शनिवार, 20 दिसंबर 2014

व्यक्ति विशेष: बंधुआ मजदूर कैसे बना मुख्यमंत्री!

व्यक्ति विशेष: बंधुआ मजदूर कैसे बना मुख्यमंत्री!

ये दास्तान बिहार के छोटे से गांव मकहर की है. करीब 68 साल पहले एक खेतीहर मजदूर रामजीत राम मांझी भी इसी गांव में रहा करते थे. मुसहर जाति से संबंध रखने वाले रामजीत मांझी की जिंदगी भी उसके मुसहर समाज से जुदा नहीं थी. मिट्टी की दीवारों से बनी घास फूस के छप्पर वाली रामजीत की ऐसी ही कोठऱी सुअरों के लिए निवास स्थान का काम भी करती थी. दरअसल बिहार के मगध इलाके में मुसहर समुदाय की जिंदगी इस कदर बदहाल रही है कि जिसकी कल्पना भी आपके रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है.
 
खलिहान में मजदूरी करने वाले इस मुसहरों को भुइया कह कर भी पुकारा जाता है लेकिन चूहों को उनके बिल से पकड़ कर उनका मांस खाने की वजह से इस समाज का नाम मुसहर पड़ा है. शराब और ताड़ी की दुर्गंध से महकते ऐसी ही मुसहर टोली में करीब 68 साल पहले एक बंधुआ मजदूर के घर एक बच्चे का जन्म हुआ था. खेतों में बंधुआ मजदूरी करने वाला वह बच्चा वक्त को जीत कर आज बन गया है मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी. लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने जब से पद संभाला है वह अपने बयानों को लेकर अक्सर विवादों में घिरते रहे हैं.

जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बने सात महीने गुजर चुके हैं लेकिन इन सात महीनों में वो अपने काम की बजाए अपने बयानों को लेकर ज्यादा चर्चा में रहे हैं. जीतन राम मांझी के ऐसे बयान जहां आए दिन नए विवाद खड़े करते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ उनकी और उनके समुदाय की दर्दभऱी कहानी भी बयान करते रहे हैं. 
 
चूहा मारके खाना खराब बात है क्या..

बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि झोला छाप डॉ और औझा के चक्कर में न पड़कर डॉक्टर के पास जाओ..हॉस्पिटल में कोई दिक्कत है डॉक्टर नहीं है दवा नहीं है उसकी सूचना जिलाधिकारी को दो. नहीं तो सिर्फ एक लेटर लिख दो मुख्यमंत्री के नाम पर जिस डॉक्टर का नाम लिखोगे उसे हम सजा देंगे. हमने कई लोगों को घर बैठाया है.सजा दी है. जीतन मांझी गरीबों के साथ है. हाथ कटा देंगे. 

पिछले कुछ दिनों से अपने बयानों को लेकर चर्चा में रहने वाले बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की जद में अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आ चुके है. बुधवार को नरेंद्र मोदी के संसंदीय क्षेत्र वाराणसी पहुंचे मांझी ने मोदी के स्वच्छ भारत अभियान पर जम कर कटाक्ष किया.

अपने विवादित बयानों को लेकर जीतन राम मांझी को विपक्षी दल ही नहीं अपनी ही पार्टी जेडीयू में भी विरोध का सामना करना पड़ा है लेकिन वो ना तो रुकने को तैयार है और ना ही किसी के आगे झुकने के लिए तैयार है.
 
मुख्यमंत्री ने कहा कि मांझी टूट जाएगा झकेगा नहीं. दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड का बिहार में प्रदर्शन बेहद खराब रहा था. उसे सिर्फ दो ही लोकसभा सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. जेडीयू की इस हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यंत्री नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था लेकिन सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने सबसे विश्वस्त और करीबी रहे जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था.

जीतन राम मांझी मई 2014 में बिहार के मुख्यमंत्री बनाए गए थे लेकिन एक मुख्यमंत्री के तौर पर वह अपने काम से ज्यादा अपने बयानों को लेकर ज्यादा चर्चा में रहे हैं. जीतन राम मांझी अपने विवादित बयानों की वजह से कई बार नीतीश कुमार के लिए भी मुसीबत बनते नजर आए हैं और यही वजह है कि विपक्षी दल ही नहीं बल्कि खुद उनकी पार्टी जेडीयू में भी मांझी के खिलाफ विरोध की तलवारें खिंचती रही हैं.

जीतन राम मांझी ने कहा कि भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है नीतीश कुमार ने काम किया लेकिन करप्शन दूर नही हुआ. शरद यादव ने कहा कि वह खुद भी जिम्मेदार है. 
वह खुद मंत्रीमंडल में थे तो उनकी जिम्मेदारी बराबर की है उनको उस समय इस बात को कैबिनेट के भीतर उठाना चाहिए था. मैं सोचता हूं कि ये मर्यादा के भीतर की बात नहीं है.

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि अगर आप हमे विशेष राज्य का दर्जा दे देते है तो जीतन मांझी आपका(मोदी) समर्थक हो जाएगा..

विवादित बयानों पर जेडीयू विधायक ने कहा कि पागल है. उसको सीएम बनाकर गलती कर दी. जबसे बना है कैसे बयान देता है बयान का जनता पर कुछ असर नही होता है लोग बोलते है पागल है इसे जल्दी से हटा दो.

जेडीयू की तरफ से अस्थायी इंतजाम के तौर पर मुख्यमंत्री बनाए गए मांझी की बयानबाजी को दरअसल उनकी खास रणनीति और राजनीतिक महत्वकांक्षा के तौर पर देखा जा रहा है. माना जा रहा है कि जीतन राम मांझी अपने बयानों से ना सिर्फ विवाद खड़ा करना चाहते हैं बल्कि उन विवादों को हवा देना भी चाहते हैं ताकि बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में इसका राजनीतिक लाभ उठाया सके.

जीतन राम मांझी के विवादित बयानों को लेकर राजनीति के जानकार ये भी वजह मानते है कि वह एक कमजोर मुख्यमंत्री की छवि से बाहर निकलना चाहते है और साथ ही अपनी पार्टी जेडीयू के लिए आने वाले वक्त में भी एक मजबूरी बने रहना चाहते हैं.

राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन ने कहा कि  कुलमिलाकर उनके बयान उनकी राजनीति को पीते गए है.. वो खुद को मजबूत करना चाहते है जितना वो कमजोर होकर सीएम बने है वह स्थिति हटाना चाहते है. वह एक मजबूरी बनाना चाहते है कि कल को नितीश कुमार और लालू एक पार्टी में आते है तो वही कनसेस बनके रहे. दो तीन तरह की राजनीति है एक तो यही कि इन दोनों के बीच कोई कॉमन आदमी आना चाहिए. जो वह खुद बनना चाहते हैं. दोनो आपस में एक-दूसरे को नेता माने न माने वह खुद नेता बन जाना चाहते है. तीसरा टॉरगेट भी लोग बोल रहे हैं लेकिन मुझे भरोसा नहीं हो रहा है कि अगर वह वोट को अपने साथ कर पाते है तो कलको बीजेपी में कोई अच्छा सौदा करके वह उस तरफ भी जा सकते हैं.

आखिर कौन है जीतन राम मांझी और क्यों लगातार विवाद पैदा करने वाले बयान दे रहे हैं. मांझी के बयानों के पीछे छिपे असल मकसद क्या है.

साफ है कि मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पहले बयान देते हैं और जब उनके बयान पर हंगामा खड़ा होता है तो वह फौरन ही उस पर अपनी सफाई भी पेश कर देते हैं. मुख्यमंत्री मांझी की क्या है ये बयाननीति? क्या इसमें छुपी है चुनाव से जुड़ी कोई रणनीति. मांझी के इस चुनावी गणित की गहराई में भी हम उतरेंगे लेकिन पहले कहानी उस मुसहर समुदाय की जिससे मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की जड़े जुड़ी हुई हैं.

बिहार के मगध इलाके में मुसहरों की एक बस्ती हैं. जाहिर है मुसहर समुदाय आज भी अभिशप्त जिंदगी जीने को मजबूर है. कुछ गज जमीन पर बने जर्जर मकान और गंदगी के बीच सांसे लेती जिंदगी दशकों से मुसहर समुदाय का नसीब रही है. सितुहा, घोंघा और चूहे पकड़ कर जिंदगी की नैया खेते –खेते थक हार चुका मुसहर समुदाय आज भी समाज के हाशिये पर खड़ा है. खास बात ये है कि मुसहरों की जिंदगी की बात सुअर, शराब और ताड़ी के बिना अधूरी ही रहती है क्योंकि ये तीनों ही चीजें इनकी जिंदगी में खास अहमियत रखते हैं. गंदगी में रहने और पलने वाले ये सुअर ही मुसहर समुदाय के लिए विपत्ति के वक्त सबसे बड़ा आर्थिक सहारा बनते हैं. खेतों में मजदूरी करके पेट पालने वाले मुसहर समुदाय के लिए चूहे भी जिंदगी का सबसे बड़ा सहारा रहे हैं और यही वजह है कि चूहों को पकड़ने औऱ उनके बिलों से अनाज निकालने में मुसहरों को महारत हासिल है.

राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन ने कहा कि  एक बिल में से कम से कम 8-10 चूहे निकलते है. और अलग-2 रास्ता बनाते है. तो ये लोग एक तरफ बंद करके खुदाई करते है उसमे भी इनको अन्दाजा हो जाता है कि किसमे वो रहते हैं किसमें अनाज है. तो अगर 15 चूहे मिल गए तो उस दिन का खाना हो गया. और 15 चूहे वाला बिल मिल गए तो 15-20-30 किलो गेहूं का इन्तजाम हो गया. तो फिर खेद को खोदना ज्यादा हो जाता है काफी गहराई तक जाता है . 5-6-8 फीट तक जाता है. ये चीजें बहुत कॉमन है जैसे अनाज कटता है वैसे ही ये लोग लग जाते है. बच्चे खोदने में साथ दे रहे है. 2-3-4 आदमी का ग्रुप होता है.

मुसहरों को कहीं भुइयां, कहीं वनमानुष तो कहीं वनराज के नाम से भी पहचाना जाता है. माना जाता है कि भुइयां कभी आदिवासी थे जो छोटा नागपुर और तैमूर की पहाडियों से आकर बिहार के अलग – अलग इलाकों में फैल गए थे. खास बात ये है कि देश में आदिवासियों के पास अपनी जमीनें हैं लेकिन मुसहर समुदाय आज भी भूमिहीन है. मुसहर अब आदिवासी नहीं रहे हैं. वह अब जाति व्यवस्था का एक हिस्सा बन चुके हैं लेकिन आदिवासियों का असर आज भी उनकी जिंदगी और उनके रीति रिवाजों पर बना हुआ है. गौर करने वाली बात ये है कि मुसहर समुदाय को हिंदू वर्ण व्यवस्था में भी सबसे नीचे स्थान मिला है. वह भी इतना नीचे की बिहार के मगध इलाके में बसी अनुसूचित जातियां भी इनसे अपनी पहचान जोड़ना नहीं चाहती. मुसहर समुदाय के ऐसे पिछड़ेपन को ध्यान में रख कर ही बिहार सरकार ने महादलित के नाम से एक अलग वर्ग बनाकर उसमें इस समुदाय को रखा है. 

