'इंडियन एक्सप्रेस' का संवाददाता था और एम्स में ही मौजूद था. वहाँ से जब बाहर निकला तो देखा कि सिखों को खोज-खोजकर मारा जा रहा है. सिख टैक्सी ड्राइवरों को अधिक निशाना बनाया गया.
इन दंगों का सबसे वीभत्स रूप मैंने त्रिलोकपुरी में देखा.यह दिल्ली की एक बहुत बड़ी पुनर्वास कॉलोनी है. इसकी दो गलियों में ग़रीब क्लिक करें सिख रहते थे. उन्हें पकड़-पकड़ कर मारा गया. मैं वहां शुक्रवार को पहुंचा था, जो मैंने वहां देखा, उसे आजतक भूल नहीं पाया हूं. उस कत्लेआम को याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

ब्लॉक नंबर 32

मैं अपने दो सहकर्मियों के साथ एक गाड़ी से वहाँ पहुंचा था. वहां मुझे किसी ने बताया कि कॉलोनी के ब्लाक नंबर 32 में कत्लेआम मचा हुआ है.यह सुनकर हम वहां पहुंचे.हमें देखते ही दंगाइयों ने हम पर पथराव शुरू कर दिया.हाथों में लाठियां, तलवारें और छुरे लिए हुए कुछ लोग मारने के लिए हमारी ओर दौड़े.यह देखकर हम वहां से भाग निकले.
"त्रिलोकपुरी की गलियों में मैंने जो देखा उसे आजतक भूल नहीं पाया हूं. उस कत्लेयाम को याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं."
राहुल बेदी, वरिष्ठ पत्रकार
रास्ते में हमने पुलिस, सेना और एयरफोर्स की पेट्रोलिंग पार्टियों को रोककर इस कत्लेआम के बारे में बताया.लेकिन किसी ने भी हमारी बात नहीं सुनी.
इसके बाद हम त्रिलोकपुरी पुलिस थाने पहुंचे. वहां एक ट्रक में चार लाशें पड़ी थीं और एक सिख युवक का पेट फटा हुआ था और वह लेटा हुआ था. उसने हमसे पानी की मांग की. इसपर हमने उसे पुलिस की एक गाड़ी में डालकर अस्पताल पहुंचाया. बाद में हमें पता चला कि अस्पताल में ही उसकी मौत हो गई थी.
त्रिलोकपुरी पुलिस थाने के लोगों से जब हमने पूछा कि वहां क्या हो रहा है, तो उन्होंने कहां, ''यहां पूरी तरह शांति है.''
उसी दिन शाम सात बजें एक बार फिर हम त्रिलोकपुरी पहुंचे.वहां घुप्प अंधेरा छाया हुआ था. इस कॉलोनी की दो-तीन सौ गज लंबी और क़रीब आठ फुट चौड़ी दो गलियों का मंजर बड़ा ही भयावह था. चारो तरफ लाशें बिखरी हुई थीं. कहीं किसी का सिर पड़ा था, कहीं किसी हाथ तो कहीं किसी का पैर. वहां लोगों के बाल भी बिखरे हुए थे. दोनों गलियों में लाशों का अंबार लगा हुआ था. इन गलियों में चलना मुश्किल हो रहा था. हम उंगलियों के बल चल रहे थे. वहां पिछले 48 घंटों में 320 लोगों का कत्ल हुआ था.
वहां हजारों लोग खड़े थे और हमें देख रहे थे कि हम क्या कर रहे हैं. इतने लोगों के होने के बावजूद वहां सन्नाटा पसरा था. कोई कुछ बोल नहीं रहा था. वहां मैंने देखा कि एक लाचार लड़की अपने घर के बाहर बैठी हुई थी, उसके घर में चार-पांच लाशें पड़ी थीं. एक बच्चा भी वहां था. हमने दोनों को वहां खड़े दो पुलिसवालों के हवाले किया.

पुलिस प्रमुख का झूठ

इसके बाद हम पुलिस मुख्यालय पहुंचे, वहां हमें बताया गया कि त्रिलोकपुरी में कुछ नहीं हुआ है. वहां पूरी तरह शांति हैं. इसकी गवाही उस समय के पुलिस आयुक्त और उप राज्यपाल ने भी दी थी.लेकिन किसी ने भी यह नहीं कहा कि वहां इतनी बड़ी संख्या में लोग मारे गए हैं.
1984 के सिख विरोधी दंगे
इन दंगों की जांच करने वाले कई आयोगों में पत्रकार राहुल बेदी ने गवाही दी है
अगले दिन हम वहां फिर पहुंचे. वहां से लाशें गायब थीं. लेकिन पुलिस का कोई पहरा नहीं था. शनिवार को इंदिरा गांधी के अंतिम संस्कार के बाद वहां सेना तैनात की गई. उसने राहत अभियान शुरू किया. इसके बाद इतने राहत शिविर बनाए गए कि उनकी जानकारी अधिकारियों को भी नहीं थी. सेना को मैंने कई राहत शिविरों की जानकारी दी. इसके बाद सेना के लोग वहां पहुंचे और पीड़ितों तक राहत पहुंचाई.
दंगे के दौरान में पूरी दिल्ली में घूमा. पूरी दिल्ली से सिख टैक्सी चालक गायब थे. सिखों की दुकानें लूटी गईं. सिखों के घर लूटे गए, उनमें आग लगा दी गई.
यमुना पार के एक इलाके में मैंने देखा कि एक घर को हज़ारों लोग घेरे हुए हैं. उनका कहना था कि घर में मौजूद लोगों के पास बंदूकें हैं. मैंने उन लोगों से कहा कि हम अंदर जा रहे इसलिए गोली न चलाएं. जब मैं घर के अंदर गया तो देखा कि घर पूरी तरह लूटा जा चुका था. जब मैं घर की छत पर पहुंचा, तो देखा कि 80 साल की एक महिला वहां बैठी हुई हैं.उनके परिवार के अन्य सदस्य किसी और घर में पनाह लिए हुए थे. उन्होंने घर छोड़ने से इनकार कर दिया था.

