बोफोर्स का पूरा सच
भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे मशहूर रहे कांड का नाम बोफोर्स कांड है. इस कांड ने राजीव गांधी सरकार को दोबारा सत्ता में नहीं आने दिया. वी पी सिंह की सरकार इस केस को जल्दी नहीं सुलझा पाई और लोगों को लगा कि उन्होंने चुनाव में बोफोर्स का नाम केवल जीतने के लिए लिया था. कांग्रेस ने इस स्थिति का फायदा उठाया और देश से कहा कि बोफोर्स कुछ था ही नहीं. यदि होता तो वी पी सिंह की सरकार उसे जनता के समक्ष अवश्य लाती. सीबीआई की फाइलों में इस केस का नंबर है-आरसी 1(ए)/90 एसीयू-आईवीएसपीई, सीबीआई, नई दिल्ली. सीबीआई ने 22.01.1990 को इस केस को दर्ज किया था, ताकि वह इसकी जांच कर सच्चाई का पता लगा सके.बोफोर्स महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार को लेकर सरकार का नज़रिया. टू जी स्पेक्ट्रम इसी नज़रिए का परिणाम है और आरुषि हत्याकांड भी. सबूत न जुटाए जाएं, जांच सही तरीक़े से न की जाए और फिर अदालतों में कहा जाए कि घटना तो हुई, लेकिन हम साक्ष्य नहीं जुटा पाए, इसलिए जांच बंद करने की अनुमति दी जाए. यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. अगर यह चलन ज़्यादा बढ़ेगा तो हम अफ्रीकी देशों के रास्ते पर चल पड़ेंगे.इस केस को दर्ज करने के लिए सीबीआई के आधार सूत्र थे-कुछ तथ्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य, मीडिया रिपोट्र्स, स्वीडिश नेशनल ब्यूरो की ऑडिट रिपोर्ट, ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी की रिपोर्ट में आए कुछ तथ्य और कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट. यद्यपि 1987 के बाद से ही देश में बोफोर्स सौदे को लेकर का़फी बहसें और शंकाएं खड़ी कर दी गईं थीं और इस सवाल को राजनीतिक सवाल भी बना दिया गया था. मामला इतना गंभीर बन गया था कि संसद को संयुक्त संसदीय समिति बनानी पड़ी, लेकिन सरकार ने अपनी जांच एजेंसी को इसकी जांच नहीं सौंपी. जब 1989 में सरकार बदली, तब यह निर्णय हुआ कि इसकी जांच कराई जाए, तभी सीबीआई ने इसकी एफआईआर लिखी.
सीबीआई ने जब उपरोक्त रिपोर्ट का अध्ययन किया, तब उसे लगा कि सन् 1982 से 1987 के बीच कुछ पब्लिक सर्वेंट्स ने (हिंदी में इन्हें लोक सेवक कहते हैं, पर हम पब्लिक सर्वेंट्स लिखेंगे) कुछ खास असरदार व्यक्तियों के साथ मिलकर आपराधिक षड्यंत्र किया और रिश्वत लेने और देने का अपराध किया है. ये व्यक्ति देश व विदेश से संबंध रखते थे. सीबीआई ने यह भी नतीजा निकाला कि ये सारे लोग धोखाधड़ी, चीटिंग और फोर्जरी के भी अपराधी हैं. यह सब उसी कांट्रैक्ट के सिलसिले में हुआ, जो 24.3.1986 को भारत सरकार और स्वीडन की कंपनी ए बी बोफोर्स के बीच संपन्न हुआ था. एक निश्चित प्रतिशत धनराशि बोफोर्स कंपनी द्वारा रहस्यमय ढंग से स्विट्जरलैंड के पब्लिक बैंक अकाउंट्स में जमा कराई गई और भारत सरकार के पब्लिक सर्वेंट्स को और उनके नामांकित लोगों को दी गई, जबकि भारत सरकार ने सभी आवेदनकर्ताओं को सूचित कर दिया था कि इस सौदे में कोई बिचौलिया नहीं रहेगा.
भारत सरकार अच्छी तोपें खरीदना चाहती थी, ताकि वह सीमाओं को और सुरक्षित कर सके. उसने जब इसके लिए अच्छी तकनीक की तलाश की तो तीन देश सामने आए-फ्रांस, आस्ट्रिया और स्वीडन. इसमें भी अंत में फ्रांस और स्वीडन ही रह गए, क्योंकि स्वीडन और आस्ट्रिया ने मिलकर एक ग्रुप सा बना लिया था. स्वीडन की कंपनी ने आस्ट्रिया की कंपनी को आश्वासन दिया था कि तोप वह देगी और गोला-बारूद आस्ट्रिया देगा. आस्ट्रिया इस आश्वासन के बाद पीछे हट गया और स्वीडन की बोफोर्स कंपनी फ्रांस की सोफमा कंपनी के मुक़ाबले में बची रह गई.
जांच में सीबीआई के सामने यह बात आई कि ए बी बोफोर्स कंपनी ने यह सौदा भारत में कुछ पब्लिक सर्वेंट्स के साथ मिलकर आपराधिक षड्यंत्र करके हासिल किया है, ये सभी निर्णय लेने की प्रक्रिया के ज़िम्मेदार व्यक्ति थे, जबकि इन्हें मालूम था कि ये जिस गन सिस्टम (तोप) के पक्ष में निर्णय दे रहे हैं, वह दूसरे गन सिस्टम के म़ुकाबले तकनीकी रूप से कमज़ोर है.