बिहार की अनुसूचित जातियों में मुसहर तीसरी बड़ी जाति है.  महादलित आयोग की पहली अंतरिम रिपोर्ट के मुताबिक इनकी संख्या 21 लाख 12 हजार के करीब है लेकिन 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में मुसहर जाति के सिर्फ 8 विधायक ही है और जीतन राम मांझी इस समुदाय से मुख्यमंत्री बनने वाले पहले शख्स है. गरीबी और अशिक्षा से जूझते मुसहर समुदाय की 98 फीसीदी महिलाएं और 90 फीसदी पुरुष आज भी अशिक्षित बताए जाते हैं.  हांलाकि मुसहरों के विकास के लिए सरकार ने कई योजनाएं बनाई हैं लेकिन आज भी इनके हालता बदल नहीं सके हैं. मुसहर जाति की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है. इन्हें रोजगार की तलाश में अपने गांव से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. और यहीं वजह है कि मुसहरों की बस्ती में बच्चे, औरतें और बूढें ही ज्यादा नजर आते हैं.

बिहार में मुसहर सबसे ज्यादा मगध क्षेत्र में आबाद है. मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में फैले इस पूरे इलाके में सबसे ज्यादा धान की खेती की जाती है. बरसों से मुसहर समुदाय भी धान की इस खेती से जुड़ा रहा हैं. दरअसल बहुत पहले से यहां के जमीन मालिक अपने यहां मुसहरों को मजदूरी पर ऱखा करते थे जिन्हें वो कमियां कहते है.

बिहार के संपन्न किसानों के यहां काम करना मुसहरों की मजबूरी थी. क्योंकि उनके सामने इसके अलावा कोई रास्ता ना था. दशकों से इन खेतों में मुसहर जी तोड़ मेहनत करते रहे हैं और इसीलिए जमीन मालिकों ने भी इस कमियां व्यवस्था को खूब पनपने दिया है. पीढी दर पीढी एक ही मालिक के यहां काम करने का ये सिलसिला बरसों बरस यूं ही चलता चला गया और कभी ना चुकने वाले कर्ज के बोझ ने मुसहर समुदाय की कई पीढियों को बंधुआ मजदूर बनने पर मजबूर कर दिया. मुसहरों के ऐसे ही परिवारों में से एक परिवार महकार गांव के रामजीत राम मांझी का भी था. 

जीतन राम मांझी ने कहा था कि हम एक मजदूर परिवार के घर में जन्म लिया. जाति में उसको घुईया, मुसहर कहा जाता है. हमारे ग्रैंड फादर मजदूर थे. और स्वभाविक है कि फादर का जो बच्चा होता है वो भी मजदूर बना. तो मेरे पिताजी स्वर्गीय रामजीत राम मांझी भी एक मजदूर थे. लेकिन वह दो कला में उस समय निपुण माने जाते थे. एक कला थी उनके पास ओझई का. वह अपना इधर उधर करते थे. और दूसरा कला उनकी थी नांच का. नांच में जो नेटवा का नांच हुआ करता था वह नाचंते थे. सुबह चार बजे से ही वह अपना भजन शुरु करते थे. उनको एक आध हजार गाना भजन ये आता था और नाचते थे.

गया जिले के महकार गांव में मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का मकान आज दूर से देखने पर ही नजर आ जाता है लेकिन 67 बरस पहले उनके इस पुश्तैनी घर की तस्वीर ऐसी नहीं थी. दोमंजिला मकान की जगह तब घास-फूस के छप्पर वाली मिट्टी की एक कोठऱी बनी थी जिसमें मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का पूरा बचपन गुजरा था. जीतन राम मांझी को आज भी अपने पिता की कहीं वो बातें याद है कि किस तरह मुश्किलों से जूझते हुए उन्होंने जमीन मालिक से मिली जगह पर अपनी पहली कुटिया बनाई थी. 

जीतन राम मांझी बताते हैं कि महकार जहां पर मेरे मकान है वह उस वक्त फूस से सीज से कांटा से भरा हुआ था. वह जमीन को दिया कि लो तुम इसी में अपना बनाओ. तो हमारे पिताजी सब चीज को साफ सुथरा कर करके. किसी ना किसी रुप में दो कोठऱी बना कर के. हम लोग रहने लगे. कोठरी बनी हुई थी मिट्टी की और फूस की. वो हमको याद है. और फूस मिट्टी से ही घेराबंदी कर दिया गया था. और घर में किवाड़ - विवाड नहीं था. बाद में जब हम लोग आगे बढे तो हमने देखा कि पिताजी वह कहीं से किवाडी आगे लगाए. और घर हमारा वह किवाड़ी नहीं वो टाटी लगती थी. वह जीवन हमारा वहां से शुरु हुआ.

लेकिन जीतन राम मांझी का जन्म उनके पिता के महकार गांव में बसने से एक साल पहले ही हो चुका था. चालीस के दशक की शुरुवात में इस गांव से करीब एक किलोमीटर दूर पांच -छह मुसहर परिवारों के साथ जीतन राम मांझी का परिवार भी रहा करता था. मुख्यमंत्री मांझी बताते हैं कि जिस जमीन मालिक के यहां उनके पिता मजदूरी किया करते थे उन्हीं के कहने पर वह महकार गांव में बस गए थे लेकिन जब वो सात साल के हुए तो मुसहर समुदाय की परंपरा के मुताबिक उन्हें भी अपने पिता की तरह जमीन मालिक के यहां बंधुआ मजदूर बना दिया गया था.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि हमारा आफर आ गया जिस मालिक के यहां पिताजी कमाते थे. उनके यहां से. भगत कहते थे. ऐ भगत तुम करबे करते हो जितना है वहां जानवरो को देखेगा खाएगा पिएगा. पिताजी को भी लगा कि ठीक है सात बरस का है. अब वहां रह सकता है तो हम वहां चले गए. रात में तो हम आ ही जाते थे वहां काम करना हमने शुरु किया. काम मेरा था कि सोलह या सतरह बैल, एक दो भैंस और दो तीन गाय इतना उनके पास पशुधन थे. उन सबको खाना खिलाने का काम शुरु हुआ पहले तो एका एक नहीं हुआ कुछ और लोग रहते थे लेकिन हम भी उसी काम में लग गए.

वक्त का पहिया अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था. सात साल के जीतन राम मांझी जब ग्यारह बरस के हो गए तो उनके पिता रामजीत राम मांझी को उनकी पढ़ाई लिखाई का ख्याल आया. इस बारे में जब रामजीत मांझी ने अपने जमीन मालिक से बात की तो उन्हें बदले में दुत्कार ही मिली थी. लेकिन जब रामजीत राम मांझी ने बेटे की पढाई के खातिर गांव तक छोड़ देने की धमकी दी तो आखिरकार जमीन मालिक को भी झुकना पड़ा औऱ फिर सामने आया जीतन राम मांझी की पढाई का एक फॉर्मूला.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि सब कोई एकदम गुस्सा में आ गए कि पढा कर क्या आप अपने बेटा का कलेक्टर बनाओगे. पढाने की क्या जरुरत है. लेकिन पिताजी के दिमाग में भी ये बात बैठी थी कि हम बेटा को पढाए. तो उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति है तो हम गांव छोड़ देंगे. और चले जाएंगे हम बाहर. और बेटा को हम पढाएंगे. ये बात उनको सेट बेक लिया कि एक विश्वासी मजदूर हमारा चला जाएगा तो ठीक नहीं होगा. तो उन्होंने एक कॉम्प्रोमाइज का फॉर्मूला निकाला कि हमारे बच्चे को पढ़ाने के लिए मास्टर आता है. जीतन काम धाम करके पांच छह बजे के बाद उन्हीं लोगों के साथ बैठ जाएगा. बैठ जाएगा तो पढेगा. हमको उस समय कुछ दिमाग में बात नहीं थी कि पढना है कि क्या करना है हम कुछ नहीं जानते थे.

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी बताते है कि ग्यारह साल की उम्र में एक टूटी सिलेट और कलम के साथ उनकी पढाई की शुरुवात हुई थी. दिन भर गाय भैसों को संभालने और खिलाने पिलाने के बाद जब शाम होती तो वो जमीन मालिक के बच्चों के साथ मास्टर जी से सबक सीखते थे. ये सिलसिला कुछ दिनों तक यूंही चलता रहा फिर बाद में उनका नाम गांव के स्कूल में लिखा दिया गया था. ये अलग बात है कि बालक जीतन राम मांझी का वक्त स्कूल में पढ़ने की बजाए जमीन मालिक की गाय –भैंसों की सेवा करते हुए गुजरता था.

जीतन राम मांझी ने कहा कि वहां पढने तो जाते नहीं थे लेकिन नाम मेरा चलता था. तो चौथा पांचवा छठा का वहां चलने लगा. क्लास बदलाने लगा हम तो यहां काम करते थे जाते नहीं थे. फिर पांचवा के बाद सातंवा क्योंडी है एक बगल में स्कूल, मिडिल स्कूल वहां भी मेरा नाम लिखाया.

महकार गांव के प्राइमरी स्कूल से जीतन राम मांझी बिना स्कूल गए ही एक के बाद एक क्लास पास करते चले गए थे लेकिन जब वो आठवीं क्लास में पहुंचे तो उनकी पढाई की गाड़ी एक बार फिर अटक गई थी. दूसरे विषयों में हीरो और गणित में जीरो रहे जीतन राम मांझी बताते हैं कि वो सांतवी क्लास में फेल हो गए थे लेकिन गांव के सरपंच की मेहरबानी से जब उन्हें सातवीं क्लास पास का सर्टिफिकेट मिल गया तो आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने पास के गांव के स्कूल में दाखिला ले लिया था. इसी हाई स्कूल से जीतन राम मांझी ने दसवीं क्लास तक की पढाई पूरी की है.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि करते करते नौवा पांस किया. मेथेमेटिक्स तो था नहीं वहीं किताबे पढ वड़ कर करते थे. तो फेल कर गए लोग फेल करा दिए. लेकिन एक मास्टर थे चंद्र देव बाबू नाम था उनका. थे भूमिहार लेकिन वह हमारे मेरिट को समझ रहे थे. तो सब लोगों से कहा कि भई मेथेमेटिक्स इसको नहीं आता बाकी सभी में तो ये लडका तेज है. दसवां से उस वक्त गणित नहीं होता था आप्शनल हो जाता था. और इधर था नेसेसरी तो नेसेसरी होता था तो हम फेल होते थे. दसवां में उन्हीं की कृपा से मेरा नाम लिखाया.  

महकार गांव से 7 किलोमीटर दूर इस हाई स्कूल में जब जीतन राम मांझी दसवीं क्लास की पढ़ाई कर रहे थे. तब किस्मत ने उन्हें एक बार फिर झटका दिया. दसवीं के इम्तिहान से पहले जीतन राम मांझी की तबीयत अचानक बेहद खराब हो गई थी और खऱाब सेहत के चलते उन्होनें परीक्षा नहीं देने का फैसला भी कर लिया था लेकिन जीतन राम मांझी को गणित विषय में फेल होने के बावजूद स्कूल के जिस टीचर चंद्रदेब बाबू ने नौवीं क्लास से दसवीं क्लास में पहुंचा दिया था उनके कहने पर मांझी को अपना फैसला बदलना पड़ा और इस एक नेक सलाह ने जीतन राम मांझी के लिए कामयाबी का एक नया दरवाजा खोल दिया था. 

जीतन राम मांझी बताते हैं कि वही चंद्रदेव बाबू कहे कि देखो तुम गरीब घर के बच्चे हो तुम दो घंटा है अगर आंधा घंटा ही लिख दोंगे तो पास हो जाओगे. लेकिन फर्स्ट नहीं आएगा अगर फर्स्ट के लिए रुकोगे तो एक साल तुम्हारा बर्बाद होगा. तुम्हारा मां बाप मजदूर है. इससे अच्छा तो ये है कि तुम पास करो हो सकता है तुम कॉलेज में अच्छा करोगे. और करके कही नौकरी में होगे तो बाप मां को देखोंगे. हमको अपील किया उसके बाद हम परीक्षा में बैठ गए. पंद्रह नंबर के चलते फर्स्ट डिवीजन मेरा छूटा. पांच सौ पच्सीस मेरा नंबर आया.

