शनिवार, 25 अगस्त 2012

खुद तारा बन गए नील आर्मस्ट्रॉन्ग...

 रविवार, 26 अगस्त, 2012 को 04:20 IST तक के समाचार


नील आर्मस्ट्रॉन्ग चांद पर कदम रखने वाले पहले व्यक्ति थे
चांद पर पहला कदम रखने वाले क्लिक करें नील आर्मस्ट्रॉन्ग इस दुनिया को अलविदा कह गए. बयासी वर्ष की आयु में शनिवार को उनका निधन हो गया.
कुछ ही दिनों पहले उनकी बाइपास सर्जरी हुई थी.
जुलाई क्लिक करें 1969 को अपोलो-11 मिशन का नेतृत्व करते हुए नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर पहला कदम रखा था. इस दौरान उन्होंने कहा था, “मनुष्य के लिए यह एक छोटा कदम, पूरी मानव जाति के लिए बड़ी छलांग साबित होगा.”
नौसेना में एक चालक के तौर पर काम करने के बाद नील आर्मस्ट्रॉंन्ग ने एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. उन्होंने एक शोध परियोजना के साथ काम करना शुरू कर दिया जो कि बाद में अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का हिस्सा बन गया.

अंतरिक्ष यात्री

एक अंतरिक्ष यात्री के तौर पर चुने जाने के बाद वो उस चालक दल का हिस्सा बने जो पहली बार क्लिक करें अंतरिक्ष में दो पहिया वाहन ले जाने में सफल रहा.
नील आर्मस्ट्रॉंग को उनकी हृदय की नलियां अवरुद्ध होने के चलते गत दिनों अस्पताल में भर्ती कराया गया था जिसके बाद उनका आपरेशन किया गया. बीते रविवार को आर्मस्ट्रॉंग ने 82 वर्ष की उम्र पार की थी.
चांद पर गए इस मिशन के सफल होने के बाद नील आर्मस्ट्रॉंग सुर्खियों से दूर रहे.
लेकिन सितंबर 2011 में उन्होंने आर्थिक संकट के बीच नासा के भविष्य को लेकर की जा रही चर्चा में अपना पक्ष रखा था.
अपने दल के दूसरे साथियों सहित नील आर्मस्ट्रॉंग को अमरीका का सर्वोच्च नागरिक सम्मान कॉग्रेशनल गोल्ड मेडल से नवाज़ा गया है.

भारत में एक साल में नौ लाख नवजात शिशुओं की मौत

नवजात शिशु
विश्व स्वास्थ्य संगठन और बच्चों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘सेव द चिल्ड्रन’ की एक संयुक्त रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर पूरे विश्व में सबसे ज़्यादा है.
विश्व में नवजात शिशुओं की मौत के 99 प्रतिशत मामले विकासशील देशों में होती हैं. वर्ष 2009 में पूरे विश्व में आधे से ज़्यादा नवजात शिशुओं की मृत्यु पांच देशों में हुई – भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, चीन और कोंगो में.
भारत में ये आंकड़ा सबसे ज़्यादा पाया गया जहां 2009 में नौ लाख नवजात शिशुओं ने पैदा होने के एक महीने के भीतर दम तोड़ दिया.
विश्व में होने वाली कुल नवजात शिशु मृत्यु के मामलों में से मृत्यु के 28 प्रतिशत मामले भारत में दर्ज होते हैं.
हालांकि केवल भारतीय तस्वीर को ही आंका जाए, तो यहां पिछले 20 वर्षों में नवजात शिशु मृत्यु दर में गिरावट आई है.

शिरीन मिलर - बीबीसी से:

भारत सरकार ने भले ही गर्भवती महिलाओं के लिए नई योजनाओं की घोषणा की हो, लेकिन सच्चाई ये है कि ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों की हालत बदतर है. इसलिए वे घर पर ही बच्चा पैदा करना पसंद करती हैं. दूसरी बात ये है कि ग्रामीण अस्पतालों में स्वास्थय कर्मचारियों को रवैया ग़रीबों के प्रति बेहद उदासीन है, जिसके कारण वो लोग वहां जाना पसंद नहीं करते. तीसरी बात ये कि लोगों को सरकारी योजनाओं और अपने हक़ के बारे में जानकारी ही नहीं है. ऐसे में ये स्थिति तो उत्पन्न होनी ही थी.
जहां 1990 में 1000 नवजात शिशुओं में से 49 की मौत हो गई, वहीं 2009 में ये दर गिर कर 34 पर पहुंच गई.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 1990 में जहां 13 लाख से ज़्यादा नवजात शिशुओं की मौत हुई, वहीं 2009 में नौ लाख मौतें दर्ज की गई.
सेव द चिल्ड्रन की पॉलिसी और एडवोकेसी विभाग की निदेशक शिरीन मिलर सरकार की नाकाम होती योजनाओं को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराती हैं.
बीबीसी संवाददाता शालू यादवा से बातचीत में उन्होंने कहा, "भारत सरकार ने भले ही गर्भवती महिलाओं के लिए नई योजनाओं की घोषणा की हो, लेकिन सच्चाई ये है कि ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों की हालत बदतर है. इसलिए वे घर पर ही बच्चा पैदा करना पसंद करती हैं. दूसरी बात ये है कि ग्रामीण अस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मचारियों को रवैया ग़रीबों के प्रति बेहद उदासीन है, जिसके कारण वो लोग वहां जाना पसंद नहीं करते. तीसरी बात ये कि लोगों को सरकारी योजनाओं और अपने हक़ के बारे में जानकारी ही नहीं है. ऐसे में ये स्थिति तो उत्पन्न होनी ही थी."

वैश्विक आंकड़े

हालांकि रिपोर्ट में सामने आया है कि 1990 और 2009 के बीच वैश्विक नवजात शुशु मृत्यु दर में 28 प्रतिशत की गिरावट आई है.
जहां 1990 में हर 1000 नवजात शिशुओं में से 33.2 शिशुओं की मौत हुई, वहीं 2009 में ये अनुपात 23.9 पर पहुंचा.
अगर साधारण अंकों में बात की जाए, तो 1990 में विश्व भर में 46 लाख नवजात शिशुओं की मौत हुई, जबकि 2009 में 33 लाख मौतें दर्ज की गई हैं.
हालांकि वैश्विक आंकड़े में गिरावट तो दर्ज की गई है, लेकिन चिंता इस बात पर जताई गई है कि नवजात शिशुओं को बचाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की गति धीमी है.
ताज़ा रिपोर्ट में पाया गया है कि 99 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मौत विकासशील देशों में होती हैं.
नवजात शिशुओं की ज़िंदगी बचाना संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों का एक हिस्सा है.

कारण

रिपोर्ट में नवजात शिशु मृत्यु के पीछे तीन मुख्य कारण बताए गए हैं. वे हैं – समय के पूर्व शिशु का जन्म होना, एस्फ़िक्सिया यानि सांस न ले पाना, तरह तरह के इंफ़ेक्शन जैसे कि सैप्सिज़ और निमोनिया.
रिपोर्ट के संपादक का कहना है कि अगर जन्म के समय साफ़-सफ़ाई पर ध्यान दिया जाए और जन्म के बाद मां को सलाह दी जाए कि वो बच्चे को अपना ही दूध पिलाए, तो नवजात शिशुओं की जान बचाई जा सकती है.
तमाम कोशिशों के बावजूद नवजात शिशु के स्वास्थय से जुड़े मुद्दे कहीं पीछे रह गए हैं. सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पाने में केवल चार साल बाकी हैं. ऐसे में हमें इस विषय पर ज़्यादा ध्यान देना होगा.
डॉक्टर फ़्लैविया बुस्त्रेओ, विश्व स्वास्थय संगठन
शिशु और मां विभाग के विश्व स्वास्थ्य संगठन के सह-महानिदेशक डॉक्टर फ़्लैविया बुस्त्रेओ का कहना है, “तमाम कोशिशों के बावजूद नवजात शिशु के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कहीं पीछे रह गए हैं. सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पाने में केवल चार साल बाकी हैं. ऐसे में हमें इस विषय पर ज़्यादा ध्यान देना होगा.”
रिपोर्ट के निष्कर्ष में भी कहा गया है कि अगर सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पाना है, नवजात शिशु मृत्यु दर के मुद्दे को ज़्यादा गंभीरता से संबोधित करने की ज़रूरत है.
हर साल 80 लाख से ज़्यादा बच्चे अपने पांचवें जन्मदिन से पहले अपनी जान गंवा देते हैं और इनमें से ज़्यादातर मौतें विकासशील देशों में होती हैं, जहां बीमारियों का इलाज लोगों को उपलब्ध नहीं हो पाता.
साल 2000 में विश्व भर के देशों ने प्रण लिया था कि वे 2015 तक बाल मृत्यु दर में सार्थक कमी लाने की कोशिश करेंगें.
रिपोर्ट में लिखा है कि हालांकि पिछले कुछ सालों में बाल मृत्यु दर में कमी आई है, लेकिन सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए ये नाकाफ़ी है.
ख़ासतौर पर नवजात शिशुओं की बात की जाए, तो उनके स्वास्थ्य पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है. फ़िलहाल पांच साल तक के बालकों में से 41 प्रतिशत बच्चे अपने पहले महीने में ही दम तोड़ रहे हैं.