कत्लेआम की आज़ादी

यह देखकर मैंने एक स्थानीय पुलिस वाले और सेना के एक कर्नल से कहा कि वे लोगों को तितर-बितर करने के लिए गोली चलाएं. लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें गोली चलाने का अधिकार नहीं है. इंदिरा गांधी के अंतिम संस्कार के बाद उसी कर्नल ने भीड़ पर गोली चलाई. इससे लगता है कि प्रशासन को दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने की इजाजत नहीं थी. भीड़ को इस बात की पूरी स्वतंत्रता दी गई थी कि वे जो चाहे वह कर सकते हैं. बुधवार से शनिवार तक उन्हें आजादी मिली हुई थी.
मैं एक सिख हूं.आज मेरी दाढ़ी सफेद हैं.लेकिन उन दिनों मेरी दाढ़ी काली हुआ करती थी. लेकिन सिद्धांतों की वजह से उसे नहीं हटाया. मुझे लगता है कि पत्रकारों को कुछ विशेषाधिकार मिले हुए हैं. इसलिए मुझे कहीं जाने में डर नहीं लगा. हम पर पथराव हुए.लेकिन हमारी किस्मत अच्छी थी कि हम बच के निकले. हमने बहुत से लोगों को अपनी गाड़ी में बैठाकर कैंपों तक पहुंचाया. मुझे पहली बार किसी दंगे में सरकार का हाथ इतना साफ-साफ नज़र आया.
इन दंगों की जांच करने वाले सात-आठ आयोगों में मैंने गवाही भी दी. लेकिन कहीं किसी को इंसाफ नहीं मिला.
इस दौरान मुझे कुछ सकारात्मक बातें भी नजर आईं. बहुत से ग़ैर सिखों ने सिखों की मदद की. उन्हें अपने घरों में सुरक्षित रखा. कुछ इसी तरह की बातें मैंने गुजरात के दंगों में भी देखीं.
मैं समझता हूं कि 1984 के सिख विरोधी दंगे देश पर एक कलंक हैं. इसे मिटाया जाना चाहिए.

भारतीय राजनेताओं का 'गुप्त जीवन'

भारतीय राजनेताओं का 'गुप्त जीवन'

 शनिवार, 10 मई, 2014 को 07:34 IST तक के समाचार
जब मामला निजी जीवन की गोपनीयता का होता है तो भारतीय राजनीतिज्ञ दुनिया के सबसे बड़े तानाशाहों में बदल जाते हैं. बल्कि उनमें एक तरह का अलिखित क़रार सा होता है कि चाहे वो लोग एक दूसरे का कितना भी विरोध करेंगे लेकिन एक दूसरे के प्रेम प्रसंगों, विवाहेत्तर संबंधों और तथाकथित ‘दूसरी औरतों’ की चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं करेंगे.
एकाध अपवादों को छोड़ कर भारतीय राजनीतिज्ञों ने इस क़रार को निभाया भी है. इसकी शायद वजह ये है कि हर कोई शीशे के घर में रह रहा है लेकिन गवर्नेंस नाऊ के संपादक अजय सिंह इसके पीछे दूसरा कारण मानते हैं.
वो कहते हैं, ''शीशे के घर तो विदेश में भी होते हैं, लेकिन वहाँ तो पत्थर फेंके जाते हैं. यहाँ का एक सामंती अतीत है जहाँ हम मान कर चलते हैं कि राजा को कुछ चीज़ें अधिकार में मिली हुई हैं."
वो कहते हैं, "एक इटालियन शब्द है ओमार्टा जिसका अर्थ है कि अपराधियों में एक गुप्त समझौता होता है, जिसके अनुसार हम आपके बारे में नहीं बताएंगे और न ही आप हमारे बारे में बताएंगे. भारतीय राजनीति में भी कुछ कुछ ओमार्टा जैसा है. कुछ मामलों में चुप्पी इतनी ज़्यादा है और उन बातों पर चुप्पी है जहाँ बिल्कुल नहीं होनी चाहिए."

ब्रह्मचर्य का प्रयोग

मीडिया और राजनीतिज्ञों के बीच भी उनकी निजी जिंदगी को ले कर एक तरह का सामाजिक समझौता हुआ दिखता है कि एक हद के बाद उन पर सार्वजनिक चर्चा या बहस नहीं होगी. भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, भाई-भतीजावाद के मुद्दों पर भले ही आम लोग या मीडिया बहुत ही नृशंस हो लेकिन निजी जीवन के तथाकथित स्केंडल्स को मीडिया नज़रअंदाज़ ही करता है.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पूर्व संपादक इंदर मल्होत्रा कहते हैं, "तमाम दुनिया में ये हो गया है कि हर चीज़ खुली है. सोशल मीडिया भी है. नेताओं के निजी जीवन के बारे में अख़बारों में बिल्कुल नहीं छपता था. रेडियो और टेलीविजन सरकार के थे."
वो कहते हैं, "अब पंडित नेहरू को ही ले लीजिए. तमाम देश में मुंहज़ुबानी चर्चा होती थी कि इनका लेडी माउंटबेटन के साथ सिलसिला है. फिर एक शारदा माता थीं जिनके बारे में कहा जाता रहा उनकी ज़िंदगी के दौरान भी. उनके मरने के बाद उस पर किताब भी छप गई. उनसे पहले गांधी के बारे में भी, जो कोई चीज़ छिपाते नहीं थे, उनके एक अनुयायी ने किताब लिखी कि वो ब्रह्मचर्य के अपने प्रयोग के दौरान अपने दोनों तरफ़ युवा लड़कियों को सुलाते थे."
इंदर मल्होत्रा ये भी कहते हैं कि साठ के दशक में गांधी के सेक्स और ब्रह्मचर्य के प्रयोगों पर निर्मल कुमार बोस की किताब छपने से पहले इसके बारे में लोगों को शायद पता भी नहीं था. इससे पहले इस विषय पर लिखने की भी कल्पना नहीं की जा सकती थी.

नेहरू-एडविना का इश्क

जवाहरलाल नेहरू के एडविना माउंटबेटन से संबंधों पर भी विदेश में अधिक चर्चा हुई है.
इंदर कहते हैं, "इस विषय पर इंग्लैंड में एक किताब छपी. माउंटबेटन ट्रस्ट ने ये किताब छापने की बाक़ायदा इजाज़त दी. नेहरू ने जितने भी पत्र एडविना को लिखे, उन्हें उस किताब में शामिल किया गया."
वो कहते हैं, "माउंटबेटन की जीवनी में भी नेहरू एडविना के रोमांस का ज़िक्र है लेकिन जब जेनेट मॉरगन ने एडविना पर किताब लिखी तो उसने बहुत कोशिश की कि एडविना के नेहरू के लिखे गए ख़तों को छापने की इजाज़त मिल जाए लेकिन उन्हें छापने की इजाज़त उन्हें नहीं मिली."