बिहार के छोटे से गांव से राजधानी पटना के इस मुख्यमंत्री निवास तक जीतन राम मांझी ने कामयाबी की एक लंबी छलांग लगाई है. लेकिन इस बड़ी कामयाबी के लिए उन्हें जिंदगी में कई बार कड़े इम्तिहान भी देने पड़े हैं. विरीपत हालात के बीच जीतन राम मांझी ने जिंदगी में आने वाली हर तरह की मुश्किलों का सामना किया है. मुख्यमंत्री मांझी के संघर्ष की ये दास्तान खेतों में बंधुआ मजदूरी के चक्रव्यूह से निकल कर, गांव के इन खस्ताहाल स्कूलों की खाक छानते हुए गया के डिग्री कॉलेज तक जा पहुंचती है. मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने गया के कॉलेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की है. कॉलेज के दिनों को याद करते हुए मांझी बताते हैं कि उन दिनों उनके पास एक पायजामा, एक हॉफ शर्ट, एक बनियान और एक लुंगी हुआ करती थी. वो पांच दिनों तक शर्ट और पायजामा पहनते थे और फिर छुट्टी के दिन उन्हें धो दिया करते  थे. मांझी पैरों में टायर से बनी चप्पल पहना करते थे जो उन्होंने 12 आने में खरीदी थी. जीतन राम मांझी का कहना है कि पढ़ाई के दौरान उन्हें सरकार से 25 रुपये महीने का वजीफा भी मिला करता था लेकिन इस रकम को खुद पर खर्च करने की बजाए वो ये पैसा अपने पिता को गांव भेज दिया करते थे और अपना खर्च चलाने के लिए उन्होंने कॉलेज के स्टूडेंट को ही ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया था.  

जीतन राम मांझी बताते हैं कि एक आशा चरन नाम की लड़की थी एरिया डीसी थे तो उनकी बेटी थी. तो वो हमपर आकर्षित हुई और कहा कि हमारे पिता जी आपसे मिलना चाहते है तो हम मिले उनसे. तो उन्होंने कहा कि तुम अपने नोट आशा को दिया करो इसके बदले हम तुम्हे 10-20-50 रु दिया करेंगे. अब इसे लड़की के प्रति आकर्षण कहिए या पैसा का हमने बहुत मेहनत की. और जो पहली कॉपी होती थी हम आशा को दे दिया करते थे. यो यही से पढाई का सिलसिला शुरु हुआ. हम 25 रु पिताजी को भेजते थे. और उसने अपनी सहेली को भी बता दिया और उसके अच्छे नंबर आने लगे. तो दो तीन लड़कियो के पिता और आ गए कि हम आपसे ट्यूशन पढ़वाना चाहते है.तो हमने कहा हमारी क्लासमेट है हम ट्यूशन कैसे पढ़ाएंगे तो उन्होंने कहा  आप पढ़ाइये..तो दो उन लड़कियों को पढ़ाने लगे तो 75 रु. मिलने लगा हमारा खाना पीना सब मिलने लगा.

कॉलेज के दौर में जीतन राम मांझी का ज्यादातर वक्त तो पढ़ने और पढ़ाने में गुजरता रहा लेकिन इसी दौरान उनके जहन में राजनीति के बीज भी पड़ चुके थे. जिन दिनों गया के इस कॉलेज में दूसरे लड़के कलेक्टर और जज बनने की ख्वाहिश लिए घूम रहे थे उस वक्त जीतन राम मांझी के जहन में नेतागिरी के ख्याली पुलाव पका करते थे. हांलाकि उस वक्त भी उनके परिवार की आर्थिक हालात बेहद खराब थी. यहीं वजह थी की जीतन राम मांझी को अपने छोटे भाई की नौकरी लगने का इतंजार था ताकि मां – बाप की जिम्मेदारी से मुक्त होकर वो खुले दिल से राजनीति के मैदान में उतर सके.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि एक हम ही पढ़ने वाले थे. तेज थे, वोकल थे. तो लोग जब चुनाव पर जाते थ तो हमको बैठा लेते थे गाड़ी पर. और हर हरिजन टोली में जाकर कहते थे कि यहां का लड़का है, मजदूर का लड़का है पढ़ता है इसको सरकार स्टाइफन देती है. तुम लोग कांग्रेस को वोट दो तो तुम लोगों का काम होगा, हम भी यही कहते थे. तो उसके बाद हमारे मन में आया कि जब हम दूसरे के लिए वोट मांग सकते है तो हम अपने लिए क्यों वोट नहीं मांग सकते.

ये 1968 की बात है जब जीतन राम मांझी की जिंदगी ने एक बार फिर उस वक्त यू टर्न मारा जब बिहार में अकाल के हालात पैदा हो गए थे. खेतों में मजदूरी करके पेट पालने वाले जीतन राम मांझी के पिता को जब अकाल के चलते मजदूरी मिलनी बंद हो गई तो मजबूरी में जीतन राम मांझी को अपने ख्वाब से समझौता करना पड़ा. और राजनीति में जाने के ख्याल को दिल से निकालकर मांझी ने क्लर्क की एक मामूली सी नौकरी से समझौता कर लिया था.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि हमने कहा पिताजी जैसा आप चाहते है वैसा ही होगा. तो हम अगले दिन  होस्टल गए तो देखा सब फॉर्म भर रहे है तो टीएस क्लर्क में जॉब निकली थी. तो हम तो कहते थे कि हम नौकरी में नही जाएंगे, राजनीति में जाएंगे तो हम कैसे नौकरी की बात कहे तो . 33 लोगों में से 2 लोगों का हुआ जिसमे एक जीतन मांझी और एकराम स्वरुप था उसका हुए तो हम खुश हुए कि पिताजी का रिंज छूटा. 1968 के जुलाई महीने से पॉस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट को ज्वाइन कर लिया. 13 साल तक  को नौकरी करी और भगवान ने हमें मौका दिया और हमारा भाई 76 में सब इंस्पेक्टर हो गया.

पोस्ट एंड टेलीग्रॉफ ऑफिस में 13 साल तक नौकरी करने के बाद एक दिन अचानक जीतन राम मांझी ने 1980 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. दरअसल कांग्रेस की राजनीति में कॉलेज के दिनों से सक्रिय रहे जीतन राम मांझी को 1980 के विधानसभा चुनाव में विधायक का टिकट मिलने की पूरी उम्मीद थी लेकिन एन वक्त पर उनकी टिकट कट गई. लेकिन किस्मत फिर भी जीतन राम मांझी पर मेहरबान थी.

जीतन राम मांझी के मुताबिक उस वक्त उनका टिकट कांग्रेस नेता रामस्वरुप के कहने पर काट दिया गया था लेकिन बिहार में कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे जगनाथ मिश्र ने उनके लिए राजनीति की राह खोल दी थी.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि डॉ राजेंद्र रोड़ 32 नंबर में हम बैठ गए कि राजनाथ मिश्रा आएंगे तो उनको ये बात याद दिलांएगे. वह फिर से आएं, कहे क्या जीतन क्या हाल चाल, हम कहे हाल-चाल तो आपके हाथ में है हमने सुना है कि हमारा टिकट कट गया सिर्फ यही कहने के लिए आए है सर. हमको बहुत भरोसा था आप पर जब तालकटोर स्टेडियम में आपने हमारा नाम लिया था तो हमको लगा था कि एक राष्ट्रीय आदमी हमे जानते है और हमारे समाज से कोई है नहीं तो हम नौकरी करते थे उसको रीजाइन कर दिया. तो आज किसी बात का अफसोस नहीं है अफसोस बस यही है कि हम और हमारे बाल बच्चा जैसे भी कर लेगा. हमारे परिवार का भविष्य बड़ा खराब हो जाएगा इसमे. तो 1 मिनट सोचने के बाद कहा कि तुम सचमुच नौकरी में थे. तो हमने कहा जी हां सर, रीजाइन कर दिया. इतने कहने के बाद कहे जाओ, हम फिर चले आएं हमको लगा क्या होगा क्या न होगा मन में एकदम संतुष्टि हो  गई. तो नेक्सट 4 बजे वही आदमी प्रोफेसर अनुरोध सिंह, पहले कहे कि टिकट कट गया वही कहे कि जीतन कि चलो तुमको बधाई है. हमारा टिकट तो नहीं दिया लेकिन तुमको टिकट मिल गया है. तो हमारा राजनीति में जल रोपने वाले तो वही है इसलिए हम उन्हे इतना मानते है.

जीतन राम मांझी ने 1980 में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार चुनाव लड़ा था. गया जिले की फतेहपुर विधानसभा सीट से मांझी ये चुनाव जीत भी गए और तीन साल बाद चंद्रशेखर सिंह की सरकार में राज्य मंत्री भी बनाए गए थे. नब्बे के दशक में बिंदेश्वरी दुबे, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगननाथ मिश्र एक के बाद एक बिहार के मुख्यमंत्री बने. लेकिन मुख्यमंत्री बदलने के बावजूद जीतन राम मांझी का कांग्रेस सरकार में मंत्री पद सात सालों तक सलामत ही रहा. लेकिन जीतन राम मांझी ने उस वक्त कांग्रेस पार्टी छोड़ दी जब 1995 के विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिला था. कांग्रेस से निकलकर वो लालू प्रसाद यादव के जनता दल में शामिल हो गए और जब 2005 में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव से अलग होकर जनता दल यूनाइटेड यानी जेडीयू बनाया तो जीतन राम मांझी ने नीतीश कुमार का दामन थाम लिया था.

जीतन राम मांझी बताते हैं कि छह बार चुनाव जीते है. हम जनता का काम करते हैं इसलिए विपरित परिस्थिती में भी वोट दिए थे. विपरित परिस्थिति क्या जब हम जब  हम फतेहपुर में जमने लगे तो ये लोग बारहचिट्टी भेज दिए. बारहचिट्टी में जमने लगे तो लालू यादव का बोधगया. बोधगया से जीते तो फिर बारहचिट्टी गए. अब सोचे इसे अपना टाउन बना ले तो नीतीश कुमार मकपुला लाकर खड़ा कर दिया. बाहर जाकर जीतते गए तो मेरा कन्फिडेंस बढ़ता गया कि लोग समझते हैं कि जीतनमांझी काम करने वाला है बस यही मेरे लिए सुकून की बात थी न मंत्री न मुख्यमंत्री की बात थी.

अपने पूरे राजनीतक करियर में हमेशा जीते हुए घोड़े पर सवार होने वाले जीतन राम मांझी को कभी नीतीश कुमार ने ही मंत्री पद से हटा भी दिया था. 2005 में जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तब बाराचट्टी से विधायक बने मांझी को भी उनकी सरकार में शामिल किया गया था लेकिन फर्जी डिग्री घोटाला में नाम आने की वजह से शपथ ग्रहण के कुछ घंटे बाद ही मांझी को मंत्री पद से हटा दिया गया था.

दरअसल बिहार में 1999 में बीएड डिग्री घोटाला सामने आया था. उस वक्त जीतन राम मांझी लालू प्रसाद यादव की सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री हुआ करते थे. लेकिन मांझी बाद में इन आरोपों से बरी हो गए थे और साल 2010 में नीतीश कुमार की सरकार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण मंत्री बनाए गए थे.

जीतन राम मांझी जब नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री थे तब उन्होने चूहों का मांस खाने को लेकर ये बयान दिया था. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद से तो उन्होने जैसे विवादित बयानों की झड़ी ही लगा दी है.