भारत में स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी

 मंगलवार, 20 सितंबर, 2011 को 20:07 IST तक के समाचार

भारत में कई बच्चों को टीकाकरण की सुविधा भी उपलब्ध नहीं.
बच्चों के हित में काम करने वाली संस्था सेव द चिल्ड्रन का कहना है कि भारत में स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में भारी कमी है, जिसके कारण पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु का ख़तरा बढ़ गया है.
संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में पाँच वर्ष पूरे करने से पहले ही मौत के गाल में समा जाने वाले बच्चों की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है.
बच्चों को ठीक समय पर स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिल पातीं क्योंकि देश भर में कम से कम 26 लाख स्वास्थ्य कर्मियों की कमी है.
संस्था ने माँग की है कि जितने स्वास्थ्य कर्मचारी अभी मौजूद हैं उन्हें अच्छी ट्रेनिंग और भत्ते दिए जाने चाहिए.

भारत क्यों नहीं?

"विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 49 अति पिछड़े देशों में सर्वेक्षण के आधार पर कहा है कि कुल मिलाकर 35 लाख स्वास्थ्य कर्मचारियों की और आवश्यकता है. इस सर्वेक्षण में भारत को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि उसे अति पिछड़े देशों के वर्ग में नहीं माना जाता."
प्रज्ञा वत्स, सेव द चिल्ड्रन
सेव द चिल्ड्रन की प्रज्ञा वत्स ने बीबीसी को बताया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 49 अति पिछड़े देशों में सर्वेक्षण के आधार पर कहा है कि कुल मिलाकर 35 लाख स्वास्थ्य कर्मचारियों की और आवश्यकता है.
लेकिन संस्था का कहना है कि इस सर्वेक्षण में भारत को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि उसे अति पिछड़े देशों के वर्ग में नहीं माना जाता.
प्रज्ञा वत्स ने बताया कि भारत में पाँच साल से कम उम्र के जितने बच्चे हर साल मर जाते हैं उनकी संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है.
सेव द चिल्ड्रन की ये रिपोर्ट ऐसे समय में जारी की गई है जब दुनिया भर के नेता संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिस्सा लेने के लिए न्यूयॉर्क में इकट्ठा हो रहे हैं.

राजनीतिक इच्छाशक्ति

संस्था का कहना है कि इस महासभा में स्वास्थ्य कर्मचारियों की जगहें भरने के लिए अतिरिक्त रक़म की माँग की जाएगी, इसलिए भारत की स्थिति को उजागर करना ज़रूरी है.
संस्था ने कहा है कि भारत में दो साल से कम उम्र के 55 प्रतिशत बच्चों को टीकाकरण की सुविधा उपलब्ध नहीं है.
जबकि नेपाल और बांग्लादेश जैसे कम आमदनी वाले देशों ने सामु्दायिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में ज़्यादा रक़म ख़र्च करके बाल मृत्यु दर में कमी लाने में सफलता पाई है.
संस्था ने कहा है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो ये काम भारत में भी संभव है.

तेजी से बढ़ता भारत कुपोषण के आगे बेबस

 मंगलवार, 8 मई, 2012 को 21:00 IST तक के समाचार

कुपोषण की समस्या
भारत में आर्थिक प्रगति के बावजूद कुपोषण जैसी बुनियादी समस्याओं से निपटना एक चुनौती साबित हो रहा है
दुनिया भर के लगभग 10 करोड़ कुपोषित बच्चों में सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे एशिया और खासकर भारत में हैं. हालांकि अफ्रीका इस मामले में एशिया से भी बुरी स्थिति में पहुंच सकता है.
‘सेव द चिल्ड्रन’ संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक शारीरिक अल्प विकास के मामले में अफगानिस्तान इकलौता एशियाई देश है जो वर्ष 1990 से 2010 के दौरान 14 सर्वाधिक चिंताजनक देशों की श्रेणी में है.

कहां है सबसे बुरी हालत

  • नाइजर
  • अफगानिस्तान
  • यमन
  • गिनी बिसाऊ
  • माली
इसी अवधि के दौरान एशियाई बच्चों में शारीरिक अल्प विकास 49 प्रतिशत से कम होकर 28 प्रतिशत हो गया है.
ये प्रगति बांग्लादेश, कंबोडिया और नेपाल जैसे देशों में भी दर्ज हुई है. इससे साबित होता है कि कम आय या छोटी अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में भी विकास संभव है.

कुपोषण से कैसे बचें

रिपोर्ट कहती है कि अगर गर्भवती होने के बाद अगले 1000 दिनों तक गर्भवती मां और उसके शिशु पर विशेष ध्यान दिया जाए तो उन्हें कुपोषण की मुश्किल स्थिति से बचाया जा सकता है.
भारत जैसे विकासशील देशों में मां का दूध पी रहे बच्चों के बचने की संभावना स्तनपान से वंचित बच्चों की तुलना में छह गुना ज्यादा होती है. हालांकि केवल 40 प्रतिशत बच्चों को ही स्तनपान का पूरा फायदा मिलता है.

कहां हैं सबसे अच्छी हालत

  • नॉर्वे
  • आइसलैंड
  • स्वीडन
  • न्यूजीलैंड
  • डेनमार्क
इस रिपोर्ट में दुनिया भर के देशों को तीन श्रेणियों में रखा गया. न्यूनतम विकसित देश, अल्प विकसित देश और विकसित देश. दुनिया के 80 अल्प विकसित देशों की सूची में भारत 76वें स्थान पर है.

भारत से बेहतर श्रीलंका

यह रिपोर्ट मां और शिशु के स्वास्थ्य की ताजा स्थिति के आधार पर विभिन्न देशों का मूल्यांकन करती है. इसके मुताबिक जहां एक ओर कुछ एशियाई देशों में पिछले एक वर्ष के दौरान मातृ स्वास्थ्य में सुधार हुआ है, वहीं भारत की स्थिति जस की तस बनी हुई है.
वर्ष 2011 में भारत 80 अल्प विकसित देशों की सूची में 75वें स्थान पर था जो इस बार एक स्थान नीचे खिसक कर 76वें स्थान पर आ गया है.
दक्षिण एशिया में श्रीलंका में अब भी मां और बच्चे की सेहत के नजरिए से बाकी देशों से बेहतर स्थिति है. अल्प विकसित देशों के बीच श्रीलंका की स्थिति 42वीं है.
सेव द चिल्ड्रन में निदेशक शिरीन मिलर का कहना है, “भारत को श्रीलंका जैसे देशों से भी सीख लेनी चाहिए जिन्होंने जन स्वास्थ्य व्यवस्था पर समुचित निवेश किया है. भारत का आर्थिक प्रतिद्वंद्वी माना जाने वाला चीन इस मामले में उससे कहीं आगे हैं. भारत के 76वें स्थान के मुकाबले इस वर्ष चीन 14वें स्थान पर है. पिछले वर्ष चीन 18वें स्थान पर था.”
महिला शिक्षा पर भारत का खराब प्रदर्शन भी उसे अल्प विकसित देशों में अंतिम 10 देशों के बीच ला खड़ा करता है.

भरपूर खाद्यान्न के बावजूद भारत में कुपोषण

 शनिवार, 25 अगस्त, 2012 को 07:31 IST तक के समाचार

कुपोषण का शिकार बच्चे
सरकारी योजनाओं पर करोड़ों डॉलर के खर्च के बावजूद कुपोषण एक गंभीर समस्या है.
देशराज की उम्र दो साल है लेकिन देखने में वो शायद ही किसी नवजात शिशु से बड़ा दिखाई दे. उसके सिर पर घने बाल नहीं हैं, उसकी टांगे सींक सी पतली हैं. वो इतना कमजोर है कि चल भी नहीं सकता.
देशराज भारत के उन करोड़ों बच्चों में शामिल है जो कुपोषण का शिकार है. यानी वो समस्या जिसे भारत के प्रधानमंत्री 'राष्ट्रीय शर्म' बताते हैं.
देशराज की मां बहुत ही चिड़चिड़े अंदाज में कहती हैं, “हमारे पास उसे खिलाने के लिए खाना नहीं है.” जाहिर तौर वो किसी भी सवाल का जवाब नहीं देना चाहती हैं.
भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बावजूद कुपोषण लगातार एक बड़ी समस्या बनी हुई है.
अनुमान है कि दुनिया भर में कुपोषण के शिकार हर चार बच्चों में से एक भारत में रहता है. ये तादाद अफ्रीका के सब-सहारा इलाके से भी ज्यादा है.

भारत का पिछड़ापन

भूख के कारण कमजोरी का शिकार बच्चों में बीमारियों से ग्रस्त होने का खतरा लगातार बना रहता है. यही कारण है कि भारत में हर साल दसियों हजार बच्चों की मौत होती है.
"वो बीमार पड़ गया था और उसने खाना पीना बंद कर दिया था. हम उसे एक बार डॉक्टर के पास ले गए थे. इसके बाद दिखाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे और वो दिन ब दिन कमजोर होता गया."
ब्रजमोहन, कुपोषण से मरने वाले बच्चे के पिता
इसके अलावा करोड़ों बच्चों का जीवन भर शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह विकास नहीं हो पाता है क्योंकि उन्हें अपने शुरुआती वर्षों में पूरा पोषण नहीं मिल पाता है.
भारत बाल विकास के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है. 'सेव द चिल्ड्रन' नाम के संगठन का अध्ययन कहता है कि भारत अपने बच्चों को पूरा पोषण मुहैया कराने के मामले में पड़ोसी बांग्लादेश या फिर बेहद पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीकी देश डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो से भी पीछे है.
कागजों में देखें तो भारत में देशराज जैसे बच्चों की देखभाल के लिए अरबों डॉलर की लागत वाली योजनाएं चल रही हैं.
लेकिन भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कारण कभी भी जरूरतमंद तक इन योजनाओं का फायदा पहुंच ही नहीं पाता है.
सवाल ये है कि मध्य प्रदेश के शिवपुरी के नजदीक देशराज के गांव मड़खेदा जैसे दूर दराज के इलाकों की मदद के लिए स्थानीय अधिकारी क्या कर रहे हैं.

लचर जन वितरण प्रणाली

कुपोषण के शिकार लोग
ब्रजमोहन को मलाल है कि वो अपने बच्चे को नहीं बचा पाए.
मड़खेदा में रहने वाले सभी लोग आदिवासी हैं और भारत के जटिल सामाजिक ढांचे में वो सबसे नीचे आते हैं.
ग्रामीणों का कहना है कि गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजारने वाले लोगों को बेहद कम दामों पर राशन मुहैया कराने के उद्देश्य से बनाई गई जन वितरण प्रणाली की दुकानें आम तौर पर बंद ही रहती है. लेकिन जब बीबीसी की टीम वहां पहुंची तो इत्तेफाक से ये दुकान खुली थी लेकिन वो खाली थी. सिर्फ कोने में कुछ आपात खाद्य सामग्री पड़ी थी.
अधिकारी भूले बिसरे ही इस तरह के इलाकों की खबर लेते हैं.
इसी गांव में दिनेशी और उनके पति ब्रजमोहन एक झोड़पी बैठे हैं और वे अब तक कुछ हफ्तों पहले अपने चार साल के बेटे कलुआ के गुजर जाने के सदमे से नहीं उबरे हैं.
ब्रजमोहन बताते हैं, “वो बीमार पड़ गया था और उसने खाना पीना बंद कर दिया था. हम उसे एक बार डॉक्टर के पास ले गए थे. इसके बाद दिखाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे और वो दिन ब दिन कमजोर होता गया.”
आसपास कोई डॉक्टर नहीं है और इन लोगों के पास दूर जाने-आने के लिए कोई परिवहन का अपना साधन नहीं है. ब्रजमोहन टोकरी बनाकर अपने परिवार की गुजर बसर करते हैं.

