शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

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शासक जातियांे ने हमेशा मूलनिवासियों के खिलाफ बजट में षड्यंत्र किया है-मा.वामन मेश्राम
वाराणसी/दै.मू.समाचार
राष्ट्रव्यापी जनजागरण अभियान के अंतर्गत बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा का संयुक्त मण्डल स्तरीय अधिवेशन दिनाँक 25/09/14 को नगर निगम प्रेक्षागृह, सिगरा वाराणसी मंे अभूतपूर्व सफलता के साथ सम्पन्न हुआ इस विशाल कार्यक्रम का उद्घाटन मा. छांगूर प्रसाद मौर्य (जिला उद्यान निरीक्षक गाजीपुर) ने किया इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मा. मोहम्मद नसरूल्ला अन्सारी (सेवानिवृत्त, मुख्य सेवाधिकारी, बी.एस.एन.एल) एवं प्रोफेसर अशोक कुमार (डी.सी.एस.के. डिग्री कालेज मऊ) रहें। तथा विशिष्ट अतिथि मा. अनुपति यादव (पूर्ण न्यायधीश जौनपुर) थे। इस विशाल अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए मा. छाँगुर प्रसाद मौर्य (जिला उद्यान निरीक्षक गाजीपुर) ने कहा कि शाासक वर्ग यूरेशियन  है  शासक वर्ग देश में सत्ता पर काबिज होकर अल्पसंख्यक होकर हमें अल्प संख्यक घोषित करता यह कितने विडम्बना की बात आज जो देश में आतंकवाद की समस्या हैं यह इन्ही यूरेशियन ब्राह्मणों की देन हैं इसी आतंकवाद के नाम पर वह मुसलमानों का कत्लेआम करके खत्म करना चाह रहा हैं जबकि सच्चाई यह हैं कि 3.5 प्रतिशत शासक वर्ग 15 प्र्रतिशत मुसलमानों को अल्पसंख्यक घोषित कर रहा हैं और अपने आपको शासक घोषित कर रहा हैं जिसे हमारा समाज नही समझ रहा हैं। इसी कड़ी में मा. प्रो. अशोक कुमार (डी.सी.एस.के डिग्री कालेज) ने कहा कि शासक वर्ग पढ़े-लिखे बेरोजगारो को सिर्फ कौशल विकास प्रशिक्षण का लाॅलीपाॅप दिखा रहा हैं जब कौशल विकास प्रशिक्षण पूरे भारत के शिक्षित युवाओं का सत्यानाश करने का मिशन हैं।
 क्योंकि इसकी आड़ में शासक वर्ग सरकारी क्षेेत्र का निजीकरण कर रहा है। इस कार्यक्रम को प्रबोधन करते हुए मा. अनुपति यादव (पूर्व न्यायधीश) ने कहा कि आज न्यायिक प्रक्रिया पूरी तरह से इन्ही यूरेशियन ब्राह्मणांे के नियन्त्र में इसीलिये हमारे मूलनिवासी समाज को न्याय मिलने में बहुत समय लग जाता हैं क्योंकि कानून अर्थात न्यायपालिका इन्ही यूरेशियन ब्राह्मणों के घर बन्धुआ मजदूर हैं। जो लगातार 85 प्रतिशत मूलनिवासियों के खिलाफ हमेशा ही निर्णय देती रही हैं और आज भी दे रही हैंै। भारत मंे इस समय करीब 3 करोड़ मुद्दे मे विचाराधीश हैं जिसमें से 90 प्रतिशत मुकदमे मूलनिवासियांे के हैं। इस विशाल अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए मा. वामन मेश्राम साहब (राष्ट्रीय अध्यक्ष, बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा) ने अपने प्रबोधन में कहा कि शासक वर्ग ने संसद में जो बजट आज तक पेश किया है उसमें मूलनिवासी समाज को उनकी संख्या मंे बजट में हिस्सा नहीं दिया जा रहा हैं अभी हाल ही मंे संसद में जो बजट पेश हुआ इस बजट में अलग अलग तरह की योजनाऐं बनाई गयी हैं मगर शासक वर्ग ने इन योजनाओं को लागू करने के लिए बहुत ही कम धन राशि का प्रावधान किया गया हैं केन्द्र सरकार के द्वारा 1794892 करोड़ का बजट पास किया अर्थात देश के कल्याण के लिए  भारत ने 1794892 हजार करोड़ का धन रखा जिस में करीब 12 लाख करोड़ से अधिक का धन जनता से टैक्स के रूप में अर्जित किया हैं और 6 लाख करोड़ रूपये का कारपोरेट घरानों को राहत देने के लिए पैकेज दे दिया हैं और देश को अन्न पैदा करके खिलाने वाले किसानांे के लिए इस मोदी सरकार ने 15531 करोड़ किसानों के कल्याण के लिए रखा हैं इस समय देश में खेती करने वाले लोगो की संख्या 62 करोड़ हैं यदि इस धन राशि में 62 करोड़ का भाग दे दिया जाय तो भारत सरकार की असलियत सामने आ जाती हैं जिसमें केन्द्र की नई मोदी सरकार प्रत्येक किसान के ऊपर 185/वर्ष रूपये कल्याण के लिए रखा इसी से केन्द्र सरकार की बेरोजगारो के लिए सुरक्षा एवं रोजगार के लिए इसी प्रकार से बहुत ही कम राशि रखी गयी ऐसा कार्य शासक वर्ग क्यों कर रहा हैं शासक वर्ग नहीं चाहता कि यहाँ केे मजदूरो और किसानो की हालत कभी ठीक न हो क्योंकि यही उसकी व्यवस्था के लिए हित में है इन षड्यन्त्रों की जानकारी हमारे समाज को ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कारण हो ही नही पाती हैं। इस कार्यक्रम को मा. प्रोफेसर एस.के.गौतम, मा. शिवमोहन श्रीवास्तव (प्रदेश अध्यक्ष बामसेफ), मा. प्रो. ज्ञानदास अम्बेडकर (इण्ीण्न), प्रो. धीरेन्द्र पटेल, मा. चन्द्रकान गुप्ता, मा. मुन्नीलाल (संगीत शिक्षक), आयु. सुभावती (प्रधानधयापिका ) तथा मा.गजराज रावत  (सुपरवाइजर) ने भी सम्बोधित किया। इस कार्यक्रम के अन्त में वाराणसी मण्डल यूनिट ने मा. राष्ट्रीय अध्यक्ष जी को दो फुलटाईमर तथा 1 लाख 31 हजार रूपये आन्दोलन निर्माण निधि के रूप में भेट किया इस कार्यक्रम को सफल बनाने में उद्धव प्रसाद (मण्डल महासचिव बामसेफ) डा. केशव प्रसाद, प्रो. आर.आर.इण्डियन, अमित सेठ, मनीष सोनकर, पप्पू (जिलाध्यक्ष मजदूर संघ) रानी गौतम, आयु रिकूं एडवोकेट, रामराज, रमाकान्त जायसवाल, अजय शास्त्री आयु. विद्या देवी का विशेष योगदान रहा।

रविवार, 21 सितंबर 2014

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हापुड़/दै.मू.समाचार
दिनांक 18/09/2014 को बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा का संयुक्त ऐतिहासिक मेरठ मण्डल का अधिवेशन गाँधी सीनियर बेसिक स्कूल आदर्शनगर काॅलोनी, हापुड़ के प्रांगण में बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष माननीय-वामन मेश्राम साहब जी की अध्यक्षता में
सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन का उदघाटन डाॅ.अयूब मंसूरी (प्रवक्ता-जमात ए इस्लामी हिन्द) ने किया और उन्होंने कहा कि साथियों जब आंग्रेजो से गाँधी ने हम लोगों से साथ सहयोग लेकर भारत को आजाद कराया जब मुस्लिम समाज के 33 प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी में थे और देश के आजादी में 67 वर्ष में से करीब 55 वर्ष कांग्रेस का शासन रहा है ओैर हम सभी ने कांग्रेस को वोट दिया है। इस 67 वर्ष की आजादी में यदि वर्तमान में देखें तो मुलसमान आज मात्र लगभग एक प्रतिशत सरकारी नौकरी में है। मुस्लिम समाज में भी यदि ओबीसी मुस्लिम जो भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 9 प्रतिशत है, उसकी स्थिति और भी खराब है। साथियों इतना विकास किया है इन शासक वर्ग या ब्राह्मणों ने विकास किया है। आज यदि आप देखें तो ब्राह्मण देश में अल्पसंख्यक हैं और देश में जगह-जगह पर विस्फोट करा रहा है और बदनाम मुस्लिमांे को किया जा रहा है। आज हमारे समाज के सबसे ज्यादा लोग जेलों में, अस्पतालों में, आपको देखने को मिलेगे। सच्चर कमीशन ने भी यह खुलासा किया है कि आज भारत में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति से भी बदŸार हो गयी है। साथियों यदि आप अपनी स्थिति में सुधार करना चाहते हैं तो देश में बामसेफ के द्वारा चलाये जा रहे जनआन्दोलन में हम सब को साथ-सहयोग करना होगा।
इस अवसर पर माननीय चै. नरेन्द्र कुमार ग्राम-प्रधान दादरी ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि साथियों आज भी भारत में ओबीसी की स्थिति बद से बदतर है ब्राह्मण कभी नहीं चाहता कि देश में ओबीसी को हक अधिकार मिलें। भारत मंे यदि हमें किसी ने कुछ दिया है तो वे डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जी हैं जिन्होंने संविधान लिखते समय सबसे पहले ओबीसी के लिए आरक्षण के लिए अनुच्छेद 340, अनुसूचित जाति के लिए 341 तथा अनुसूचित जनजाति के लिए 342 लिखा। तब नेहरू ने संविधान सभा में डाॅ. अम्बेडकर से कहाकि ये ओबीसी वर्ग क्या है? तुम केवल अपनी बात करो। यदि वर्तमान में देखा जाये तो 52 प्रतिशत पिछड़ी जाति को 1992 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने 27 प्रतिशत आरक्षण दिया परन्तु उसमें इन्हींे ब्राह्मणी सोच के लोगों ने क्रीमीलेयर लगाया। साथियों अभी तो ओबीसी के बहुत सारे लोगों को क्रीमीलेयर का मतलब भी पता नहीं है। साथियों 22 वर्ष पहले जब हमारे लिए आरक्षण लागू किया गया। उस समय पिछड़ी जाति सरकारी नौकरी में 3.7 प्रतिशत थे परन्तु इन 22 वर्षों में कितनी वृद्धि हुई मात्र 1 प्रतिशत वृद्धि। इस प्रकार से 27 प्रतिशत आरक्षण पूरा करने में 270 वर्ष और 52 प्रतिशत पिछड़ी जाति को 540 वर्षों तक अभी और इंतजार करना होगा यही है हमारी प्रगति रिर्पोट। साथियों बामसेफ ने जाति आधारित जनगणना का अभियान 2010-11 में चलाया और विषय बनाकर पूरे देश में चर्चा करायी। यदि अब ओबीसी वर्ग जागता है और उसको अपना हक एवं अधिकार लेना है। तो बामसेफ व भारत मुक्ति मोर्चा के आन्दोलन में साथ-सहयोग करना होगा आशा है साथ सहयोग करेंगे।
इस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए मा.वामन मेश्राम साहब ने इस अवसर पर कहा कि यह मण्डलीय महाअधिवेशन हापुड़ जनपद के हापुड़ नगर के आदर्शनगर काॅलोनी में किया जा रहा है और अधिवेशन का विषय इलेक्ट्राॅनिक वोटिंग मशीन (ई.वी.एम.) के द्वारा चुनावी लोकतंत्र की हत्या एवं मानव अधिकारों का उल्लंघन एक बहस पर जानकारी देने से पूर्व वेद प्रकाश (पूर्णकालिक प्रचारक,
बामसेफ) की निर्मम हत्या करने वालों को हम छोड़ने वाले नहीं है। हम उनके हत्यारों को जब तक सजा नहीं मिल जाती तब तक
हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक नहीं छोड़ेंगे। इसमें चाहे जो खर्च आए हम संगठन के लोग उसे वहन करेंगे और वेद प्रकाश के परिवार को पूर्ण संरक्षण देंगे। उन्होंने हापुड़ में सभी कार्यकर्ताओं को तत्काल उसके बच्चों को परिवार की आर्थिक मदद करने को कहा और बच्चे का 1 लाख का बीमा कराने की संगठन के कार्यकर्Ÿााओं ने जिम्मेदारी ली और बच्चे की समस्त पढ़ाई का खर्चा भी संगठन लेता है।
विषय पर जानकारी देते हुए कहा कि साथियों वर्तमान में जो 16वीं लोकसभा का चुनाव हुआ है। इस चुनाव के परिणाम सभी अखबारों और टी.वी. चैनलों में ये विश्लेषण आ रहा था। कि इस चुनाव में सप्रग व एन.डी.ए. घटक दलों को पूर्ण बहुमत मिलने वाला नहीं है। तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी फिर ऐसा कैसे हो गया कि बसपा, सपा, बीजू जनता दल, लोजपा, लोकदल, यानि सभी मूलनिवासियों की पाट्रियों की सीटें घटी हैं और कुछ पार्टियों का तो अपना अस्तित्व बचाने के लिए वर्तमान में संघर्ष करना पड़ रहा हैं। साथियों अभी जो चुनाव हुआ उसमें ई.वी.एम इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से हुआ जबकि इस मशीन को बनाने वाले देश जापान में खुद पेपर टेªल वोंटिग मशीन के द्वारा होता हैं, जर्मनी, फ्रंास, आस्ट्रेलिया, नार्वे, स्वीडन, रूस, चीन आदि देशों में चुनाव बैलेट पेपर से होता हैं।  ये भारत से ज्यादा विकसित देश भी ई.वी.एम. से चुनाव नही कराते क्योंकि वहाँ के लोगों को पता हैं कि इस वोेंटिग मशीन में गड़बड़ी की जा सकती है। इसलिए उन्हें इस पर भरोसा नही हैं इसलिए वहाँ चुनाव बैलेट पेपर से होता हैं। जबकि भारत में ब्राह्मणों ने वोटिग मशीन में चुनाव आयोग द्वारा गड़बड़ी कराकर लोकतंत्र की हत्या कर दी हैं। इस मशीन को चैलेंज करते हुए हरिप्रसाद नाम के साॅफ्टवेयर इंजीनियर ने कहा कि मै आपके सामने दूर बैठकर इस मशीन में पड़े वोटों को बदला सकता हूँ। भारत की सरकार ने प्रोत्साहन देने के बजाय उसे महाराष्ट्र मे बुलाकर जेल में डाल दिया।अध्यक्ष जी ने लोगों को समझाते हुए कहा कि जब हम दुकान से सामान खरीदते हैं ए.टी.एम. से पैसे निकालते है तो मशीन से पर्ची निकलती है। इस प्रकार यदि हम अपनी वोट किसी भी पार्टी को देते हैं तो हमें ई.वी.एम. मशीन से पता चलना चाहिए कि हमने जो बटन दबाया क्या मेरा वोट उसी को गया जिसके सामने का बटन दबाया था परन्तु भारत के चुनाव आयोग ने इस दिशा में काम नहीं किया बल्कि कहा कि सरकार इस पर आने वाले खर्च की वहन नहीं कर सकती। इसलिए साथियों इस दिशा में हम लोग काम कर रहें हैं कि चुनाव मंे पेपर ट्रेल मशीन का प्रयोग किया जाये क्योंकि 16वीं लोकसभा में बहुत बड़ी संख्या में गड़बड़ी की गयी इसलिए हमने इस गड़बड़ी को भारत के 6 लाख गाँवों तक जानकारी देनी होगी। तभी लोकतंत्र पुनः स्थापित हो सकता हैं। हमें इस काम को पूरे भारत के प्रत्येक नागरिक को यह जानकारी पहुँचाने का कार्य करेंगे जिस से भारत मंे लोकतंत्र स्थापित हो। उसके लिए कार्य करेंगे इसके लिए आप लोगों को
बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा का साथ-सहयोग करना होगा।
कार्यक्रम में मा. सोमवीर सिंह नागर, वेद प्रकाश केन, महिपाल सिंह, टेक चंद, जयपाल सिंह यादव, डाॅ. सीमा निगम, चैधरी नरेन्द्र कुमार आदि ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये। मंच का संचालन डाॅ. अरूण कुमार ने किया और कार्यक्रम के अंत में समापन सूरजपाल सिंह मण्डल अध्यक्ष,
बामसेफ ने कार्यक्रम में आये सभी लोगों, पुलिस प्रशासन के सहयोग कर्ताओं को धन्यवाद देते हुए किया। इस अधिवेशन में ओमपाल सिंह, मिथलेश रानी, प्रमोद कुमार, हीरालाल, राजवीर सिंह, मुकेश कुमार (रेलवे), विनोद कुमार, सिद्धार्थ राव गौतम, नन्दलाल, डाॅ. अशोक कुमार, डाॅ. संजय पाल सिंह, सूरज खरवार, जौनी, मुकेश कुमार (एड.) चंचल कुमार, गजेन्द्र सिंह, हिटलर (एड.), एस.एस.निप्रा, विक्रम सिंह, अंशुल सावंत, राहुल कुमार, रविन्द्र कुमार, प्रेम दिनकर, आर.बी. सिंह, रमेश चंद, शक्ति सिंह, हरि रत्न गौतम, दिनेश कुमार, रामश्रंगार बौद्ध, हरीश गौतम ने अधिवेशन में सहयोग किया। इस अधिवेशन में हजारों की संख्या में लोग विभिन्न जनपदों तथा हापुड़ के कार्यकत्र्ता उपस्थित रहें। इस अवसर पर सभी जिलांे से माननीय राष्ट्रीय अध्यक्ष जी को 2 लाख 10 हजार रूपये का जन आंदोलन निर्माण निधि के रूप भेंट किया गया।