फरवरी 1990 में भारत सरकार ने इस कांड की संपूर्ण जांच का अनुरोध स्विस अधिकारियों से किया. इसके लिए भारत सरकार ने स्विस अधिकारियों को लेटर रोगेटरी भेजा, जिसे दिल्ली की विशेष अदालत ने जारी किया. इसमें यह मांग की गई कि स्विस अधिकारी यह बताएं कि ए बी बोफोर्स ने ए ई सर्विसेज को कब और कितना पैसा दिया है.
जांच में यह भी पता चला कि ए बी बोफोर्स ने ओट्टावियो क्वात्रोची के अलावा कुछ और लोगों के साथ भी साठगांठ कर ए ई सर्विसेज को अपना एक एजेंट बना दिया है, जिसका एग्रीमेंट उसने 15.11.1985 को किया, ताकि उसे कांट्रैक्ट मिल सके. जबकि भारत सरकार की नीति थी कि कोई बिचौलिया नहीं रहेगा. क्वात्रोची इस एग्रीमेंट को करने वाले मुख्य व्यक्ति के रूप में सामने आए. ए बी बोफोर्स ने उन्हें 73,43,941 अमरीकी डॉलर दिए, जो उनके उस अमरीकी अकाउंट में जमा किए गए, जो केवल इसी काम के लिए खोला गया था. जमा कराने की तारीख 8.9.1986 थी.
स्विस अधिकारियों ने लेटर रोगेटरी के एक हिस्से पर कार्रवाई की और भारत सरकार को आधिकारिक जानकारी दी, जिसके मुताबिक़, ए ई सर्विसेज के अकाउंट में जो रकम बोफोर्स कंपनी ने जमा कराई थी, वह फिर आगे जाकर ट्रांसफर की गई. आठ दिन के अंतराल के बाद इस रकम में से 71,23,900 अमरीकी डॉलर दो किस्तों में स्विट्जरलैंड के एक बैंक में ट्रांसफर किए गए. तारी़ख 16.9.1986 को 7,00,000 डॉलर और तारी़ख 29.9.1986 को 1,23,900 डॉलर ट्रांसफर हुए. यह सारी रकम जेनेवा में यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड में खोले गए मै. कोलंबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक नाम की कंपनी के खाते में जमा हुई. इस अकाउंट को ऑपरेट और कंट्रोल करने का अधिकार ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी को था. जब ये अकाउंट खोले गए, तब ओट्टावियो क्वात्रोची दिल्ली में काम करता था और इटालियन कंपनी स्नैम प्रोगेत्ती के रीजनल डायरेक्टर के पद पर तैनात था. वह दिल्ली में रहता था, पर उसने खाते खोलते हुए जो पता लिखाया, वह पता कहीं था ही नहीं.
इस रकम को ओट्टावियो क्वात्रोची के निर्देश पर फिर ट्रांसफर किया गया. मै. वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए ऑफ पनामा के अकाउंट में इसी बैंक में यह रकम ट्रांसफर हुई. ट्रांसफर करने की तारी़ख थी 25.7.1998. यह कंपनी पनामा में 6.8.1987 को बनाई गई और 7.8.1988 को भंग कर दी गई. दरअसल यह कंपनी स़िर्फ इसलिए ही बनाई गई थी कि बैंक अकाउंट के ज़रिए धनराशि के अवैध लेन-देन के लिए इसे इस्तेमाल किया जा सके. इस खाते को भी क्वात्रोची और उनकी पत्नी व्यक्तिगत रूप से ऑपरेट किया करते थे.
इस साज़िश में शामिल लोगों को किसी प्रकार का डर नहीं था, क्योंकि जब स्विस अधिकारी लेटर रोगेटरी पर काम कर रहे थे, उसी समय 2,00,000 अमरीकी डॉलर फिर से वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए अकाउंट से (जो यू बी एस जेनेवा में है) निकाल कर इंटर इन्वेस्टमेंट डेवलपमेंट कंपनी के अकाउंट में एन्सबाशेर लिमि. के पक्ष में सेंट पीटर पोर्ट गुएरन्से में ट्रांसफर किए गए. ट्रांसफर की तारी़ख थी 21.5.1990. इसके बाद किन अकाउंटों में यह पैसा किन देशों में गया, इसकी जांच अभी जारी है, क्योंकि जांचकर्ताओं का अनुमान है कि यह कई देशों में ट्रांसफर किया गया होगा.
ओट्टावियो क्वात्रोची इटालियन पासपोर्ट पर भारत में 1967 से रह रहा था. उसने अचानक जुलाई 1993 में भारत छोड़ दिया. ऐसा उसने तब किया, जब उसका नाम खुला कि वह स्विस कोर्ट में उन अपील करने वालों में से एक है, जो चाहते थे कि लेटर रोगेटरी पर कार्रवाई रुक जाए और स्विस अधिकारी जांच का काम बंद कर दें. जांच में यह बात स्पष्ट हो गई कि ओट्टावियो क्वात्रोची उस दलाली में हिस्सेदार है, जिसका हिस्सा उसे बोफोर्स तोप सौदे के बाद मिला. उसने इसका इस्तेमाल भारत के उच्च पदस्थ सिविल सर्वेंट्स और अपने लिए किया. पर मज़ेदार बात यह है कि सीबीआई को ओट्टावियो क्वात्रोची का पता कैसे चला कि वह बोफोर्स तोप सौदे में मुख्य भूमिका निभा चुका है, और ए ई सर्विसेज नाम की कंपनी का मालिक भी वही है और इसके नाम से खुले बैंक अकाउंट को भी वही ऑपरेट करता है.
