मौत के मुहाने पर : अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूर
लखविन्दर
पूँजीवादी विकास की रथयात्रा मज़दूरों का
जीवन कुचलते हुए ही आगे बढ़ती है। मज़दूरों के ख़ून-पसीने की एक-एक बूँद
निचोड़कर भी पूँजीपतियों की मुनाफे की प्यास नहीं बुझती। गुजरात के भावनगर
ज़िले में स्थित अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड (ए.एस.एस.बी.वाई.) विश्व
पूँजीवादी व्यवस्था के इस अमानवीय चरित्र का जीता-जागता उदाहरण है।
अलंग एशिया का सबसे बड़ा यार्ड है जहाँ
इस्तेमाल से बाहर हो चुके समुद्री जहाज़ों को तोड़ा जाता है यानी इन
जहाज़ों में लगे स्टील, प्लास्टिक, अन्य धातुओं आदि को दुबारा इस्तेमाल के
लिए अलग-अलग किया जाता है। यह यार्ड अलंग और सोसिया गाँवों के समुद्री
किनारों पर 10 कि.मी. तक फैला हुआ है जहाँ जहाज़ों को तोड़ने के लगभग 180
प्लॉट हैं। इस पूरे यार्ड में लगभग 40,000 मज़दूर काम करते हैं जो ज्यादातर
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा आदि राज्यों से आकर यहाँ काम कर रहे
हैं। यहाँ रोज़ लगभग 10 हज़ार टन माल जहाज़ों में से निकाला जाता है।
इसमें 95 प्रतिशत तो ऊँची गुणवत्ता का स्टील होता है। बाकी 5 प्रतिशत कबाड़
माल में अन्य धातुओं से बने हिस्से, पेंट और कोटिंगें, इन्सुलेशन और
सीलिंग सामग्री, बिजली के तार, केबिनों की दीवारों में लगा माल, सजावटी
माल, फर्श की कवरिंग आदि होता है। जहाज़ में ऐसी भी बहुत सारी चीजें होती
हैं जो घरों आदि में इस्तेमाल हो सकती है जिन्हें बाज़ार में बेच दिया जाता
है। लेकिन मुख्य मकसद बढ़िया क्वालिटी का स्टील प्राप्त करना होता है
जिससे भारत के उद्योगों की 10 से 15 प्रतिशत स्टील की ज़रूरत पूरी होती है।
यहाँ से देश की 120 रोलिंग मिलों में स्टील जाता है। यहाँ से एक्साइज़ और
कस्टम डयूटी के तौर पर सालाना 600 करोड़ रुपये सरकारी ख़ज़ाने में जाते
हैं। यानि इस पूरे कारोबार से जहाज़ तुड़वाने वाले ठेकेदार, पूँजीपति,
स्टील कम्पनियाँ और सरकार सालाना ख़ूब कमाते हैं लेकिन इसके मज़दूरों और
अलंग-सोसिया क्षेत्र के निवासियों को जो लूट और मुसीबतें झेलनी पड़ रही हैं
उन्हें शब्दों में पूरी तरह बयान कर पाना सम्भव नहीं है।
जब समुद्री जहाज इस्तेमाल करने लायक नहीं
रह जाते तब जर्मनी, इंग्लैण्ड, या अमेरिका के एजेण्ट इन्हें ख़रीदकर भारत
भेज देते हैं। समुद्री जहाज़ों में विस्फोटक पदार्थ, सेहत के लिए ख़तरनाक
रासायनिक पदार्थ आदि बड़ी मात्रा में होते हैं। इनकी वजह से जानलेवा हादसे
तो होते ही हैं बल्कि मज़दूरों और इलाके के लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी
भयानक नुकसान झेलने पड़ रहे हैं। 1970 के दशक में जहाज़ तोड़ने की
प्रक्रिया ऊँची तकनीक के ज़रिये मुख्यत: ब्रिटेन, ताइवान, स्पेन, मेक्सिको
और ब्राज़ील में निपटायी जाती थी। 1980 के बाद यह उद्योग एशिया के ग़रीब
देशों में स्थानान्तरित किया जाने लगा जहाँ बहुत कम कीमत पर काम करने वाले
मज़दूर आसानी से उपलब्ध थे। 1993 तक इस उद्योग का आधा हिस्सा चीन में
स्थानान्तरित हो चुका था। 21वीं सदी के शुरू में जहाज़ों को तोड़ने का
दुनिया का 70 प्रतिशत काम अलंग-सोसिया क्षेत्र में होने लगा और वह भी बेहद
कम और कामचलाऊ तकनीकी सुविधाओं के साथ। इसके अलावा पाकिस्तान के गदानी और
बंगलादेश के चटगाँव में भी इसी तरीके से यह काम होता है। जहाज़ों के मालिक
ख़तरनाक विस्फोटक और अन्य रासायनिक पदार्थों को भारत भेजने से पहले हटाते
भी नहीं हैं। पहले जिन देशों में यह काम होता था वहाँ के सख्त नियमों के
कारण पुराने जहाज़ों के मालिकों को इनमें से नुकसानदेह चीज़ें हटाने में
काफी ख़र्च करना पड़ता था। लेकिन भारत सरकार की दरियादिली के कारण अब वे
घातक सामानों से भरे जहाज़ को सीधे यार्ड में भेज देते हैं। आख़िर इसी तरह
तो देश का विकास होगा ना!
अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड में
रोज़ाना जानलेवा हादसे होते हैं। विशालकाय समुद्री जहाज़ों को तोड़ने का
काम मज़दूरों को बेहद असुरक्षित परिस्थितियों में करना पड़ता है। अपर्याप्त
तकनीकी सुविधाओं, बिना हेल्मेट, मास्क, दस्तानों आदि के मज़दूर जहाज़ों के
अन्दर दमघोटू माहौल में स्टील की मोटी प्लेटों को गैस कटर से काटते हैं,
जहाज़ों के तहख़ानों में उतरकर हर पुर्ज़ा, हर हिस्सा अलग करने का काम करते
हैं। अकसर जहाज़ों की विस्फोटक गैसें तथा अन्य पदार्थ आग पकड़ लेते हैं और
मज़दूरों की झुलसकर मौत हो जाती है। क्रेनों से अकसर स्टील की भारी
प्लेटें गिरने से मज़दूर दबकर मर जाते हैं। कितने मज़दूर मरते और अपाहिज
होते हैं इसके बारे में सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों को
तो पूरी तरह छिपा ही लिया जाता है। लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं। कुछ के
परिवारों को थोड़ा-बहुत मुआवज़ा देकर चुप करा दिया जाता है। ज़ख्मियों को
दवा-पट्टी करवाकर या कुछ पैसे देकर गाँव वापस भेज दिया जाता है। एक अनुमान
के मुताबिक अलंग यार्ड में रोज़ाना कम से कम 20 बड़े हादसे होते हैं और कम
से कम एक मज़दूर की मौत होती है। एक विस्फोट में 50 मज़दूरों की मौत होने
के बाद सरकार ने अलंग में मज़दूरों का हेल्मेट पहनना अनिवार्य बना दिया।
लेकिन हेल्मेट तो क्या यहाँ मज़दूरों को मामूली दस्ताने भी नहीं मिलते।
चारों तरफ आग, ज़हरीली गैसों और धातु के उड़ते कणों के बीच मज़दूर मुँह पर
एक गन्दा कपड़ा लपेटकर काम करते रहते हैं। ज्यादातर प्रवासी मज़दूर होने के
कारण वे प्राय: बेबस होकर सबकुछ सहते रहते हैं। इन मज़दूरों की पक्की
भर्ती नहीं की जाती है। उन्हें न तो कोई पहचान पत्र जारी होते हैं न ही
उनका कोई रिकार्ड रखा जाता है।
जहाज़ों को तोड़ने के दौरान पेंट, तेल,
प्लास्टिक पदार्थ आदि जलने से ज़हरीली रासायनिक गैसें पैदा होती हैं और
विभिन्न धातुओं और अन्य पदार्थों के कण हवा में घुलकर स्वास्थ्य के लिए
बेहद खतरनाक धूल पैदा करते हैं। समुद्री जहाज़ों में एस्बेस्टोस का काफी
बड़े स्तर पर इस्तेमाल होता है। वैज्ञानिकों ने यह साबित किया है कि
एस्बेस्टोस के सम्पर्क में रहने से कई अन्य रोगों के साथ-साथ कैंसर होने का
ख़तरा बहुत बढ़ जाता है। इसी वजह से यूरोप के देशों में एस्बेस्टोस के खनन
और इस्तेमाल पर क़ानूनी पाबन्दी है। लेकिन भारत में इस पर कोई रोकटोक नहीं
है। इन वजहों से अलंग-सोसिया क्षेत्र का सारा वातावरण भंयकर रूप से
प्रदूषित हो चुका है। मज़दूर तो इन ज़हरीली रासायनिक गैसों, एस्बेस्टोस
जैसे पदार्थों की खतरनाक धूल आदि के 12-14 घण्टे सीधे सम्पर्क में रहते
हैं। इसके अलावा उनकी रिहायश भी उसी इलाके में होती है। बहुत सारे मज़दूर