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सहारनपुन/दै.मू.समाचार
राष्ट्रव्यापी जन-जागरण अभियान के अतंर्गत सहारनपुर में बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा का संयुक्त मण्डलीय अधिवेशन दिनाँक 17 सितम्बर 2014 को सन्त रैदास छात्रावास, देहरादून रोड़, सहारनपुर में भारी सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। इस विशाल  मण्डल स्तरीय अधिवेशन के उद्घाटक मा. डा. रोशन लालजी (से.नि.पुलिस अध्यीक्षक) रहंे। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता मा. वामन मेश्राम साहब (राष्ट्रीय अध्यक्ष बामसेफ, भारत मुक्ति मोर्चा) ने की। इस विशाल अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए मा. रोशन लालजी (से.नि.मुख्य चिकित्सा अधिकारी) ने कहा कि भारत में आज तक जितनी सरकारे बनी वे सभी शासक वर्ग की ही रही हैं इन सरकारों ने जो बजट तैयार किया वह केवल पूंजीपतियों के लिये बनाया हैं इस तैयार बजट का 90 प्रतिशत धन केवल शाासक वर्ग अपने लोगों को रईस बनाने के लिए रखा जाता हैं जिसके आज के समय में जितने भी पूंजीपति हैं वे सभी शासक वर्ग के ही लोग  है। जिन्होने देश में लोकतन्त्र स्थापित करके अपने तथा कथित लोगों को मालामाल बनाने के काम किया हैं। इसी कड़ी में आगे अपने प्रबोधन में मा. के.के.पुष्कर (से.नि.पुलिस अधीक्षक) ने कहा कि देश की सत्ता पर काबिज शासक वर्ग ने सन् 2014 का जो बजट लोकसभा में पारित किया जिसमें मूलनिवासी समाज कल्याण तथा उत्थान के लिए कुछ भी नही किया हैं। इसलिए यह खूनी बजट है जिसके माध्यम से मूलनिवासी समाज की हिस्सेदारी समाप्त करने का षड्यन्त्र कर रहा हैं। शासक वर्ग ने देश की तथा कथित आजादी से आज तक मूलनिवासी समाज की समस्याओं का समाधान करने के बजाय उनको जानबूझकर पैदा कर रहा हैं। इसी विशाल अधिवेशन को अपने अध्यक्षीय प्रबोधन करते हुए मा.वामन मेश्राम साहब (राष्ट्रीय अध्यक्ष
बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा) ने कहा कि शासक वर्ग यदि यूरेशियन ब्राह्मणों ने इस देश में धोखेबाजी से अपनी सत्ता एवं व्यवस्था को कायम करके रखा हुआ शासक वर्ग ने हमेशा ही अपनी सत्ता कायम रखने के लिए सबसे पहले वैलेट बोक्स में छेड़खानी करके अपनी सत्ता का गलत इस्तेमाल किया जिसमें वोट पड़ने वाले वैलेटपेपर से भरे बक्सो को खाली करके एक ही पार्टी के समर्थन में अपने लोगों के द्वारा मुहर लगाकर वैलेटपेपर डाल दिया जाता था। इसके बाद शासक वर्ग ने अपनी सत्ता एवं वर्चस्व को बचाने के लिए बूथ केप्चरिंग का सहारा लिया इन षड्यन्त्रों की जानकारी हमारे मूलनिवासी लोगों को आज तक नहीं है। जबकि इसकी जानकारी 85 प्रतिशत मूलनिवासियों को होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि जानकारी ही सबसे बड़ा हथियार हैं इसी षडयन्त्र के तहत शासक वर्ग ने अब धोखेबाजी का एक नया फण्डा अपनाया है जिसे हम इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन कहते हैं जबकि इस वोटिंग मशीन का प्रयोग इस देश में शुरू होने वाला था तभी तुरन्त ही हैदराबाद के एक्सपर्ट हरिप्रसाद जी ने सबसे पहले यह अशंका व्यक्त किया कि इस मशीन में गडबड़ी हो सकती है तो इस षडयन्त्र की जाँच कराने की वजाय इस षडयन्त्र को उॅजागर करने की अर्थात सच बोलने पर इस शासक वर्ग यानि यूरेशियन ब्राह्मणों ने हरी प्रसाद (जो की हैदराबाद के रहने वाले हैं) को इन बदमास लोगों ने जेल में डाल दिया। जो आज भी जेल में हैं। इसका प्रमाण 16 वीं लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला क्योकि इस चुनाव में यह कोई भी आदमी नहीं कह रहा था कि इस लोकसभा चुनाव में भाजपा की सरकार बनने वाली है सभी लोग यह कह रहे थे कि देश में तीसरे मोर्चा की सरकार बनने वाली है जिससे इन विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों की बड़ी तकलीफ हुई उसका उन्होंने काट ढुढना शुरू किया 16 मई 2014 को आये चुनाव परिणामों से सबको आश्चर्य हुआ सभी लोग हैरान रह गये जब इसका विश्लेषण किया गया तो पता चला कि शासक वर्ग ने वोटिंग मशीन में गड़बड़ी करके अपनी सत्ता को बचाया है। दुनिया के जिन देशों ने इस वोटिंग मशीनों को बनाया है उन्हीं देशो में ही इनका चुनाव में उपयोग नही होता हैं क्योंकि आज अमेरिका, जापान, अस्टेªलिया, सिंगापुर आदि विकसित राष्ट्रों में इसी ई.वी.एम. का प्रयोग नहीं किया जाता है क्योंकि वहाँ की मूलनिवासी जनता को इस वोटिंग मशीन पर विश्वास ही नहीं है इसलिये वहाँ पर इनका प्रयोग नहीं होता है। लेकिन हमारे देश में इन ई.वी.एम. का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है जबकि इसमे यहाँ पर गड़बड़ी की आशंका व्यक्त की जा चुकी है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में भी इस प्रकार की याचिका का फैसला तमाम विशेषज्ञों के द्वारा ई.वी.एम में होने वाली गड़बड़ी को सत्यापित किया और भारत निर्वाचन 8 अक्टूबर 2013 को आदेश दिया कि इस वोटिंग को बगैर वोट सत्यापन के प्रावधान किये यूज न किया जाये तो फिर भी भारत निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में इस बात का शपथ पत्र दिया कि चुनाव में पेपर टेªल वाली वोटिंग मशीनों का उपयोग किया जायेगा। लेकिन भारत निर्वाचन आयोग ने 16वंी लोकसभा चुनाव मंे सुप्रीम कोर्ट के आदेश की परवाह न करके बिना वोट प्रमाणित करने वाली मशीन यूज किया नतीजा आपके सामने है। इस कार्यक्रम मंे भारी संख्या मंे लोगांे की उपस्थित रही है। इस कार्यक्रम के अन्त में माननीय राष्ट्रीय अध्यक्ष जी को आन्दोलन निर्माण निधि के रूप में 2 लाख रूपये की थैली भेंट की गयी।
देश मंे 85 प्रतिशत मूलनिवासियांे की बढद्य़ती जाग्रति से शासक वर्ग यानि यूरेशियन ब्राह्मणांे के बेचैनी हो रही है। दिनांक 17/9/2014 को  बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा का संयुक्त मण्डल स्तरीय अधिवेशन सन्त रविदास छात्रावास, सहारनपुर मंे ऐतिहासिक सफलता के साथ सम्पन्न हुआ इस कार्यक्रम अधिवेशन का उद्घाटन मा.विक्रम चन्द्र (से.जिला गन्ना अधिकारी) ने किया इस कार्यक्रम मंे मुख्य अतिथि मा.के.के.पुष्कर (से.नि.पुलिस अधीक्षक) एवं विशेष अतिथि मा.सत्यवीर आर्य (प्रधानाचार्य, भूतेश्वर इण्टर काॅलेज सहारनपुर) रहे। वक्ता के रूप में मा. बृजगोपाल (प्रान्तीय महामंत्री शिक्षक संगठन), मा.सीताराम सहगल (जिलाध्यक्ष शिक्षक संगठन) मा.सोमवीर नागर (क्षेत्रीय अध्यक्ष रोडवेज) मा.अमल्का अख्तर, मा. इंजि.अजीत सिंह, मा.अतर सिंह के साथ बामसेफ प्रदेश प्रभारी सचिन तोरणे, मा.इंजि.डी.पी.सिंह, मा.राजेश्वर दयाल, मा.विनोद तेजियान (मण्डल को-आडिनेटर, बीएमपी) तथा मा.इन्तखा आजाद ने भी अधिवेशन को संबोधित किया। इस विशाल अधिवेशन की खास बात ये रही कि कार्यक्रम स्थल पूर्ण रूप से खचा-खच भरा हुआ था और लोग बसांे, टैक्टर-ट्राली तथा अन्य साधनांे एवं भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी को सुनने और मैदान में जगह न मिलने के कारण मुख्य मार्ग के दोनांे ओर खड़े होकर वक्ताओं के विचारांे को सुन रहे थे। इससे यह साबित होता है कि मूलनिवासी समाज मंे तेजी से जाग्रति बढ़ रही है। जिससे दुश्मन यानि यूरेशियन विदेशी ब्राह्मण की नींद  हराम हो रही है।
इस विशाल अधिवेशन का संचालन प्रेमचन्द्र योग ने किया इस कार्यक्रम को सफल बनाने मंे पूर्णकालि कार्यकर्ता गोपाल शाब्दी व अशोक कुशवाहा का विशेष योगदान तथा मा.चन्द्र किरण (मण्डल अध्यक्ष, बामसेफ) के द्वारा दूर दराज से आये महिला, युवा तथा पुरूषांे का धन्यवाद ज्ञापित किया।

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

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मध्य प्रदेष का 23 वाँ बामसेफ एवं राश्ट्रीय मूलनिवासी संघ संयुक्त राज्य अधिवेषन भारी सफलता के साथ सम्पन्न!
भोपाल/दै.मू.समाचार
बामसेफ एवं राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ म.प्र. का 23वाँ संयुक्त राज्य अधिवेशन दिनांक 14/09/2014 को गांधी भवन पाॅलीटेक्नीक चैराहा श्यामला हिल्स भोपाल में ऊपार सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। इस विशाल राज्य अधिवेशन का उदघाटन मा. आजाद सिंह हबास (आई.एफ.एस.) मुख्य वनरक्षक सागर ने किया, इस विशाल राज्य में मुख्य अतिथि मा. सरदार सिंह डंगरा (से.नि.आई.ए.एस) पूर्व अध्यक्ष पिछड़ावर्ग आयोग म.प्र. रहें तथा इस विशाल राज्य अधिवेशन की अध्यक्षता वामन मेश्राम (राष्ट्रीय अध्यक्ष, बामसेफ) ने की। इस विशाल राज्य अधिवेशन का उदघाटन करते हुये मा.आजाद सिंह हबास (आई.एफ.एस.) मुख्य वन रक्षक सागर 
म.प्र. ने कहा कि भारत में शासक वर्ग यानि यूरेशियन ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व ईमानदारी से स्थापित नहीं किया बल्कि अपनी व्यवस्था एवं वर्चस्व को बेईमानी, धोखे बाजी करके स्थापित किया हैं जो धोखेबाजी आज से नहीं बल्कि यह काम  सदियों से कर रहा है परन्तु आज के समय में उसका धोखेबाजी करने का तरीका बदल चुका है पहले वह छल, कपट का सहारा लिया और 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज की समतामूलक व्यवस्था को खत्म किया तथा आज के समय में उसने धोखा धड़ी से अपनी सŸाा का निर्माण किया अभी हाल में सम्पन्न 16वीं लोकसभा के चुनाव हुए लोकसभा चुनाव में इलैक्ट्रानिक वोटिंग में गड़बड़ी करके अपनी सत्ता को स्थापित किया है आज केन्द्र की सत्ता में स्थापित मोदी सरकार इसी इलेक्ट्रानिक धोखाधड़ी का नतीजा हैं जबकि लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान यह किसी ने नहीं सोंचा था। कि भाजपा सत्ता में आने वाली है लेकिन जो 16 मई को चुनाव नतीजे आये तो उन चुनाव परिणामों ने सबको आश्चर्य में डाल दिया जब इसका विश्लेषण किया तो उससे एक रहस्य सामने आया कि भारत में भारत निर्वाचन आयोग की साजिश ने भाजपा को सत्ता पर पहुँचाया है। इसी कड़ी में इस विशाल अधिवेशन को प्रबोधन करते हुए मा. सरदार सिंह डंगरा (से.नि.आई.ए.एस) पूर्व अध्यक्ष पिछड़ा वर्ग आयोग (म.प्र.) ने कहा कि भारत में इन यूरेशियन ब्राह्मणों की व्यवस्था यदि कायम है वह सिर्फ बेईमानी की वजह से हैं और यह धोखेबाजी तथा कथित रूप से पंण्डित जवाहरलाल नेहरू के समय से शुरू होकर आज तक बराबर चल रही है क्योंकि इस देश में किसी ने इस ब्राह्मणवादी सत्ता एवं व्यवस्था को फलने फुलने का मौका पंण्डित नेहरू ने दिया जिसने बगैर चुनाव लड़े करीब 6 वर्ष तक सत्ता में काबिज रहा जिसने संविधान लागू होने के बाद हुए प्रथम लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा टिकट ब्राह्मणों को देकर जितवाया और जितवाने के बाद लोकतन्त्र के इस पवित्र मन्दिर पर इन यूरेशियन ब्राह्मणों का कब्जा करवाया फिर ऐसे-ऐसे कानूनों का निर्माण किया कि सभी लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर इन यूरेशियन विदेशी ब्राह्मणों का कब्जा स्थापित हुआ जबकि यूरेशियन ब्राह्मण इस देश में मात्र 3.5 प्रतिशत हैं जो किसी भी कीमत में शासक नहीं बन सकता है और तो और ये लोग ग्राम पंचायत सदस्य का चुनाव तक किसी भी कीमत में नहीं जीत सकते है जिसकी जानकारी हमारे 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को नहीं है इस काम को हमारा 
बामसेफ राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ कर रहा है जिसके जन जागरण के लिए इन अधिवेशनों में मूलनिवासी बहुजन समाज के हित की चर्चाये की जाती है। और लागातार होती रहना चाहिए शासक वर्ग के इसी षडयन्त्र से 85 प्रतिशत मूलनिवासी एस.सी/एस.टी/ओबीसी तथा माॅयनोरिटी के लोगों की समस्याओं का समाधान होने की बजाय लागातार बढ़ रही है जो धोखा धड़ी से स्थापित सत्ता का नतीजा है इसी प्रकार से आज ये यूरेशियन ब्राह्मण हमारे आदिवासियों को गुलामी में बनाये रखने के लिए उनको जल जंगल जमीन के संवैधानिक अधिकार से वंचित करने का काम कर रहा है।
इस विशाल राज्य स्तरीय अधिवेशन को प्रबोधन करते हुए अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में वामन मेश्राम साहब ने कहा कि इस अधिवेशन में जो दो विषय चर्चा के लिए रखे गये हैं उन पर विस्तार चर्चा करना जरूरी है और चर्चा करना क्यों जरूरी है? क्योंकि चर्चा करने से मूलनिवासी समाज में जानकारी फैलती हैं आज के समय में देश में शासक वर्ग की अनियंत्रित सत्ता के चलते मूलनिवासियों को संवैधानिक अधिकारों को छीनने का कार्य क्रम शुरू किया है देश में विकाश के नाम पर तथा आर्थिक उन्नति के नाम पर आदिवासियों को अधिकार वंचित करने का कार्यक्रम चल रहा है जिस क्षेत्र में आदिवासियों की संख्या अधिक है वहाँ पर शासक वर्ग ने जो सवैधानिक प्रावधान है उनको आज तक लागू नहीं किया और अब अपने औद्योगिक तथा उद्योगपतियों को उस क्षेत्र में स्थापित करने के लिए विकाश के नाम पर उन निर्दोष भोलेभाले आदिवासीयों को जबरन उन क्षेत्रों से विस्थापित करने की नीति लागू कर रहा है। जबकि उन क्षेत्रों में शासक वर्ग संवैधानिक प्रावधान के अनुसार कोई भी कार्य वाही या गतिविधि करने का अधिकार नहीं रखता है ऐसे क्षेत्रों के लिए संविधान में 5वीं व 6वीं सूची का प्रावधान किया गया है जिसे शासक वर्ग ने आज तक लागू नहीं किया है और संविधान के उल्लंघन करते हुए उनकों जल, जंगल और जमीन के वास्तविक हक एवं अधिकार से वंचित कर रहा है। ऐसा शासक वर्ग क्यों कर रहा है क्योंकि इन क्षेत्रों में 89 प्रकार के खनिज तत्व पाये जाते है। जिनकी अन्तराष्ट्रीय बाजार में की मत अरबों खरबों में होती है। इसलिए शासक अपने लोगों को यहाँ स्थापित करने का षडयन्त्र करके अपने उच्च जातियों को मालामाल बनाना चाहता हैं जब ऐसी जगहों को आदिवासी खाली नहीं करते है तो 
नक्सलवाद के नाम पर उनको खत्म कर दिया जाता है यही शासक वर्ग के विकाश नीति की असलियत है। देश में शासक वर्ग ने अपनी सत्ता एवं व्यवस्था को कायम करने के लिए हमेशा ही कोई न कोई षड्यन्त्र किया है शासक वर्ग सत्ता पर कब्जा करने के लिए चुनाव में सबसे पहले रेंगिग का षडयन्त्र किया जिसमें चुनाव में जो वैलेट बाॅक्स वोट पड़ने के बाद जिला अधिकारी की देख रेख में रखे जाते है उसमें धोखा धड़ी करके उसमें पड़े वोटो को खाली करके नये वैलेट पेपर एक ही पार्टी के पक्ष में मुहर लगाकर डालदिये जाते थे जो एक प्रकार का षडयन्त्र था फिर उसके बाद शासक वर्ग ने सत्ता हासिल करने के लिए बूथ कैप्चरिंग का काम करके धोखेबाजी करने का काम किया और अब शासक वर्ग यानि इन यूरेशियन ब्राह्मणों ने 2009 से एक प्रकार धोखेबाजी का नया फण्डा निकाला है वह है ई-इलैक्ट्राकि, वी-वोटिंग, एम-मशीन अर्थात इलैक्ट्रानिक मशीन का षडयन्त्र किया है 16वीं लोकसभा के चुनाव में निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश उल्लंघन करके चुनाव में ई.वी.एम. का प्रयोग किया जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इलैक्ट्रनिक वोटिंग में मशीन हो सकने वाली गड़बड़ी को अपने सामने विशेषज्ञों को बुलाकर सत्यापन किया फिर उसने 8 अक्टूबर 2013 को एक निर्णय दिया कि चुनाव में इन इलैक्ट्रानिक मशीनों का प्रयोग न किया जायें यदि किया जाय तो पेपरट्रेल लगी मशीन का इस्तेमाल हो जिससे चुनाव पार्दर्शी एवं निष्पक्ष सम्पन्न हों तो इस आदेश पर भारत निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित शपथ पत्र दिया कि हाँ ऐसी ही किया जायेगा लेकिन 16वीं लोक चुनाव में भारत निर्वाचन आयोग ने सभी अदालती आदेशों का उल्लंघन करके अपनी सुनिशचित साजिश से इन वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल किया जिसने भारी मात्रा में धोखाधड़ी हुई उसी धोखाधड़ी का परिणाम आपके सामने है कि आज सत्ता में मोदी के रूप में संघ सवार हैं जो देश का सत्यानाश करने का कार्यक्रम शुरू कर चुका है आज देश में साम्प्रदायिक हिंसा एवं महिलाओं के खिलाफ हिंसा की आग में पूरा राष्ट्र जलने लगा है ये वही संघ है जिसके रग रग में जातिवाद भेदभाव वर्ण व्यवस्था तथा असमानता बसती है जो केवल तथा कथित रूप से ब्राह्मणवादी पाखण्ड अन्धविशवास को फैलाने वाला हैं जिसका भाग्य और भगवान पर ज्यादा भरोसा है जिसे सत्ता का पूर्ण समर्थन हासिल है सत्ता चाहे कांग्रेस की हो या फिर भाजपा की हो दोनों दलो की आपस में सांठगांठ रहती है कि एक बार सत्ता सुख तम लोगों के लिए और एक बार सत्ता सुख हम लोगों के लिए उसी षडयन्त्र के तहतही आज भाजपा सत्ता में हैं।










मंगलवार, 16 सितंबर 2014

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सामाजिक क्रान्ति के प्रतीक मूलनिवासी समाज के नायक, धनगर (गड़रिया) समाज में जन्मे पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर का जन्म दक्षिण भारत में 17 सितम्बर 1879 मंे तमिलनाडू राज्य के इरोडे नगर में हुआ था उनके पिता का नाम वैंकटानायकर तथा माताजी नाम चिन्ताथाई अम्मा था। बालक पेेरियार आठ वर्ष की आयु में साधारण स्कूल में शुरू हुई तथा दो वर्ष शिक्षा पाने के बाद बालक पेरियार ने स्कूल छोड़ दिया इससे यह साबित होता हैं उस समय में स्कूली शिक्षा कैसी रही होगी। कारण स्पष्ट हैं कि रामासामी को भी वर्णाश्रम के मजबूत बनाने के लिए शिक्षा दी जाती हैं। जिससे उन्हें शिक्षा से नफरत हो गयी और उन्होने स्कूल को छोड़ दिया। पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर ने विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों द्वारा शोषित मूलनिवासी अनार्य, द्रविड़, शूद्र, अवर्ण, पिछड़ा बहुजन समाज को आजाद कराने के लिए समकालीन कुरीतियों, धार्मिक अन्धविश्वास, और सामाजिक असमानता ने उन्हे प्रबित किया और वे अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष के रास्ते पर निकल पड़े गरीबों की बस्तियों में जाकर उनकी समस्याओं का समाधान करना उनका मूल कर्तव्य बन गया उन्होने किताबी ज्ञान को उपर्याप्त बताया। कालान्तर में उन्नीस साल में उनका विवाह नागम्माई से हो गया वे तर्क संस्कृति के प्रति मूर्ति थे। आपको लोकप्रियता के कारण आपको नगर का मजिस्ट्रेट तथा नगरपालिका का अध्यक्ष बनाया गया। उस समय मूलनिवासी समाज सवर्णाे के अत्याचार से त्रस्त थे छुआ छूत की बीमारी चारांे और फैली हुई थी जिसके कारण अष्पृश्य लोगांे की वस्तियों में तिरस्कार, निर्दयता काकहर ढाया जा रहा था इसके बाद रामासामी ने ब्राह्मणवादी निरंकुश व्यवस्था को उखाड़ फेकने का व्यापक आन्दोलन छेड़ दिया उन्होने जगह जगह धूम धूम कर तीखे किन्तु सत्य तर्क संगत भाषण से मूलनिवासियों को ज्ञान बल का धन बल और जनबल को समाप्त करने उद्देश्य से फैलाई जा रही शराब की प्रवृन्ति के खत्म करने के लिए नशा बन्दी आन्दोलन चलाया। पेरियार रामासामी नायकर के विविध विषयों समाज, धर्म ईश्वर, राजनीति एवं अष्पृश्यता के सम्बन्ध मंे कथित लेकिन स्वतन्त्र विचार आज भी मूलनिवासी समाज के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। उन्होने कहा था स्वराज्य के लिए बलिदान की बात कर रहे हैं यदि हमंे को स्वराज्य मिला तो वह सभी के लिए स्वराज्य होना चाहिए आज लोगों के मन में यह भय बढ़ता जा रहा हैं हमें यह देखना होगा कि प्रत्येेक जाति एवं वर्ग सुरक्षित होकर प्रगति कर सकें आज के समय में करोड़ो लोग सोचनीय स्थिति में हैं और दुश्मन चुप हैं इसका एक मात्र उपाय यही हैं कि सभी 85 प्रतिशत मूलनिवासियों को जीवन के सभी क्षेत्रों में संवैधानिक प्रतिनिधित्व दे सभी मूलनिवासियों को संवैधानिक प्रतिनिधित्व देने के लिए उन्होने एक सिद्धान्त दिया जिसे जातीय प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त कहते है। समाज मंे जागृति के लिए चलाये जा रहे दैनिक मूलनिवासी नायक की तीसरी वर्ष गांठ पर और पेरियार रामासामी नायकर के जन्म दिन के अवसर पर पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से मूलनिवासी बहुजन समाज को हार्दिक शुभकामनाये

रविवार, 14 सितंबर 2014

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मौत के मुहाने पर : अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूर

लखविन्दर
पूँजीवादी विकास की रथयात्रा मज़दूरों का जीवन कुचलते हुए ही आगे बढ़ती है। मज़दूरों के ख़ून-पसीने की एक-एक बूँद निचोड़कर भी पूँजीपतियों की मुनाफे की प्यास नहीं बुझती। गुजरात के भावनगर ज़िले में स्थित अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड (ए.एस.एस.बी.वाई.) विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के इस अमानवीय चरित्र का जीता-जागता उदाहरण है।
अलंग एशिया का सबसे बड़ा यार्ड है जहाँ इस्तेमाल से बाहर हो चुके समुद्री जहाज़ों को तोड़ा जाता है यानी इन जहाज़ों में लगे स्टील, प्लास्टिक, अन्य धातुओं आदि को दुबारा इस्तेमाल के लिए अलग-अलग किया जाता है। यह यार्ड अलंग और सोसिया गाँवों के समुद्री किनारों पर 10 कि.मी. तक फैला हुआ है जहाँ जहाज़ों को तोड़ने के लगभग 180 प्लॉट हैं। इस पूरे यार्ड में लगभग 40,000 मज़दूर काम करते हैं जो ज्यादातर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा आदि राज्यों से आकर यहाँ काम कर रहे हैं। यहाँ रोज़ लगभग 10 हज़ार टन माल जहाज़ों में से निकाला जाता है। इसमें 95 प्रतिशत तो ऊँची गुणवत्ता का स्टील होता है। बाकी 5 प्रतिशत कबाड़ माल में अन्य धातुओं से बने हिस्से, पेंट और कोटिंगें, इन्सुलेशन और सीलिंग सामग्री, बिजली के तार, केबिनों की दीवारों में लगा माल, सजावटी माल, फर्श की कवरिंग आदि होता है। जहाज़ में ऐसी भी बहुत सारी चीजें होती हैं जो घरों आदि में इस्तेमाल हो सकती है जिन्हें बाज़ार में बेच दिया जाता है। लेकिन मुख्य मकसद बढ़िया क्‍वालिटी का स्टील प्राप्त करना होता है जिससे भारत के उद्योगों की 10 से 15 प्रतिशत स्टील की ज़रूरत पूरी होती है। यहाँ से देश की 120 रोलिंग मिलों में स्टील जाता है। यहाँ से एक्साइज़ और कस्टम डयूटी के तौर पर सालाना 600 करोड़ रुपये सरकारी ख़ज़ाने में जाते हैं। यानि इस पूरे कारोबार से जहाज़ तुड़वाने वाले ठेकेदार, पूँजीपति, स्टील कम्पनियाँ और सरकार सालाना ख़ूब कमाते हैं लेकिन इसके मज़दूरों और अलंग-सोसिया क्षेत्र के निवासियों को जो लूट और मुसीबतें झेलनी पड़ रही हैं उन्हें शब्दों में पूरी तरह बयान कर पाना सम्भव नहीं है।
अलंग को पुराने ''जहाज़ों की कब्रगाह'' भी कहते हैं। लेकिन उससे भी बढ़कर यह इन्सानी ज़िन्दगियों की कब्रगाह है जहाँ हर साल सैकड़ों मज़दूर दुर्घटनाओं और घातक बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं और सैकड़ों अन्य जीवनभर के लिए अपाहिज हो जाते हैं। जो ज़िन्दा हैं वे तमाम तरह के रोगों और घावों को लिये हुए मुनाफे की चक्की में पिसते रहते हैं। वे टूटी एड़ियाँ, कटी हुई उँगलियाँ, कुचले हुए सिर, रीढ़ की चोट, मलेरिया, हैजा, टीबी, भयंकर जलन वाली खुजली को झेलकर काम करते हैं। कुछ जलकर मरते हैं तो कुछ डूबकर मर जाते हैं। किसी के पास कोई ब्योरा नहीं कि हादसे और बीमारियाँ कितनों की बलि लेती हैं। लेकिन हर कोई कहता है कि यहाँ कम से कम एक मज़दूर रोज़ मरता है!
अलंग को पुराने ”जहाज़ों की कब्रगाह” भी कहते हैं। लेकिन उससे भी बढ़कर यह इन्सानी ज़िन्दगियों की कब्रगाह है जहाँ हर साल सैकड़ों मज़दूर दुर्घटनाओं और घातक बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं और सैकड़ों अन्य जीवनभर के लिए अपाहिज हो जाते हैं। जो ज़िन्दा हैं वे तमाम तरह के रोगों और घावों को लिये हुए मुनाफे की चक्की में पिसते रहते हैं। वे टूटी एड़ियाँ, कटी हुई उँगलियाँ, कुचले हुए सिर, रीढ़ की चोट, मलेरिया, हैजा, टीबी, भयंकर जलन वाली खुजली को झेलकर काम करते हैं। कुछ जलकर मरते हैं तो कुछ डूबकर मर जाते हैं। किसी के पास कोई ब्योरा नहीं कि हादसे और बीमारियाँ कितनों की बलि लेती हैं। लेकिन हर कोई कहता है कि यहाँ कम से कम एक मज़दूर रोज़ मरता है!
जब समुद्री जहाज इस्तेमाल करने लायक नहीं रह जाते तब जर्मनी, इंग्लैण्ड, या अमेरिका के एजेण्ट इन्हें ख़रीदकर भारत भेज देते हैं। समुद्री जहाज़ों में विस्फोटक पदार्थ, सेहत के लिए ख़तरनाक रासायनिक पदार्थ आदि बड़ी मात्रा में होते हैं। इनकी वजह से जानलेवा हादसे तो होते ही हैं बल्कि मज़दूरों और इलाके के लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी भयानक नुकसान झेलने पड़ रहे हैं। 1970 के दशक में जहाज़ तोड़ने की प्रक्रिया ऊँची तकनीक के ज़रिये मुख्यत: ब्रिटेन, ताइवान, स्पेन, मेक्सिको और ब्राज़ील में निपटायी जाती थी। 1980 के बाद यह उद्योग एशिया के ग़रीब देशों में स्थानान्तरित किया जाने लगा जहाँ बहुत कम कीमत पर काम करने वाले मज़दूर आसानी से उपलब्ध थे। 1993 तक इस उद्योग का आधा हिस्सा चीन में स्थानान्तरित हो चुका था। 21वीं सदी के शुरू में जहाज़ों को तोड़ने का दुनिया का 70 प्रतिशत काम अलंग-सोसिया क्षेत्र में होने लगा और वह भी बेहद कम और कामचलाऊ तकनीकी सुविधाओं के साथ। इसके अलावा पाकिस्तान के गदानी और बंगलादेश के चटगाँव में भी इसी तरीके से यह काम होता है। जहाज़ों के मालिक ख़तरनाक विस्फोटक और अन्य रासायनिक पदार्थों को भारत भेजने से पहले हटाते भी नहीं हैं। पहले जिन देशों में यह काम होता था वहाँ के सख्त नियमों के कारण पुराने जहाज़ों के मालिकों को इनमें से नुकसानदेह चीज़ें हटाने में काफी ख़र्च करना पड़ता था। लेकिन भारत सरकार की दरियादिली के कारण अब वे घातक सामानों से भरे जहाज़ को सीधे यार्ड में भेज देते हैं। आख़िर इसी तरह तो देश का विकास होगा ना!
अलंग में मज़दूर बिना किसी सुरक्षा उपकरण के जहाज़ तोड़ते हैं, जहाँ धुएँ और धूल के कारण दिन में भी सूरज नज़र नहीं आता, और स्टील की चादरों के टकराने तथा गैस कटरों के शोर के अलावा कुछ भी सुनायी नहीं देता। एक नौजवान मज़दूर के शब्दों में, ''इस जगह पर मौत का साया है। लेकिन काम करते-करते मरना, भूखे मरने से तो अच्छा है!''
अलंग में मज़दूर बिना किसी सुरक्षा उपकरण के जहाज़ तोड़ते हैं, जहाँ धुएँ और धूल के कारण दिन में भी सूरज नज़र नहीं आता, और स्टील की चादरों के टकराने तथा गैस कटरों के शोर के अलावा कुछ भी सुनायी नहीं देता। एक नौजवान मज़दूर के शब्दों में, ”इस जगह पर मौत का साया है। लेकिन काम करते-करते मरना, भूखे मरने से तो अच्छा है!”
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अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड में रोज़ाना जानलेवा हादसे होते हैं। विशालकाय समुद्री जहाज़ों को तोड़ने का काम मज़दूरों को बेहद असुरक्षित परिस्थितियों में करना पड़ता है। अपर्याप्त तकनीकी सुविधाओं, बिना हेल्मेट, मास्क, दस्तानों आदि के मज़दूर जहाज़ों के अन्दर दमघोटू माहौल में स्टील की मोटी प्लेटों को गैस कटर से काटते हैं, जहाज़ों के तहख़ानों में उतरकर हर पुर्ज़ा, हर हिस्सा अलग करने का काम करते हैं। अकसर जहाज़ों की विस्फोटक गैसें तथा अन्य पदार्थ आग पकड़ लेते हैं और मज़दूरों की झुलसकर मौत हो जाती है। क्रेनों से अकसर स्टील की भारी प्लेटें गिरने से मज़दूर दबकर मर जाते हैं। कितने मज़दूर मरते और अपाहिज होते हैं इसके बारे में सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों को तो पूरी तरह छिपा ही लिया जाता है। लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं। कुछ के परिवारों को थोड़ा-बहुत मुआवज़ा देकर चुप करा दिया जाता है। ज़ख्मियों को दवा-पट्टी करवाकर या कुछ पैसे देकर गाँव वापस भेज दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अलंग यार्ड में रोज़ाना कम से कम 20 बड़े हादसे होते हैं और कम से कम एक मज़दूर की मौत होती है। एक विस्फोट में 50 मज़दूरों की मौत होने के बाद सरकार ने अलंग में मज़दूरों का हेल्मेट पहनना अनिवार्य बना दिया। लेकिन हेल्मेट तो क्या यहाँ मज़दूरों को मामूली दस्ताने भी नहीं मिलते। चारों तरफ आग, ज़हरीली गैसों और धातु के उड़ते कणों के बीच मज़दूर मुँह पर एक गन्दा कपड़ा लपेटकर काम करते रहते हैं। ज्यादातर प्रवासी मज़दूर होने के कारण वे प्राय: बेबस होकर सबकुछ सहते रहते हैं। इन मज़दूरों की पक्की भर्ती नहीं की जाती है। उन्हें न तो कोई पहचान पत्र जारी होते हैं न ही उनका कोई रिकार्ड रखा जाता है।
जहाज़ों को तोड़ने के दौरान पेंट, तेल, प्लास्टिक पदार्थ आदि जलने से ज़हरीली रासायनिक गैसें पैदा होती हैं और विभिन्न धातुओं और अन्य पदार्थों के कण हवा में घुलकर स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक धूल पैदा करते हैं। समुद्री जहाज़ों में एस्बेस्टोस का काफी बड़े स्तर पर इस्तेमाल होता है। वैज्ञानिकों ने यह साबित किया है कि एस्बेस्टोस के सम्पर्क में रहने से कई अन्य रोगों के साथ-साथ कैंसर होने का ख़तरा बहुत बढ़ जाता है। इसी वजह से यूरोप के देशों में एस्बेस्टोस के खनन और इस्तेमाल पर क़ानूनी पाबन्दी है। लेकिन भारत में इस पर कोई रोकटोक नहीं है। इन वजहों से अलंग-सोसिया क्षेत्र का सारा वातावरण भंयकर रूप से प्रदूषित हो चुका है। मज़दूर तो इन ज़हरीली रासायनिक गैसों, एस्बेस्टोस जैसे पदार्थों की खतरनाक धूल आदि के 12-14 घण्टे सीधे सम्पर्क में रहते हैं। इसके अलावा उनकी रिहायश भी उसी इलाके में होती है। बहुत सारे मज़दूर तो काम की जगह पर ही रहते भी हैं। ऐसे में मज़दूर प्रदूषण का सबसे अधिक शिकार होते हैं। अधिकतर मज़दूर हैजा, टाइफाइड, और शीतपित्ती (चमड़ी का रोग) से पीड़ित हैं। पूरे भारत में दस हजार के पीछे 8 लोगों को शीतपित्ती (अर्टीकेरिया) होता है लेकिन अलंग-सोसिया क्षेत्र के दस हजार के पीछे 97 मज़दूर इस रोग से पीड़ित हैं। एस्बेस्टोस की धूल मज़दूरों के कपड़ों से उनके घरों तक भी पहुँच जाती हैं जहाँ उनके साथ रहने वाले अन्य मज़दूरों या पारिवारिक सदस्यों के शरीर में यह धूल चली जाती है। यहाँ शोध करने वाले जर्मनी के पेशागत स्वास्थ्य विशेषज्ञ डा. फ्रैंक हिटमान का कहना है कि इस क्षेत्र के हर चौथे मज़दूर को कैंसर होने की आशंका है। पिछले 20 वर्ष से चल रहे इस धन्धे से आसपास के पर्यावरण की भयंकर तबाही हुई है। अगर अब यहाँ यह धन्धा बन्द भी कर दिया जाये तो भी 10-12 वर्षों तक प्रदूषण का असर खत्म नहीं होने वाला।
अलंग यार्ड में क़ानूनों का पालन कराने की ज़िम्मेदारी दो सरकारी विभागों पर है — ग़ुजरात सामुद्रिक बोर्ड (जीएमबी) और विस्फोट नियंत्रक (सी.ओ.ई.)। लेकिन हर औद्योगिक इलाके की तरह यहाँ भी इनकी नाक के नीचे मालिक और ठेकेदार नियमों की धज्जियाँ उड़ाते रहते हैं। रोज़ाना होने वाले हादसों के बाद ये दोनों विभाग मालिकों-ठेकेदारों पर आरोप मढ़ते हैं लेकिन असल में यह सारा गोरखधन्धा इन सबकी मिलीभगत से चलता है। दूसरी बात यह है कि जीएमबी जिसे 10 किमी के तटीय क्षेत्र में फैले इस बड़े कारोबार का सर्वेक्षण करना होता है उसमें एक चीफ अफसर के अलावा सिर्फ तीन सेफ्टी सुपरवाइज़र ही हैं जो चाहें भी तो हर जगह नज़र नहीं रख सकते।
लेकिन बात सिर्फ सरकारी महकमों के भ्रष्टाचार की नहीं है। यह धन्धा बेरोकटोक चलता रहे भले ही कितने ही मज़दूर हादसों और बीमारियों से मरें — यह भारत सरकार और गुजरात सरकार की साझी नीति है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूँजी निवेश बढ़ाने के लिए श्रम क़ानूनों को ”और भी लचीला” बनाने का वादा करके देशी-विदेशी पूँजीपतियों को ललचा रहे हैं। गुजरात के जिस ”विकास” के आँकड़े चमकाकर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया जा रहा है वह ”विकास” इसी तरह मज़दूरों की लाशों और तबाह ज़िन्दगियों पर कदम रखकर आगे बढ़ रहा है।
देश की ऊँची अदालतें बीच-बीच में अलंग में मौत के इस कारोबार को नियंत्रित करने, ख़तरनाक पदार्थों वाले जहाज़ों को यहाँ न तोड़ने, पर्यावरण की तबाही रोकने और मज़दूरों की सुरक्षा के लिए ”ठोस” कदम उठाने के लिए आदेश जारी करती रहती हैं, कभी केन्द्र तो कभी गुजरात सरकार की ओर से हालात की जाँच के लिए कमीशन और टीमें बनायी जाती रहती हैं, मगर हर साल अरबों के मुनाफे का यह ख़ूनी खेल बेरोकटोक जारी है।

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

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बोफोर्स का पूरा सच

भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे मशहूर रहे कांड का नाम बोफोर्स कांड है. इस कांड ने राजीव गांधी सरकार को दोबारा सत्ता में नहीं आने दिया. वी पी सिंह की सरकार इस केस को जल्दी नहीं सुलझा पाई और लोगों को लगा कि उन्होंने चुनाव में बोफोर्स का नाम केवल जीतने के लिए लिया था. कांग्रेस ने इस स्थिति का फायदा उठाया और देश से कहा कि बोफोर्स कुछ था ही नहीं. यदि होता तो वी पी सिंह की सरकार उसे जनता के समक्ष अवश्य लाती. सीबीआई की फाइलों में इस केस का नंबर है-आरसी 1(ए)/90 एसीयू-आईवीएसपीई, सीबीआई, नई दिल्ली. सीबीआई ने 22.01.1990 को इस केस को दर्ज किया था, ताकि वह इसकी जांच कर सच्चाई का पता लगा सके.
बोफोर्स महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार को लेकर सरकार का नज़रिया. टू जी स्पेक्ट्रम इसी नज़रिए का परिणाम है और आरुषि हत्याकांड भी. सबूत न जुटाए जाएं, जांच सही तरीक़े से न की जाए और फिर अदालतों में कहा जाए कि घटना तो हुई, लेकिन हम साक्ष्य नहीं जुटा पाए, इसलिए जांच बंद करने की अनुमति दी जाए. यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. अगर यह चलन ज़्यादा बढ़ेगा तो हम अफ्रीकी देशों के रास्ते पर चल पड़ेंगे.
इस केस को दर्ज करने के लिए सीबीआई के आधार सूत्र थे-कुछ तथ्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य, मीडिया रिपोट्‌र्स, स्वीडिश नेशनल ब्यूरो की ऑडिट रिपोर्ट, ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी की रिपोर्ट में आए कुछ तथ्य और कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट. यद्यपि 1987 के बाद से ही देश में बोफोर्स सौदे को लेकर का़फी बहसें और शंकाएं खड़ी कर दी गईं थीं और इस सवाल को राजनीतिक सवाल भी बना दिया गया था. मामला इतना गंभीर बन गया था कि संसद को संयुक्त संसदीय समिति बनानी पड़ी, लेकिन सरकार ने अपनी जांच एजेंसी को इसकी जांच नहीं सौंपी. जब 1989 में सरकार बदली, तब यह निर्णय हुआ कि इसकी जांच कराई जाए, तभी सीबीआई ने इसकी एफआईआर लिखी.
सीबीआई ने जब उपरोक्त रिपोर्ट का अध्ययन किया, तब उसे लगा कि सन्‌ 1982 से 1987 के बीच कुछ पब्लिक सर्वेंट्‌स ने (हिंदी में इन्हें लोक सेवक कहते हैं, पर हम पब्लिक सर्वेंट्‌स लिखेंगे) कुछ खास असरदार व्यक्तियों के साथ मिलकर आपराधिक षड्‌यंत्र किया और रिश्वत लेने और देने का अपराध किया है. ये व्यक्ति देश व विदेश से संबंध रखते थे. सीबीआई ने यह भी नतीजा निकाला कि ये सारे लोग धोखाधड़ी, चीटिंग और फोर्जरी के भी अपराधी हैं. यह सब उसी कांट्रैक्ट के सिलसिले में हुआ, जो 24.3.1986 को भारत सरकार और स्वीडन की कंपनी ए बी बोफोर्स के बीच संपन्न हुआ था. एक निश्चित प्रतिशत धनराशि बोफोर्स कंपनी द्वारा रहस्यमय ढंग से स्विट्‌जरलैंड के पब्लिक बैंक अकाउंट्‌स में जमा कराई गई और भारत सरकार के पब्लिक सर्वेंट्‌स को और उनके नामांकित लोगों को दी गई, जबकि भारत सरकार ने सभी आवेदनकर्ताओं को सूचित कर दिया था कि इस सौदे में कोई बिचौलिया नहीं रहेगा.
भारत सरकार अच्छी तोपें खरीदना चाहती थी, ताकि वह सीमाओं को और सुरक्षित कर सके. उसने जब इसके लिए अच्छी तकनीक की तलाश की तो तीन देश सामने आए-फ्रांस, आस्ट्रिया और स्वीडन. इसमें भी अंत में फ्रांस और स्वीडन ही रह गए, क्योंकि स्वीडन और आस्ट्रिया ने मिलकर एक ग्रुप सा बना लिया था. स्वीडन की कंपनी ने आस्ट्रिया की कंपनी को आश्वासन दिया था कि तोप वह देगी और गोला-बारूद आस्ट्रिया देगा. आस्ट्रिया इस आश्वासन के बाद पीछे हट गया और स्वीडन की बोफोर्स कंपनी फ्रांस की सोफमा कंपनी के मुक़ाबले में बची रह गई.
जांच में सीबीआई के सामने यह बात आई कि ए बी बोफोर्स कंपनी ने यह सौदा भारत में कुछ पब्लिक सर्वेंट्‌स के साथ मिलकर आपराधिक षड्‌यंत्र करके हासिल किया है, ये सभी निर्णय लेने की प्रक्रिया के ज़िम्मेदार व्यक्ति थे, जबकि इन्हें मालूम था कि ये जिस गन सिस्टम (तोप) के पक्ष में निर्णय दे रहे हैं, वह दूसरे गन सिस्टम के म़ुकाबले तकनीकी रूप से कमज़ोर है.
फरवरी 1990 में भारत सरकार ने इस कांड की संपूर्ण जांच का अनुरोध स्विस अधिकारियों से किया. इसके लिए भारत सरकार ने स्विस अधिकारियों को लेटर रोगेटरी भेजा, जिसे दिल्ली की विशेष अदालत ने जारी किया. इसमें यह मांग की गई कि स्विस अधिकारी यह बताएं कि ए बी बोफोर्स ने ए ई सर्विसेज को कब और कितना पैसा दिया है.
जांच में यह भी पता चला कि ए बी बोफोर्स ने ओट्टावियो क्वात्रोची के अलावा कुछ और लोगों के साथ भी साठगांठ कर ए ई सर्विसेज को अपना एक एजेंट बना दिया है, जिसका एग्रीमेंट उसने 15.11.1985 को किया, ताकि उसे कांट्रैक्ट मिल सके. जबकि भारत सरकार की नीति थी कि कोई बिचौलिया नहीं रहेगा. क्वात्रोची इस एग्रीमेंट को करने वाले मुख्य व्यक्ति के रूप में सामने आए. ए बी बोफोर्स ने उन्हें 73,43,941 अमरीकी डॉलर दिए, जो उनके उस अमरीकी अकाउंट में जमा किए गए, जो केवल इसी काम के लिए खोला गया था. जमा कराने की तारीख 8.9.1986 थी.
स्विस अधिकारियों ने लेटर रोगेटरी के एक हिस्से पर कार्रवाई की और भारत सरकार को आधिकारिक जानकारी दी, जिसके मुताबिक़, ए ई सर्विसेज के अकाउंट में जो रकम बोफोर्स कंपनी ने जमा कराई थी, वह फिर आगे जाकर ट्रांसफर की गई. आठ दिन के अंतराल के बाद इस रकम में से 71,23,900 अमरीकी डॉलर दो किस्तों में स्विट्‌जरलैंड के एक बैंक में ट्रांसफर किए गए. तारी़ख 16.9.1986 को 7,00,000 डॉलर और तारी़ख 29.9.1986 को 1,23,900 डॉलर ट्रांसफर हुए. यह सारी रकम जेनेवा में यूनियन बैंक ऑफ स्विट्‌जरलैंड में खोले गए मै. कोलंबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक नाम की कंपनी के खाते में जमा हुई. इस अकाउंट को ऑपरेट और कंट्रोल करने का अधिकार ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी को था. जब ये अकाउंट खोले गए, तब ओट्टावियो क्वात्रोची दिल्ली में काम करता था और इटालियन कंपनी स्नैम प्रोगेत्ती के रीजनल डायरेक्टर के पद पर तैनात था. वह दिल्ली में रहता था, पर उसने खाते खोलते हुए जो पता लिखाया, वह पता कहीं था ही नहीं.
इस रकम को ओट्टावियो क्वात्रोची के निर्देश पर फिर ट्रांसफर किया गया. मै. वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए ऑफ पनामा के अकाउंट में इसी बैंक में यह रकम ट्रांसफर हुई. ट्रांसफर करने की तारी़ख थी 25.7.1998. यह कंपनी पनामा में 6.8.1987 को बनाई गई और 7.8.1988 को भंग कर दी गई. दरअसल यह कंपनी स़िर्फ इसलिए ही बनाई गई थी कि बैंक अकाउंट के ज़रिए धनराशि के अवैध लेन-देन के लिए इसे इस्तेमाल किया जा सके. इस खाते को भी क्वात्रोची और उनकी पत्नी व्यक्तिगत रूप से ऑपरेट किया करते थे.
इस साज़िश में शामिल लोगों को किसी प्रकार का डर नहीं था, क्योंकि जब स्विस अधिकारी लेटर रोगेटरी पर काम कर रहे थे, उसी समय 2,00,000 अमरीकी डॉलर फिर से वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए अकाउंट से (जो यू बी एस जेनेवा में है) निकाल कर इंटर इन्वेस्टमेंट डेवलपमेंट कंपनी के अकाउंट में एन्सबाशेर लिमि. के पक्ष में सेंट पीटर पोर्ट गुएरन्से में ट्रांसफर किए गए. ट्रांसफर की तारी़ख थी 21.5.1990. इसके बाद किन अकाउंटों में यह पैसा किन देशों में गया, इसकी जांच अभी जारी है, क्योंकि जांचकर्ताओं का अनुमान है कि यह कई देशों में ट्रांसफर किया गया होगा.
ओट्टावियो क्वात्रोची इटालियन पासपोर्ट पर भारत में 1967 से रह रहा था. उसने अचानक जुलाई 1993 में भारत छोड़ दिया. ऐसा उसने तब किया, जब उसका नाम खुला कि वह स्विस कोर्ट में उन अपील करने वालों में से एक है, जो चाहते थे कि लेटर रोगेटरी पर कार्रवाई रुक जाए और स्विस अधिकारी जांच का काम बंद कर दें. जांच में यह बात स्पष्ट हो गई कि ओट्टावियो क्वात्रोची उस दलाली में हिस्सेदार है, जिसका हिस्सा उसे बोफोर्स तोप सौदे के बाद मिला. उसने इसका इस्तेमाल भारत के उच्च पदस्थ सिविल सर्वेंट्‌स और अपने लिए किया. पर मज़ेदार बात यह है कि सीबीआई को ओट्टावियो क्वात्रोची का पता कैसे चला कि वह बोफोर्स तोप सौदे में मुख्य भूमिका निभा चुका है, और ए ई सर्विसेज नाम की कंपनी का मालिक भी वही है और इसके नाम से खुले बैंक अकाउंट को भी वही ऑपरेट करता है.
यह कहानी अपराधी के हड़बड़ेपन और अपराध छुपाने की कोशिश की धमाचौकड़ी के बीच उजागर हुई है. जब स्विस अधिकारियों ने भारत सरकार के लेटर रोगेटरी पर काम शुरू किया और स्वीडन में नेशनल ऑडिट ब्यूरो ने अलग जांच शुरू की, तब बोफोर्स कंपनी से प्राप्त धन को नियंत्रित करने वाले सात खाताधारकों को लगा कि कहीं उनका नाम न खुल जाए. उन्होंने स्विस अदालतों में अपील दायर की कि यह जांच रोक दी जाए. विभिन्न अदालतों से होती हुई अपील स्विस सुप्रीम कोर्ट में पहुंची. मज़े की बात है कि सीबीआई को इस समय तक पता नहीं चल पाया था कि ये सात खाताधारक कौन हैं. इतना ही नहीं, सीबीआई को यह भी नहीं पता चल पाया कि ए ई सर्विसेज का खाता कौन ऑपरेट कर रहा है.
जब स्विस सुप्रीम कोर्ट ने इन सातों की अपील खारिज कर दी, तब पहली बार सीबीआई को जांच अधिकारी ने सूचित किया कि सात अपीलकर्ताओं में ओट्टावियो क्वात्रोची का नाम शामिल है. जिस दिन सीबीआई को क्वात्रोची के नाम पता चला, उस दिन तारी़ख थी 23.7.1993, लेकिन इसके बाद भी सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के काग़ज़ात नहीं मिले. यह भी आश्चर्य है कि काग़ज़ात क्यों नहीं मिले. उन दिनों प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे. यह भी जांच का विषय है कि क्या सीबीआई ने कोशिश नहीं की, या उसे कोशिश करने नहीं दी गई. यह भी संयोग ही कहा जाएगा कि जब नरसिंह राव की सरकार का पतन हो गया और देवगौड़ा की सरकार बनी, तभी सीबीआई को स्विस सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के काग़ज़ात मिल पाए.
जनवरी 1997 में सीबीआई को स्विस अधिकारियों ने दस्तावेज सौंपे. इन दस्तावेजों के अध्ययन से पहली बार पता चला कि ए ई सर्विसेज के अकाउंट के मुख्य लाभार्थी और ऑपरेटर ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी मारिया क्वात्रोची हैं. यह भी पता चला कि वह इस सौदे को कराने में बोफोर्स की ओर से मुख्य एजेंट या बिचौलिया था, जिसने भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों पर दबाव डाला और सौदा बोफोर्स के पक्ष में कराया. इस अकाउंट से उसने पैसा कहां, कैसे, किन तारीख़ों में और किन अकाउंटों में ट्रांसफर किया, यह एक अलग कहानी है. इतना ही नहीं, उसके भारत की सर्वोच्च राजनीतिक ताकतों और सर्वोच्च नौकरशाहों से कैसे संबंध थे और उन पर कैसा दबाव था, यह भी रहस्यमयी दास्तान है.

क्वात्रोची की इनसे भी निकटता थी…

इटालियन व्यवसायी ओट्टावियो क्वात्रोची, जिसका नाम बोफोर्स घोटाले में का़फी उछला, के गांधी परिवार के साथ घनिष्ठ संबंध थे और उनके घर में बेरोकटोक आना-जाना था. यह नया खुलासा आईबी के एक अफसर नरेश चंद्र गोसांई और क्वात्रोची के ड्राइवर शशिधरण ने सीबीआई के सामने किया. गोसांई स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की एसपीजी सुरक्षा में था और बाद में 1987 से 1989 के बीच सोनिया गांधी का पर्सनल सिक्योरिटी ऑफिसर भी रहा था. खुलासे के मुताबिक़, राजीव गांधी के कार्यकाल में क्वात्रोची और उसकी पत्नी मारिया का प्रधानमंत्री आवास में बेरोकटोक आना-जाना था. 1993 में भारत से भागने के पहले तक गांधी परिवार के घर पर क्वात्रोची की आवाजाही बनी रही. शशिधरण का बयान क्वात्रोची की कार की लॉगबुक पर आधारित है, जो कि स्नैम प्रोगेत्ती नाम की इटालियन कंपनी द्वारा रखी जाती थी और जिसका रीजनल डायरेक्टर क्वात्रोची था.
गोसांई के मुताबिक़, प्रधानमंत्री आवास पर निजी गाड़ियों के आने पर सख्त रोक है. बस क्वात्रोची और उसकी पत्नी के लिए ही कोई नियम-क़ानून नहीं था. गोसांई कहते हैं कि प्रधानमंत्री आवास के अंदर जाने के लिए पास बनवाना ज़रूरी होता है, लेकिन क्वात्रोची और उसके परिवार के सदस्यों के लिए पहले से ही हमेशा एक पास तैयार रहता था, ताकि वे कभी भी आ-जा सकें. प्रधानमंत्री आवास पर तैनात होने वाले सारे एसपीजी अधिकारी क्वात्रोची और उसके परिवारजनों को पहचानते थे, जिसकी वजह से उनकी पहचान की जांच नहीं होती थी.
गांधी परिवार से क्वात्रोची की निकटता बोफोर्स कांड में उसका नाम आने के बाद भी बनी रही. शशिधरण के बयान के अनुसार, 1985 में क्वात्रोची और मारिया क्वात्रोची राजीव और सोनिया के घर दिन में दो-तीन बार आते थे. शशिधरण क्वात्रोची की डीआईए 6253 नंबर की मर्सिडीज चलाता था. शशि कहता है कि जब कभी भी सोनिया गांधी के माता-पिता भारत आते थे, तब वह उन्हें क्वात्रोची के घर ले जाता था. वे दिन भर वहीं रहते थे और मारिया क्वात्रोची उन्हें खरीदारी के लिए घुमाने ले जाती थी. वे साल में 4 या 5 बार भारत आते थे. शशिधरण की कार लॉगबुक के रिकॉर्ड के अनुसार, क्वात्रोची 1989 से 1993 के बीच सोनिया और राजीव से 41 बार मिला.
ग़ौरतलब है कि क्वात्रोची और सोनिया गांधी, 1991 में राजीव गांधी की मृत्यु के बाद भी एक-दूसरे से पहले की ही तरह मिलते रहे. शशि कहता है कि मई 1991 के बाद क्वात्रोची 21 बार दस जनपथ गया. शशि कहता है कि जब क्वात्रोची भारत छोड़ रहा था, तब उसने खुद 29 जुलाई 1993 को उसे एयरपोर्ट तक पहुंचाया था. उस वक्त क्वात्रोची के पास एक ब्रीफकेस के अलावा कुछ नहीं था और उसने शशि से कहा कि वह एक जरूरी मीटिंग के लिए जा रहा है. यह अजीब बात थी, क्योंकि आमतौर पर जब भी क्वात्रोची को कार चाहिए होती थी तो वह पहले शशि को बता देता था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ.
इन सारे खुलासों पर भारत सरकार खामोश है और सोनिया गांधी भी, जबकि सीबीआई को दिए गए बयान पर सरकार की प्रतिक्रिया आनी चाहिए और सोनिया गांधी की भी.