यह कहानी अपराधी के हड़बड़ेपन और अपराध छुपाने की कोशिश की धमाचौकड़ी के बीच उजागर हुई है. जब स्विस अधिकारियों ने भारत सरकार के लेटर रोगेटरी पर काम शुरू किया और स्वीडन में नेशनल ऑडिट ब्यूरो ने अलग जांच शुरू की, तब बोफोर्स कंपनी से प्राप्त धन को नियंत्रित करने वाले सात खाताधारकों को लगा कि कहीं उनका नाम न खुल जाए. उन्होंने स्विस अदालतों में अपील दायर की कि यह जांच रोक दी जाए. विभिन्न अदालतों से होती हुई अपील स्विस सुप्रीम कोर्ट में पहुंची. मज़े की बात है कि सीबीआई को इस समय तक पता नहीं चल पाया था कि ये सात खाताधारक कौन हैं. इतना ही नहीं, सीबीआई को यह भी नहीं पता चल पाया कि ए ई सर्विसेज का खाता कौन ऑपरेट कर रहा है.
जब स्विस सुप्रीम कोर्ट ने इन सातों की अपील खारिज कर दी, तब पहली बार सीबीआई को जांच अधिकारी ने सूचित किया कि सात अपीलकर्ताओं में ओट्टावियो क्वात्रोची का नाम शामिल है. जिस दिन सीबीआई को क्वात्रोची के नाम पता चला, उस दिन तारी़ख थी 23.7.1993, लेकिन इसके बाद भी सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के काग़ज़ात नहीं मिले. यह भी आश्चर्य है कि काग़ज़ात क्यों नहीं मिले. उन दिनों प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे. यह भी जांच का विषय है कि क्या सीबीआई ने कोशिश नहीं की, या उसे कोशिश करने नहीं दी गई. यह भी संयोग ही कहा जाएगा कि जब नरसिंह राव की सरकार का पतन हो गया और देवगौड़ा की सरकार बनी, तभी सीबीआई को स्विस सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के काग़ज़ात मिल पाए.
जनवरी 1997 में सीबीआई को स्विस अधिकारियों ने दस्तावेज सौंपे. इन दस्तावेजों के अध्ययन से पहली बार पता चला कि ए ई सर्विसेज के अकाउंट के मुख्य लाभार्थी और ऑपरेटर ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी मारिया क्वात्रोची हैं. यह भी पता चला कि वह इस सौदे को कराने में बोफोर्स की ओर से मुख्य एजेंट या बिचौलिया था, जिसने भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों पर दबाव डाला और सौदा बोफोर्स के पक्ष में कराया. इस अकाउंट से उसने पैसा कहां, कैसे, किन तारीख़ों में और किन अकाउंटों में ट्रांसफर किया, यह एक अलग कहानी है. इतना ही नहीं, उसके भारत की सर्वोच्च राजनीतिक ताकतों और सर्वोच्च नौकरशाहों से कैसे संबंध थे और उन पर कैसा दबाव था, यह भी रहस्यमयी दास्तान है.
क्वात्रोची की इनसे भी निकटता थी…
इटालियन व्यवसायी ओट्टावियो क्वात्रोची, जिसका नाम बोफोर्स घोटाले में का़फी उछला, के गांधी परिवार के साथ घनिष्ठ संबंध थे और उनके घर में बेरोकटोक आना-जाना था. यह नया खुलासा आईबी के एक अफसर नरेश चंद्र गोसांई और क्वात्रोची के ड्राइवर शशिधरण ने सीबीआई के सामने किया. गोसांई स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की एसपीजी सुरक्षा में था और बाद में 1987 से 1989 के बीच सोनिया गांधी का पर्सनल सिक्योरिटी ऑफिसर भी रहा था. खुलासे के मुताबिक़, राजीव गांधी के कार्यकाल में क्वात्रोची और उसकी पत्नी मारिया का प्रधानमंत्री आवास में बेरोकटोक आना-जाना था. 1993 में भारत से भागने के पहले तक गांधी परिवार के घर पर क्वात्रोची की आवाजाही बनी रही. शशिधरण का बयान क्वात्रोची की कार की लॉगबुक पर आधारित है, जो कि स्नैम प्रोगेत्ती नाम की इटालियन कंपनी द्वारा रखी जाती थी और जिसका रीजनल डायरेक्टर क्वात्रोची था.गोसांई के मुताबिक़, प्रधानमंत्री आवास पर निजी गाड़ियों के आने पर सख्त रोक है. बस क्वात्रोची और उसकी पत्नी के लिए ही कोई नियम-क़ानून नहीं था. गोसांई कहते हैं कि प्रधानमंत्री आवास के अंदर जाने के लिए पास बनवाना ज़रूरी होता है, लेकिन क्वात्रोची और उसके परिवार के सदस्यों के लिए पहले से ही हमेशा एक पास तैयार रहता था, ताकि वे कभी भी आ-जा सकें. प्रधानमंत्री आवास पर तैनात होने वाले सारे एसपीजी अधिकारी क्वात्रोची और उसके परिवारजनों को पहचानते थे, जिसकी वजह से उनकी पहचान की जांच नहीं होती थी.
गांधी परिवार से क्वात्रोची की निकटता बोफोर्स कांड में उसका नाम आने के बाद भी बनी रही. शशिधरण के बयान के अनुसार, 1985 में क्वात्रोची और मारिया क्वात्रोची राजीव और सोनिया के घर दिन में दो-तीन बार आते थे. शशिधरण क्वात्रोची की डीआईए 6253 नंबर की मर्सिडीज चलाता था. शशि कहता है कि जब कभी भी सोनिया गांधी के माता-पिता भारत आते थे, तब वह उन्हें क्वात्रोची के घर ले जाता था. वे दिन भर वहीं रहते थे और मारिया क्वात्रोची उन्हें खरीदारी के लिए घुमाने ले जाती थी. वे साल में 4 या 5 बार भारत आते थे. शशिधरण की कार लॉगबुक के रिकॉर्ड के अनुसार, क्वात्रोची 1989 से 1993 के बीच सोनिया और राजीव से 41 बार मिला.
ग़ौरतलब है कि क्वात्रोची और सोनिया गांधी, 1991 में राजीव गांधी की मृत्यु के बाद भी एक-दूसरे से पहले की ही तरह मिलते रहे. शशि कहता है कि मई 1991 के बाद क्वात्रोची 21 बार दस जनपथ गया. शशि कहता है कि जब क्वात्रोची भारत छोड़ रहा था, तब उसने खुद 29 जुलाई 1993 को उसे एयरपोर्ट तक पहुंचाया था. उस वक्त क्वात्रोची के पास एक ब्रीफकेस के अलावा कुछ नहीं था और उसने शशि से कहा कि वह एक जरूरी मीटिंग के लिए जा रहा है. यह अजीब बात थी, क्योंकि आमतौर पर जब भी क्वात्रोची को कार चाहिए होती थी तो वह पहले शशि को बता देता था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ.
इन सारे खुलासों पर भारत सरकार खामोश है और सोनिया गांधी भी, जबकि सीबीआई को दिए गए बयान पर सरकार की प्रतिक्रिया आनी चाहिए और सोनिया गांधी की भी.
और भी गुल खिला सकते थे क्वात्रोची
जिन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उन दिनों अ़खबारों में ओट्टावियो क्वात्रोची का नाम अक्सर आता था. जो लोग प्रधानमंत्री निवास में जाते थे, उन्हें भी क्वात्रोची वहां गाहे-बगाहे दिखाई दे जाता था. राजीव गांधी की ससुराल भी इटली थी तथा क्वात्रोची भी इटली का था, अतः यह संभावना पैदा होती है कि उसने इटली का कोई संपर्क तलाश लिया हो, जिसके कारण राजीव गांधी ने उसे प्रधानमंत्री निवास में आने की छूट दे रखी हो. क्वात्रोची जिस फर्म स्नैम प्रोगेत्ती का रीजनल डायरेक्टर था, उस फर्म को देश की सबसे बड़ी पाइप लाइन, जगदीशपुर हजीरा पाइप लाइन बिछाने का ठेका भी मिल गया था.सीबीआई की फाइलों में जो जांच रिपोर्ट है, वह बताती है कि उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के परिवार तथा ओट्टावियो क्वात्रोची के बीच बहुत ही घरेलू, नजदीकी और आत्मीय संबंध थे. वे आपस में जल्दी-जल्दी मिलते थे, ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उनके परिवार का दखल प्रधानमंत्री निवास में था. बेतकल्लुफी और नज़दीकी उन तस्वीरों में सा़फ झलकती है, जो इस समय सीबीआई के पास हैं. ओट्टावियो क्वात्रोची अपने को बहुत असरदार व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता था. जब तक क्वात्रोची भारत में रहा, लगातार फोन से महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों से संपर्क करता रहता था.
ध्यान देने की बात है कि बोफोर्स कंपनी ने कमीशन के नाम पर सेक 50,463,966,00 ए ई सर्विसेज को 3.9.1986 को दिए थे. इस सारी रकम को ए ई सर्विसेज ने ओट्टावियो क्वात्रोची की कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के अकाउंट में, जो जेनेवा स्थित यू बी एस बैंक में था, 16.9.1986 तथा 29.9.1986 को ट्रांसफर कर दिया. ए बी बोफोर्स और भारत सरकार के बीच हुए क़रार की शर्त के अनुसार भारत सरकार ने सौदे की 20 प्रतिशत अग्रिम राशि सेक 1,682,132,196.80 तारीख 2.5.1986 को बोफोर्स कंपनी को दे दी. ए ई सर्विसेज ने कमीशन के तौर पर जो रकम सेक 50,463,966.00 बोफोर्स कंपनी से प्राप्त की, वह उस रकम का 3 प्रतिशत बनती है, जो भारत सरकार ने बोफोर्स कंपनी को अग्रिम राशि के नाते अदा की थी. यह रकम उस अनुबंध की शर्त के अनुसार थी, जो बोफोर्स और ए ई सर्विसेज के बीच 15 नवंबर 1985 को हुआ था.
भारत सरकार और भारत को तोप बेचने की इच्छुक कंपनियों के बीच इस सौदे के बारे में 1984 में बातचीत हुई. नेगोशिएटिंग कमेटी की पहली बैठक 7.6.1984 को हुई. इसके बाद विभिन्न अवसरों पर यह कमेटी 17 बार मिली. सेना की पहली प्राथमिकता उस समय सोफमा तोप थी. पर 17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने पहली बार अपनी रुचि बोफोर्स तोप में दिखाई तथा इसे सोफमा पर प्राथमिकता दी. इसके बाद तो बोफोर्स तोप में अनावश्यक रुचि दिखाई जाने लगी. अचानक नेगोशिएशन की प्रक्रिया तेज़ हो गई. 17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने अपनी रिपोर्ट में बोफोर्स तोप को बाकी सब पर पहला स्थान दिया. इस कमेटी ने रहस्यमय जल्दबाजी की. इसने एक ही दिन 12.3.1986 को मीटिंग कर लैटर ऑफ इंटैंट (आशय पत्र) बोफोर्स कंपनी के पक्ष में जारी करने की स़िफारिश करने का फैसला ले लिया. इसी दिन, यानी 12.3.1986 को संयुक्त सचिव (ओ) ने एक नोट बनाया, ताकि रक्षा राज्यमंत्री अर्जुन सिंह, रक्षा राज्यमंत्री सुखराम, वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भेजा जा सके. यह नोट उसी दिन संबंधित अफसरों और मंत्रियों को भेजा गया और उन्होंने उसी दिन उस पर सहमति भी दे दी. इस नोट पर किसने कब हस्ताक्षर किए, वह इस तालिका से स्पष्ट हो जाएगा:
1.सेक्रेटरी डिफेंस (श्री एस के भटनागर) 12.3.1986, 2. सेक्रेटरी, डिफेंस प्रोडक्शन और सप्लाई (श्री पी सी जैन) 13.3.1986, 3. रक्षा राज्यमंत्री (श्री सुखराम) 13.3.1986, 4. रक्षा राज्यमंत्री (अर्जुन सिंह) 13.3.1986, 5. फाइनेंशियल एडवाइजर (श्री सी एल चौधरी) 13.3.1986, 6. सेक्रेटरी एक्सपेंडिचर (श्री गनपथी) 13.3.1986, 7. फाइनेंस सेक्रेटरी (श्री वी वेंकटरमन) 13.3.1986, 8. वित्त मंत्री (श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह) 13.3.1986, 9. प्रधानमंत्री, जिन्होंने रक्षा मंत्री के नाते हस्ताक्षर किए (श्री राजीव गांधी) 14.3.1986.