इंदिरा-फ़िरोज़ का वैवाहिक जीवन

इंदिरा गांधी के वैवाहिक जीवन पर भी सार्वजनिक रूप से बहुत कम कहा गया है सिवाए इसके कि उनके अपने पति फ़िरोज़ गांधी के साथ संबंध बहुत अच्छे नहीं थे.
इंदर मल्होत्रा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, "फ़िरोज़ गांधी मेरे बहुत अज़ीज़ दोस्त थे. वो कभी ज़िक्र भी कर देते थे और उनके यहाँ जो महिलाएं आती थीं वो मुझे भी जानती थीं. उनकी दोस्ती हम्मी नाम की एक बहुत ख़ुबसूरत महिला के साथ थी जिनके पिता उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री हुआ करते थे. इंदिरा नेहरू की देखभाल के लिए बच्चों को ले कर दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास में आ गईं. वहाँ से फ़िरोज़ का रोमांस शुरू हुआ. फ़िरोज़ हैड अ काइंड ऑफ़ ग्लैड आई.''
हम्मी को लेकर इंदिरा गांधी को ज़िंदगी भर मलाल रहा है.
इस बारे में इंदर मल्होत्रा ने बताया, "एक बार जब फ़िरोज़ नहीं रहे और इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बन गईं तो इमरजेंसी से पहले हम्मी प्रधानमंत्री कार्यालय में किसी बात पर एक अर्ज़ी देने आईं. जब वो प्रधानमंत्री कार्यालय से निकल कर बाहर जा रही थी तो उसी समय कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ऑफ़िस में घुस रहे थे. इंदिरा गाँधी ने बरुआ से कहा कि बाहर नज़र डालो. जिस औरत को तुम देख रहे हो, इस औरत के लिए फ़िरोज़ ने सारी ज़िंदगी हमारी ख़राब कर दी."

राजीव-सोनिया की प्रेम कहानी

राजीव गांधी और सोनिया गांधी के प्रेम प्रसंग पर भी राष्ट्रीय मीडिया में बहुत कम चर्चा हुई है. राशिद किदवई ने ज़रूर सोनिया गांधी पर लिखी जीवनी में इस मुददे पर अपनी नज़र दौड़ाई है.
क़िदवई ने बीबीसी को बताया, "शुरू में सोनिया गाँधी को ये भी पता नहीं था कि राजीव गांधी जवाहरलाल नेहरू के नवासे हैं. वो पहली बार केम्ब्रिज में एक ग्रीक रेस्तराँ ‘वरसिटी’ में मिले थे. वो अपनी एक दोस्त के साथ बैठी हुई थीं. राजीव गाँधी भी अपने दोस्तों के साथ थे."
इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी
इंदिरा गांधी अपने बेटे राजीवन गांधी और बहू सोनिया गांधी के साथ.
किदवई बताते हैं, "सोनिया गाँधी का ख़ुद का कहना है कि जिस नज़र से राजीव ने उन्हें देखा.... पहली ही नज़र में उन्हें उनसे इश्क हो गया. फिर राजीव गांधी ने उन्हें एक कविता लिख कर भेजी. सोनिया गांधी को ये बहुत अच्छा लगा और इसके बाद दोनों का मिलना-जुलना शुरू हो गया. लेकिन जब एक बार इंदिरा गाँधी ब्रिटेन की यात्रा पर गईं और उनकी अख़बार में तस्वीर छपी तो उन्हें डर सा महसूस हुआ."
किदवई ने बताया, "एक बार वो आधे रास्ते से लौट आईं और इंदिरा से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं. जब उनकी पहली बार इंदिरा से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने उनसे फ़्रेंच में बात की क्योंकि इंदिरा को फ़्रेंच आती थी और सोनिया का हाथ अंग्रेज़ी में तंग था. बाद में जब सोनिया के पिता को पता चला कि वो राजीव से शादी करने जा रही हैं तो उन्होंने इसका विरोध किया. जब राजीव गांधी सोनिया का हाथ मांगने गए तो उन्होंने कहा मैं देखना चाहता हूँ कि आप दोनों में कितनी मोहब्बत है.. इसलिए आप एक साल तक एक दूसरे से न मिलें. एक साल बाद सोनिया गांधी ने पहल की लेकिन तब भी उनके पिता इस शादी के लिए दिल से तैयार नहीं हुए और उन्होंने इन दोनों की शादी में शिरकत भी नहीं की."
राजीव के छोटे भाई संजय गांधी का भी नाम कई महिलाओं से जोड़ा गया. उनमें से एक रुख़्साना सुल्ताना भी थीं.
राशिद क़िदवई कहते हैं, "रुख़्साना सुल्ताना कोई बहुत बड़ी पब्लिक फ़िगर नहीं थीं. लेकिन उनको संजय गाँधी ने आगे बढ़ाया. उनका जो लाइफ़स्टाइल था, उस ज़माने में मेक अप करके, हाई हील्स पहन कर निकला करती थीं. उनका एक डॉमिनेटिंग कैरेक्टर था. कांग्रेस के लोग कहते थे कि वो संजय पर अपना हक़ जताती थीं और वो एक ऐसा हक़ था जिसे किसी रिश्ते का नाम नहीं दिया गया था. संजय का कई लड़कियों के साथ उठना बैठना था. बल्कि जब संजय की मेनका से शादी का पता चला तो कई लोगों को हैरत हुई कि ऐसा कैसे हो गया और कई लड़कियों के दिल टूट गए."