और भी गुल खिला सकते थे क्वात्रोची

जिन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उन दिनों अ़खबारों में ओट्टावियो क्वात्रोची का नाम अक्सर आता था. जो लोग प्रधानमंत्री निवास में जाते थे, उन्हें भी क्वात्रोची वहां गाहे-बगाहे दिखाई दे जाता था. राजीव गांधी की ससुराल भी इटली थी तथा क्वात्रोची भी इटली का था, अतः यह संभावना पैदा होती है कि उसने इटली का कोई संपर्क तलाश लिया हो, जिसके कारण राजीव गांधी ने उसे प्रधानमंत्री निवास में आने की छूट दे रखी हो. क्वात्रोची जिस फर्म स्नैम प्रोगेत्ती का रीजनल डायरेक्टर था, उस फर्म को देश की सबसे बड़ी पाइप लाइन, जगदीशपुर हजीरा पाइप लाइन बिछाने का ठेका भी मिल गया था.
सीबीआई की फाइलों में जो जांच रिपोर्ट है, वह बताती है कि उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के परिवार तथा ओट्टावियो क्वात्रोची के बीच बहुत ही घरेलू, नजदीकी और आत्मीय संबंध थे. वे आपस में जल्दी-जल्दी मिलते थे, ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उनके परिवार का दखल प्रधानमंत्री निवास में था. बेतकल्लुफी और नज़दीकी उन तस्वीरों में सा़फ झलकती है, जो इस समय सीबीआई के पास हैं. ओट्टावियो क्वात्रोची अपने को बहुत असरदार व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता था. जब तक क्वात्रोची भारत में रहा, लगातार फोन से महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों से संपर्क करता रहता था.
ध्यान देने की बात है कि बोफोर्स कंपनी ने कमीशन के नाम पर सेक 50,463,966,00 ए ई सर्विसेज को 3.9.1986 को दिए थे. इस सारी रकम को ए ई सर्विसेज ने ओट्टावियो क्वात्रोची की कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के अकाउंट में, जो जेनेवा स्थित यू बी एस बैंक में था, 16.9.1986 तथा 29.9.1986 को ट्रांसफर कर दिया. ए बी बोफोर्स और भारत सरकार के बीच हुए क़रार की शर्त के अनुसार भारत सरकार ने सौदे की 20 प्रतिशत अग्रिम राशि सेक 1,682,132,196.80 तारीख 2.5.1986 को बोफोर्स कंपनी को दे दी. ए ई सर्विसेज ने कमीशन के तौर पर जो रकम सेक 50,463,966.00 बोफोर्स कंपनी से प्राप्त की, वह उस रकम का 3 प्रतिशत बनती है, जो भारत सरकार ने बोफोर्स कंपनी को अग्रिम राशि के नाते अदा की थी. यह रकम उस अनुबंध की शर्त के अनुसार थी, जो बोफोर्स और ए ई सर्विसेज के बीच 15 नवंबर 1985 को हुआ था.
भारत सरकार और भारत को तोप बेचने की इच्छुक कंपनियों के बीच इस सौदे के बारे में 1984 में बातचीत हुई. नेगोशिएटिंग कमेटी की पहली बैठक 7.6.1984 को हुई. इसके बाद विभिन्न अवसरों पर यह कमेटी 17 बार मिली. सेना की पहली प्राथमिकता उस समय सोफमा तोप थी. पर 17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने पहली बार अपनी रुचि बोफोर्स तोप में दिखाई तथा इसे सोफमा पर प्राथमिकता दी. इसके बाद तो बोफोर्स तोप में अनावश्यक रुचि दिखाई जाने लगी. अचानक नेगोशिएशन की प्रक्रिया तेज़ हो गई. 17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने अपनी रिपोर्ट में बोफोर्स तोप को बाकी सब पर पहला स्थान दिया. इस कमेटी ने रहस्यमय जल्दबाजी की. इसने एक ही दिन 12.3.1986 को मीटिंग कर लैटर ऑफ इंटैंट (आशय पत्र) बोफोर्स कंपनी के पक्ष में जारी करने की स़िफारिश करने का फैसला ले लिया. इसी दिन, यानी 12.3.1986 को संयुक्त सचिव (ओ) ने एक नोट बनाया, ताकि रक्षा राज्यमंत्री अर्जुन सिंह, रक्षा राज्यमंत्री सुखराम, वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भेजा जा सके. यह नोट उसी दिन संबंधित अफसरों और मंत्रियों को भेजा गया और उन्होंने उसी दिन उस पर सहमति भी दे दी. इस नोट पर किसने कब हस्ताक्षर किए, वह इस तालिका से स्पष्ट हो जाएगा:
1.सेक्रेटरी डिफेंस (श्री एस के भटनागर) 12.3.1986, 2. सेक्रेटरी, डिफेंस प्रोडक्शन और सप्लाई (श्री पी सी जैन) 13.3.1986, 3. रक्षा राज्यमंत्री (श्री सुखराम) 13.3.1986, 4. रक्षा राज्यमंत्री (अर्जुन सिंह) 13.3.1986, 5. फाइनेंशियल एडवाइजर (श्री सी एल चौधरी) 13.3.1986, 6. सेक्रेटरी एक्सपेंडिचर (श्री गनपथी) 13.3.1986, 7. फाइनेंस सेक्रेटरी (श्री वी वेंकटरमन) 13.3.1986, 8. वित्त मंत्री (श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह) 13.3.1986, 9. प्रधानमंत्री, जिन्होंने रक्षा मंत्री के नाते हस्ताक्षर किए (श्री राजीव गांधी) 14.3.1986.
यह तालिका बताती है कि संयुक्त सचिव (ओ) ने 12.3.1986 को नोट तैयार किया तथा इसके बाद बहुत ही ज़्यादा रुचि लेकर जल्दबाजी दिखाई गई. यह फाइल छह विभिन्न विभागों के अफसरों के पास भेजी गई. केवल 48 घंटों के भीतर 11 अफसरों एवं मंत्रियों के संक्षिप्त हस्ताक्षर कराए गए. सवाल उठता है कि इतनी जल्दबाजी की ज़रूरत क्यों थी?
इस जल्दबाजी का जवाब तलाशना चाहें तो वह हमें बोफोर्स कंपनी तथा ए ई सर्विसेज के बीच हुए अनुबंध में लिखी शर्त से मिल जाता है. यह अनुबंध 15.11.1985 को हुआ था. अनुबंध की इस महत्वपूर्ण धारा में लिखा है कि ए ई सर्विसेज को कमीशन तभी मिलेगा, जब बोफोर्स कंपनी को यह सौदा मार्च 1986 से पहले मिल जाएगा. इस अनुबंध की रोशनी में फाइल की तेज़ी तथा कमीशन का संबंध स्पष्ट हो जाता है, जिसे ओट्टावियो क्वात्रोची तथा अन्यों ने प्राप्त किया. इससे यह भी पता चलता है कि ओट्टावियो क्वात्रोची का संबंध उन लोगों से भी था, जो इस डिसीजन प्रोसेस में शामिल रहे हैं. आगे की घटनाएं भी कहानी अपने आप बनाती हैं. 12 मार्च 1986 के बाद के 48 घंटों में 11 अफसरों और मंत्रियों के हस्ताक्षर फाइल पर कराकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वयं अपने हस्ताक्षर 14.3.1986 को किए. 14.3.1986 को ही उन्हें स्वीडन की यात्रा पर जाना था. वह गए भी. उसी दिन स्वीडन पहुंचते ही उन्होंने स्वीडिश प्रधानमंत्री ओलेफ पाल्मे को सूचित किया कि भारत सरकार ने तोपों की खरीद का सौदा बोफोर्स कंपनी को देने का निर्णय लिया है.
इस फैसले को लेने के लिए जो कार्रवाई चली, उनके काग़ज़ात यह बताते हैं कि फैसला स़िर्फ बोफोर्स को लैटर ऑफ इंटैंट (आशय पत्र) जारी करने का था. यह फैसला अपने आप में अस्वाभाविक था, क्योंकि तब तक दो प्रतिद्वंद्वी कंपनियां बोफोर्स और सोफमा बहुत ही कम रियायतें देने की बात कर रही थीं. जल्दी में यह फैसला लिया गया, अन्यथा प्रतिद्वंद्वी कंपनियां कंपटीटिव रेट देतीं. लैटर ऑफ इंटैंट जारी करने के इस फैसले ने सौदा करने की प्रक्रिया का उल्लंघन किया. शायद इसके पीछे नीयत थी कि स्वीडन को यह बताना था कि सौदे का फैसला उसके पक्ष में लिया जा चुका है.
इस केस में ओट्टावियो क्वात्रोची के नाम का खुलासा पहली बार 23.3.1993 को हुआ, जब इंटरपोल स्विट्‌जरलैंड ने भारत सरकार को सूचित किया कि जिन सात लोगों ने स्विस सुप्रीम कोर्ट में जांच कार्रवाई रोकने की अपील की थी, वह सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दी है. इन सात लोगों में एक नाम ओट्टावियो क्वात्रोची का भी है. इस सूचना के खुलासे के छह दिन के बाद ओट्टावियो क्वात्रोची ने 29.7.1994 को जल्दबाजी में अपनी पत्नी के साथ भारत छोड़ दिया तथा वह आज तक भारत वापस नहीं आया. सीबीआई ने क्वात्रोची के इस तरह भारत छोड़ने को, जो कि उसके नाम की जानकारी आने के बाद जल्दबाजी में उसने किया तथा उसके द्वारा स्विस सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार द्वारा जारी लैटर रोगेटरी पर अमल रुकवाने की कोशिश को प्रथम दृष्ट्‌या या इस अपराध में उसका लिप्त होना माना है.
भारत सरकार की जांच एजेंसी सीबीआई, जो इस सारे मामले की जांच कर रही है, स्विस अधिकारियों से जनवरी 1997 में सारे काग़ज़ात प्राप्त कर पाई तथा तभी वह जान पाई कि ए ई सर्विसेज के अकाउंट में जमा हुई रकम का लाभार्थी ओट्टावियो क्वात्रोची है. प्राप्त हुई रकम की पहली किस्त भी 7.34 मिलियन डॉलर थी. क्वात्रोची को बोफोर्स ने अपना एजेंट ही इसीलिए बनाया था, ताकि वह न केवल सरकार पर दबाव डाल सके, बल्कि रिश्वत देकर उसे 1437.72 करोड़ का तोप सौदा दिला सके . पहले चरण में फ्रांस की सोफमा को पसंद किया गया, पर बाद में अचानक नाटकीय परिवर्तन आ गया.
ए ई सर्विसेज को कमीशन तभी मिलता, जब सौदा 31.3.1986 से पहले हो जाता. भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 15.3.1986 को स्वीडन की यात्रा कर वहां घोषणा की कि तोप खरीद का सौदा बोफोर्स के साथ हो गया है. क्वात्रोची ने सौदे को बोफोर्स कंपनी द्वारा निश्चित की गई समय सीमा 31.3.1986 के भीतर पूरा करा दिया. भारत सरकार ने 25.5.1986 को अग्रिम धनराशि की पहली किस्त बोफोर्स कंपनी को दी. अगस्त 1986 में ए ई सर्विसेज का अकाउंट मायल्स स्टाट ने खोला. सीबीआई का मानना है कि यह सब संयोग नहीं है.
आखिर ओट्टावियो क्वात्रोची को बोफोर्स कंपनी ने अपना एजेंट क्यों बनाया, जबकि क्वात्रोची को हथियारों एवं रक्षा संबंधी मामलों का कोई ज्ञान नहीं है. क्वात्रोची एक चार्टर्ड अकाउंटेंट है तथा 1968 से 1993 के बीच वह स्नैम प्रोगेत्ती का चीफ एग्जीक्यूटिव अफसर था. उसका ज्ञान केवल पाइप लाइन बिछाने तथा तेल ट्रांसपोर्टेशन तक ही सीमित था. क्वात्रोची के साथ यह तथाकथित कंसलटैंसी एग्रीमेंट दरअसल बोफोर्स कंपनी द्वारा किया गया ऐसा एग्रीमेंट था, ताकि वह तोप सौदे की दौड़ में जीत सके तथा इसे प्राप्त करने के लिए क्वात्रोची का दबाव जो कि नौकरशाहों व राजनीतिज्ञों पर था, इस्तेमाल किया जा सके. यह नतीजा निकाला जा सकता है कि बिना इस तरह के दबाव को बनाए बोफोर्स कंपनी यह तोप सौदा हासिल नहीं कर सकती थी. भारत सरकार द्वारा दी गई पहली इंस्टालमेंट की रकम का 3 प्रतिशत कमीशन के रूप में दिया जाना यह साबित करता है कि ओट्टावियो क्वात्रोची ने सौदे को नेगोशिएट किया तथा ए बी बोफोर्स के पक्ष में पलड़ा झुका दिया. इसका यह भी मतलब निकलता है कि यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहने वाली थी तथा क्वात्रोची इस हैसियत में था कि वह आगे भी भारत के उस समय के प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री तथा दूसरे पब्लिक सर्वेंट्‌स के साथ सफलतापूर्वक सौदे करा सकता था, जिसके बदले में उसे का़फी लाभ तथा कमीशन मिलता. यह सारी बातें प्रिवैंशन ऑफ करप्शन एक्ट तथा इंडियन पैनल कोड के खिला़फ हैं.