यह तालिका बताती है कि संयुक्त सचिव (ओ) ने 12.3.1986 को नोट तैयार किया तथा इसके बाद बहुत ही ज़्यादा रुचि लेकर जल्दबाजी दिखाई गई. यह फाइल छह विभिन्न विभागों के अफसरों के पास भेजी गई. केवल 48 घंटों के भीतर 11 अफसरों एवं मंत्रियों के संक्षिप्त हस्ताक्षर कराए गए. सवाल उठता है कि इतनी जल्दबाजी की ज़रूरत क्यों थी?
इस जल्दबाजी का जवाब तलाशना चाहें तो वह हमें बोफोर्स कंपनी तथा ए ई सर्विसेज के बीच हुए अनुबंध में लिखी शर्त से मिल जाता है. यह अनुबंध 15.11.1985 को हुआ था. अनुबंध की इस महत्वपूर्ण धारा में लिखा है कि ए ई सर्विसेज को कमीशन तभी मिलेगा, जब बोफोर्स कंपनी को यह सौदा मार्च 1986 से पहले मिल जाएगा. इस अनुबंध की रोशनी में फाइल की तेज़ी तथा कमीशन का संबंध स्पष्ट हो जाता है, जिसे ओट्टावियो क्वात्रोची तथा अन्यों ने प्राप्त किया. इससे यह भी पता चलता है कि ओट्टावियो क्वात्रोची का संबंध उन लोगों से भी था, जो इस डिसीजन प्रोसेस में शामिल रहे हैं. आगे की घटनाएं भी कहानी अपने आप बनाती हैं. 12 मार्च 1986 के बाद के 48 घंटों में 11 अफसरों और मंत्रियों के हस्ताक्षर फाइल पर कराकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वयं अपने हस्ताक्षर 14.3.1986 को किए. 14.3.1986 को ही उन्हें स्वीडन की यात्रा पर जाना था. वह गए भी. उसी दिन स्वीडन पहुंचते ही उन्होंने स्वीडिश प्रधानमंत्री ओलेफ पाल्मे को सूचित किया कि भारत सरकार ने तोपों की खरीद का सौदा बोफोर्स कंपनी को देने का निर्णय लिया है.
इस फैसले को लेने के लिए जो कार्रवाई चली, उनके काग़ज़ात यह बताते हैं कि फैसला स़िर्फ बोफोर्स को लैटर ऑफ इंटैंट (आशय पत्र) जारी करने का था. यह फैसला अपने आप में अस्वाभाविक था, क्योंकि तब तक दो प्रतिद्वंद्वी कंपनियां बोफोर्स और सोफमा बहुत ही कम रियायतें देने की बात कर रही थीं. जल्दी में यह फैसला लिया गया, अन्यथा प्रतिद्वंद्वी कंपनियां कंपटीटिव रेट देतीं. लैटर ऑफ इंटैंट जारी करने के इस फैसले ने सौदा करने की प्रक्रिया का उल्लंघन किया. शायद इसके पीछे नीयत थी कि स्वीडन को यह बताना था कि सौदे का फैसला उसके पक्ष में लिया जा चुका है.
इस केस में ओट्टावियो क्वात्रोची के नाम का खुलासा पहली बार 23.3.1993 को हुआ, जब इंटरपोल स्विट्जरलैंड ने भारत सरकार को सूचित किया कि जिन सात लोगों ने स्विस सुप्रीम कोर्ट में जांच कार्रवाई रोकने की अपील की थी, वह सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दी है. इन सात लोगों में एक नाम ओट्टावियो क्वात्रोची का भी है. इस सूचना के खुलासे के छह दिन के बाद ओट्टावियो क्वात्रोची ने 29.7.1994 को जल्दबाजी में अपनी पत्नी के साथ भारत छोड़ दिया तथा वह आज तक भारत वापस नहीं आया. सीबीआई ने क्वात्रोची के इस तरह भारत छोड़ने को, जो कि उसके नाम की जानकारी आने के बाद जल्दबाजी में उसने किया तथा उसके द्वारा स्विस सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार द्वारा जारी लैटर रोगेटरी पर अमल रुकवाने की कोशिश को प्रथम दृष्ट्या या इस अपराध में उसका लिप्त होना माना है.