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी कहते हैं कि गरीबों का इलाज ना करने वाले डॉक्टरों के हाथ काट देंगे. तो कभी उनका बयान आता है कि उच्चवर्गीय लोग विदेशी है. कभी वो दलितों को दवा के तौर पर दारु पीने की सलाह देते नजर आते हैं तो कभी पुरुषों के रोजगार की वजह से घर से बाहर रहने के पीछे महिलाओं की नैतिकता पर सवाल उठाते हैं. यही नहीं जीतन राम मांझी दलित युवाओं को अपनी जाति से बाहर अगड़ी जातियों में शादी करने की सलाह भी देते है ताकि तादाद बढ़ने से वो बिहार में एक राजनीतिक ताकत के तौर पर उभर सके. मांझी ने सत्ता संभालने के कुछ दिन बाद ही ये भी कहा था कि उन्होनें बिजली का बिल दुरुस्त करने के लिए पांच हजार रुपये रिश्वत दी थी. मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की छवि उनके ऐसे बयानों के चलते ही एक विवादित मुख्यमंत्री के तौर पर बनती नजर आ रही है.

भोलाराम पासवान शास्त्री और राम सुंदर दास के बाद जीतन राम मांझी बिहार के तीसरे दलित मुख्यमंत्री हैं और ये बात वो खूब समझते हैं कि मुख्यमंत्री की ये गद्दी उन्हें सीमित समय के लिए मिली है लेकिन साथ ही साथ उन्हें बिहार में पिछड़ा और दलित वोट की बड़ी ताकत का अहसास भी है. यही वजह है कि नीतीश कुमार के रिमोट कंट्रोल मुख्यमंत्री माने जाने वाले मांझी ने राजनीति की बिसात पर तेजी से खुद को आगे बढाने की कोशिश की है और अपने विवादित बयानों के चलते ही सही वो चर्चा में बने हुए भी हैं.

जीतन राम मांझी ने कहा कि समाज के कुछ लोगों ने हमारे लोगों ने भी मिलकर वातावरण ये बनाया था  कि हम SC तो है लेकिन हम ढोईयां, मोसढ, ढोम, मेहतल, अजवाल, धोबी, पासी इस नाम पर बंटे हुए थे दूसरे लोग इस नाम पर लाभ उठा  रहे थे. तो तुम अपने को देखो तो तुम क्यों करते हो कि दुशार है, चमार है, भुईया है. सब कहो कि शेडुल कास्ट हैं अगर तुम शेडुल कास्ट तो आज आबादी तुम्हारी 23 फीसदी की है. और इतनी आबादी बिहार में किसी की नहीं है और तुम एक हो जाओगे तो आगे की राजनीति तुम्हारी होगी. ये नारा हमने दिया और भगवान को धन्यवाद इसका प्रभाव सबपर पड़ा है. दुशाद भाई भी एकसाथ आ रहै है और कह रहे है कि हम एक ही बैनर पर चलेंगे. जीननमांझी सीएम है ये मुद्दा नहीं है. हम नहीं चाहते है कि हम रहे लेकिन कोई शेडयुल कास्ट का आदमी आगे बड़े  23 फीसदी के बिना पर, हम ये परिस्थिति पैदा करना चाहते है.

बिहार में अगले साल अक्टबूर - नंबवर में विधानसभा के चुनाव होने वाले है. इसी बात को ध्यान में रख कर नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था. लेकिन मांझी के बयानों के तीर विरोधी दल ही नहीं खुद उनकी पार्टी जेडीयू और नीतीश कुमार को भी घायल करते रहे हैं. लेकिन जानकारों का मानना है कि मांझी को पद से हटाना अब जेडीयू को आने वाले चुनावों में भारी पड़ सकता है और यही सत्ता का यही समीकरण मुख्यमंत्री मांझी के लिए संजीवनी का काम कर रहा है.

राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन कहते हैं कि जिस किस्म की राजनीति बिहार या मुल्क में हो रही है कि अब पिछड़े कि और हिंदु-मुस्लिम की राजनीति नहीं है. मैं कहूंगा कि कुल मिलाकर एक-2 ब्लाक की राजनीति है..कि कौन किसका ग्रुप है कौन किस समूह में है क्योंकि जो अलायंस बनाने का बात है सोशल अलायंस. सोशल कॉलिएशन वो दिखाई नहीं दे रही है ऐजेंड़ा साफ नहीं है. जैसे लालू को साफ एजेंड़ा मिला. आज की तारीख मे कुछ नहीं बचा है. ओबीसी पुराना ग्रुप भी नहीं बचा है दलित ग्रुप भी 3 हिस्से में बंटा दिख रहा है. जाटो को वोट, पासवानों का वोट इसके अलावा मुसा लीडरशिप. मुसअरों को वोट कुछ ज्यादा नहीं है लेकिन कुछ जिलो में कंसट्रेट है तो ये पूरे दलित लीडर को टारगेट कर रहे है. अगर 15-16 फीसदी बिहार में दलितों की आबादी है और उनका वोट मांझी के चलते बनता बिगड़ता है तो बनने से भी ज्यादा बिगड़ने की बात कर रहा हूं. कल को मांझी को हटा दिया गया गया तो जनता दल, जेडीयू  से दलित टूट जाएगा. ये मांझी की भी उपलब्धि होगी कि उन्होंने ऐसा मुद्दा तब तक बना दिया कि दलित का वोट उनसे खिसक जाएं. ये हाल आपको दूसरे ग्रुप में दिखाई नहीं देगा.

जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बना कर नीतीश कुमार ने अपना मास्टर स्ट्रोक खेला था लेकिन गुजरते वक्त के साथ उनका ये मास्टरस्ट्रोक उन्हीं के लिए मुसीबतें खड़ी करते नजर आ रहा है. ठोकर खाते-खाते मुख्यमंत्री बनने का दावा करने वाले मांझी का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि वह हमेशा जीत के साथ खड़े नजर आए हैं और इस बार भी जीतन राम मांझी की नजरें जीत के घोड़े पर ही गड़ी हुई है.

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

किसी की मुसीबत, किसी का मुनाफा

किसी की मुसीबत, किसी का मुनाफा

विकास कुमार December 19, 2014, Issue 24 Volume 6
दिल्ली सरकार के आंकड़ों के मुताबिक शहर में 55 हजार ऐसे लोग हैं जिनके पास अपना कोई ठौर-ठिकाना नहीं है, कोई घर नहीं है. हालांकि इस संख्या को लेकर मतभेद भी है. इसी मुद्दे पर काम करने वाली आश्रय अधिकार अभियान नामक स्वयंसेवी संस्था का दावा है कि सरकार का आंकड़ा गलत है. संस्था के मुताबिक इस वक्त दिल्ली में बेघर लोगों की संख्या लगभग 1.5 लाख है. सरकार जिस आंकड़े की बात कर रही है वह सर्वे 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के समय हुआ था और उस वक्त पूरे शहर से बेघर लोगों को निकाल दिया गया था. उन्हें दिल्ली से बाहर के इलाकों में भेज दिया गया था. इसीलिए सरकार वास्तविक संख्या से अंजान है.
खैर, संख्या चाहे जो भी हो, सच इतना भर है कि ठंड के इस मौसम में शहर में एक बड़ी आबादी सड़कों पर रह रही है. इनमें एक बड़ी आबादी उन लोगों की है जो सड़कों पर, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों के आगे भीख मांगते हैं. कुछ नशेबाज भी होते हैं. अमूमन ये लोग शाम होते ही सरकार द्वारा चलाए जा रहे रैन बसेरों में आश्रय ले लेते हैं. इसकी वजह यह है कि इन रैन बसेरों में ठहरने के लिए कोई पैसा नहीं देना पड़ता. लेकिन इनमें गंदगी इतनी ज्यादा होती है कि कोई सामान्य आदमी यहां थोड़ी देर के लिए रुक भी नहीं सकता, पूरी रात सोना तो दूर की बात है.
बेघर-बार लोगों में और भी कई तरह के लोग हैं. कुछ ऐसे हैं जो दूसरे राज्यों से काम की तलाश में यहां आए हैं. ये लोग दिनभर दिहाड़ी पर मजदूरी करते हैं और रात में सड़कों के किनारे ही सो जाते हैं. गर्मी के मौसम में तो खुले आसमान के नीचे रात कट जाती है, लेकिन जाड़े में ये लोग किसी ऐसे ठौर की तलाश करते हैं जहां रात की नींद पूरी हो जाए. लोगों की यह मजबूरी कुछ लोगों के लिए रोजगार का मौका है. पुरानी दिल्ली के कुछ इलाके इसी तरह के एक अनोखे धंधे की उर्वर जमीन है. यहां कई ऐसी जगहें हैं जहां लोगों को रात में सोने के लिए चारपाई, दरी और रजाई किराए पर दी जाती है और अलसुबह ही छीन ली जाती है. एक की मजबूरी से दूसरे की रोजी-रोटी का यह अद्भुत अर्थशास्त्र है.
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खुले आसमान के नीचे सो रहे इनलोगों के पास किराये का कमरा या घर नहीं है. इन्हें हर महीने का किराया नहीं देना होता बल्‍कि ये रोज सुबह किराया देते हैं.


एक रात के लिए चारपाई के साथ रजाई का किराया 30 रुपये से 50 रुपये तक लिया जाता है. जिन इलाकों में सुबह 6 बजे जगा दिया जाता है, वहां 30 रुपये बतौर किराया लिया जाता है और जहां 7 से 7.30 बजे तक सोने दिया जाता है, वहां 50 रुपये लिया जाता है. अमूमन रात में 10 से 11 बजे के बीच ग्राहकों को सुलाया जाता है.
एक रात के लिए चारपाई के साथ रजाई का किराया 30 रुपये से 50 रुपये तक लिया जाता है. जिन इलाकों में सुबह 6 बजे जगा दिया जाता है, वहां 30 रुपये बतौर किराया लिया जाता है और जहां 7 से 7.30 बजे तक सोने दिया जाता है, वहां 50 रुपये लिया जाता है. अमूमन रात में 10 से 11 बजे के बीच ग्राहकों को सुलाया जाता है.


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पुरानी दिल्ली की एक गली में चैन की नींद सोते इस आदमी को सुबह 50 रुपया किराया के तौर पर देना होगा.


जब इलाके की बाकी दुकानें बंद हो जाती हैं, तो इस दुकान का शटर खुलता है. मोलभाव शुरू होता है. किराए का पैसा लेने के बाद रजाई, दरी और चारपाई दी जाती है. सुबह जब तक बाकी दुकानें खुलती हैं, तब यह दुकान एक बार फिर से शाम तक के लिए बंद हो जाती है.
जब इलाके की बाकी दुकानें बंद हो जाती हैं, तो इस दुकान का शटर खुलता है. मोलभाव शुरू होता है. किराए का पैसा लेने के बाद रजाई, दरी और चारपाई दी जाती है. सुबह जब तक बाकी दुकानें खुलती हैं, तब यह दुकान एक बार फिर से शाम तक के लिए बंद हो जाती है.



कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चारपाई और रजाई किराए पर नहीं ले पाते. ऐसे लोगों के लिए जमीन पर एक बड़ी दरी बिछा दी जाती है. केवल रजाई किराए पर लेकर लोग साथ-साथ सो जाते हैं. केवल रजाई का किराया 10 रुपये से 20 रुपये के बीच है. सुबह इनके जगने का इंतजार नहीं किया जाता. सुबह होते ही रजाई छीन ली जाती है.
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चारपाई और रजाई किराए पर नहीं ले पाते. ऐसे लोगों के लिए जमीन पर एक बड़ी दरी बिछा दी जाती है. केवल रजाई किराए पर लेकर लोग साथ-साथ सो जाते हैं. केवल रजाई का किराया 10 रुपये से 20 रुपये के बीच है. सुबह इनके जगने का इंतजार नहीं किया जाता. सुबह होते ही रजाई छीन ली जाती है.



