भारत में एक साल में नौ लाख नवजात शिशुओं की मौत
विश्व स्वास्थ्य संगठन और बच्चों
के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘सेव द चिल्ड्रन’ की एक
संयुक्त रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर पूरे
विश्व में सबसे ज़्यादा है.
विश्व में नवजात शिशुओं की मौत के 99 प्रतिशत
मामले विकासशील देशों में होती हैं. वर्ष 2009 में पूरे विश्व में आधे से
ज़्यादा नवजात शिशुओं की मृत्यु पांच देशों में हुई – भारत, नाइजीरिया,
पाकिस्तान, चीन और कोंगो में.भारत में ये आंकड़ा सबसे ज़्यादा पाया गया जहां 2009 में नौ लाख नवजात शिशुओं ने पैदा होने के एक महीने के भीतर दम तोड़ दिया.
विश्व में होने वाली कुल नवजात शिशु मृत्यु के मामलों में से मृत्यु के 28 प्रतिशत मामले भारत में दर्ज होते हैं.
हालांकि केवल भारतीय तस्वीर को ही आंका जाए, तो यहां पिछले 20 वर्षों में नवजात शिशु मृत्यु दर में गिरावट आई है.
शिरीन मिलर - बीबीसी से:
भारत सरकार ने भले ही गर्भवती महिलाओं
के लिए नई योजनाओं की घोषणा की हो, लेकिन सच्चाई ये है कि ग्रामीण क्षेत्र
में स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों की हालत बदतर है. इसलिए वे घर पर ही
बच्चा पैदा करना पसंद करती हैं. दूसरी बात ये है कि ग्रामीण अस्पतालों में
स्वास्थय कर्मचारियों को रवैया ग़रीबों के प्रति बेहद उदासीन है, जिसके
कारण वो लोग वहां जाना पसंद नहीं करते. तीसरी बात ये कि लोगों को सरकारी
योजनाओं और अपने हक़ के बारे में जानकारी ही नहीं है. ऐसे में ये स्थिति तो
उत्पन्न होनी ही थी.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 1990 में जहां 13 लाख से ज़्यादा नवजात शिशुओं की मौत हुई, वहीं 2009 में नौ लाख मौतें दर्ज की गई.
सेव द चिल्ड्रन की पॉलिसी और एडवोकेसी विभाग की निदेशक शिरीन मिलर सरकार की नाकाम होती योजनाओं को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराती हैं.
बीबीसी संवाददाता शालू यादवा से बातचीत में उन्होंने कहा, "भारत सरकार ने भले ही गर्भवती महिलाओं के लिए नई योजनाओं की घोषणा की हो, लेकिन सच्चाई ये है कि ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों की हालत बदतर है. इसलिए वे घर पर ही बच्चा पैदा करना पसंद करती हैं. दूसरी बात ये है कि ग्रामीण अस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मचारियों को रवैया ग़रीबों के प्रति बेहद उदासीन है, जिसके कारण वो लोग वहां जाना पसंद नहीं करते. तीसरी बात ये कि लोगों को सरकारी योजनाओं और अपने हक़ के बारे में जानकारी ही नहीं है. ऐसे में ये स्थिति तो उत्पन्न होनी ही थी."
वैश्विक आंकड़े
हालांकि रिपोर्ट में सामने आया है कि 1990 और 2009 के बीच वैश्विक नवजात शुशु मृत्यु दर में 28 प्रतिशत की गिरावट आई है.जहां 1990 में हर 1000 नवजात शिशुओं में से 33.2 शिशुओं की मौत हुई, वहीं 2009 में ये अनुपात 23.9 पर पहुंचा.
अगर साधारण अंकों में बात की जाए, तो 1990 में विश्व भर में 46 लाख नवजात शिशुओं की मौत हुई, जबकि 2009 में 33 लाख मौतें दर्ज की गई हैं.
हालांकि वैश्विक आंकड़े में गिरावट तो दर्ज की गई है, लेकिन चिंता इस बात पर जताई गई है कि नवजात शिशुओं को बचाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की गति धीमी है.
ताज़ा रिपोर्ट में पाया गया है कि 99 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मौत विकासशील देशों में होती हैं.
नवजात शिशुओं की ज़िंदगी बचाना संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों का एक हिस्सा है.
कारण
रिपोर्ट में नवजात शिशु मृत्यु के पीछे तीन मुख्य कारण बताए गए हैं. वे हैं – समय के पूर्व शिशु का जन्म होना, एस्फ़िक्सिया यानि सांस न ले पाना, तरह तरह के इंफ़ेक्शन जैसे कि सैप्सिज़ और निमोनिया.रिपोर्ट के संपादक का कहना है कि अगर जन्म के समय साफ़-सफ़ाई पर ध्यान दिया जाए और जन्म के बाद मां को सलाह दी जाए कि वो बच्चे को अपना ही दूध पिलाए, तो नवजात शिशुओं की जान बचाई जा सकती है.
तमाम कोशिशों के बावजूद नवजात शिशु के स्वास्थय से जुड़े मुद्दे कहीं पीछे रह गए हैं. सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पाने में केवल चार साल बाकी हैं. ऐसे में हमें इस विषय पर ज़्यादा ध्यान देना होगा.
डॉक्टर फ़्लैविया बुस्त्रेओ, विश्व स्वास्थय संगठन
रिपोर्ट के निष्कर्ष में भी कहा गया है कि अगर सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पाना है, नवजात शिशु मृत्यु दर के मुद्दे को ज़्यादा गंभीरता से संबोधित करने की ज़रूरत है.
हर साल 80 लाख से ज़्यादा बच्चे अपने पांचवें जन्मदिन से पहले अपनी जान गंवा देते हैं और इनमें से ज़्यादातर मौतें विकासशील देशों में होती हैं, जहां बीमारियों का इलाज लोगों को उपलब्ध नहीं हो पाता.
साल 2000 में विश्व भर के देशों ने प्रण लिया था कि वे 2015 तक बाल मृत्यु दर में सार्थक कमी लाने की कोशिश करेंगें.
रिपोर्ट में लिखा है कि हालांकि पिछले कुछ सालों में बाल मृत्यु दर में कमी आई है, लेकिन सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए ये नाकाफ़ी है.
ख़ासतौर पर नवजात शिशुओं की बात की जाए, तो उनके स्वास्थ्य पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है. फ़िलहाल पांच साल तक के बालकों में से 41 प्रतिशत बच्चे अपने पहले महीने में ही दम तोड़ रहे हैं.
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