बोफोर्स कंपनी ने भी सरकार को अंधेरे में रखा

राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के साथ कई चमत्कारिक काम किए थे. उन्होंने कहा था कि वह सत्ता के दलालों को पास नहीं आने देंगे, क्योंकि ये गुमराह करते हैं. उन्होंने कहा था कि दिल्ली से विकास के लिए जाने वाले एक रुपये का 85 पैसा दलालों और नौकरशाहों की जेब में चला जाता है, केवल पंद्रह पैसा ही विकास पर खर्च होता है. राजीव गांधी ने इक्कीसवीं शताब्दी में देश को जाने के लिए तैयार रहने की बात कही थी. इसी क्रम में उन्होंने अचानक कैबिनेट की मीटिंग में कहा कि आज से देश के साथ होने वाले किसी सौदे में कोई बिचौलिया नहीं होगा. इसे उन्होंने देश की एक्सप्रेस पॉलिसी कहा. उनसे उनके साथियों ने भी कहा कि दुनिया का व्यापार बिना मिडलमैन के नहीं चलता, तब हम कैसे चलाएंगे. राजीव गांधी ने इसे नहीं माना तथा कहा कि बिचौलियों को मिलने वाला पैसा दरअसल देश का ही होता है, अत: उन्हें हटाने से देश का फायदा होगा. उन्होंने अपने मंत्रियों तथा केंद्र सरकार के सभी सचिवों को इसका सख्ती से पालन करने का आदेश दिया. इसलिए जब भारत के लिए तोपें खरीदने की बात तय हुई, तबभारत सरकार ने बातचीत के दौरान बोफोर्स कंपनी के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन ओर्डिबो तथा दूसरी कंपनियों को स्पष्ट कर दिया था कि किसी भी एजेंट या बिचौलिए को कोई भी कंपनी तोप खरीद सौदे में नहीं रखेगी. मई 1985 में उस समय के रक्षा सचिव श्री एस के भटनागर ने ए बी बोफोर्स के अध्यक्ष तथा दूसरे निविदादाताओं को विशेष तौर  पर लिख दिया था कि 155 होवित्जर तोप सौदे में किसी भी मध्यस्थ को न लाया जाए. इतना ही नहीं, यदि पहले भी किसी ने किसी को एजेंट बनाया था तो उस कमीशन की रकम को तोप सौदे की रकम से घटाया जाए. बोफोर्स कंपनी के अध्यक्ष मार्टिन ओर्डिबो ने 10.3.1986 को एक पत्र रक्षा सचिव एस के भटनागर को लिखा. इसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि उन्होंने किसी को एजेंट नहीं बनाया है और उसे तो बिल्कुल नहीं, जो कि भारत में इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है. भारत सरकार की इस स्पष्ट नीति के आधार पर कि सौदे के बीच कोई एजेंट या बिचौलिया नहीं होगा तथा यदि बोफोर्स कंपनी ने किसी को रखा तो उस पर पैनाल्टी लगेगी, भारत सरकार और बोफोर्स कंपनी के बीच इस आशय का एक समझौता हुआ. समझौता जो दोनों पक्षों के बीच हुआ, उसकी तारी़ख थी 24.3.1986.
इसके एक साल बाद रक्षा मंत्रालय को जानकारी मिली कि स्वीडिश रेडियो ने अपने प्रसारण में कहा कि बोफोर्स तोप सौदे में किक बैक (रिश्वत) दी गई है. रक्षा मंत्रालय ने भारतीय राजदूत को इसकी सत्यता का पता लगाने को कहा. उस समय रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे. राजदूत ने बोफोर्स कंपनी को पत्र लिखा तथा स्वीडिश रेडियो के आरोप पर स्पष्ट स्थिति जाननी चाही. बोफोर्स कंपनी और भारत सरकार के बीच जिस तारी़ख को दलाल न रखने का समझौता हुआ था, उसके ठीक एक साल बाद 24.4.1987 को बोफोर्स कंपनी ने राजदूत को उनके पत्र का उत्तर भेजा. पत्र में बोफोर्स कंपनी ने लिखा कि स्वीडिश रेडियो ने जिस धनराशि को दिए जाने की बात कही है, वह बिल्कुल वैधानिक है तथा स्वीडिश करंसी रेग्युलेशन और दूसरे स्वीडिश क़ानूनों के अनुसार है. इस पत्र में कहा गया कि यह रकम किसी भारतीय कंपनी को नहीं दी गई. इस रकम का रिश्ता 1986 के बोफोर्स तोप सौदे से नहीं है.
संयुक्त संसदीय समिति की जांच शुरू होने से पहले बोफोर्स कंपनी का प्रतिनिधि भारतीय अधिकारियों से आकर मिला तथा उसने स्वीकार किया था कि कुल मिलाकर स्वीडिश मुद्रा में से 319.40 मिलियन उन कंपनी को दिया गया, जो भारत से बाहर रजिस्टर्ड हैं. इस कंपनी में स्वेंस्का इंक पनामा तथा ए ई सर्विसेज लिमिटेड यूके शामिल हैं. इन्हें यह रकम वाइंडिंग-अप चार्ज के रूप में दी गई है.
इसके बाद संयुक्त संसदीय समिति ने जांच प्रारंभ की, तब बोफोर्स कंपनी ने स्वीकार किया कि उसने तीन कंपनियों को पैसा दिया, पर उसने समिति को उनका नाम बताने से इंकार कर दिया. इसी दौरान स्वीडिश नेशनल ऑडिट ब्यूरो यह जांच कर रहा था कि क्या इस सौदे में कमीशन दिया गया है. जांच के दौरान स्वीडिश नेशनल ऑडिट ब्यूरो को पता चला कि मई 1986 से मार्च 1987 के बीच स्विट्‌ज़रलैंड के बैंकों में ए बी बोफोर्स कंपनी ने पैसा भेजा है. कमर्शियल कॉन्फिडेन्शिएलिटी के नाम पर बोफोर्स ने अब भी इन कंपनियों का नाम नहीं बताया तथा स्वीडिश नेशनल ऑडिट ब्यूरो को ज़्यादा जानकारी देने से मना कर दिया. ऑडिट ब्यूरो को इस बात का पता चला कि बोफोर्स द्वारा दिए गए बयानों में एकरूपता नहीं है, खासकर उनमें, जिनका संबंध एजेंटों की पहचान तथा पैसा दिया क्यों गया, जैसे सवालों से था.
उधर 7.2.1990 को दिल्ली के विशेष जज द्वारा स्विस अधिकारियों को लिखे गए लेटर रोगेटरी के बाद, जिसमें अनुरोध किया गया था कि स्विस अधिकारी जांच की प्रक्रिया पूरी करें तथा सबूत इकट्ठा करें, स्विस अधिकारियों ने जांच की तथा रिपोर्ट और कुछ दस्तावेज भारत सरकार को दिसंबर 1990 तथा जनवरी 1997 को सौंपे. स्विस अधिकारियों की जांच ने यह साबित किया कि बोफोर्स कंपनी ने इस सौदे में एजेंट बनाए थे तथा दो कंपनियों को, जिनमें एक ए ई सर्विसेज लिमि. तथा दूसरी स्वेंस्का इनकार्पोरेटेड थी, इन्हें सौदा कराने के बदले में धनराशि दी गई.
ओट्टावियो क्वात्रोची इटालियन नागरिक था तथा इटालियन पासपोर्ट पर इटालियन कंपनी स्नैम प्रोगेत्ती के रीजनल डायरेक्टर के पद पर काम कर रहा था. 15 नवंबर, 1985 को ओट्टावियो क्वात्रोची व बोफोर्स कंपनी के मायल्स ट्‌वीडेल स्टाट के बीच एक एग्रीमेंट हुआ कि यदि यह सौदा बोफोर्स कंपनी को भारत सरकार से 31 मार्च, 1986 से पहले मिल जाता है तो तीन प्रतिशत कमीशन ए ई सर्विसेज को बोफोर्स कंपनी देगी. यह रकम कुल सौदे का तीन प्रतिशत होगी. भारत सरकार जैसे-जैसे बोफोर्स को पैसे देगी, बोफोर्स उसका तीन प्रतिशत ए ई सर्विसेज को देती जाएगी.
यहां से इस कांड में अध्याय दर अध्याय जुड़ने शुरू हो जाते हैं. भारत के लिए तोप खरीदने का फैसला लेने वालों के सामने 15 नवंबर 1986 तक बोफोर्स कंपनी के साथ दूसरी कंपनी के प्रस्ताव भी थे, पर तब तक किसी को यह एहसास नहीं था कि इन सब प्रस्तावों पर बोफोर्स गन सिस्टम को प्राथमिकता या तरजीह दी जाएगी. दरअसल उस समय फ्रांस के सोफमा गन सिस्टम को तकनीकी तौर पर ज़्यादा पसंद किया जा रहा था, लेकिन चार महीनों में सोफमा के ऊपर बोफोर्स को तरजीह दिला देना तथा बोफोर्स द्वारा दी गई समय सीमा में कॉन्ट्रैक्ट पूरा करा देना उस व्यक्ति की ताक़त दिखाता है, जो ए बी सर्विसेज के पीछे था. इसी व्यक्ति ने अपनी ताक़त व रसूख के दम पर भारत सरकार के पब्लिक सर्वेंट्‌स को दबाव में लाकर बोफोर्स कंपनी के साथ सौदे को पूरा कराया.
स्विस अधिकारियों की जांच में यह बात भी सामने आई कि बोफोर्स कंपनी ने स्टॉकहोम स्थित स्कान्डिनाविस्का एन्सकिल्डा बांकेन से 3 सितंबर 1986 को 50,463,966,00 सेक (अमरीकी डॉलर 7,343,941,98 के बराबर) निकाले तथा उन्हें अकाउंट नंबर 18051-53, जो कि ए ई सर्विसेज लिमिटेड के नाम था, में जमा कराया. यह अकाउंट ज्यूरिख के नोर्डिफिनांज बैंक का है. इस अकाउंट को, जो कि ए ई सर्विसेज लिमि. केयर ऑफ मायो एसोसिएट्‌स एस ए जेनेवा का है, केवल पंद्रह दिन पहले 20 अगस्त, 1986 को माइल्स ट्‌वीडेज स्टाट ने डायरेक्टर की हैसियत से खोला था.
ए ई सर्विसेज के इस अकाउंट से दो किस्तों में 7,123,900 अमरीकी डॉलर निकाले गए. इसमें 70,00,000,00 अमरीकी डॉलर 16 सितंबर 1986 को तथा 1,23,900,00 अमरीकी डॉलर 29 सितंबर 1986 को निकाले गए. निकाली गई इस रकम को कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक पनामा के जेनेवा स्थित यूनियन बैंक के अकाउंट नंबर 254,561,60 डब्ल्यू में ट्रांसफर किया गया. कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के इस अकाउंट से पुन: 7,943,000,00 डॉलर 25.7.1988 को अकाउंट नंबर 488320,60 ऑफ एम/एस वेटेल्सेन ओवरसीज एस ए में ट्रांसफर किए गए. यह अकाउंट भी जेनेवा के यूनियन बैंक में ही है. एम/एस वेटेल्सेन ओवरसीज के इसी अकाउंट से पुन: 21 मई 1990 को 9,200,000,00 डॉलर ट्रांसफर किए गए. इस बार यह रकम अकाउंट नंबर 123893 में ट्रांसफर की गई. यह अकाउंट इंटरनेशनल डेवलपमेंट कं. का है, जो एनवाशेर (सी आई) लिमि. सेंट पीटर पोर्ट, गुएरन्से (चैनल आइसलैंड) में स्थित है.
ये एकाउंट एम/एस कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक तथा वेटेल्सेन ओवरसीज को ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उसकी पत्नी मारिया क्वात्रोची कंट्रोल करती थी. जब चैनल आइसलैंड में जांच हुई, तब पता चला कि यह सारी रकम दस दिनों के भीतर (जब वह गुएरन्से में आई, उसके बाद) दोबारा स्विट्‌जरलैंड तथा आस्ट्रिया ले जाई गई.
स्विस अधिकारियों तथा स्वीडिश अधिकारियों की जांच ने यह साबित कर दिया कि बोफोर्स कंपनी से प्राप्त कमीशन को पाने वाली कंपनी ए ई सर्विसेज का लाभार्थी ओट्टावियो क्वात्रोची है. स्नैम प्रोगेत्ती से मिले कागजातों ने यह भी साबित कर दिया कि ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उसकी पत्नी उस समय जेनेवा ही में थे, जब ये अकाउंट खोले गए.
उन्होंने ही बैंक अकाउंट तथा अन्य दस्तावेजों पर दस्तखत किए थे. जब स्विस अधिकारियों ने क्वात्रोची तथा उनकी पत्नी के पते, जो उन्होंने बैंक अकाउंट में लिखे थे, भारत सरकार को दिए तो सरकार चकरा गई. दोनों ने पता दिया था-कालोनी ईस्ट, न्यू डेली (इंडिया). यह पता सारे भारत में कहीं है ही नहीं. दोनों ने ही सावधानीवश जालसाज़ी करने के चक्कर में ग़लत पता लिखवाया था. यहां सवाल उठता है कि यह हुआ कैसे, क्योंकि स्विट्‌जरलैंड में बैंक अकाउंट खोलते समय पासपोर्ट पर लिखा पता देखा जाता है तथा वही लिखा जाता है. तब क्या ओट्टावियो क्वात्रोची एवं उसकी पत्नी के पास कोई और पासपोर्ट भी था, जिस पर कालोनी ईस्ट, न्यू डेली का पता लिखा था?
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सोमवार, 8 सितंबर 2014

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बामसेफ एवं भारत मुक्ति मोर्चा का 29वाँ संयुक्त राज्य अधिवेशन उ.प्र. में होने जा रहा है जिसकी अध्यक्षता मा.वामन मेश्राम साहब करेंगे। इसलिए इसमें ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुँच कर इस राज्य अधिवेशन को सफल बनाये

शनिवार, 6 सितंबर 2014

गरीबी, भूख, और भूखमरी : आखिर क्यों और कब तक?