वाजपेई- राजकुमारी कौल प्रकरण

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटर बिहारी वाजपेयी
पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेई के ‘परिवार’ पर दबेज़ुबान कुछ चर्चा भले ही होती रही हो लेकिन इससे उनकी लोकप्रियता पर बिल्कुल फ़र्क नहीं पड़ा. वाजपेई ने कॉलेज के दिनों की अपनी दोस्त राज कुमारी कौल के साथ विवाह नहीं किया लेकिन उनकी शादी के बाद उनके पति के घर रहने लगे.
सैवी पत्रिका को दिए गए एक साक्षात्कार में श्रीमती कौल ने कहा, "मैंने और अटल बिहारी वाजपेई ने कभी इस बात की ज़रूरत नहीं महसूस की कि इस रिश्ते के बारे में कोई सफ़ाई दी जाए.''
श्रीमती कौल का कुछ दिनों पहले निधन हो गया लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में उनकी शख्सियत के बारे में इसलिए चर्चा नहीं हुई क्योंकि उनके बारे में लोगों को कुछ पता ही नहीं था. बीबीसी ने श्रीमती राजकुमारी कौल की दोस्त तलत ज़मीर से बात की.
तलत कहती हैं, ''वो बहुत ही ख़ुबसूरत कश्मीरी महिला थीं... बहुत ही वज़ादार. बहुत ही मीठा बोलती थीं. उनकी इतनी साफ़ उर्दू ज़ुबान थी. मैं जब भी उनसे मिलने प्रधानमंत्री निवास जाती थी तो देखती थी कि वहाँ सब लोग उन्हें माता जी कहा करते थे. अटलजी के खाने की सारी ज़िम्मेदारी उनकी थी. रसोइया आ कर उनसे ही पूछता था कि आज खाने में क्या बनाया जाए. उनको टेलिविजन देखने का बहुत शौक था और सभी सीरियल्स डिसकस किया करती थीं. वो कहा करती थी कि मशहूर गीतकार जावेद अख़्तर जब पैदा हुए थे तो वो उन्हें देखने अस्पताल गई थीं क्योंकि उनके पिता जानिसार अख़्तर ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उन्हें पढ़ाया करते थे. वो जावेद से लगातार संपर्क में भी रहती थीं.''

मुलायम की दूसरी शादी

मुलायम सिंह यादव की दूसरी शादी के बारे में भी लोगों को तब पता चला जब आय से अधिक धन के मामले में मुलायम सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामा दिया.
अजय सिंह कहते हैं, ''हम जब लखनऊ में काम करते थे तो हमें पता था कि ऐसा है. उनकी पत्नी तो नहीं हैं लेकिन पत्नी जैसी ही हैं जिनके यहाँ वो जाते थे. लेकिन न तो इस पर लिखना होता था न कोई बात होती थी. वो तो एक बार सुप्रीम कोर्ट में उन्हें एक हलफ़नामा देना पड़ा कि उनकी पहली पत्नी नहीं है. तब जा कर पता चला कि इनकी दूसरी पत्नी भी हैं और उनसे उन्हें एक लड़का भी है.''
इश्क और सेक्स की बात छोड़ भी दी जाए, राजनीतिज्ञों के निजी जीवन से जुड़े दूसरे पहलुओं पर चर्चा करने से बचा गया है. नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई अपनी किताब 'रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ नेहरू एज' में लिखते हैं कि मौलाना आज़ाद को जीवन की बेहतरीन चीज़ों का शौक था.
एक बार जब वो ब्रिटेन की यात्रा पर गए थे तो वहाँ भारत की उच्चायुक्त विजयलक्ष्मी पंडित ने उनके सम्मान में एक भोज दिया था जिसमें एंथनी ईडन और लॉर्ड माउंटबेटन जैसे लोगों को बुलाया गया था. जैसे ही खाना ख़त्म हुआ मौलाना कमरे से बाहर निकल आए.
ईडन ने पूछा भी कि मौलाना गए कहाँ. विजयलक्ष्मी पंडित को कूटनीतिक झूट बोल कर बहाना बनाना पड़ा जबकि सच ये था कि मौलाना अपने कमरे में बैठ कर शैंपेन का अंनंद ले रहे थे.
इंदर मल्होत्रा इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं, "वो शाम के सात बजे के बाद पीना शुरू करते थे और इसको छिपाते भी नहीं थे. अपनी किताब ‘ग़ुबारे ख़ातिर’ में जब भी वो ज़िक्र करते थे कि वो चाय पी रहे हैं, वो वास्तव में विहस्की पी रहे होते थे."

जिन्ना का हैम प्रेम

इसी तरह बहुत कम लोग जानते थे कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को हैम सैंडविचेज़ खाने का बहुत शौक था.
उनके असिस्टेंट रहे और बाद में भारत के शिक्षा और विदेश मंत्री बने मोहम्मद करीम चागला ने अपनी आत्मकथा 'रोज़ेज़ इन दिसंबर' में लिखा है, "जिना बॉम्बे म्यूनिसिपिल कॉरपोरेशन का चुनाव लड़ रहे थे. मैं और जिन्ना टाउन हॉल में थे जहाँ एक मतदान केंद्र हुआ करता था. लंच इंटरवेल के दौरान जिन्ना की पत्नी रूटी एक बड़ी गाड़ी में एक टिफ़िन बास्केट ले कर उतरीं और टाउन हॉल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए जिन्ना से बोलीं, जे, गेस करो मैं तुम्हारे लिए लंच में क्या लाई हूँ.''
इस किताब में आगे लिखा गया है, ''(वो जिन्ना को जे कहा करती थीं) जिन्ना ने कहा मुझे क्या पता. इस पर उन्होंने जवाब दिया, मैं तुम्हारे लिए बेहतरीन हैम सैंडविच लाई हूं. इतना सुनते ही जिन्ना के होश उड़ गए. बोले ये तुमने क्या किया. क्या तुम चाहती हो कि मैं ये चुनाव हार जाऊं. क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैं मुस्लिम इलाके से चुनाव लड़ रहा हूँ और अगर उन्हें पता चल गया कि मैं लंच में हैम सैंडविच खा रहा हूँ तो क्या वो मुझे वोट देंगे. इतना सुनते ही रूटी जिन्ना का मुँह उतर गया. उन्होंने टिफ़िन बास्केट उठाई. गुस्से में सीढ़ियां उतरीं और पैर पटकते हुए अपनी गाड़ी में बैठ कर चलीं गईं.''
बाद में ये किताब पाकिस्तान में बैन कर दी गई.
रशीद क़िदवई कहते हैं, "इस ज़माने में एक दर्जन नाम गिनवाए जा सकते हैं जिनकी काफ़ी रंगीन ज़िंदगी रही है. विद्याचरण शुक्ला के बारे में बात होती थी. चंद्रशेखर के बारे में बात होती थी. नारायणदत्त तिवारी भी जब राज भवन में पकड़े गए और एक पैटरनिटी सूट दाख़िल किया गया जो लोग बहुत चटख़ारे ले कर उस पर बात करते थे. लोहिया के इश्क पर भी बात होती थी."
इसके अलावा किदवई ने कुछ और नेताओं के प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए बताया, ''इंदरजीत गुप्त का एक अलग किस्म का सूफ़ियाना किस्म का इश्क था. 62 साल की उम्र में उन्होंने शादी की. आरके धवन ने भी 74 साल की उम्र में अपनी शादी को सार्वजनिक रूप से स्वीकारा. हमारे समाज में जो होता है... शादी, प्रेम प्रसंग, विवाहेत्तर संबंध... राजनीति इससे अछूती नहीं रही है. सियासत का ये रंगीन पहलू है जिसे हम अंडरप्ले करते हैं."

