!! प्राचीन समाज में यौन व्यवहार !!
मनुष्य के यौन व्यवहार में एक से एक विचित्रताएं मिलती हैं। आदिम युग
में मनुष्य पशुओं की तरह स्वच्छंद एवं उन्मुक्त संभोग करता था। उस ज़माने
में न तो परिवार था और न ही सेक्स को लेकर किसी प्रकार की नैतिक अवधारणा का
विकास हो पाया था।
सेक्स सिर्फ जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति भर था। समूह का कोई भी पुरुष
किसी भी स्त्री के साथ यौन संबंध कायम कर लेता था। किसी के साथ संबंध बनाने
पर कोई रोक-टोक नहीं थी। यह अलग बात है कि शारीरिक रूप से ताकतवर लोग ही
मनचाही औरतों के साथ संबंध बना पाते थे, वहीं कमजोर औरतों को हासिल कर पाने
में असफल हो जाते थे।
सभ्यता के विकास के साथ यौन शुचिता और सेक्स व्यवहार के संबंध में
नैतिक मानदंड विकसित हुए। पर सभ्यता के विकास के साथ ही, मनुष्य के सेक्स
व्यवहार में कई तरह की विकृतियां भी सामने आने लगी। देखा जाये तो पहले जो
स्वाभाविक था, सांस्कृतिक विकास के क्रम में वह अस्वाभाविक हो गया।
मानव मन सेक्स के संबंध में बहुत ही कल्पनाशील होता है। उसकी कल्पनाएं
एक से बढ़ कर एक और अजीबोगरीब होती हैं, पर वह उन्हें व्यवहारिक रूप नहीं
देता, क्योंकि उस पर सामाजिक नैतिकता का बंधन होता है।
जहां यह बंधन ढीला होता है अथवा व्यक्ति को अपनी गोपनीय सेक्स
कल्पनाओं-फैंटेसी को पूरा करने का मौका मिलता है, वह सामान्य सेक्स व्यवहार
से हट कर विकृत सेक्स व्यवहार का प्रदर्शन करने लगता है।
इतिहास में एक ऐसी भी अवस्था थी, जब स्त्री-पुरुष के बीच यौन संबंध के
सामाजिक नियम नहीं बने थे और न ही यौन शुचिता और नैतिकता का बोध विकसित
हुआ था। यौन क्रिया में रिश्ते-नाते नहीं देखे जाते थे, क्योंकि ऐसे संबंध
उन दिनों बने ही नहीं थे। किसी भी स्त्री के साथ सेक्स करना, पशुओं की तरह
कहीं भी खुले में संबंध बनाना, अल्पवयस्क बालिकाओं को साथ संभोग करना और
यहां तक कि पशुओं के साथ यौन क्रीड़ा करना आम बात थी। सेक्स स्वच्छंद एवं
निर्बंध था।
सभ्यता के विकास के साथ सेक्स के संबंध में सामाजिक रीतियां विकसित
हुईं और नैतिक मानदंड स्थापित हुए। इसे हम ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय संदर्भ
में समझ सकते हैं।
महाभारत के 'आदिपर्व' के 63वें अध्याय में पाराशर ऋषि और मत्स्यगंधा
सत्यवती के बीच खुले में संभोग का वर्णन मिलता है। 'आदिपर्व' के 104वें
अध्याय में यह वर्णन मिलता है कि उत्थत के पुत्र दीर्घतमा ने सब लोगों के
सामने ही स्त्री के साथ संभोग शुरू कर दिया। इसी पर्व के 83वें अध्याय में
गुरु-पत्नी के साथ संभोग करने, पशुओं के समान यौन क्रीड़ा करने वाले मलेच्छ
लोगों का वर्णन भी मिलता है।
आधुनिक इतिहास में यह वर्णन मिलता है कि महाराजा रणजीत सिंह हाथी के हौदे
में सबके सामने संभोग किया करते थे। पुणे में बाजीराव के जमाने में
'घटकंचुकी' नाम का एक खेल खेला जाता था। अभिजात वर्ग के चुने हुए
स्त्री-पुरुष रंगमहल में जुटते थे। वहां औरतों की कंचुकियां (चोली) एक घड़े
में डाली जाती थी और फिर जिस पुरुष को जिस स्त्री की कंचुकी हाथ लगती थी,
वो सबके सामने उस स्त्री के साथ संभोग करता था।
इस प्रथा का प्रचलन कर्नाटक प्रदेश में आजादी मिलने के कुछ पहले तक था।
सामूहिक संभोग (ग्रुप सेक्स) के ऐसे आयोजनों में उम्र अथवा रिश्ते-नाते का
कोई विचार नहीं किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में तमिल
लोग भी खुले में सबके सामने संभोग किया करते थे। इतिहास के जनक कहे जाने
वाले हेरोडेट्स ने लिखा है कि शक लोगों को जब संभोग की इच्छा होती थी, तो
वे रथ से अपना तरकश लटका खुले में काम-क्रीड़ा करते थे। वेदों में यज्ञभूमि
पर सामूहिक रूप से संभोग करने के वर्णन मिलते हैं।
कौटंबिक सेक्स (Incest) का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में काफी मिलता है।
'हरिवंश' में यह उल्लेख मिलता है कि महर्षि वशिष्ठ की पुत्री शतरूपा ने
उन्हें पति माना और उनके साथ यौन संबंध बनाए। इसी ग्रंथ में यह उल्लेख है
कि दक्ष ने अपनी कन्या अपने पिता ब्रह्मदेव को दी, जिससे नारद का जन्म हुआ।