 जैसे-जैसे ठंड बढ़ती है वैसे-वैसे सोनेवालों की संख्या बढ़ती है. कारोबार बढ़ता है. सोने का सामान किराए पर देनेवाले लोग अपने साथ दो-चार लोग रखते हैं जो सुबह होते ही हरकत में आ जाते हैं और कुछ ही समय में सारी रजाई, खाट और दरी एक जगह जुटा देते हैं. इन मजदूरों को सोने के लिए मुफ्त में रजाई मिलती है और मेहनताने के तौर पर 50 रुपये भी मिलते हैं.
जैसे-जैसे ठंड बढ़ती है वैसे-वैसे सोनेवालों की संख्या बढ़ती है. कारोबार बढ़ता है. सोने का सामान किराए पर देनेवाले लोग अपने साथ दो-चार लोग रखते हैं जो सुबह होते ही हरकत में आ जाते हैं और कुछ ही समय में सारी रजाई, खाट और दरी एक जगह जुटा देते हैं. इन मजदूरों को सोने के लिए मुफ्त में रजाई मिलती है और मेहनताने के तौर पर 50 रुपये भी मिलते हैं.


यमुनापार रहनेवाले रफीक पिछले कई सालों से यह काम कर रहे हैं. इनके यहां एक रात में तकरीबन दो सौ लोग सोते हैं. ठंड बढ़ने पर हर रात चार सौ लोग तक यहां सोते हैं. रफीक दिल्ली पुलिस से नाराज हैं. वह कहते हैं कि पुलिस उन्हें परेशान करती है और उनसे घूस लेती है. वह कहते हैं, ‘हम किसी को सोने के लिए गर्म रजाई, खाट और दरी देते हैं. बदले में किराया लेते हैं. इसमें गलत क्या है. अगर सरकार इनके सोने का इंतजाम कर दे तो ये लोग हमारे यहां आएंगे ही नहीं. हमारा काम बंद हो जाएगा. सरकार को इन बेघरों के लिए इंतजाम करना चाहिए न कि हमें भगाना चाहिए.’
यमुनापार रहनेवाले रफीक पिछले कई सालों से यह काम कर रहे हैं. इनके यहां एक रात में तकरीबन दो सौ लोग सोते हैं. ठंड बढ़ने पर हर रात चार सौ लोग तक यहां सोते हैं. रफीक दिल्ली पुलिस से नाराज हैं. वह कहते हैं कि पुलिस उन्हें परेशान करती है और उनसे घूस लेती है. वह कहते हैं, ‘हम किसी को सोने के लिए गर्म रजाई, खाट और दरी देते हैं. बदले में किराया लेते हैं. इसमें गलत क्या है. अगर सरकार इनके सोने का इंतजाम कर दे तो ये लोग हमारे यहां आएंगे ही नहीं. हमारा काम बंद हो जाएगा. सरकार को इन बेघरों के लिए इंतजाम करना चाहिए न कि हमें भगाना चाहिए.’

RSS की राजनीति खूनी: अयोध्या के साधु

RSS की राजनीति खूनी: अयोध्या के साधु

अयोध्या के साधु    
अयोध्या के साधु    
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अयोध्या
अयोध्या के प्रमुख साधुओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों द्वारा जबरन धर्मांतरण कराने पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई है। साधुओं ने कहा कि इन हरकतों से देश में विभाजन की राजनीति को बल मिलेगा। ऑल इंडिया अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष ज्ञान दास ने कहा कि ये लोग खून की राजनीति कर रहे हैं। इस परिषद में कुल 13 अखाड़े शामिल हैं, जिनमें 7 शैव, तीन वैष्णव और तीन सिखों के हैं।

ज्ञान दास की गिनती अयोध्या के सबसे प्रभावशाली साधुओं में होती है। इन्होंने कहा, 'धर्म निजी आस्था है। किसी को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। आरएसएस और इससे जुड़े विंग अल्पसंख्यकों का जबरन धर्मांतरण करवा घोर अपराध कर रहे हैं। ये अपराधी हैं और इन पर एफआईआर दर्ज होनी चाहिए।'

अयोध्या के साधुओं का आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद से गहरा संबंध रहा है। संघ और इससे जुड़े विंग इन साधुओं के माध्यम से हिन्दुओं को लामबंद करते रहे हैं। 1990 की शुरुआत में अयोध्या में साधुओं के बीच वीएचपी की अच्छी पैठ रही है। लेकिन बाद में वीएचपी और साधुओं के बीच गहरे मतभेद सामने आए। यह मतभेद लोकसभा चुनाव के पहले तक था। लेकिन चुनाव के वक्त साधुओं ने एक बार फिर से आरएसएस और बीजेपी का समर्थन किया था। हालांकि जबरन धर्मांतरण के बाद एक बार फिर दोनों के बीच तलवारें खींच गई हैं और दरार साफ दिख रही है।

ज्ञान दास अकेले नहीं हैं जो उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण की कड़ी निंदा कर रहे हैं। ज्यादातर साधु जबरन धर्मांतरण को लेकर आरएसएस, वीएचपी और इससे जुड़े विंग धर्म जागरण मंच पर हमला बोल रहे हैं। ज्ञान दास ने कहा, 'इससे पहले ये लोग राम के नाम पर सांप्रदायिकता की आग भड़काते रहे और अब ये लोगों को जबरन हिंदू बनाकर देश में विभाजन की राजनीति को हवा दे रहे हैं। ये पूरी तरह से अवैध है और सरकार को इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।' राम जन्मभूमि मंदिर के प्रमुख पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास ने भी जबरन धर्मांतरण की कड़ी आलोचना की है।

सत्येंद्र दास ने नरेंद्र मोदी सरकार पर सांप्रदायिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। इन्होंने कहा कि मोदी सरकार आरएसएस की जरिए सांप्रदायिकता को हवा दे रही है। इन्होंने कहा, 'राजनीति विवादों को स्थायी करने का काम कर रही है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए।'

सत्येंद्र दास ने कहा कि हिन्दू धर्मग्रंथों में जबरन धर्मांतरण के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए आरएसएस जबरन धर्मांतरण करवा अधार्मिक काम कर रहा है। इन्होंने कहा कि इससे हिन्दू धर्म ही कमजोर होगा। दास ने कहा कि धर्मांतरण से केवल आरएसएस को फायदा होगा न कि हिन्दू धर्म को। रामानंदी साधुओं के प्रमुख रामदिनेशाचार्य ने कहा कि आरएसएस जिन हरकतों को अंजाम दे रहा है उनसे समाज बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। इन्होंने कहा कि सरकार को इन हरकतों पर तत्काल रोक लगानी चाहिए।

जनगणना का इतिहास

जनगणना का इतिहास


जनगणना का कार्य हर 10 साल के अंतराल पर 1872 से लगातार किया जा रहा है। 
*भारत की जनगणना 1872 के बाद इस अबाध श्रृंखला की 14वीं और स्वतंत्र भारत की 7वीं जनगणना है। 
*जनगणना कार्य 'जनगणना अधिनियम 1948' और इसके तहत बनाए गए "जनगणना नियम 1990" (संशोधित अधिनियम 1993) के तहत किया जाने वाला सबसे बड़ा शासकीय कार्य है। इस कार्य को करने वाला व्यक्ति सरकारी ड्यूटी पर माना जाता है।
*भारत की जनगणना का कार्य विश्व का सबसे बड़ा समयबद्घ रूप से किया जाने वाला प्रशासनिक कार्य है।
*जनगणना में पूछे जाने वाले सवालों को भारत सरकार एवं राज्य सरकार के राजपत्रों में भी प्रकाशित किया जाता है।
*जनगणना, युद्घ, महामारी, प्राकृतिक आपदा, राजनीतिक असंतोष जैसी विपत्तियों के बावजूद भी सतत रूप से की जाती रही है।
*जनगणना में लोगों की भागीदारी से देश की अनेकता में एकता की भावना की झलक मिलती है।
*देश के भविष्य निर्माण में जनगणना के आँकड़ों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इन आँकड़ों के आधार पर ही योजनाओं का निर्माण और उनका क्रियान्वयन किया जाता है।
*जनगणना के आँकड़ों का विकास योजनाओं की समीक्षा के लिए बहुत उपयोग किया जाता है।
121 करोड़ का भारत
आबादी का विस्फोट रोकने और साक्षरता बढ़ाने के सरकार के प्रयास जनगणना-2011 के आँकड़ों में सफल होते नजर आ रहे हैं। वर्ष 2001-11 के दशक में देश की जनसंख्या भले ही 18.10 करोड़ बढ़कर 121 करोड़ तक पहुँच गई हो, लेकिन नौ दशकों में पहली बार देश की जनसंख्या वृद्धि दर में सबसे ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है और साक्षर लोगों की संख्या बढ़ी है। मप्र में भी जनसंख्या वृद्धि दर घटी है।

गुरुवार को केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई व भारत के महापंजीयक सी.चंद्रमौलि ने 2011 की जनगणना के तदर्थ आँकड़े जारी किए। इनके अनुसार भारत की 121 करोड़ की आबादी में 62.37 करोड़ पुरुष और 58.65 करोड़ महिलाएँ हैं। पुरुषों की 17.19 प्रश की तुलना में महिलाओं की आबादी 18.12 प्रश बढ़ी है।

महत्वपूर्ण आँकड़े : भारत की आबादी 121 करोड़। 18.10 करोड़ बढ़े। 62.37 करोड़ पुरुष। 58.65 करोड़ महिलाएँ। 17.64 प्रतिशत वृद्धि दर। 74.04 प्रतिशत साक्षर। जनसंख्या वृद्धि दर में सबसे ज्यादा गिरावट।साक्षरता दर और लिंगानुपात में सुधार, लेकिन बेटों के प्रति रुझान कम नहीं। प्रति 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएँ। जनसंख्या वृद्धि दर में सबसे ज्यादा गिरावट।

खुशी की बात है : अच्छी बात यह है कि 2001-11 में जनसंख्या में वृद्धि 17.64 प्रश रही, जबकि पूर्व दशक में 21.54 और 1981-1991 में 23.87 प्रश जनसंख्या वृद्धि दर दर्ज की गई थी। 2001-2011 (1911-21 को छोड़कर) ऐसा पहला दशक है, जब देश की आबादी पूर्व दशक की तुलना में सबसे कम बढ़ी।

ज्यादा पढ़े-लिखे : 10 साल में साक्षरों की संख्या 9.2 प्रश बढ़ी। साक्षरता का प्रतिशत 64.83 से बढ़कर 74.04 हो गया है। 82.14 प्रश पुरुष व 65.46 प्रश महिलाएँ साक्षर हैं। साक्षरों में महिलाएँ अब भी पुरुषों से काफी पीछे हैं, लेकिन पुरुषों में 6.9 प्रश की तुलना में महिलाओं में साक्षरता 11.8 प्रतिशत बढ़ी है।

लिंगानुपात में सुधार : 10 साल में प्रति एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 933 से बढ़कर 940 हो गई है। वर्ष 1971 के बाद दर्ज यह सर्वाधिक लिंगानुपात है। केरल का लिंगानुपात 1084, पुडुचेरी का 1038 और दमन-दीव का सबसे कम 618 है।