इच्छा शक्ति की 'कमी'

पिछले साल केंद्र सरकार ने खाद्य सुरक्षा अधिनियम पेश किया था जिसमें सभी के लिए खाने का अधिकार संरक्षित है. लेकिन कोई नहीं जानता कि देश के मौजूदा राजनीतिक गतिरोध के बीच ये अधिनियम कब पारित होगा.
कुछ आलोचकों का कहना है कि भुखमरी की समस्या से निपटने के लिए अब भी पर्याप्त राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है.
दूसरी तरफ मुक्त बाजार के हिमायती खाद्य सब्सिडी और खाद्य सुरक्षा की गारंटी जैसी योजनाओं पर ही सवाल उठाते हैं.
भारत में खाद्यान्नों की कमी नहीं है
कुपोषण की ये हालत तब और चिंताजनक हो जाती है जब देश में खाद्यान्नों की कमी न हो.
एक पोषण केंद्र में काम करने वाली आरती तिवारी कहती हैं कि मौजूदा कार्यक्रमों को ही उचित तरीके से लागू करने की जरूरत है. साथ ही लोग अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभाएं. साफ तौर पर उनका इशारा भ्रष्टाचार को रोकने की तरफ है.
भारत में भुखमरी की ये हालत तब है जब करोड़ों टन अनाज खुले में पड़ा सड़ जाता है. पिछले कई वर्षों से भारत अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा कर रहा है.
केंद्रीय मंत्री सचिन पायलट कहते हैं कि अब स्थिति एक दशक पहले के मुकाबले बेहतर है. लेकिन वो कहते हैं कि इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.
भारत में आबादी का बड़ा हिस्सा युवा है और राजनेता इसे देश की पूंजी बताते हैं. लेकिन इतनी बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार होंगें तो इस पूंजी का शायद ही देश को कोई ज्यादा फायदा हो.

महंगाई की सीधी मार बच्चों के विकास पर
 बुधवार, 15 फ़रवरी, 2012 को 16:49 IST तक के समाचार
भारत में बच्चों की आधी आबादी का विकास खाने की कमी के कारण रुक गया है
अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसी 'सेव द चिल्ड्रन' ने कहा है कि भोजन की कमी के कारण भारत में बच्चों की आधी आबादी का पूरी तरह से शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पा रहा है.
सहायता एजेंसी 'सेव चिल्ड्रेन' के सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले भारतीय परिवारों में से एक चौथाई परिवारों ने माना कि उनके बच्चों को अक्सर भूखा रहना पड़ता है.

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ये सर्वेक्षण दुनिया के पांच देशों भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, पेरू और नाइजीरिया में किया गया है. इन देशों में दुनिया के कुपोषण के शिकार बच्चों की आधी आबादी रहती है.
संस्था का कहना है कि इससे ''अगले पंद्रह सालों में दुनिया भर के करीब 50 करोड़ बच्चों के शारीरिक और मानसिक तौर पर अविकसित रह जाने की आशंका है.''
इन आंकड़ों में भी मध्यम और निम्न वर्ग के गरीबों के बीच असमानता पाई गई है.
आंकड़ों के अनुसार मध्य वर्ग के 11 प्रतिशत गरीब अभिभावकों ने माना कि ऐसा कभी-कभार होता है कि उनके बच्चों को भूखे रहना पड़ता है लेकिन निम्न वर्ग के गरीबों में ये प्रतिशत बढ़कर 24 हो जाता है.
चिंता का मुद्दा
भारत समेत जिन पांच देशों में ये सर्वेक्षण किया गया है उनमें से 80 प्रतिशत लोगों ने माना है कि वर्ष 2011 में खाने की बढ़ती कीमतें उनके लिए चिंता का अहम मुद्दा रहा है.
इनमें से एक तिहाई अभिभावकों ने कहा कि उनके बच्चे कम भोजन मिलने की शिकायत करते हैं.
सर्वेक्षण के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु
  • भारत में सर्वेक्षण में शामिल 24 प्रतिशत लोगों के अनुसार उनके यहां 16 साल से कम उम्र के बच्चों को अक्सर भूखे रहना पड़ता था.
  • 29 प्रतिशत लोगों ने उनके बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने की शिकायत की है.
  • 27 प्रतिशत लोग हर हफ्ते अपने बच्चों के लिए मांस, दूध और सब्ज़ी नहीं खरीद सकते हैं.
  • 66 प्रतिशत लोगों ने माना कि पिछले पूरे साल खाने की बढ़ती कीमतों से वो चिंतित रहे हैं.
  • 29 प्रतिशत लोगों ने परिवार के लिए खरीदे जाने वाले राशन में कटौती करनी शुरु कर दी है.
  • 17 प्रतिशत लोगों ने परिवार के लिए खाना जुटाने के लिए अपने बच्चों की स्कूल छुड़वा कर उन्हें काम पर लगा दिया है.
भारत में किए गए इस सर्वेक्षण में शामिल परिवारों को चुनाव आयोग की सूची से बिना किसी क्रम के चुना गया था.
सहायता एजेंसी 'सेव चिल्ड्रेन' की कार्यकारी अधिकारी जैसमिन व्हिटहेड ने बीबीसी से खास बातचीत में बताया, ''ये बहुत ही चिंताजनक है कि एक तेज़ी से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था के बावजूद भारत, नाइजीरिया के बाद दूसरा देश है जहां सर्वेक्षण में शामिल एक चौथाई अभिभावकों ने कहा कि उनके बच्चों को अक्सर भूखे रहना पड़ता है.''
व्हिटहेड ने आगे कहा,'' हालांकि भारत की बढ़ती जनसंख्या भी इसकी एक वजह है क्योंकि अगर किसी गरीब दंपति के तीन बच्चे हैं तो उनके लिए खाने का इंतज़ाम करना ज़्यादा मुश्किल है, बनिस्बत उस दंपति के जिनके एक या दो बच्चे हैं लेकिन इसके बाद भी असल वजह खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें ही हैं.''
खाने की चीज़ों के बढ़े हुए दामों के कारण भारत के गरीब बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं और उनका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पा रहा है.
बीमारियाँ
उनके खाने में होने वाली ये कमी उनके दिमाग और शरीर में कई तरह की कमियों को पैदा कर रही है जिससे वे या तो हमेशा के लिए शारीरिक या मानसिक दुर्बलता के शिकार हो सकते हैं या बचपन से जुड़ी अन्य बीमारियों से ग्रस्त.
'सेव दे चिल्ड्रेन' ने आशंका जताई है कि अगर जल्द ही इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाए गए तो अब से पंद्रह साल बाद पूरी के दुनिया के 50 करोड़ बच्चों का शारीरिक या मानसिक विकास पूरी तरह से रुक सकता है.
ये जानकारियां सर्वे के बाद सेव चिल्ड्रन द्वारा जारी की गई रिपोर्ट – लाइफ़ फ़्री फ़्रोम हंगर: टेकलिंग चाइल्ड मालन्यूट्रीशन’ - से सामने आई हैं.
"ये बहुत ही चिंताजनक है कि एक तेज़ी से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था के बावजूद भारत में सर्वेक्षण में शामिल एक चौथाई अभिभावकों ने कहा कि उनके बच्चों को अक्सर भूखे रहना पड़ता है'"
जैसमिन व्हिटहेड, कार्यकारी अधिकारी, सेव चिल्ड्रेन
सेव चिल्ड्रन’ के अनुसार बढ़ते दामों ने कुपोषण की स्थिति को और बिगाड़ दिया है और इससे बाल-मृत्यु दर को कम करने के प्रयासों को आघात पहुंच सकता है.
सहायता एजेंसी ने कहा है कि अगर इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई तो आने वाले 15 सालों में 50 करोड़ बच्चे शारीरिक और दिमागी तौर पर अविकसित रह जाएंगे.
सेव चिल्ड्रन’ ने ये सर्वे अंतरराष्ट्रीय पोलिंग एजेंसी ग्लोबस्कैन द्वारा उन पांच देशों में करवाया है जहां दुनिया के आधे कुपोषित बच्चे रहते हैं.
एजेंसी ने पाया है कि बीते एक साल में 25 करोड़ माता-पिता ने अपने परिवार के भोजन में कटौती की है.
सर्वे किए गए लोगों में एक तिहाई माता-पिता ने कहा है कि उनके बच्चे उनसे अपर्याप्त भोजन मिलने की शिकायत करते हैं.

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