स्त्रियों को अपंग बनाने की दर्दनाक प्रथा!


स्त्रियों को अपंग बनाने की दर्दनाक प्रथा!

rape-file_5औरतों के प्रति दुनिया के हर समाज में आदि काल से भेदभाव रहा है, जो वहां की अलग-अलग प्रथाओं में दृष्टिगोचर भी होता रहा है। ऐसे ही चीनी समाज में जिंदगी भर के लिए महिलाओं को अपंग बनाने की प्रथा रही है। बेटी के दो साल का होते ही उसके पैर बांध दिए जाते थे ताकि वह बड़े न हो सकें और पुरुषों को आकर्षित कर सकें। इसकी वजह से औरतें ताउम्र एक अपाहिज की तरह जीवन जीती थी।
पैरों को बांधकर पत्‍थर से कुचल दिया जाता था
बेटी जब दो साल की होती थी तो उसके पैर बांध दिए जाते थे। एक बीस फीट लंबा सफेद कपड़ा लड़कियों के पैरों पर लपेटा जाता था। अंगूठे के अलावा पैर की सभी अंगुलियों को भीतर की तरफ मोड़ते हुए कपड़ा लपेटा जाता था। फिर लपेटे हुए पैर के उभरे हिस्‍से को एक बड़े पत्‍थर से कुचल दिया जाता था और छोटी बच्चियां दर्द से बिलबिला उठती थीं।
आवाज दबाने के लिए मुंह में कपड़ा ठूंसा जाता था
बेटियां जब दर्द से चीखती थीं तो उनकी माएं उनका चीखना-चिल्‍लाना बंद करने के लिए उनके मुंह में कपड़ा ठूंस देती थी। पैर को पत्‍थर से कुचलने की यह क्रिया कोई एक दिन नहीं, बल्कि बार-बार वर्षों तक दोहराई जाती थी। पैरों की सारी हड्डियां कुचल देने के बाद भी पैरों को मोटे कपड़े में दिन-रात बांध कर रखना पड़ता था, क्‍योंकि जैसे ही पैरों को कपड़े के बंधन से आजार किया जाता था, फौरन बढ़ना शुरू कर देते थे।
परिवार की समृद्धि और स्‍त्री समर्पण के प्रतीक थे ये अपाहिज पैर!
बेटियां कराहती रहती थीं और हाथ जोड़कर अपनी माओं से मिन्‍नत करती थीं कि उनके पैरों को खोल दिया जाए, लेकिन माएं भी रोतीं लेकिन उनके पैरों को नहीं खोलती थीं। माएं अपनी मजबूरी दर्शातीं और कहतीं, यदि उन्‍होंने उनके पैरों को खुला छोड़ दिया तो ये पैर उसकी सारी जिंदगी बर्बाद कर देंगे। उनकी भविष्‍य की खुशी उनके पैर को कुचलने में ही है। कुचले पैर पारिवारिक समृद्धि और स्‍त्री के समर्पण के प्रतीक थे।
मां की दया बेटियों पर भारी पड़ती थी
कभी-कभी किसी मां को अपनी बेटी पर तरस आ जाता और वह बंधी हुई पट्टियां खोल देती। वही बेटी बड़ी होने पर जब पति और परिवार की अवहेलना और समाज के तिरस्‍कार का पात्र बनतीं तो वह अपनी मां को इतना कमजोर होने के लिए कोसती।
दुल्‍हन का स्‍कर्ट उठाकर होता था पैरों का निरीक्षण
उन दिनों जब भी किसी लड़की की शादी होती तो सबसे पहले दुल्‍हे के परिवार वाले उस पैरों का मुआयना करते। बड़े पैर, यानी औसत साइज के पैर देखकर ससुराल वालों को सबके सामने शर्मिंदा होना पड़ता। सास घर आई बहू की लंबी स्‍कर्ट उठाकर पहले उसके पांव देखती और अगर पांव तीन-चार इंच से लंबे हुए तो वह तिरस्‍कार की मुद्रा में स्‍कर्ट को नीचे उतारकर उसे अकेले सब रिश्‍तेदारों की आलोचना भरी निगाहों का शिकार होने के लिए छोड़कर नाराजगी से कमरे से बाहर चली जाती। वे रिश्‍तेदार लड़की के पैरों को हिकारत से घूरते और अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए उसे अपमानित करते।
पुरुषों को उत्‍तेजित करते थे महिलाओं के ये बंधे पैर!
करीब एक हजार साल पहले किसी चीनी सम्राट के हरम की किसी महिला द्वारा इसकी शुरुआत माना जाता है। छोटे-छोटे पैरों पर बत्‍तखों की तरह फुदक-फुदक कर चलती हुई औरतें न सिर्फ पुरुषों के लिए उत्‍तेजक मानी जाती थी, बल्कि पुरुष इन छोटे बंधे हुए पैरों के साथ खेलते हुए उत्‍तेजित होते थे, क्‍योंकि वे पैर हमेशा बेहद खूबसूरत कसीदेदार जूतों से ढके रहते थे।
पट्टियां खोलते ही दुर्गंध से भर उठता था कमरा
युवा होने के बाद भी औरतें अपने पैरों की पट्टियां खोल नहीं सकती थीं, क्‍योंकि उन्‍हें खोलते ही पैर बढ़ना शुरू कर देते थे। इन पट्टियों को सिर्फ थोड़ी देर के लिए रात को सोते समय ढीला कर दिया जाता था और नरम सोल वाले जूते पहन लिए जाते थे। पुरुष कभी इन पैरों को नंबा नहीं देख पाते थे, क्‍योंकि पट्टियां खोलते ही गली हुई त्‍वचा की सड़ांध चारों और दुर्गंध बिखेरती थी।
1917 तक चीन में चलती रही थी यह प्रथा
बुढ़ापे तक महिलाएं इस बंधे हुए पैर के दर्द से कराहती रहती थीं। पैरों के उभरे हुए हिस्‍से की कुचली हुई हड्डियों में तो दर्द होता ही था, उससे भी ज्‍यादा तकलीफ अंगुलियों के नाखूनों में होती थी। नीचे की तरफ लगातार मोड़ने के कारण उनके नाखुन पीछे की ओर बढ़ गए होते थे। 1917 तक यह प्रथा चीन में चल रही थी। उसके बाद ही इस प्रथा का बहिष्‍कार किया गया।
स्रोत: जुंग चांग की सर्वाधिक चर्चित कृति ‘वाइल्‍ड स्‍वॉन्‍स’(Wild Swans: Jung Chang) कौटुंबिक आत्‍मकथा है, जो तीन पीढ़ी की स्त्रियों का जीवन समेटती हैं। इसमें लेखिका की दादी, मां और खुद लेखिका शामिल हैं। चीन में प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद इसकी 10 मिलियन से अधिक प्रतियां बिकीं।
ये किताब चीन के तात्‍कालिक सामाजिक-सांस्‍कृतिक परिवेश में स्‍त्री के जीवन को दहला देने वाला चित्र प्रस्‍तुत करती हैं। इस पुस्‍तक को ‘एन सी आर बुक अवॉर्ड’ और ‘ब्रिटिश बुक ऑफ द ईयर’ जैसे दो बड़े पुरस्‍कार मिल चुके हैं।
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देवदासी प्रथा : धर्म के नाम पर लड़कों के साथ भी होता था यौनाचार