बेटियाँ कम हुईं : छः साल तक की बच्चियों व बच्चों की आबादी के बीच बढ़ता फासला चिंता की बात है। छः साल तक के बच्चों के आँकड़ों में लिंगानुपात अनुपात 927 से घटकर 914 हो गया है, जो आजादी के बाद सबसे कम है। छः साल तक के बच्चों की आबादी भी पिछले दशक की तुलना में लगभग 50 लाख (3.08 प्रश) घटकर 15.88 करोड़ हो गई है। इनमें बेटों की जनसंख्या में गिरावट की दर 2.42 व बेटियों में 3.80 प्रश है। इस वर्ग का कुल आबादी में 13.1 प्रश हिस्सा है, जबकि पूर्व जनगणना में यह 15.9 प्रश था। यह दिखाता है कि लोग अब कम बच्चे पैदा करना चाहते हैं।

छः देशों के बराबर : देश की आबादी अमेरिका, इंडोनेशिया, ब्राजील, पाकिस्तान, बांग्लादेश और जापान की कुल जनसंख्या के बराबर हो गई है। इन देशों की संयुक्त जनसंख्या 1.21 अरब है और मौजूदा दौर में इतने ही लोग अकेले भारत में भी हैं।मिजोरम के सरछिप और आईजोल जिलों में सबसे ज्यादा 98 प्रश से अधिक साक्षरता दर्ज की गई, लेकिन मप्र का आलीराजपुर 37.22 और छत्तीसगढ़ का बीजापुर 41.58 प्रतिशत सबसे फिसड्डी जिले हैं।जनसंख्या पर नियंत्रण के मामले में मप्र ने काफी अच्छी प्रगति दर्ज की है। 1991-01 में मप्र की जनसंख्या वृद्धि दर 24.26 प्रश थी, जबकि 2001-11 में यह घटकर 20.30 प्रश पर आ गई।
जनसंख्या के महत्वपूर्ण आँकड़े
भारत की जनसंख्या की गणना हर दस साल बाद होती है। इसमें 1911-21 की अवधि को छोड़कर प्रत्येक दशक में आबादी में वृद्घि दर्ज की गई 1 करोड़ 84 लाख आबादी 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में रहती थी, जो 21वीं शताब्दी में एक अरब 2 करोड़ 80 लाख तक पहुँच गई।

सदी की शुरुआत में भारत का लिंग अनुपात 972 था। इसके बाद 1941 तक इसमें निरंतर गिरावट देखी गई। देश में लिंग अनुपात हमेशा से महिलाओं के अनुकूल नहीं रहा।लाख वर्ग किमी भू-भाग भारत के पास है, जो विश्व के कुल भू-भाग का मात्र 2.4 प्रतिशत है। फिर भी दुनिया की 16.7 प्रतिशत आबादी का भार उसे वहन करना पड़ रहा है।

*विश्व में कुल आबादी 6,928,198,25।
*लिंगानुपात 986।
*महिला जनसंख्या 3,439,888,902।
*पुरुष जनसंख्या 3,488,309,351।
*1901 के बाद भारत की जनसंख्या की गणना हर दस साल बाद होती है। इसमें 1911-21 की अवधि को छोड़कर प्रत्येक दशक में आबादी में वृद्घि दर्ज की गई।
*23 करोड़ 84 लाख आबादी 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में रहती थी, जो 21वीं शताब्दी में एक अरब 2 करोड़ 80 लाख तक पहुँच गई।
*20वीं सदी की शुरुआत में भारत का लिंग अनुपात 972 था। इसके बाद 1941 तक इसमें निरंतर गिरावट देखी गई। देश में लिंग अनुपात हमेशा से महिलाओं के अनुकूल नहीं रहा।
*1357.90 लाख वर्ग किमी भू-भाग भारत के पास है, जो विश्व के कुल भू-भाग का मात्र 2.4 प्रतिशत है। फिर भी दुनिया की 16.7 प्रतिशत आबादी का भार उसे वहन करना पड़ रहा है। 
*भारत की आबादी 121 करोड़। 18.10 करोड़ बढ़े। 62.37 करोड़ पुरुष। 58.65 करोड़ महिलाएँ। 17.64 प्रतिशत वृद्धि दर। 74.04 प्रतिशत साक्षर। जनसंख्या वृद्धि दर में सबसे ज्यादा गिरावट। साक्षरता दर और लिंगानुपात में सुधार, लेकिन बेटों के प्रति रुझान कम नहीं। प्रति 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएँ। जनसंख्या वृद्धि दर में सबसे ज्यादा गिरावट।

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

छोटे-छोटे ताबूतों में बड़ा सा जनाज़ा

छोटे-छोटे ताबूतों में बड़ा सा जनाज़ा

  • 2 घंटे पहले
पेशावर
मंगलवार को पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में मारे गए 140 लोगों में से अधिकतर का नमाज़े जनाज़ा चल रहा है.
तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के हमले में मारे गए लोगों में स्कूल स्टाफ़ के भी 9 लोग थे. पाकिस्तानी सेना के अनुसार सभी सात हमलावर भी मारे गए.
दुनिया भर में इस घटना की निंदा हो रही है, यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद तालिबान ने भी इसकी निंदा की है.
इस्लामी रीति रिवाज के अनुसार मंगलवार शाम से ही कुछ लोगों का अंतिम संस्कार किया जाने लगा.

अल्लाह बदला लेगा

पेशावर
मारे गए बच्चों के रिश्तेदारों के अलावा सैकड़ों लोग भी जनाज़े में शामिल हुए.
मारे गए एक बच्चे के पिता ने समाचार एजेंसी एपी से कहा, ''वो सिर्फ़ 15 साल का था और आठवीं कक्षा में पढ़ता था. कल रात मैंने उससे बात की थी. आज सुबह वो मुझ से पहले उठा और स्कूल चला गया''
पेशावर
पूरे पाकिस्तान में शोक की लहर
मारे गए एक और बच्चे 10 साला गुल शेर के चाचा साजिद ख़ान ने कहा कि उनका भतीजा डॉक्टर बनना चाहता था लेकिन वो कफ़न में लिपटा हुआ है.
उन्होंने आगे कहा, ''हमलोग उन आतंकवादियों से बदला नहीं ले सकते लेकिन मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि वो उनसे बदला ले.''
दुनिया भर में इस हमले की भर्त्सना हो रही है, यहां तक कि तहरीक-ए-तालिबान पाकि्स्तान के वैचारिक साथी अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान ने भी इसकी निंदा करते हुए इसे ग़ैर-इस्लामी क़रार दिया है.
अफ़ग़ानिस्तान तालिबान के प्रवक्ता ज़हीबुल्लाह मुजाहिद ने कहा कि वे लोग पेशावर हमले में मारे गए बच्चों के रिश्तेदारों को शोक संदेश भेज रहे हैं.

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

नेहरु हिंदू थे या मुस्लिम:एक खोज


आपने नेहरु के बारे में बहुत कुछ पढ़ा सुना होगा. मेरा लेख पढ़िए प्रमाण के
साथ....
नेहरु हिंदू थे या मुस्लिम:एक खोज भाग-१
(इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार जो अधिकांश लोग जानते है)
• गियासुद्दीन गाजी उर्फ गंगाधर नेहरु- पिता मोतीलाल नेहरु
• मोतीलाल नेहरु- पिता जवाहर लाल नेहरु,
• जवाहर लाल नेहरु- पिता मोतीलाल नेहरु/मुबारक अली
• मैमून बेगम उर्फ इंदिरा गाँधी- पिता जवाहर लाल नेहरु
• राजीव खान गाँधी- पिता फिरोज खान वल्द जहाँगीर नवाब खान, माता मैमून बेगम
उर्फ इंदिरा गाँधी. राजीव खान गाँधी ने ईसाई धर्म अपनाकर अपना नाम रोबर्टो
रखकर अंतोनियो मैनो उर्फ सोनिया कैथोलिक ईसाई से शादी की
• संजय खान गाँधी- पिता मोहम्मद युनुस खान, माता मैमून बेगम उर्फ इंदिरा गाँधी
• राउल विन्ची उर्फ राहुल गाँधी- पिता राजीव खान गाँधी उर्फ रोबर्टो (कैथोलिक
ईसाई)
• बियांका उर्फ प्रियंका गाँधी- पिता राजीव खान गाँधी उर्फ रोबर्टो (कैथोलिक
ईसाई), पति रोबर्ट वढेरा, कैथोलिक ईसाई



भाग-२ (हमारी खोज)
1. संलग्न तस्वीर में बायीं तरफ उपर नेहरु के दादा जी का तस्वीर है जो आनंद
भवन में लगा है और जिसपर लिखा है “जवाहर लाल नेहरु के दादा गंगाधर नेहरु”. ये
१८५७ के विप्लव के पूर्व दिल्ली के कोतवाल थे. नेहरु ने अपने जीवनी में इनके
बारे में लिखा है,
“My grandfather, Ganga Dhar Nehru, was Kotwal of Delhi for some time before
the great revolt of 1857.” (pg.2)
मुगल रिकॉर्ड से पता चलता है की १८५७ के विप्लव के समय और उससे पहले कोई भी
हिंदू दिल्ली का कोतवाल नही था. उस समय दिल्ली का कोतवाल था गयासुद्दीन गाजी.
यह दिल्ली में मुगलों का अंतिम कोतवाल था. तत्कालीन इतिहास से जानकारी मिलती
है की अंग्रेज सैनिक इसे ढूढ रहे थे और यह अपनी जान बचाने के लिए सपरिवार आगरा
की ओर भाग गया था.
नेहरु ने अपनी जीवनी में लिखा है, “The Revolt of 1857 put an end to our
family’s connection with Delhi…The family, having lost nearly all it
possessed, joined the numerous fugitives who were leaving the old imperial
city and went to Agra. He (Gangadhar) died at the early age of 34 in 1861”
(pg.2)
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है की गियासुद्दीन गाजी और गंगाधर नेहरु दोनों एक
ही व्यक्ति था. १८५७ में विप्लव के समय जब अंग्रेज सैनिक इन्हें ढूंड रहे थे
तो अपनी जान बचाने के लिए आगरा की ओर भाग गए साथ ही अपना पहचान छुपाने के लिए
अपना नाम भी बदल लिए और पहचान भी क्योंकि बाद में इनके परिवार का और कोई भी
सदस्य गियासुद्दीन के जैसा लिवास पहने नहीं दीखता है. यह वैसा ही है जैसे की
१९८४ के सिक्ख दंगे के समय अल्पसंख्यक क्षेत्रों मं8 सिक्खों ने अपने बाल
मुंडवा लिए और पगड़ी बांधना छोड़ दिए थे. परन्तु देखनेवाली बात यह है की
गियासुद्दीन ने छद्म नाम गंगाधर हिन्दुवाला तो रख लिया परन्तु सर नेम किसी
हिंदू का नही रखा शायद इसलिए की सर नेम खानदान को व्यक्त करता है. इसलिए एक
नया सर नेम ‘नेहरु’ रख लिया ताकि जरुरत पड़ने पर यथापरिस्थिति लोगों को संशय
में डाल सके और अपनी वास्तविक पहचान छुपा सकें. नेहरु सर नेम की उत्पति पर
नेहरु ने अपनी जीवनी में लिखा है, “A jagir with a house situated on the
banks of canal had been granted …and, from the fact of this residence,
‘Nehru’ (from nahar, a canal) came to be attached to his name.” (pg.1)
2. नेहरु ने अपने पिता मोतीलाल नेहरु के शिक्षा के बारे में लिखा है, “His
early education was confined entirely to Persian and Arabic and he only
began learning English in his early teens.” (pg.3)
प्रश्न उठता है की जब नेहरु पंडित थे तो उन्हें संस्कृत की शिक्षा तो अवश्य दी
जानी चाहिए थी भले ही उन्हें अरबी फारसी भी पढाया जाता. परन्तु उन्हें संस्कृत
की शिक्षा ही नही दी गयी. इतना ही नही नेहरु ने अपने जीवनी में कई ऐसे घटनाओं
का उल्लेख किया है जो दर्शाता है की पिता मोतीलाल या उनके चाचा और चचेरे भाईओं
के दिल में हिंदू धर्म, हिंदुओं के भगवान और हिंदू कर्मकांड में कोई दिलचस्पी
नही थी. इससे स्पष्ट होता है की ‘नेहरु’ पंडित तो क्या हिंदू भी नही थे. एक
स्थान पर नेहरु लिखते है, “Of religion I had very hazy notions. It seemed to
be a woman’s affair. Father and my older cousins treated the religious
question humorously and refused to take it seriously.”