poverty-in-indiaभूख से उपजी भुखमरी और इन दोनों से विवश हो जब कोई व्यक्ति भिखारी बन जाता है, तो वह व्यक्ति समाज के लिए अभिशाप बन जाता है और उसे सामाजिक समस्या करार दिया जाता है। सन् 2000 में ये अनुमान लगाया गया था कि 2010 के बाद दुनियां में बेशुमार प्रगति होगी, और आर्थिक स्तर भी ऊँचा होगा। इसी के आधार पर 2020, 2030 और 2050 के तामाम सपने संजो लिए गए। लेकिन इन सभी के बीच किसी ने शायद दुनियां के उस तबके के बारे में नहीं सोचा, जहाँ फटे-टूटे फूस के आंगन में भूख, भूखमरी और भिखारी एक साथ जन्म लेते हैं।
अर्थशास्त्री चाहें कुछ भी कहें, लेकिन उनके खोखले सिद्धान्त जब इन कमज़ोर झोपडि़यों से टकराते हैं तो उनके बड़े-बड़े दावें खोखले नज़र आते हैं। आज के इस महंगाई के दौर में जब खाने-पीने के दाम आसमान छू रहे हो ऐसे में उच्चवर्ग और मध्यवर्ग भी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जद्दोजहद में लगे हुए हैं। इसके बावजूद भी हम रईसों की दुनियां में गिने ही जाते है।
गरीबों के लिए बनी दम तोड़ती योजनाए
यूँ तो गरीबी, भूख, भूखमरी और भिखारी का चोली दामन का साथ है लेकिन इस देश की बदकिस्मती है कि यहाँ भूख, भूखमरी और गरीबी किसी को नजर नहीं आती है। भूखमरी और गरीबी जैसे शब्द न तो उदारवादी कहे जाने वाली राजनैतिक नौकरशाही को जऩर आती है, और न ही उनके खातों और बहियों में। जैसे हम किसी भूखे भिखारी को देखकर मुँह फेर लेते हैं ऐसे ही खातों और बैलेंस सीटों से इन शब्दों का नदारद होना भी मुँह फेरने जैसा ही है। वैसे तो सरकार निजी हित और औपचारिक निर्ण का विचित्र मेल है। आकड़े सरकार के कुछ काले कोनों में शोर करते घूमते हैं और गरीबों की झोपडि़यों के भीतर भूख से कुलमुलाते बच्चों की चीख में गुम हो जाते हैं।
भारत में योजनाएं तो बड़ी-बड़ी बनती हैं लेकिन उन योजनाओं का लाभ भी अधिकारी वर्ग को ही मिलता है। आम आदमी तक आते-आते या तो यह योजनाएं दम तोड़ चुकी होती हैं या अधिकारियों की फाईलों में ही गुम हो जाती है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया संतुलित विकास के लिए राज्यों को अनुकूल योजनाएं बनाने कर नसीहत दी। उन्होंने कहा कि सभी राज्यों के लिए उनकी जरूरत के हिसाब से योजनाएं बनाई जानी चाहिए। लेकिन इन योजनाओं के बनने के बाद इनको क्रियान्वित करने की प्रक्रिया इतनी लचर और भ्रष्ट है कि भूख से पीडि़त व्यक्ति तक इनका लाभ नहीं पहुँचता और उस पर प्रति वर्ष खाद्यान्न पर बढ़ती कीमतें भुखमरी और भिखारी की उत्पत्ति का कारण बनती है।
विश्व बैंक का अनुमान है कि अगर कीमतें दस फीसदी और बढ़ती है, तो दुनिया के एक करोड़ लोग और गारीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे। ऐसे में भारत के न जाने कितने लोग भूख से दम ही तोड़ देंगे। आज खाद्यानों पर बढ़ती कीमतों की चिन्ता भले ही विश्व बैंक व दुनिया के सरताज़ करें लेकिन यह कड़वा सच है कि बढ़ती आबादी घटते क्षेत्रफल और इन सब से ऊपर दिन प्रति दिन सीमित होते कृषि क्षेत्र की चिन्ता किसी को दिखाई नहीं देती। धीरे-धीरे भारत सहित पूरी दुनिया में कृषि योग्य भूमि समाप्त होती जा रही है। सच तो यह है कि दुनिया भर के देशों में निजी और सामूहिक तौर पर इतनी राजनैतिक इच्छाशक्ति नहीं है कि भूख और मुखमरी से ग्रस्त गरीब आदमी को उसकी मुश्किलों से बाहर निकाल सके।
गरीबों की ओबामा से लगी उम्मीद भी टूटी
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की उदारता देख शुरू में दुनिया भर के गरीब देशों को उनसे उम्मीदें बंधी थी लेकिन ये किसे पता था कि ओबामा प्रशासन सबसे ज्यादा दिवालिया प्रशासन साबित होगा। जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रश्न है वह आज भी काफी हद तक खेती पर निर्भर है भले ही सकल घरेलू उत्पाद या विकास दर में उसका योगदान उतना न दिखाई पड़ता हो लेकिन सच्चाई तो यही है कि कृषि ही इस देश का बांधे रखती है। लेकिन यहाँ सर्वाधिक मुश्किल है कि हमारी कृषि का तीन चैथाई हिस्सा आज वर्षा पर आश्रित है। अगर वर्षा अच्छी हुई तो खेती अच्छी होती है और यदि वर्षा पहीं होती तो न ताने कितने गरीब किसानों को भूख और कर्ज से बेहाल होकर परिवार समेंत आत्महत्या करनी पड़ती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था बना गरीबों के लिए मजाक
वैसे तो भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबों के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन फिर भी कभी-कभार ऐसे लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाते हैं जिससे गरीब थोड़ा बहुत लाभान्वित हो जाता है। यूँ तो हमारे संसाधन सीमित हैं इसलिए अगर सब्सिडी ऐसी योजनाओं में दी जाए जो सीधे गरीबों तक पहुँचती हो, तो अमीर इसका अधिक फायदा नहीं उठा पायेंगे। इसलिए लक्षित वित्त -प्रणाली बनाई गई थी। योजना आयोग के आकड़ों के अनुसार 1993-94 में जब वितरण प्रणाली सबके लिए खुली थी तो इसका रिसाव 28 प्रतिशत था लेकिन 2004 -05 में जब यह प्रणाली सिर्फ गरीबों के लिए रह गई तो लीकेज़ 54 प्रतिशत हो गई। इससे गरीबों को तब भी कोई विशेष फायदा नहीं हुआ। लेकिन यहाँ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि इसका फायदा किसे ज्यादा होगा। सस्ते अनाज या नगद सब्सिडी का फायदा सच में गरीबों का होगा या अमीरों को इसमें भी लाभ होगा।
यद्यपि अर्थशास्त्रियों का मत है कि कैश ट्रांसफर प्रणाली से गरीबों के खातों में सीधे धन जायेगा लेकिन क्या वो यह अनुमान लगाना भूल गये कि कैश डालने के लिए जो बैंक एकाउंट खुलते हैं उन्हें खुलवाने से लेकर रकम आने और निकलवाने तक में ठकेदारों,जागीदारों अथवा बाबुओं का कमीशन तय होता है। 20 सितंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट में भेजी गई योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार तो गरीबी रेखा तय करने के लिए भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रूपये और शहरी क्षेत्रों में 32 रूपये प्रतिदिन व्यक्तिगत रूप से खर्च किया जाना पर्याप्त है। यह तो सीधे-सीधे गरीबों के मुँह पर एक तमाचा है, इससे गरीबी रेखा नहीं मुखमरी रेखा माना जाना चाहिए। क्योंकि दिन प्रतिदिन बढ़ती महंगाई और खाद्य पदार्थों की कीमतों में दिनों दिन होती बढ़ोतरी के चलते 26 और 32 रूपये में कोई एक वक्त की रोटी भी नहीं खा सकता। फिर सब्जी, दूध, चाय, चीनी, दाल, ईधन, बिजली, पानी, शिक्षा, बीमारी, दवाई और डाक्टर 32 रूपये में कैसे उपलब्ध हो सकता है। अब तो अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (I.F.P.R.I) International Food Policy Research Institute  द्वारा विकसित इंडियन स्टेट हंबर इंडेक्स के अनुसार भी भारत में भूखे लोगों की तदात सबसे ज्यादा है।
शहरों की ओर पलायन करता गरीब कैसे बन जाता है भिखारी
यद्यपि आज देश में गरीब और भूखमरी के खतरनाक हालात पैदा हो गए हैं। इससे निपटन के लिए बहुत जरूरी हो गया है कि सरकार सार्वजनिक खाद्य सुरक्षा प्रणाली लाये जिसके तहत आमदनी के हिसाब से ही उसे अनाज अन्य खाद्य पदार्थों में सब्सिडी मिल सके और आज तो भारत में छठे वेतन आयोग के बाद सरकारी कर्मियों की आय में कई गुना वृद्धि हुई है, यही नहीं मल्टीनेशनल कंपनियों और कोरपर्रेट सेक्टर से जुड़े लोगों को अपने करियर की शुरूआत से ही अच्छी खासी रकम प्राप्त हो जाती है। इसके बावजूद भी गरीबी रेखा के नीचे आने वाले व्यक्त्तियों में निरंतर वृद्धि हो रही है। उसका सबसे बड़ा कारण है बुनियादी आवश्यकताओं से महरूम होकर, कभी बाढ़ कभी सूखे के कारण प्रति वर्ष कितने ही किसान गाँव से पलायन कर शहर आ जाते हैं। यहाँ भी कोई समुचित सुविधा न मिल पाने की स्थिति में या तो मजदूरी करते हैं और मजदूरी भी न मिलने पर भीख मांगने लगते हैं।
यदि आज अकेले दिल्ली की बात करें तो दिल्ली की सड़कों पर प्रत्येक चैराहे, बसों, स्टेशनों पर सड़कों पर सैकड़ों भीखारी मिल जायेंगे। एक रूपये के लिए गिड़गिड़ाते ये भिखारी शहर की चकाचैध से आकर्षित होकर धीरे-धीरे अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं। चलती गाडि़यों से पर्स, मोबाइल चुराना इन भीख मांगने वालों के लिए साधारण बात है। यह भारत के लिए बहुत दुःखदायी प्रकरण है कि जहाँ आज काला धनकुबेरों की तिजोरियों में सड़ रहा है वहाँ करोड़ों लोग भूख और भुखमरी से त्रस्त से होकर या तो भीख मांग रहे हैं या अपराधी बन रहे हैं।
कहीं अनाज सड़ जाते हैं जो कहीं गरीब भूखे मर रहे हैं
wheat-stockप्रतिवर्ष लाखों टन अनाज भारतीय खाद्य निगम के गोदामों और अन्य स्थानों पर रखा-रखा सड़ जाता है। रिपोर्ट के अनुसार जन खाद्यान्न FCI (Food Corporation of India) के गोदामों में खराब पाया गया। जिससे दस साल तक छः लाख लोगों को भरपेट खाना लि सकता था। वर्ष 1997 से 2007 के बीच 1.83 लाख टन गेहूँ, 6.33 लाख टन चावल, 2.20 लाख टन और 111 लाख टन मक्का FCI के विभिन्न गोदामों में सड़ गई। यही नहीं ऐसे कितने ही लाखो टन अनाज हर साल सड़ जाते हैं। लेकिन यह सोचने की बात है कि यह अनाज सड़ गये या सड़ा दिए गये। क्योंकि जिस देश में गरीबों को पेट भरने के लिए दो मुट्ठी अनाज नहीं मिलता हो उसी देश में बीयर या शराब बनाने के लिए उसे किसी न किसी बहाने सड़ा दिया जाता है। क्योंकि उस पर भारी सब्सिडी तो मिलती ही है साथ ही सरकार को कई गुना राजस्व भी प्राप्त होता है।
सच तो यह है कि गरीबी और भूख से मरने वालों में अधिकांश लोग ग्रामीण किसान और आदिवासी ही होते हैं। गांव-देहात और खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति लगभग विदर्भ जैसी ही है। जहां एक ओर गरीब पेट भरने के लिए अनाज को तरस रहे है वहीं दूसरी ओर बड़े-बड़े महानगरों में शराब और बियर बनाने के लिए कई टन अनाजों को सड़ा दिया जा है। जिस देश में 23 करोड़ लोग प्रतिदिन भूखे रहते हैं, वहाँ 30 प्रतिशत खाद्य सामग्री भंडार के अभाव में खराब हो जाती है।
पाँच सितारा होटलों और शहरों में बसने वाले अमीरों के आयोजन बहुत भव्य होते हैं एक-एक प्लेट की कीमत कम से कम हजार रूपये से शुरू होकर दो हजार तीन हजार तक होती है। खाने वाले भी रईस तबके के लोग होते हैं। जो प्लेट में भोजन तो लेते हैं थोड़ा खाने के बाद उसे झूठा छोड़ना अपनी स्टेट्स सिंबल मानते हैं। होटल के सफाई कर्मचार उसे कूड़े में डाल देते हैं जिन्हें कुत्ते, बिल्ली, सुअर, गाय आदि जानवर खाते हैं। लेकिन यदि आयोजन के बाहर गेट पर कोई भिखारी या भूखा व्यक्ति थोड़ा सा खाना भीख में मांगता है तो उसे या तो दुत्कार दिया जाता है या फिर उसे दरबान द्वारा धक्का मारकर भगा दिया जात है।
यहाँ अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब
rich-poorsदेखा जाए तो हमारे देश में अमीर बहुत अमीर है, उसके पास इतना पैसा है कि कुछ व्यक्तियों के खजाने के बल पर पूरे देश में खुशहाली स्मृद्धि लाई जा सकती है, और जो गरीब है, वह बढ़ती महंगाई के कारण प्रतिदिन इतना गरीब हो रहा है कि जीवनयापन की (रोटी, कपड़ा, मकान) जैसी बुनियादी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर सकता है। देखा जाए तो देश में बढ़ती बेरोजगारी भी गरीबी और भुखमरी को एक बड़ा कारण बनी हुई है। शहरों में अगर हम भिखारियों की बात करें तो अकेले दिल्ली की सड़कों पर लगभग 58500 भिखारी होते हैं। जो सड़क के किनारे, हर ट्रेफिक सिग्नल के आस-पास हर अंडरपास फ्लाई ओवर, मंदिर-मस्जिद के बाहर, पार्कों में यहाँ तक की हर चैराहों या पब्लिक प्लेस पर यही नजारा देखने को मिलता है। इनमें से 95 प्रतिशत भिखारी दिल्ली के बाहर से आते हैं। 30 प्रतिशत भिखारी ज्यादातर युवा वर्ग यानी 18 वर्ष की आयु के हाते हैं। हर वर्ष लगभग 2500 भिखारी देश के अन्य राज्यों से दिल्ली आते हैं।
सच तो यह है कि भारत की चकाचैंध फैलाने में लगी भारतीय सरकार रोशनी के नीचे व्याप्त अंधियारे को या तो देखना नहीं चाती, या वह जान बूक्ष कर इस कड़वे सच से आँख मूंद वैश्विक पटल पर अपने झंडे गाड़ना चाहती है। तमात प्रयासों के बाद भी वह न तो गरीब पर अंकुश लगा पायी हैं। और न ही गांवों में ऐसी तकनीक ला पायी है जिससे लोगों का गाँवों से पलायन रूक जाये। यदि कोई योजना या कानून बनता भी है तो वह सिर्फ कागजों तक ही रह जात है।

विपिन सर (Maths Masti) और मैं

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