हमारे देश में देवदासी प्रथा का अस्तित्व अत्यंत प्राचीन काल से रहा है। देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मिलता है। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी इस शब्द का उल्लेख मिलता है। फिर भी इस प्रथा की शुरुआत कब हुई, इसके बारे में सुनिश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आज ‘गे’ सेक्स को सामाजिक और कानूनी मान्यता कई देशों में मिल चुकी है। देखा जाए तो इस तरह के रिश्तों की जड़े हमारी परंपरा में मिलती हैं। उल्लेखनीय है कि देवदासी प्रथा के अंतर्गत ‘गे’ सेक्स संबंधों का भी प्रचलन था। यह स्पष्ट है कि इस प्रथा के तहत निम्न वर्ग की बालिकाओं को देवी को समर्पित कर उनका यौन शोषण किया जाता रहा और इसे धर्म सम्मत माना गया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में सभी नेताओं, समाज सुधारकों और भारतीय नवजागरण के अग्रणी विचारकों ने इस घृणित प्रथा के खिलाफ व्यापक अभियान चलाया, पर इसके वावजूद यह प्रथा हाल-हाल तक बनी रही और अब तो अधिकांश देवदासियां वेश्यालयों में शरीर बेच कर अथवा भीख मांग कर जीवन-यापन करने को मजबूर हैं। खास बात यह है कि इस प्रथा के तहत सिर्फ बालिकाओं को ही देवी को अर्पित नहीं किया जाता था, बल्कि बालकों को भी। 

धर्म की आड़ में उनका भी यौन शोषण किया जाता था।माना जाता है कि दसवीं से 12वीं सदी के दौरान देवी को बालिकाओं के साथ ही बालक समर्पित करने की प्रथा शुरू हुई। देवी के साथ बालक का विवाह कराने में भी वही सारी विधियां पूरी की जाती थीं, जो देवी को कन्या अर्पित करने में। खंडोबा को समर्पित बालक को वाघ्या, येल्लमा को समर्पित बालक को जोग्या, जोगत्या या जोगप्पा कहा जाता था। हनुमान जी को समर्पित बालक को 'दास' कहा जाता था। वयस्क होने पर इन्हें विवाह करने की स्वतंत्रता हासिल थी, पर वाघ्या और जोग्या विवाह नहीं कर सकते थे। येल्लमा देवी को समर्पित बालक के लिए साड़ी-चोली पहनना और स्त्रियोचित व्यवहार करना अनिवार्य था।यह स्पष्ट है कि इन बालकों का समलैंगिक शोषण धर्म के नाम पर पंडे-पुजारियों और अभिजात वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता रहा। यह मान लिया जाता है कि जोग्या नपुंसक होते हैं, पर यह सच नहीं है। उन्हें स्त्री रूप में रहने की दीक्षा दी जाती है, पर उनमें संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है।समय के साथ जोग्या को कई नाम दिये गये, पर देवी का दास होने के बावजूद समाज में उसे हिजड़ा, छक्का, पौने आठ आदि अपमानजनक नामों से पुकारा जाता रहा है। इन्हें मुंबई में पहले 'पवया' और 'फातड़ा' कहा जाता था। गुजरात में इन्हें 'खसुआ' और चेन्नई में 'खोजा' कहा जाता है। पहले धर्म के नाम पर इनके साथ समलैंगिक सेक्स किया जाता था, अब ये स्वयं देह बेचने पर मजबूर हो चुके हैं।कई बार इन्हें जबरन हिजड़ा बनाया जाता है।

 बहुचरा देवी को अर्पित बालकों को अत्यंत अमानवीय तरीके से नपुंसक बनाया जाता है। बहुचरा देवी को अर्पित हिजड़े स्त्री रूप में रहते हैं और गांव-गांव में घूम कर पैसे मांगते हैं। अगर किसी ने पैसे नहीं दिये तो ये अश्लील हरकत पर उतारू हो जाते हैं और सरेआम कपड़े उतार कर फेंकने लगते हैं। इन्हें 'पवया' नाम से जाना जाता है। पैसे मिलने पर ये समलैंगिक संबंध बनाने के लिए भी आसानी से तैयार हो जाते हैं। आजकल ट्रेनों में घूम-घूम कर पैसे वसूल करने वाले हिजड़ों में इनकी अच्छी-खासी संख्या है। इस जमात में शामिल होने वालों के लिए नपुंसक होना अनिवार्य है। पूरे धार्मिक रीति-रिवाज के साथ इनका खच्चीकरण यानी इनका लिंग काट डाला जाता है। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि ये स्वयं पर्दे के पीछए बैठ कर गुरु से कान में मंत्र फुंकवा कर उस्तरे से एक झटके में अपना लिंग काट कर अलग कर देते हैं। इसे इनका पुनर्जन्म माना जाता है। इसे बाद ही इन्हें पवैया समाज में प्रवेश मिलता है।खच्चीकरण की इस प्रक्रिया के बाद वे 40 दिनों तक बिस्तर पर रहते हैं और परंपरागत तरीके से इनके जख्मों को भरने के उपाय किये जाते हैं। खच्चीकरण की इस जानलेवा विधि के बावजूद यदि ये जिंदा बच जाते हैं तो स्त्री की वेशभूषा में सज-संवर कर निकलते हैं और फिर धूम-धाम से उत्सव मनाया जाता है। नवागत पवैया अपने साथियों को लड्डू बांटता है और भोज का आयोजन होता है। इसके बाद ये समलैंगिक देह-व्यापार में उतर जाते हैं। खच्चीकरण की विधि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग होती है, पर एक समानता यह है कि हर जगह यह बहुचरा देवी के समक्ष एवं पुजारी के मार्गदर्शन में अत्यंत गोपनीय तरीके से की जाती है। 