भारत सरकार की जांच एजेंसी सीबीआई, जो इस सारे मामले की जांच कर रही है, स्विस अधिकारियों से जनवरी 1997 में सारे काग़ज़ात प्राप्त कर पाई तथा तभी वह जान पाई कि ए ई सर्विसेज के अकाउंट में जमा हुई रकम का लाभार्थी ओट्टावियो क्वात्रोची है. प्राप्त हुई रकम की पहली किस्त भी 7.34 मिलियन डॉलर थी. क्वात्रोची को बोफोर्स ने अपना एजेंट ही इसीलिए बनाया था, ताकि वह न केवल सरकार पर दबाव डाल सके, बल्कि रिश्वत देकर उसे 1437.72 करोड़ का तोप सौदा दिला सके . पहले चरण में फ्रांस की सोफमा को पसंद किया गया, पर बाद में अचानक नाटकीय परिवर्तन आ गया.
ए ई सर्विसेज को कमीशन तभी मिलता, जब सौदा 31.3.1986 से पहले हो जाता. भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 15.3.1986 को स्वीडन की यात्रा कर वहां घोषणा की कि तोप खरीद का सौदा बोफोर्स के साथ हो गया है. क्वात्रोची ने सौदे को बोफोर्स कंपनी द्वारा निश्चित की गई समय सीमा 31.3.1986 के भीतर पूरा करा दिया. भारत सरकार ने 25.5.1986 को अग्रिम धनराशि की पहली किस्त बोफोर्स कंपनी को दी. अगस्त 1986 में ए ई सर्विसेज का अकाउंट मायल्स स्टाट ने खोला. सीबीआई का मानना है कि यह सब संयोग नहीं है.
आखिर ओट्टावियो क्वात्रोची को बोफोर्स कंपनी ने अपना एजेंट क्यों बनाया, जबकि क्वात्रोची को हथियारों एवं रक्षा संबंधी मामलों का कोई ज्ञान नहीं है. क्वात्रोची एक चार्टर्ड अकाउंटेंट है तथा 1968 से 1993 के बीच वह स्नैम प्रोगेत्ती का चीफ एग्जीक्यूटिव अफसर था. उसका ज्ञान केवल पाइप लाइन बिछाने तथा तेल ट्रांसपोर्टेशन तक ही सीमित था. क्वात्रोची के साथ यह तथाकथित कंसलटैंसी एग्रीमेंट दरअसल बोफोर्स कंपनी द्वारा किया गया ऐसा एग्रीमेंट था, ताकि वह तोप सौदे की दौड़ में जीत सके तथा इसे प्राप्त करने के लिए क्वात्रोची का दबाव जो कि नौकरशाहों व राजनीतिज्ञों पर था, इस्तेमाल किया जा सके. यह नतीजा निकाला जा सकता है कि बिना इस तरह के दबाव को बनाए बोफोर्स कंपनी यह तोप सौदा हासिल नहीं कर सकती थी. भारत सरकार द्वारा दी गई पहली इंस्टालमेंट की रकम का 3 प्रतिशत कमीशन के रूप में दिया जाना यह साबित करता है कि ओट्टावियो क्वात्रोची ने सौदे को नेगोशिएट किया तथा ए बी बोफोर्स के पक्ष में पलड़ा झुका दिया. इसका यह भी मतलब निकलता है कि यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहने वाली थी तथा क्वात्रोची इस हैसियत में था कि वह आगे भी भारत के उस समय के प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री तथा दूसरे पब्लिक सर्वेंट्स के साथ सफलतापूर्वक सौदे करा सकता था, जिसके बदले में उसे का़फी लाभ तथा कमीशन मिलता. यह सारी बातें प्रिवैंशन ऑफ करप्शन एक्ट तथा इंडियन पैनल कोड के खिला़फ हैं.
बोफोर्स कंपनी ने भी सरकार को अंधेरे में रखा
राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के साथ कई चमत्कारिक काम किए थे. उन्होंने कहा था कि वह सत्ता के दलालों को पास नहीं आने देंगे, क्योंकि ये गुमराह करते हैं. उन्होंने कहा था कि दिल्ली से विकास के लिए जाने वाले एक रुपये का 85 पैसा दलालों और नौकरशाहों की जेब में चला जाता है, केवल पंद्रह पैसा ही विकास पर खर्च होता है. राजीव गांधी ने इक्कीसवीं शताब्दी में देश को जाने के लिए तैयार रहने की बात कही थी. इसी क्रम में उन्होंने अचानक कैबिनेट की मीटिंग में कहा कि आज से देश के साथ होने वाले किसी सौदे में कोई बिचौलिया नहीं होगा. इसे उन्होंने देश की एक्सप्रेस पॉलिसी कहा. उनसे उनके साथियों ने भी कहा कि दुनिया का व्यापार बिना मिडलमैन के नहीं चलता, तब हम कैसे चलाएंगे. राजीव गांधी ने इसे नहीं माना तथा कहा कि बिचौलियों को मिलने वाला पैसा दरअसल देश का ही होता है, अत: उन्हें हटाने से देश का फायदा होगा. उन्होंने अपने मंत्रियों तथा केंद्र सरकार के सभी सचिवों को इसका सख्ती से पालन करने का आदेश दिया. इसलिए जब भारत के लिए तोपें खरीदने की बात तय हुई, तबभारत सरकार ने बातचीत के दौरान बोफोर्स कंपनी के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन ओर्डिबो तथा दूसरी कंपनियों को स्पष्ट कर दिया था कि किसी भी एजेंट या बिचौलिए को कोई भी कंपनी तोप खरीद सौदे में नहीं रखेगी. मई 1985 में उस समय के रक्षा सचिव श्री एस के भटनागर ने ए बी बोफोर्स के अध्यक्ष तथा दूसरे निविदादाताओं को विशेष तौर पर लिख दिया था कि 155 