*Please Join our New Page: Bharat is a Hindu Nation*
३. नेहरु ने अपने जीवनी में लिखा है मेरा जन्म १४ नवम्बर, १८८९ को इलाहाबाद
में हुआ, पर उन्होंने यह नही बताया की इलाहबाद में किस जगह हुआ था. मैं जब
इलाहबाद में था तो हिंदुस्तान दैनिक में एक लेख छपा था और उससे पता चला की
नेहरु का जन्म इलाहबाद के मीरगंज इलाके में हुआ था. लेख में उनके घर की तस्वीर
भी दी हुई थी जो एक सामान्य सा दो मंजिला घर था. मुझे लगा मुझे यहाँ से कुछ
बेहतर जानकारी मिल सकती है इसलिए मैं वहाँ जाने को उत्सुक हुआ, पर यह जानकर
हैरान रह गया की मीरगंज इलाका रेड लाईट एरिया था. मुझे आश्चर्य हुआ की इतने
बड़े व्यक्ति का जन्मस्थान वेश्यालय कैसे बन गया, परन्तु जब मैंने इस बाबत
जानकारी इकट्ठी करनी शुरू की तो पता चला की वो बहुत पहले से रेड लाईट एरिया था
और मोतीलाल रेड लाईट एरिया में ही रहते थे.
इसी दौरान मुझे एक नई जानकारी मिली की जवाहर लाल नेहरु के असली पिता मुबारक
अली था. मेरे पास इस बात के कोई साबुत नही है और हो भी नही सकता है, परन्तु
मैं निम्नलिखित कारणों से इस बात से इतिफाक रखता हु:
• मुबारक अली एक व्यापारी था और वह मोतीलाल के घर आया करता था.
• १८५७ के विप्लव में सबकुछ गंवाने के बाद नेहरु परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत
खराब हो चुकी थी, शायद इसीलिए वे रेड लाईट एरिया में भी रह रहे थे.
• मुबारक अली एक अय्याश किस्म का व्यक्ति था. मोतीलाल का रेड लाईट एरिया में
रहना और खराब आर्थिक स्थिति में कुछ भी असम्भव नही है.
• मोतीलाल को ‘इशरत मंजिल’ मुबारक अली से मिला था जिसका नाम मोतीलाल ने ‘आनंद
भवन’ रखा था
• नेहरु लिखते है की जब वे दशवें वर्ष में थे तो वे पुराने मकान से नए मकान
‘आनंद भवन’ में आये थे. मुबारक अली से नेहरु आनंद भवन आने से पूर्व परिचित थे
और मुबारक अली आनंद भवन आता जाता रहता था और नेहरु को बेटे जैसा प्यार करता था.
• नेहरु ने मुबारक अली के बारे में अपने जीवनी में लिखा है, “He came from a
well-to-do family of Badaun….and for me he was a sure haven of refuge
whenever I was unhappy or in trouble. I used to snuggle up to him and
listen, wide-eyed, by the hour to his innumerable stories……and the memory
of him still remains with me as a dear and precious possession.”
• नेहरु ने खुद स्वीकार किया है की उनका हिंदु होना महज एक दुर्घटना है और
उनके संस्कार मुस्लिम के हैं.
• जवाहर अरबी शब्द है जो एक कीमती पत्थर को व्यक्त करता है. कोई हिंदू और वो
भी पंडित अपने पुत्र का नाम अरबी क्यों रखेगा.
४. हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति के विषय में नेहरु के विचार कितने निम्न स्तर
के थे और हिंदू धर्म के प्रति उनके दिल में कितना विद्वेष था यह उनके
निम्नलिखित कथन से झलकता है:
“Hindu culture would injure India’s interests. By education I am an
Englishman, by views an internationalist, by culture a Muslim, and I am a
Hindu only by accident of birth. The ideology of Hindu Dharma is completely
out of tune with the present times and if it took root in India, it would
smash the country to pieces. [Source:Violation of Hindu HR-Need for a Hindu
nation-III by V Sunderam (Retd. IAS Officer), originally in “Reminiscences
of the Nehru Age” by M.O. Mathai]
भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सनातन धर्म जो विश्व की प्राचीनतम और महानतम
सभ्यता, संस्कृति और धर्मों में से एक है, जो जियो और जीने दो, वसुधैव
कुटुम्बकम और सत्यमेव जयते जैसे आदर्शों पर आधारित है, के विषय में कोई हिंदू
तो क्या इसे समझने वाला कोई भी इस प्रकार की सोच नही रख सकता है. इन्हें इस
बात का डर था की यदि हिंदू धर्म ने अपनी जड़े जमा ली तो देश के टुकड़े हो
जायेंगे. ये ठीक वैसा ही जैसे आज राहुल गाँधी कहता है की भारत को लश्कर ऐ
तोइबा से ज्यादा हिंदू कट्टरवाद से खतरा है. सवाल है देश के टुकड़े होने से
उनका तात्पर्य क्या था? मेरा मानना है, उन्हें लगता था की यदि हिंदू धर्म अपनी
जड़ें मजबूती से जमा लेती है तो भारत अखंड मुस्लिम राज्य नही बन सकेगा और
हिंदू अपने लिए हिंदुस्तान ले लेगा और भारत के टुकड़े हो जायेंगे. शायद आपको
मेरी सोच पर तरस आ रही होगी, लेकिन मेरे इस सोच का पर्याप्त आधार है और आप भी
देख लीजिए....
५. नेहरु का कहना है की उनका खानदान फर्रुखशियर का कृपा प्राप्त कर उसी के समय
(१७१६ ईस्वी) कश्मीर छोडकर मुगलों की सेवा के लिए दिल्ली आ बसे थे. वे अपनी
जीवनी में खुद को कश्मीरी पंडित साबित करने के लिए नाना प्रकार के अनर्गल
प्रलाप किये है जो की महत्वहीन और असम्बद्ध भी है, परन्तु उन्होंने कहीं भी
कश्मीर के उस भू-भाग का जिक्र नही किया है जहाँ के वे खुद को खानदानी बताते
है. परन्तु विडम्बना देखिये, खुद को कश्मीर पंडित साबित करने के लिए अनर्गल
प्रलाप करनेवाला नेहरु की राय कश्मीरी पंडितों के सम्बन्ध में कितना घिनौना और
निम्नस्तरीय है. नेहरु ने अपनी पुस्तक Glimses of World history में लिखा है:
“The treatment of men was sometimes worse than that of animals (some of the
animals like cows were actually revered because they were Gods).

Lower caste Hindus had a miserable life. Other historians have commented
that the treatment of women was even worse, specially women of lower
castes, they were considered the property of the upper caste Hindus, to be
molested and/or raped at will.

In many cases the new bride had to stay a night with the village Brahman
before she was married off. Kashmir converted to Islam during this time
period. It was cruelty like this that led to the whole sale conversion to
Islam. The new religion offered them equality and saved them from the
Brahmans.”