इन हिजड़ों के अनेकों उत्सव होते हैं। मेलों का आयोजन भी किया जाता है। तमिलनाडु के कुमागम गांव में हिजड़ों की शोभायात्रा निकाली जाती है। यहां इनके विवाह समारोह का आयोजन भी किया जाता है। उत्तर भारत से आने वाले हिजड़ों को मम्मी और दक्षिण भारतीय हिजड़ों को अम्मा कहा जाता है। विवाह समारोह के बाद ये परस्पर आलिंगनबद्ध हो पति-पत्नी जैसा व्यवहार करते हैं। यहीं से खूबसूरत और कम उम्र के हिजड़ों की खरीद-फरोख्त होती है। समलैंगिक सेक्स के लिए बड़े-बड़े शहरों में इनकी जबरदस्त मांग है।जोग्या और कई नामों से पुकारे जाने वाले देवी को अर्पित बालकों का काम अब मंदिरों व भिक्षाटन से ही नहीं चल पाता। सेक्स के लिए इनकी मांग एक खास उम्र तक ही रहती है। इसके बाद ये बड़े-बड़े शहरों में जाकर वेश्याओं के लिए दलाली का काम शुरू कर देते हैं। कई तो गांवों की लड़कियों को फंसा कर शहर ले जाते हैं और उन्हें देह की मंडियों में बेच देते हैं। कई देवदासियों को देह के धंधे में धकेल कर उनकी कमाई पर जीवन-यापन करते हैं।कुछ भी कहें, इनका जीवन अत्यंत ही विडंबनापूर्ण होता है। यह समाज का सबसे उपेक्षित तबका है। इन्हें जीवन में लगातार अपमान का सामना करना पड़ता है। आज समाज में जिस भारी संख्या में हिजड़े मौजूद हैं, उनमें से अधिकांश देवी को अर्पित किये गये होते हैं। वैसे, अब कम ही बालक देवी को अर्पित किये जाते हैं, फिर भी कानूनी प्रतिबंधों के बावजूद कमोबेश यह घृणित प्रथा जारी ही है।

धर्म की आड़ में महिलाओं संग खेला जाता रहा है हैवानियत का खेल!

PICS: धर्म की आड़ में महिलाओं संग खेला जाता रहा है हैवानियत का खेल!

धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण का इतिहास काफी पुराना है। हिंदू धर्म के तहत जहां मंदिरों में देवदासी प्रथा का प्रचलन हुआ, वहीं बेबीलोन के मंदिरों में भी देवदासियां रहा करती थीं। ईसाई धर्म के तहत चर्च और कॉन्वेन्ट्स में नन रहने लगीं जो चिरकुमारियां कही जाती हैं। जैन धर्म में संतों के साथ साध्वियां भी होती हैं।


महात्मा बुद्ध मठों में औरतों को शामिल करने के विरुद्ध थे। उनका मत था कि औरतों की मौजूदगी में व्यक्ति काम वासना के आकर्षण से बच नहीं सकता, पर उनके महाप्रयास के बाद मठों के द्वार औरतों के लिए खुल गए। बौद्ध धर्म की एक शाखा पूरी तरह तंत्र पर आधारित हो गई और तंत्र क्रिया में औरतों की देह का इस्तेमाल ‘मोक्ष’ यानी निर्वाण पाने के नाम पर किया जाने लगा। सभी धर्मों में कमोबेश ऐसी ही बातें जुड़ी हुई हैं।


भारत के कुछ क्षेत्रों में महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला जाता है। सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हैं। देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं। देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं।


इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकार्यता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगल काल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं।


कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं। बताते चलें कि देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। समाज में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त होता है और उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है।


परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। पेरियार तथा अन्य नेताओं ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। कुछ लोगों ने अंग्रेजों के इस विचार का विरोध किया कि देवदासियों की स्थिति वेश्याओं की तरह होती है।


सदियों से चली आ रही परम्परा का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है, जिसका आज के समय में कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कहीं ज्यादा उन बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है, जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है। उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है।


इसी तरह कैथोलिक चर्चों में भी सेक्स के खुले खेल के खुलासे होते रहे हैं। कुछ दिन पहले ही एक पूर्व नन ने पादरियों के व्यभिचार के बारे में सनसनीखेज खुलासा किया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि पादरी ननों के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं। जब वह गर्भवती हो जाती हैं तो बच्चों को गर्भ में ही मार देते हैं। नन सिस्टर मैरी चांडी अपनी आत्मकथा ‘ननमा निरंजवले स्वस्ति’ लिखा है कि, ‘मैंने वायनाड गिरिजाघर में हासिल अनुभवों को सहेजने की कोशिश की है। चर्च के भीतर की जिंदगी आध्यात्मिकता के बजाय वासना से भरी थी। एक पादरी ने मेरे साथ बलात्कार की कोशिश की थी। मैंने उस पर स्टूल चलाकर इज्जत बचाई थी।’ उनके मुताबिक चर्च में ननें सेक्सी किताबें पढ़ती है। इसी तरह से नन सिस्टर जेस्मी ने एक किताब लिखकर धार्मिक पाखंडों का खुलासा किया था। इस किताब का नाम ‘आमेन: द आटोबायोग्राफी’ था।


1982 में कर्नाटक सरकार ने और 1988 में आंध्र प्रदेश सरकार ने देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 15 जिलों में अब भी यह प्रथा कायम है। उड़ीसा में बताया गया कि केवल पुरी मंदिर में एक देवदासी है, लेकिन आंध्र प्रदेश ने 16,624 देवदासियों का आंकड़ा पेश किया। महाराष्ट्र सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी। जब महिला आयोग ने उनके लिए भत्ते का एलान किया, तब आयोग को 8793 आवेदन मिले, जिसमें से 2479 को भत्ता दिया गया। बाकी 6314 में पात्रता सही नहीं थी।


मंगलवार, 6 मई 2014

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एलियंस ने बनाया था यह शहर या फिर यह ‘वर्जिन’ औरतों की कब्रगाह है? जानिए एक खोए हुए शहर का रहस्य

पोस्टेड ओन: 6 May, 2014 जनरल डब्बा में

यूं तो आज से करीब 100 साल पहले ही इसे खोज लिया गया था लेकिन आज इतने वर्षों बाद भी इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है कि इसे क्यों और किसके लिए बनाया गया था. कोई कहता है यहां भगवान सूर्य को ‘वर्जिन’ औरतों की बलि दी जाती थी तो कोई यह कहता है कि यह स्थान दूसरे ग्रह से पृथ्वी पर आए लोगों ने निर्मित किया है. कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि यह उन राजकर्मचारियों की कब्रगाह है जिन्हें सेवा समाप्त होने के बाद मार दिया जाता था.



इंका सभ्यता की हकीकत आज तक कोई नहीं समझ पाया. पुरातत्व वैज्ञानिक ना ही इसकी खोज कर पाए हैं और इंका सभ्यता में लिखाई का प्रबंध ना होने के कारण कोई लिखित दस्तावेज भी प्राप्त नहीं हो पाए हैं जिस कारण इस रहस्य को भी नहीं सुलझाया जा सका है कि इंका सभ्यता से संबंधित ऐतिहासिक स्थल माचू पिच्चू का निर्माण क्यों किया गया और क्यों इस स्थान को इतनी जल्दी खाली कर दिया गया.
machu picchu

माचू पिच्चू के अस्तित्व से जुड़ी कई दास्तानें आज भी मौजूद हैं लेकिन सच कौन सी दास्तां है ये कोई नहीं जानता:

लॉस्ट सिटी
माचू पिच्चू की खोज करने वाले हीरम बिंघम का कहना था कि यह स्थान इंका सभ्यता से जुड़ा आखिरी स्थान है और साथ ही ‘विल्काबंबा ला विईजा’ का गुम हो चुका शहर यानि की ‘लॉस्ट सिटी’ है. लेकिन हीरम की इस खोज को अन्य पुरातत्व वैज्ञानिकों ने अपने-अपने तर्क और खोज से नकार दिया.
lost city

वर्जिन ऑफ द सन
इंका सभ्यता के देव भगवान सूर्य को वर्जिन महिलाओं की बलि दी जाती थी. यह स्थान उन अविवाहित औरतों के लिए था जो अपने प्राण भगवान सूर्य को समर्पित कर देती थीं. उनके शवों को यहीं दफना दिया जाता था. इस स्थान पर मिले कंकालों में लगभग सभी कंकाल महिलाओं के थे जिसे आधार बनाकर माचू पिच्चू को वर्जिन ऑफ द सन का नाम दिया गया. परंतु बाद में कुछ कंकाल पुरुषों के भी पाए गए जिसके बाद इस थ्योरी को भी नकारा गया.



राजकर्मचारियों की कब्र
पंद्रहवीं शताब्दी में इंका सम्राट पचाकुटी की सेवा में जितने भी कर्मचारी लगे थे उन्हें माचू पिच्चू में ही दफनाया गया था. इस थ्योरी के अनुसार माचू पिच्चू में शाही मेहमानों के मनोरंजन का पूरा इंतजाम किया जाता था और इस स्थान को सम्राट शाही कोर्ट के तौर पर प्रयोग करता था.
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इंसानी बलि का स्थान
माचू पिच्चू को इंसानी बलि के लिए प्रयोग किया जाता था और बहुत हद तक संभव है कि शवों को सही तरीके से दफनाया भी नहीं जाता था. खोजकर्ताओं को यहां कई कंकाल ऐसे भी मिले हैं जिन्हें दफनाया नहीं गया था.
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एलियन द्वारा निर्मित स्थान
सभी अवधारणाओं को नकारते हुए मॉडर्न वैज्ञानिकों का यह कहना है कि माचू पिच्चू का निर्माण दूसरे ग्रह से आए प्राणियों ने किया है. माचू पिच्चू के ग्रांड आर्किटेक्चर का निर्माण एलियन्स ने अपने अनुसार किया है. पेरू वासियों ने इस थ्योरी को भी नकार दिया है क्योंकि उनका कहना है कि उनके पूर्वज इससे भी बेहतरीन आर्किटेक्चर की कला जानते थे.
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ऐसा माना जाता है कि करीब 1430 ई. के आसपास ‘इंकाओं’ ने आधिकारिक कार्यों के लिए माचू पिच्चू का निर्माण किया  था. लेकिन निर्माण के सौ साल बाद जब ‘इंकाओं’ पर स्पेन ने विजय प्राप्त कर ली तो इंका इस स्थान को छोड़कर चले गए थे. स्थानीय लोग इस स्थान से परिचित थे लेकिन दुनिया के सामने यह गोपनीय स्थान तब आया जब एक अमेरिकी इतिहासकार हीरम बिंघम ने वर्ष 1911 में माचू पिच्चू की खोजकर इसे एक पर्यटन स्थल बनाने में सहयोग दिया था.
hiram bingham
इसके बाद वर्ष 1981 में माचू माच्चू को पेरू का ऐतिहासिक-धार्मिक स्थल घोषित कर पहचान दिलवाई गई और 1983 में यूनेस्को ने इस स्थान को वर्ल्ड हेरिटेज यानि विश्व धरोहर का दर्जा दे दिया. परंतु आज तक कोई नहीं जान पाया कि माचू पिच्चू, जिसे वर्ष 2007 में विश्व के सात अजूबों में स्थान दिया गया है, के अस्तित्व की वास्तविकता क्या है.

विपिन सर (Maths Masti) और मैं

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