होवित्जर तोप सौदे में किसी भी मध्यस्थ को न लाया जाए. इतना ही नहीं, यदि पहले भी किसी ने किसी को एजेंट बनाया था तो उस कमीशन की रकम को तोप सौदे की रकम से घटाया जाए. बोफोर्स कंपनी के अध्यक्ष मार्टिन ओर्डिबो ने 10.3.1986 को एक पत्र रक्षा सचिव एस के भटनागर को लिखा. इसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि उन्होंने किसी को एजेंट नहीं बनाया है और उसे तो बिल्कुल नहीं, जो कि भारत में इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है. भारत सरकार की इस स्पष्ट नीति के आधार पर कि सौदे के बीच कोई एजेंट या बिचौलिया नहीं होगा तथा यदि बोफोर्स कंपनी ने किसी को रखा तो उस पर पैनाल्टी लगेगी, भारत सरकार और बोफोर्स कंपनी के बीच इस आशय का एक समझौता हुआ. समझौता जो दोनों पक्षों के बीच हुआ, उसकी तारी़ख थी 24.3.1986.इसके एक साल बाद रक्षा मंत्रालय को जानकारी मिली कि स्वीडिश रेडियो ने अपने प्रसारण में कहा कि बोफोर्स तोप सौदे में किक बैक (रिश्वत) दी गई है. रक्षा मंत्रालय ने भारतीय राजदूत को इसकी सत्यता का पता लगाने को कहा. उस समय रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे. राजदूत ने बोफोर्स कंपनी को पत्र लिखा तथा स्वीडिश रेडियो के आरोप पर स्पष्ट स्थिति जाननी चाही. बोफोर्स कंपनी और भारत सरकार के बीच जिस तारी़ख को दलाल न रखने का समझौता हुआ था, उसके ठीक एक साल बाद 24.4.1987 को बोफोर्स कंपनी ने राजदूत को उनके पत्र का उत्तर भेजा. पत्र में बोफोर्स कंपनी ने लिखा कि स्वीडिश रेडियो ने जिस धनराशि को दिए जाने की बात कही है, वह बिल्कुल वैधानिक है तथा स्वीडिश करंसी रेग्युलेशन और दूसरे स्वीडिश क़ानूनों के अनुसार है. इस पत्र में कहा गया कि यह रकम किसी भारतीय कंपनी को नहीं दी गई. इस रकम का रिश्ता 1986 के बोफोर्स तोप सौदे से नहीं है.
संयुक्त संसदीय समिति की जांच शुरू होने से पहले बोफोर्स कंपनी का प्रतिनिधि भारतीय अधिकारियों से आकर मिला तथा उसने स्वीकार किया था कि कुल मिलाकर स्वीडिश मुद्रा में से 319.40 मिलियन उन कंपनी को दिया गया, जो भारत से बाहर रजिस्टर्ड हैं. इस कंपनी में स्वेंस्का इंक पनामा तथा ए ई सर्विसेज लिमिटेड यूके शामिल हैं. इन्हें यह रकम वाइंडिंग-अप चार्ज के रूप में दी गई है.
इसके बाद संयुक्त संसदीय समिति ने जांच प्रारंभ की, तब बोफोर्स कंपनी ने स्वीकार किया कि उसने तीन कंपनियों को पैसा दिया, पर उसने समिति को उनका नाम बताने से इंकार कर दिया. इसी दौरान स्वीडिश नेशनल ऑडिट ब्यूरो यह जांच कर रहा था कि क्या इस सौदे में कमीशन दिया गया है. जांच के दौरान स्वीडिश नेशनल ऑडिट ब्यूरो को पता चला कि मई 1986 से मार्च 1987 के बीच स्विट्ज़रलैंड के बैंकों में ए बी बोफोर्स कंपनी ने पैसा भेजा है. कमर्शियल कॉन्फिडेन्शिएलिटी के नाम पर बोफोर्स ने अब भी इन कंपनियों का नाम नहीं बताया तथा स्वीडिश नेशनल ऑडिट ब्यूरो को ज़्यादा जानकारी देने से मना कर दिया. ऑडिट ब्यूरो को इस बात का पता चला कि बोफोर्स द्वारा दिए गए बयानों में एकरूपता नहीं है, खासकर उनमें, जिनका संबंध एजेंटों की पहचान तथा पैसा दिया क्यों गया, जैसे सवालों से था.
उधर 7.2.1990 को दिल्ली के विशेष जज द्वारा स्विस अधिकारियों को लिखे गए लेटर रोगेटरी के बाद, जिसमें अनुरोध किया गया था कि स्विस अधिकारी जांच की प्रक्रिया पूरी करें तथा सबूत इकट्ठा करें, स्विस अधिकारियों ने जांच की तथा रिपोर्ट और कुछ दस्तावेज भारत सरकार को दिसंबर 1990 तथा जनवरी 1997 को सौंपे. स्विस अधिकारियों की जांच ने यह साबित किया कि बोफोर्स कंपनी ने इस सौदे में एजेंट बनाए थे तथा दो कंपनियों को, जिनमें एक ए ई सर्विसेज लिमि. तथा दूसरी स्वेंस्का इनकार्पोरेटेड थी, इन्हें सौदा कराने के बदले में धनराशि दी गई.
ओट्टावियो क्वात्रोची इटालियन नागरिक था तथा इटालियन पासपोर्ट पर इटालियन कंपनी स्नैम प्रोगेत्ती के रीजनल डायरेक्टर के पद पर काम कर रहा था. 15 नवंबर, 1985 को ओट्टावियो क्वात्रोची व बोफोर्स कंपनी के मायल्स ट्वीडेल स्टाट के बीच एक एग्रीमेंट हुआ कि यदि यह सौदा बोफोर्स कंपनी को भारत सरकार से 31 मार्च, 1986 से पहले मिल जाता है तो तीन प्रतिशत कमीशन ए ई सर्विसेज को बोफोर्स कंपनी देगी. यह रकम कुल सौदे का तीन प्रतिशत होगी. भारत सरकार जैसे-जैसे बोफोर्स को पैसे देगी, बोफोर्स उसका तीन प्रतिशत ए ई सर्विसेज को देती जाएगी.