तो काम की जगह पर ही रहते भी हैं। ऐसे में मज़दूर प्रदूषण का सबसे अधिक
शिकार होते हैं। अधिकतर मज़दूर हैजा, टाइफाइड, और शीतपित्ती (चमड़ी का रोग)
से पीड़ित हैं। पूरे भारत में दस हजार के पीछे 8 लोगों को शीतपित्ती
(अर्टीकेरिया) होता है लेकिन अलंग-सोसिया क्षेत्र के दस हजार के पीछे 97
मज़दूर इस रोग से पीड़ित हैं। एस्बेस्टोस की धूल मज़दूरों के कपड़ों से
उनके घरों तक भी पहुँच जाती हैं जहाँ उनके साथ रहने वाले अन्य मज़दूरों या
पारिवारिक सदस्यों के शरीर में यह धूल चली जाती है। यहाँ शोध करने वाले
जर्मनी के पेशागत स्वास्थ्य विशेषज्ञ डा. फ्रैंक हिटमान का कहना है कि इस
क्षेत्र के हर चौथे मज़दूर को कैंसर होने की आशंका है। पिछले 20 वर्ष से चल
रहे इस धन्धे से आसपास के पर्यावरण की भयंकर तबाही हुई है। अगर अब यहाँ यह
धन्धा बन्द भी कर दिया जाये तो भी 10-12 वर्षों तक प्रदूषण का असर खत्म
नहीं होने वाला।
अलंग यार्ड में क़ानूनों का पालन कराने की
ज़िम्मेदारी दो सरकारी विभागों पर है — ग़ुजरात सामुद्रिक बोर्ड (जीएमबी)
और विस्फोट नियंत्रक (सी.ओ.ई.)। लेकिन हर औद्योगिक इलाके की तरह यहाँ भी
इनकी नाक के नीचे मालिक और ठेकेदार नियमों की धज्जियाँ उड़ाते रहते हैं।
रोज़ाना होने वाले हादसों के बाद ये दोनों विभाग मालिकों-ठेकेदारों पर आरोप
मढ़ते हैं लेकिन असल में यह सारा गोरखधन्धा इन सबकी मिलीभगत से चलता है।
दूसरी बात यह है कि जीएमबी जिसे 10 किमी के तटीय क्षेत्र में फैले इस बड़े
कारोबार का सर्वेक्षण करना होता है उसमें एक चीफ अफसर के अलावा सिर्फ तीन
सेफ्टी सुपरवाइज़र ही हैं जो चाहें भी तो हर जगह नज़र नहीं रख सकते।
लेकिन बात सिर्फ सरकारी महकमों के
भ्रष्टाचार की नहीं है। यह धन्धा बेरोकटोक चलता रहे भले ही कितने ही मज़दूर
हादसों और बीमारियों से मरें — यह भारत सरकार और गुजरात सरकार की साझी
नीति है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूँजी निवेश बढ़ाने के लिए श्रम
क़ानूनों को ”और भी लचीला” बनाने का वादा करके देशी-विदेशी पूँजीपतियों को
ललचा रहे हैं। गुजरात के जिस ”विकास” के आँकड़े चमकाकर नरेन्द्र मोदी को
प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया जा रहा है वह ”विकास” इसी तरह मज़दूरों की
लाशों और तबाह ज़िन्दगियों पर कदम रखकर आगे बढ़ रहा है।
देश की ऊँची अदालतें बीच-बीच में अलंग में
मौत के इस कारोबार को नियंत्रित करने, ख़तरनाक पदार्थों वाले जहाज़ों को
यहाँ न तोड़ने, पर्यावरण की तबाही रोकने और मज़दूरों की सुरक्षा के लिए
”ठोस” कदम उठाने के लिए आदेश जारी करती रहती हैं, कभी केन्द्र तो कभी
गुजरात सरकार की ओर से हालात की जाँच के लिए कमीशन और टीमें बनायी जाती
रहती हैं, मगर हर साल अरबों के मुनाफे का यह ख़ूनी खेल बेरोकटोक जारी है।
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