जरा तीसरे पैरा पर ध्यान दीजिए. नेहरु का मानना है की कश्मीर की सामाजिक
धार्मिक स्थिति बहुत ही खराब थी और वे ब्राह्मणों के अत्याचार से त्रस्त थे.
और इन्ही अत्याचार के परिस्थितियों में कश्मीर के लोगों ने सामूहिक रूप से
इस्लाम धर्म कबूल कर लिया. कश्मीर के इतिहास लेखक कल्हण, विल्हण या अन्य किसी
ने भी इसप्रकार की बातें नही लिखी है. दूसरी बात कश्मीर १४ वीं शताब्दी के
उत्तरार्ध से ही मुस्लिम अत्याचार से त्रस्त था. (मैं कश्मीर के इतिहास पर
जाना नही चाहता हूँ, पर मैं बता दूँ की नेहरु को भारतीय इतिहास की वास्तविक
जानकारी बिलकुल नही थी.) शायद नेहरु को यह पता नही था की सिकन्दर शाह जैसे
मुस्लिम शासकों ने कश्मीरी पंडितों के लिए तीन ही विकल्प दिए थे-इस्लाम कबूल
करो, घाटी छोड़ो या मरो और उसने लाखों की संख्या में ब्राह्मणों का कत्ल
करवाया था और यह की १८४६ में जब कश्मीर के महाराज गुलाब सिंह हुए तो १८४८ में
हजारों की संख्या में धर्मान्तरित मुस्लिम उनके दरबार में उपस्थित हुए थे और
अपने उपर मुस्लिम अत्याचार और जबरन धर्मान्तरण का हवाला देकर वापस हिंदू धर्म
में शामिल करने की प्रार्थना की थी. गुलाब सिंह इसके लिए आश्वाशन भी दिए थे पर
उनके पुरोहित की धर्मान्धता के कारण यह शुभ कार्य पूरा नही हो सका (My Frozen
Turbulence of Kashmir- by Jagmohan).
यह उस कश्मीरी पंडित का विचार है जो खुद को कश्मीरी कहते नही अघाता है और खुद
को कश्मीरी पंडित साबित करने के लिए मरता दिखाई देता है. कोई भी कश्मीरी पंडित
इस प्रकार की सोच नही रख सकता है. इससे स्पष्ट होता है की नेहरु पंडित तो क्या
हिंदू भी नही थे बल्कि कट्टर मुस्लिम थे. और यह उनके अगले वाक्य से स्पष्ट
होता है की ‘नए धर्म ने उन्हें समानता का अवसर दिया और उन्हें ब्राह्मणों से
बचाया.’ सवाल है यदि इस्लाम उसे इतना ही महान जान पडता था तो वे फिर खुद को
कश्मीरी पंडित साबित करने के लिए क्यों मरे जा रहे थे? वे मुसलमान क्यों नही
हो गये? और यदि कश्मीरी पंडितों का कश्मीर में उतना ही धाक था तो वो छोड़कर
मुगलों के तलुवे चाटने क्यों आ गए थे?
उपर्युक्त से स्पष्ट है की नेहरु के लिए हिंदुओं और हिंदू धर्म के लिए वैसे ही
घृणा थी जैसे एक कट्टर मुस्लिम में होता था और उसके नजर में दार-उल-इस्लाम और
इस्लाम में धर्मान्तरण ही हिंदुओं के अत्याचार से मुक्ति का मार्ग था. कश्मीर
दार-उल-इस्लाम के मार्ग पर अग्रसर था जबकि हिंदू धर्म की मजबूत जड़ें शेष भारत
में इस मार्ग की बाधाएं थी और जिसके कारण उन्हें भारत के टुकड़े होने का खतरा
दिखाई पडता था.
६. नेहरु के उपर्युक्त निष्कर्ष कांग्रेस-वामपंथी इतिहास लेखकों की प्रेरणा
स्रोत बन गयी है और ये भडूवे इतिहासकार अपने आका को खुश करने के लिए हर जगह
हिंदुओं और हिंदू संस्कृति को बदनाम करने के लिए ऐसे ही निष्कर्षों का सहारा
लेते है. वास्तविकता यह है की ये बुराइयां मध्यकालीन मुस्लिम अत्याचार और
भोगवाद को व्यक्त करती है जो कालांतर में उन्ही से प्रेरित होकर कुछ हिंदू
रजवाड़े और जमींदार तक पहुच गए थे.
७. किसी भी सभ्यता संकृति और धर्म को नष्ट करना हो तो सबसे पहले वहाँ की
शिक्षा व्यवस्था को विकृत कर देना चाहिए ये नेहरु ने अंग्रेजों से अच्छी तरह
सीख लिया था. प्रधानमंत्री बनने के बाद उसने अबुल कलाम आजाद को शिक्षा मंत्री
बनाकर अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु लगा दिया. इसमें हिंदुओं के गौरवशाली
इतिहास को विकृत और घृणित रूप में पेश किया गया और आक्रमणकारी मुस्लिमों का
महिमा मंडन किया गया जिसे पढकर लोगों में हीन भावना उत्पन्न होती है और यही
उसका उद्देश्य भी था. विश्व में एकमात्र भारत ऐसा देश है जहाँ की इतिहास में
आक्रमणकारियों को हीरो और अपने देश, अपनी सभ्यता और संस्कृति, धर्म और मर्यादा
की रक्षा हेतू लड़नेवाले वीरों को विलेन के रूप में पेश किया गया है.
कांग्रेस-वामपंथी इतिहासकार हमे यह पढ़ने और मानने के लिए विवश करते है की
मुस्लिमों के भारत आने के पहले भारत की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक
स्थिति बहुत ही खराब थी और उसमे व्यापक सुधार और विकास मुस्लिमों के आगमन
पश्चात ही हुआ है जबकि सच्चाई ठीक इसके विपरीत है. इन बातों से भी स्पष्ट है
की नेहरु वास्तव में मुसलमान थे.
८. जिन्ना और मुस्लिम लीग ने जब हिंदुओं के विरुद्ध प्रत्यक्ष कार्यवाही की
घोषण की और हिंदुओं की हत्या, लूट और हिंदू स्त्रियों के बलात्कार होने लगे उस
समय नेहरु भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री थे, पर उन्होंने इसे रोकने का कोई
प्रयत्न नही किया, परन्तु बिहार में जैसे ही कोलकाता में मारे गए लोगों के
परिजनों ने इसके विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त की इन्होने तत्काल सेना भेजकर
उन्हें गोलियों से भुनवा दिया.
९. शेख अब्दुल्ला १९३१ से ही घाटी में उत्पात मचा रहा था, महाराजा हरिसिंह के
विरुद्ध आन्दोलन चला रहा था और हिंदुओं का खुले आम कत्ल और लूटमार कर रहा था,
पर जब महाराजा ने शेखअब्दुल्ला को नजरबंद कर शांति स्थापना का प्रयास किया तो
नेहरु शेख अब्दुल्ला के समर्थन में कश्मीर में दंगे फ़ैलाने पहुँच गए. नेहरु
ने शेख अब्दुल्ला को शेर-ए-कश्मीर एवं लोगो का प्रिय हीरो बताते हुए अपने भाषण
में कहा, “यह बड़े दुःख की बात है की कश्मीर प्रशासन अपने ही आदमियों का खून
बहां रही है. मैं कहूँगा की उसका यह कृत्य प्रशासन को कलंकित कर रही है और अब
यह ज्यादा दिन तक नही टिक सकती. मै कहता हू की कश्मीर की जनता को अब और अपनी
आजादी पर हमला एक पल भी बर्दाश्त नही करना चाहिए. यदि हम अपने शासक पर काबू
पाना चाहते है तो हमे पूरी शक्ति के साथ उसका विरोध करना चाहिए. (Sardar
Patel’s Correspondence-by Durga Sinh)
ज्ञातव्य है की एक तरफ हरिसिंह जब अपने अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौधों और सिक्खों
को बचाने का प्रयास कर रहे थे उसी समय हैदराबाद में निजाम हिंदुओं पर भयानक
अत्याचार कर रहे थे ताकि हैदराबाद से हिंदू पलायन कर जाये और हैदराबाद मुस्लिम
बहुल हो जाये ताकि वह भारत में विलय करने को बाध्य न हो, पर नेहरु ने उस क्रूर
निजाम को कुछ भी नही कहा जबकि हरिसिंह के पीछे पडकर शेख अब्दुल को गद्दी पर
बिठाकर उन्हें राज्य से भी बाहर कर दिया. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे
न केवल संस्कार से मुस्लिम थे बल्कि विचार से भी मुस्लिम ही थे और हम सहमत है
की उनका हिंदू होना महज एक दुर्घटना मात्र था.

१०. जब महाराज हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में कर दिया तो नेहरु ने
उसे अस्थायी घोषित कर प्लेबीसाईट के माध्यम से अंतिम निर्णय की घोषणा की.
जम्मू-कश्मीर के सर्वेक्षण करनेवाले शिवन लाल सक्सेना ने अपने रिपोर्ट में
बताया की ‘७८% मुस्लिम आबादी वाला जम्मू-कश्मीर में प्लेबीसाईट का परिणाम भारत
के पक्ष में होने की उम्मीद करना महा पागलपन है’. पर नेहरु ने उनकी बातों पर
ध्यान नही दिया. इतना ही नही शेख अब्दुल्ला के साथ मिलकर गुपचुप धारा ३७०
तैयार कर लिया और संसद में दबाव डालकर पास भी करवा लिया जो आजतक भारत की गले
की हड्डी बनी हुई है. कश्मीरी आतंकवाद और भारत में मुस्लिम आतंकवाद की जड़
नेहरु की यही तुष्टिकरण नीति थी. (कश्मीर समस्या पर विशेष जानकारी के लिए मेरा
लेख “अखंडता पर सवाल: धारा ३७०” पढ़ें)
११. जब हमारी सेना जीत के करीब पहुँच गयी थी तब इन्होने अकारण एक तरफा युद्ध
विराम की घोषणा कर दी जिसके कारण आज भी जम्मू-कश्मीर का बहुत बड़ा हिस्सा
पाकिस्तान के पास है.
१२. जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया और हमारी सेना उससे लोहा ले रही
थी उस समय पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपया देने में गाँधी के साथ इनका भी हाथ था.
१३. नेहरु को राष्ट्रवाद से घृणा था. वह उसे ‘बू’ कहते थे (भारत गाँधी नेहरु
की छाया में- लेखक गुरु दत्त) पर वास्तविकता यह थी की उसकी नजर में राष्ट्रवाद
का मतलब हिंदू राष्ट्रवाद से था और वे तो हिंदुओं से घृणा करते थे. हिंदू और
हिंदुत्व की बात करनेवाले उनके नजर में देशद्रोही था (भारत गाँधी नेहरु की
छाया में).
१४. जब धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ तो कायदे से इस्लाम के सभी अनुयायी
को पाकिस्तान और बंगलादेश में चले जाना चाहिए था और हिन्द सभ्यता और संस्कृति
के समर्थक को भारत आ जाना चाहिए था परन्तु गाँधी और नेहरु के कारण यह नही हो
सका जिसका परिणाम यह हुआ है की नेहरु गाँधी के छलावे में फंसकर बंगलादेश और
पाकिस्तान में रह जानेवाले लाखों करोड़ों गैर मुस्लिम आज महज कुछ हजारों में
सिमट गए है और मौत से भी बत्तर जिंदगी जीने को बाध्य है. वे आज भी लूट, हिंसा,
बलात्कार और धर्मान्तरण के शिकार हो रहे है और अपना अस्तित्व बचाने के लिए
भारत से शरण की मांग कर रहे है. इतना ही नही हिंदुस्तान के हिंदुओं के सीने पर
आज भी मुसलमान मुंग दल रहे है तथा कट्टरवादी मुस्लिमों और नेहरु गाँधी के उपज
छद्मधर्मनिरपेक्षवादी राजनेताओं के षड्यंत्र से हिंदुस्तान की अखंडता एकबार
फिर संकट में पड़ती जान पर रही है.
१५. नेहरु खुद को नास्तिक कहते थे. पर वास्तविकता यह है की वे राजनितिक कारणों
से खुद को मुस्लिम या इस्लाम समर्थक नही कह पाते थे और इसीलिए वे नास्तिकता का
चोला ओढ़े रहते थे और इस नास्तिकता की आड़ में हिंदुओं और हिंदू धर्म के
विरुद्ध अपने मुस्लिम संस्कार, विचार और कार्यों को संरक्षण दे रहे थे.
१६. नेहरु ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण को संगठित रूप दिया
जिसका दुष्परिणाम पूरा देश भुगत रहा है.
१७. नेहरु खुद तो यह स्वीकार करते ही थे की उनके संस्कार मुस्लिम के है,
उपर्युक्त तथ्यों और उनके कार्यों के आधार पर मेरा मानना है की वे अपने विचार
और कार्य से भी मुस्लिम ही थे. उनके साथ जुड़ा हिंदू शब्द उनके लिए कष्टकारी
था जिसकी अभिव्यक्ति वे यदा कदा और हिंदू होने को महज एक दुर्घटना कहकर व्यक्त
करते थे. उनका नास्तिक होना ठीक वैसे ही था जैसे आज रोमन कैथोलिक ईसाई सोनिया
और उसकी संताने जनता को धोखा देने के लिए हर जगह अपना धर्म ‘Religious
Humanity’ लिखते है.

भाग-३
इंदिरा गाँधी के जीवन और कार्य भी इस ओर संकेत करता है की नेहरु मुस्लिम थे:
• मैमून बेगम उर्फ इंदिरा गाँधी फिरोज खान वल्द जहाँगीर नवाब खान से निकाह की
थी.
• मैमून बेगम उर्फ इंदिरा गाँधी के दोनों पुत्र राजीव खान गाँधी और संजय खान
गाँधी के पिता मुस्लिम ही थे.
• इंटरनेट से प्राप्त जानकारी के अनुसार इनके दोनों पुत्रों का आवश्यक मुस्लिम
संस्कार भी हुआ था.
• फिरोज खान का मकबरा इस बात का प्रमाण है की इंदिरा गाँधी अपने मुस्लिम
संस्कारों को नही त्यागी थी.
• १९७१ की लड़ाई में ९२ हजार से उपर पाकिस्तानी सैनिक बंदी बनाये गए थे जिसे
इंदिरा गाँधी ने बिना शर्त छोड़ दिया. वे चाहते तो इसके बदले पाक अधिकृत
कश्मीर का सौदा कर सकती थी. कुछ नही तो बदले में पाकिस्तान द्वारा बंदी बनाये
गए भारतीय सैनिकों को तो रिहा करवा ही सकती थी पर उन्होंने ऐसा कुछ नही किया.
• जनसंख्या नियंत्रण की नीति के तहत इनके द्वारा चलाये गए नशबंदी अभियान के
बारे में तत्कालीन इतिहासकार लिखते है, “हिंदुओं को उनके घरों, दुकानों यहाँ
तक की मंदिरों से भी खिंच खिंच कर नशबंदी किया जाने लगा, परन्तु इस सरकार की
कभी हिम्मत नही हुई की वे एक मस्जिद से किसी मुसलमान को खिंच ले या एक ईसाई को
किसी गिरजाघर से खिंच लें.” इस घटना का जिक्र होने पर बचपन में मेरी बुआ बताई
थी की इंदिरा गाँधी हिंदू और मुसलमान की जनसंख्या बराबर करना चाहती थी.
• इंदिरा गाँधी अफगानिस्तान बाबर के मजार पर सिजदा करने गयी थी
• अरब के प्रिंस ने इंदिरा गाँधी को मक्का आने का निमंत्रण दिया था जहाँ गैर
मुस्लिमों को जाना वर्जित है.

विपिन सर (Maths Masti) और मैं

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