यहां से इस कांड में अध्याय दर अध्याय जुड़ने शुरू हो जाते हैं. भारत के लिए तोप खरीदने का फैसला लेने वालों के सामने 15 नवंबर 1986 तक बोफोर्स कंपनी के साथ दूसरी कंपनी के प्रस्ताव भी थे, पर तब तक किसी को यह एहसास नहीं था कि इन सब प्रस्तावों पर बोफोर्स गन सिस्टम को प्राथमिकता या तरजीह दी जाएगी. दरअसल उस समय फ्रांस के सोफमा गन सिस्टम को तकनीकी तौर पर ज़्यादा पसंद किया जा रहा था, लेकिन चार महीनों में सोफमा के ऊपर बोफोर्स को तरजीह दिला देना तथा बोफोर्स द्वारा दी गई समय सीमा में कॉन्ट्रैक्ट पूरा करा देना उस व्यक्ति की ताक़त दिखाता है, जो ए बी सर्विसेज के पीछे था. इसी व्यक्ति ने अपनी ताक़त व रसूख के दम पर भारत सरकार के पब्लिक सर्वेंट्स को दबाव में लाकर बोफोर्स कंपनी के साथ सौदे को पूरा कराया.
स्विस अधिकारियों की जांच में यह बात भी सामने आई कि बोफोर्स कंपनी ने स्टॉकहोम स्थित स्कान्डिनाविस्का एन्सकिल्डा बांकेन से 3 सितंबर 1986 को 50,463,966,00 सेक (अमरीकी डॉलर 7,343,941,98 के बराबर) निकाले तथा उन्हें अकाउंट नंबर 18051-53, जो कि ए ई सर्विसेज लिमिटेड के नाम था, में जमा कराया. यह अकाउंट ज्यूरिख के नोर्डिफिनांज बैंक का है. इस अकाउंट को, जो कि ए ई सर्विसेज लिमि. केयर ऑफ मायो एसोसिएट्स एस ए जेनेवा का है, केवल पंद्रह दिन पहले 20 अगस्त, 1986 को माइल्स ट्वीडेज स्टाट ने डायरेक्टर की हैसियत से खोला था.
ए ई सर्विसेज के इस अकाउंट से दो किस्तों में 7,123,900 अमरीकी डॉलर निकाले गए. इसमें 70,00,000,00 अमरीकी डॉलर 16 सितंबर 1986 को तथा 1,23,900,00 अमरीकी डॉलर 29 सितंबर 1986 को निकाले गए. निकाली गई इस रकम को कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक पनामा के जेनेवा स्थित यूनियन बैंक के अकाउंट नंबर 254,561,60 डब्ल्यू में ट्रांसफर किया गया. कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के इस अकाउंट से पुन: 7,943,000,00 डॉलर 25.7.1988 को अकाउंट नंबर 488320,60 ऑफ एम/एस वेटेल्सेन ओवरसीज एस ए में ट्रांसफर किए गए. यह अकाउंट भी जेनेवा के यूनियन बैंक में ही है. एम/एस वेटेल्सेन ओवरसीज के इसी अकाउंट से पुन: 21 मई 1990 को 9,200,000,00 डॉलर ट्रांसफर किए गए. इस बार यह रकम अकाउंट नंबर 123893 में ट्रांसफर की गई. यह अकाउंट इंटरनेशनल डेवलपमेंट कं. का है, जो एनवाशेर (सी आई) लिमि. सेंट पीटर पोर्ट, गुएरन्से (चैनल आइसलैंड) में स्थित है.
ये एकाउंट एम/एस कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक तथा वेटेल्सेन ओवरसीज को ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उसकी पत्नी मारिया क्वात्रोची कंट्रोल करती थी. जब चैनल आइसलैंड में जांच हुई, तब पता चला कि यह सारी रकम दस दिनों के भीतर (जब वह गुएरन्से में आई, उसके बाद) दोबारा स्विट्जरलैंड तथा आस्ट्रिया ले जाई गई.
स्विस अधिकारियों तथा स्वीडिश अधिकारियों की जांच ने यह साबित कर दिया कि बोफोर्स कंपनी से प्राप्त कमीशन को पाने वाली कंपनी ए ई सर्विसेज का लाभार्थी ओट्टावियो क्वात्रोची है. स्नैम प्रोगेत्ती से मिले कागजातों ने यह भी साबित कर दिया कि ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उसकी पत्नी उस समय जेनेवा ही में थे, जब ये अकाउंट खोले गए.
उन्होंने ही बैंक अकाउंट तथा अन्य दस्तावेजों पर दस्तखत किए थे. जब स्विस अधिकारियों ने क्वात्रोची तथा उनकी पत्नी के पते, जो उन्होंने बैंक अकाउंट में लिखे थे, भारत सरकार को दिए तो सरकार चकरा गई. दोनों ने पता दिया था-कालोनी ईस्ट, न्यू डेली (इंडिया). यह पता सारे भारत में कहीं है ही नहीं. दोनों ने ही सावधानीवश जालसाज़ी करने के चक्कर में ग़लत पता लिखवाया था. यहां सवाल उठता है कि यह हुआ कैसे, क्योंकि स्विट्जरलैंड में बैंक अकाउंट खोलते समय पासपोर्ट पर लिखा पता देखा जाता है तथा वही लिखा जाता है. तब क्या ओट्टावियो क्वात्रोची एवं उसकी पत्नी के पास कोई और पासपोर्ट भी था, जिस पर कालोनी ईस्ट, न्यू डेली का पता लिखा था?
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