'हरिभविष्य पर्व' के अनुसार इंद्र ने अपने पड़पोते जनमेजय की पत्नी
वपुष्टमा के साथ संभोग किया। 'हरिवंश' में ही यह उल्लेख मिलता है कि सोम के
पुत्र दक्ष प्रजापति ने अपनी कन्यायें पिता को दी। जब जनमेजय ने इसे
अनैतिक कृत्य बताया तो महर्षि वैंशपायन ने कहा कि यह प्राचीन रीति है।
महाभारत के 'आदिपर्व' में कहा गया है कि कामातुर स्त्री यदि एकांत में यौन
संबंध बनाने की इच्छा प्रकट करे तो उसे पूरा किया जाना चाहिए, नहीं तो धर्म
की दृष्टि से यह भ्रूण हत्या होगी। उलूपी अर्जुन से स्पष्ट कहती है कि
स्त्री की इच्छा पूर्ति लिए एक रात संभोग करना अधर्म नहीं।
पौरव वंश की जननी उर्वशी अर्जुन पर कामासक्त हुई। उसने अर्जुन से कहा कि
पुरु वंश के जो पुत्र या पौत्र इंद्रलोक में आते हैं, वे हमसे रति-क्रीड़ा
करते हैं। यह अधर्म नहीं है। अर्जुन ने उसकी याचना स्वीकार नहीं की, तब
उर्वशी ने उसे नपुंसक होने का शाप दिया। 'वनपर्व' में यह भी उल्लेख मिलता
है कि महर्षि अगस्त्य ने अपनी कन्या को विदर्भ के राजा के पास रखा और जब वह
विवाह-योग्य हुई तो स्वयं उसके साथ विवाह किया।
ऋग्वेद के दसवें मंडल में यम-यमी संवाद उस समय प्रचलित यौन संबंधों की
परिपाटी को समझने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यमी अपने भाई से यौन
संबंध बनाने की इच्छा प्रकट करती है। यम के इनकार करने पर वह फिर आग्रह
करती है और कहती है कि भाई के रहते बहन अनाथ रहे और उसे दुख भोगना पड़े तो
भाई किस काम का?
'किं भ्राता सद्यदानार्थ भवाति।
किमु स्वसा यन्निर्ऋति र्नि गच्छात।।'
स्पष्ट है, उस काल में भाई-बहन के रिश्ते पूरी तरह निर्धारित नहीं हुए
थे। भ्रातृ शब्द भृ से निकला है, जिसका अर्थ है पालन करने वाला, भरण-पोषण
करने वाला। बाद में इसी से अपभ्रंश भर्तार और भतार शब्द निकला, जिसका
प्रयोग पति के लिए किया जाता है।
प्राचीन काल में यौन संबंधों के बारे में इतिहासकार लेर्तुनो ने लिखा है कि
चिपेवे कभी-कभी अपनी माताओं, बहनों और पुत्रियों के साथ सेक्स संबंध बनाया
करते थे। कादिएकों में भाई-बहनों और पिता-पुत्रियों के बीच खुलेआम यौन
संबंध प्रचलित थे। कारिब मां और बेटियों के साथ सेक्स किया करते थे।
प्राचीन आयरलैंड में भी मां एवं बहनों के साथ यौन संबंधों का प्रचलन था।
महाभारत के 'आदिपर्व' में उल्लेख है कि यौन संबंधों की सीमाओं का निर्धारण
उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु करता है। एक ब्राह्मण जब संभोग करने के लिए
उसकी माता का हाथ पकड़ता है तो वह क्रोधित हो जाता है, लेकिन उद्दालक कहता
है कि स्त्रियों द्वारा उन्मुक्त संभोग करना धर्म यानी मान्य व्यवहार है।
समय के साथ, जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती है, यौन संबंधों का स्पष्ट
निर्धारण और सीमांकन होने लगता है, पर महाभारत काल तक पूरी तरह ऐसा नहीं हो
पाता। कर्ण शल्य की निंदा करते हुए मद्र देश (पंजाब) की औरतों के बारे में
कहता है कि वहां की स्त्रियां किसी भी पुरुष से स्वेच्छा से संभोग करती
हैं, चाहे वे उनके परिचित हों या नहीं। वे बेहूदा गाने गाती हैं, शराब पीती
हैं और नग्न होकर नाचती हैं। वे वैवाहिक विधियों से नियंत्रित नहीं हैं।
मद्र देश की कुमारियां निर्लज्ज और विलासिनी होती हैं।
दुर्योधन ने कर्ण को
अंग देश का शासक बनाया था, इसलिए शल्य कहता है किअंगदेश में औरतों और
बच्चों की बिक्री होती है।
जाहिर है, यौन संबंधों का नियमन सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ क्रमिक
रूप में हुआ। पर सेक्स की आदिम इच्छा समय-समय पर मनुष्य में बलवती हो जाती
है। यही कारण है कि आज भी हम ऐसे यौन संबंधों के बारे में सुनते हैं,
जिन्हें अवैध एवं अनैतिक कहा जाता है। कौटंबिक व्यभिचार की न जाने कितनी
घटनाएं प्रकाश में आती हैं। सभ्य मनुष्य के लिए ऐसे संबंध गर्हित हैं, पर
भूलना न होगा कि सेक्स एक आदिम प्रवृत्ति है। समाज जहां अति आधुनिक होता
चला जा रहा है, वहीं सेक्स संबंधों का पूरी तरह नियमन हो चुका है। पर आदिम
प्रवृत्तियां जब-तब सिर उठाती ही रहती हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें