रविवार, 30 नवंबर 2014

भाषा विवादः 'एक धोखे से दूसरे धोखे की कहानी'

भाषा विवादः 'एक धोखे से दूसरे धोखे की कहानी'

  • 7 घंटे पहले
भारतीय स्कूल की बच्ची
भारत के केंद्रीय विद्यालयों (केवी) में तीसरी भाषा के रूप में किसे पढ़ाया जाए, इसे लेकर विवाद छिड़ गया है.
कुछ ख़बरों के अनुसार भारत सरकार चाहती है कि केवी में जर्मन को हटाकर संस्कृत पढ़ाई जाए.
लेकिन इसकी तह में जाने की कोशिश नहीं हो रही कि आख़िर जर्मन को क्यों शामिल किया गया और अब संस्कृत क्यों शामिल की जानी चाहिए.
शिक्षा में केंद्र सरकार की भाषा की नीति शुरू से विडंबना वाली रही है. तीसरी भाषा के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं को जगह देने की समय-समय पर मांग होती रही है पर इसे समझने की कोशिश नहीं की गई.
आख़िर कौन सी वह भाषा नीति है जो केवी में जर्मन पढ़ाने की इजाजत देती है, इस पर बहस करने के बजाय संस्कृत पढ़ाने की बात उछाल दी गई.
क्या यह एक धोखे से दूसरे धोखे की कहानी है? इस मुद्दे पर अपूर्वानंद के विश्लेषण की पहली किश्त.

पढ़ें, अपूर्वानंद का पूरा लेख

भारत, शिक्षा, छात्र
संस्कृत और जर्मन को लेकर हो रही बहस के शोर में उस आवाज़ को याद करने की कोशिश करता हूँ जो रामावत चंदू के सिर के दीवार से टकराने से हुई थी.
वह तेलंगाना है या आंध्र प्रदेश जहां नालगोंडा है और उसमें तिरुमालागिरी गांव का वह निजी स्कूल जिसमें पहली क्लास में चंदू पढ़ने आया करता था.
वह किस जनजाति का बच्चा था? छह साल का चंदू क्या अपने परिवार से स्कूल जाने वाले पहले बच्चों में था? क्यों टकराया उसका सिर अपनी क्लास की दीवार से?
चंदू संस्कृत और जर्मन से बहुत दूर भारत की एक मात्र 'राष्ट्रभाषा' अंग्रेज़ी न बोल पाने के कारण मारा गया. उसकी अध्यापिका सुमति ने उससे सवाल पूछा, जिसका जवाब उसे अंग्रेज़ी में देना था.
उसकी जगह वह तेलुगु बोलने लगा. बाकी बच्चे उसका मज़ाक उड़ाने लगे और वह चिढ़कर तेलुगु में ही चीखने लगा.
झल्लाई सुमति ने उसे मारने को हाथ उठाया और वह बचने को दीवार से जा टकराया और फिर वह मर गया. आखिर वह छह साल के बच्चे का कोमल सर था!

किसको मोहलत है?

जम्मू के स्कूल में सोता हुआ बच्चा
लेकिन संस्कृत के ज़रिए भारत के स्वर्णिम अतीत का भार उठाने के लिए सख़्त गर्दन और सिर खोजने वालों या जर्मन के ज़रिए अंतरराष्ट्रीय क्षितिज में उड़ान भरने की तैयारी में लगे नीतिज्ञों को चंदू पर बात करने की मोहलत कहां?
मीडिया के लिए काफ़ी था कि सुमति और उस स्कूल की प्रमुख की गिरफ़्तारी हो गई. अब चंदू का नाम गूगल में कहीं नहीं है.
और यह मसला मात्र बाल अधिकार आयोग का होकर रह गया लगता है जबकि इस पर स्कूली शिक्षा से जुड़े सारे विभागों को तलब करके उनसे चंदू की मौत का हिसाब मांगा जाना चाहिए था.

कौन ज़िम्मेदार?

स्कूली बच्चे
जब बात एक देवभाषा की और एक अंतरराष्ट्रीय भाषा की हो रही हो तो तेलुगु को कौन पूछता है? और यहीं भारत की स्कूली शिक्षा की भाषा संबंधी बहस का नकलीपन और उसकी मूर्खता प्रकट होती है. इसमें जो बेईमानी और धोखाधड़ी है, उसकी कोई बात नहीं करना चाहता.
चंदू की मौत क्यों हुई? पहली क्लास से बच्चे की घर-पड़ोस की भाषा छोड़ अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाई का रिवाज़ जिन्होंने चलाया और प्रचलित किया, उनके सिर चंदू का ख़ून है.
सुमति जैसी अध्यापिकाएं आखिर क्यों बदहवास हो उठती हैं कि उनके छात्र अंग्रेज़ी क्यों नहीं बोल पा रहे! यह दबाव उन पर कौन डालता रहा है?
केंद्रीय विद्यालय संगठन ने जब छठी क्लास से जर्मन की पढ़ाई का प्रावधान किया तो उसने दुनिया भर में भाषा की शिक्षा के सारे मान्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया.
कोई भी भाषा, जो बच्चे के सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल में नहीं है और जिसके प्रयोग के ढेर सारे अर्थपूर्ण अवसर उसके पास नहीं हैं, सिर्फ़ क्लास में पढ़कर सीखी-सहेजी नहीं जा सकती.

तीसरी भाषा

यूनेस्को स्कूल, भारत
साथ ही यह सवाल भी करना होगा कि किस तर्क से तृतीय आधुनिक भारतीय भाषा के रूप में संस्कृत का दावा पेश किया जा रहा है?
वह भाषा न तो हमारे वातावरण में है, न उसके सार्थक प्रयोग के अवसर बच्चों के पास हैं.
तो शब्दरूप, धातुरूप रटाकर मात्र व्याकरण आधारित प्रश्नों के सहारे ऊंचे अंक बटोर लेने के प्रलोभन के अलावा इसमें और क्या है?
यह भी सोचें कि संस्कृत पढ़ाने के पीछे कहीं भारतीय संस्कृति और हिंदू धार्मिक मूल्यों का आचमन कराने भर का उद्देश्य तो नहीं.
दरअसल यह मौक़ा है कि भाषा और शिक्षा के रिश्ते पर हम ईमानदारी से खुलकर बात की शुरुआत करें.
सारे शोध बताते हैं कि शुरुआती कक्षाओं में घर-पड़ोस की भाषा में शिक्षा से बच्चे को सीखने में आसानी होती है. इससे उसमें भाषाई लचीलापन भी आता है जिसके सहारे वह आगे दूसरी भाषाएं सीख जाता है.
फिर हमारे देश में पहली क्लास से ही मार-मारकर अंग्रेज़ी में पढ़ाने की वकालत जो मां-बाप भी करते हैं, वे अपने बच्चों के प्रति कितने संवेदनशील हैं, यह सवाल भी करने की ज़रूरत है.

पढ़ा-लिखा तबक़ा

स्कूली बच्चे
संपन्न और पढ़े-लिखे माता-पिताओं ने, जिन्होंने सरकारी स्कूल छोड़कर अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में अपने बच्चों को भेजना शुरू किया, कभी सोचा न होगा कि वे कितने बच्चों की पढ़ाई का रास्ता बंद कर रहे हैं.
इसका कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है कि अपनी भाषा में शिक्षा न मिलने और अंग्रेज़ी के दबाव के कारण कितने बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं.
इस अपराध का जिम्मा उन्हें भी लेना होगा, जिन्होंने शिक्षा के बुनियादी अधिकार के क़ानून में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या घर पड़ोस की भाषा संबंधी विनोद रैना का प्रस्ताव पारित नहीं होने दिया.
मुझे बैठकों में बड़े अधिकारियों और राजनेताओं से जूझते हुए उनकी बेहिसी और अहमकपन पर विनोद की खीझ की याद है.
जो त्रिभाषा सूत्र का रोना रहे हैं, वे पहले शिक्षा के माध्यम पर बात करें. फिर त्रिभाषा सूत्र की आत्मा की. पहले यह कि यह कोई संविधान की धारा नहीं. दूसरे, यह कि भारत जैसे देश में बच्चे को कम से कम तीन अलग-अलग भाषाओं से परिचित कराने की युक्ति है.

उत्तर बनाम दक्षिण

स्कूल गर्ल, भारत
तीसरे, इस सूत्र को उत्तर भारत के, खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश आदि ने पहले ही ध्वस्त कर दिया हिंदी, अंग्रेज़ी और संस्कृत पढ़ाकर.
नतीजा, इन प्रदेशों के बच्चे कोई दूसरी भारतीय भाषा नहीं जानते. संस्कृत जानने का सवाल नहीं.
जबकि दक्षिण भारत या उत्तर पूर्व के बच्चे एक साथ तीन-चार भाषाएं जानते हैं. केन्द्रीय विद्यालय भी यही करता आ रहा था. जब तक उसने तीसरी आधुनिक भारतीय भाषा की जगह जर्मन की व्यवस्था न कर दी.
इस तरह एक धोखे से दूसरे धोखे की कहानी है यह.
वक़्त आ गया है कि चंदू जैसी और मौतें न हों, इसका इंतजाम किया जाए. ऐसा न हो कि सुमति जैसी अध्यापक भाषा के दबाव में बच्चे को ही भूल जाएं.
सुमति को तो पकड़ लिया गया, लेकिन उन बच्चों को भला कैसे सज़ा दें जो अपने सहपाठी के अंग्रेज़ी न बोल पाने पर ज़ोर-ज़ोर से उसका मज़ाक उड़ा रहे थे?
क्यों अपनी भाषा बोलना ही शर्म की बात हो गई है भारत के स्कूलों में?

बहस की सच्चाई

भारतीय स्कूल, बच्ची
असल बहस शिक्षा में भाषा की नीति पर फिर से विचार करने का होना चाहिए.
संस्कृत और जर्मन की बहस, इसीलिए एक नकली बहस है. लेकिन यह अवसर है, पहले की ग़लती को सुधारने का.
शिक्षा में भाषा की नीति पर फिर से विचार करने का. आरंभिक कक्षाओं में माध्यम के रूप में घर-पड़ोस की भाषा को अनिवार्य करने का.
इसमें अलग से पैसा ख़र्च न होगा. न नए शिक्षक बहाल करने होंगे. बल्कि अभी आठ-आठ क्लास तक अंग्रेज़ी में बोलने को मज़बूर शिक्षक राहत की सांस लेंगे.
यह स्कूलों की दुनिया की असमानता ख़त्म करने का सबसे सस्ता और कारगर तरीका है. यह चंदू की मौत का प्रायश्चित होगा जिसके ज़िम्मेदार हम सब हैं.

शनिवार, 29 नवंबर 2014

31वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन बामसेफ और राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ


सबसे ख़तरनाक गुरिल्ला नेता की दास्तान !

सबसे ख़तरनाक गुरिल्ला नेता की दास्तान !

  • 5 घंटे पहले
प्रभाकरन
लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम या लिट्टे के संस्थापक वेलापुल्लई प्रभाकरन की इस हफ़्ते 60वीं वर्षगांठ थी.
तमिल राष्ट्र के लिए श्रीलंका को गृहयुद्ध में धकेलने वाले प्रभाकरन को कुछ लोग, ख़ासकर तमिल राष्ट्रवादी, अब भी महान योद्धा, स्वतंत्रता सेनानी और जननायक मानते हैं.
लेकिन कुछ मानते हैं कि वह एक चरमपंथी थे, जिनकी नज़र में इंसानी जान की कोई क़ीमत नहीं थी.

प्रभाकरन के जीवन से जुड़े पहलुओं पर रेहान फ़ज़ल की रिपोर्ट

प्रभाकरन
एक गोली उनके माथे को चीरती चली गई थी, जिसने उनके कपाल को क्षतविक्षत कर दिया था. इसके अलावा उनके शरीर पर चोट का एक भी निशान नहीं था.
तमिल टाइगर्स के नेता और संस्थापक वेलापुल्लई प्रभाकरन का शरीर उसी स्थान पर पड़ा था, जहां कुछ घंटे पहले उनकी मौत हुई थी. इलाक़े में फैली गंदगी के बावजूद उनकी वर्दी बिल्कुल साफ़ और बेदाग़ थी.
उनकी कमर पर एक बेल्ट लगी थी जिससे एक होलस्टर्ड पिस्तौल लटकी थी.. साथ में थे छह इस्तेमाल न हुए कारतूस. उनके सीने पर धातु का एक कार्ड लगा था, जिस पर नंबर लिखा था 001.
उनके पास मिले छोटे बैग में अंगूर की महक वाला हैंड लोशन भी मिला था, जिसे सिंगापुर से ख़रीदा गया था.
प्रभाकरन पर किताब लिखने वाले मेजर जनरल राज मेहता कहते हैं, "अपनी अंतिम लड़ाई में प्रभाकरन मोलाएतुवू क्षेत्र में तीन तरफ़ से घिर गए. चौथी तरफ़ समुद्र था जहां श्रीलंका की सेना ने अपना जाल बिछा रखा था. कहने का मतलब यह कि बचने की गुंजाइश थी ही नहीं. श्रीलंकाई सेना रेडियो पर उनकी बातचीत सुन रही थी, इसलिए उन्हें प्रभाकरन की लोकेशन का अंदाज़ा था. उन्होंने उन्हें बिल्कुल बैक टू द वॉल कर दिया और उनके लिए कोई जगह छोड़ी ही नहीं."
प्रभाकरन की मौत के बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे ने संसद में ऐलान किया था, "आज से श्रीलंका में कोई अल्पसंख्यक नहीं होगा. अब से यहां सिर्फ़ दो किस्म के लोग होंगे, एक जो अपने देश को प्यार करते है और दूसरे वो जिन्हें उस धरती से कोई प्यार नहीं है, जहां उनका जन्म हुआ है."
प्रभाकरन का बंकर
प्रभाकरन का बंकर
ओसामा बिन लादेन के आदेश पर न्यूयॉर्क का वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिराए जाने से पहले प्रभाकरन के लोगों ने कोलंबो के भीड़ भरे इलाके में इसी नाम की उतनी ही प्रतीकात्मक इमारत नेस्तानुबूद की थी.
लेकिन ओसामा की तरह प्रभाकरन अमीर माँ-बाप की संतान नहीं थे और न उन्होंने दुस्साहसी कामों के लिए किसी और देश में शरण ली थी. न ऐसे काम करने के लिए उन्हें धर्म से प्रेरणा मिली थी. उनका एकमात्र धर्म था तमिल राष्ट्रवाद.

सेक्स की सज़ा मौत

एक दशक के भीतर उन्होंने एलटीटीई को मामूली हथियारों के 50 से कम लोगों के समूह से 10 हज़ार लोगों के प्रशिक्षित संगठन में तब्दील कर दिया था जो एक देश की सेना से टक्कर ले सकता था.
उनके निज़ाम में एलटीटीई सैनिकों को प्रेम संबंध बनाने की मनाही थी. ग़द्दारी की सिर्फ़ एक ही सज़ा थी...मौत.
उन्होंने अपने दो पुरुष और महिला अंगरक्षकों को सिर्फ़ इसलिए मौत के घाट उतारने का आदेश दिया था क्योंकि उन्होंने अपने काम के समय में यौन संबंध बनाने की जुर्रत की थी. प्रभाकरन को शराब, सिगरेट और ताश खेलने से भी नफ़रत थी.
प्रभाकरन
अप्रैल 2002 में उन्होंने 12 साल बाद पहला संवाददाता सम्मेलन किया था जिसमें इनसाइड एन एल्यूसिव माइंड प्रभाकरन के लेखक एम आर नारायणस्वामी भी थे.
नारायणस्वामी कहते हैं, "हमने लिट्टे के कैंप में रात बिताई. सुबह उठकर कुएं के पानी से नहाए. मैंने 32 साल के अपने पत्रकार जीवन में इतनी सिक्योरिटी इससे पहले कभी नहीं देखी. उन्होंने हम सब पत्रकारों को एक-एक करके कमरे में बुलाया. हमारे पेन, कागज़, पेंसिल और नोटबुक को उन्होंने बहुत बारीकी से देखा. बल्कि नोटबुक और पेन तो उन्होंने ले ही लिए."
"हम सबकी उन्होंने अलग-अलग तस्वीर खींची और कैमरामैन से कहा कि वह अपने कैमरों को वहां रखे एक तराज़ू पर रखें ताकि उनका वज़न ले सकें. बाद में हमें पता चला कि उन्हें हर कैमरे का ओरिजनल वज़न पता था. वो ये देखना चाह रहे थे कि किसी कैमरे में कोई ऐसी चीज़ तो नहीं लगी है, जिसकी वजह से उसका वज़न बढ़ा हुआ है. उन्होंने बाकायदा हमारे हाथों को दबा-दबाकर देखा कि कहीं इनके मसल्स तो नहीं हैं. कहीं ये प्रशिक्षित लोग तो नहीं हैं, जो पत्रकारों के रूप में वहां आए हैं."

साइनाइड कैप्सूल

प्रभाकरन का पहला हथियार था गुलेल जिससे वह चिड़ियों, गिरगिटों और गिलहरियों को मारा करते थे. उसके बाद उनके पास एक एयरगन आ गई थी जिस पर अभ्यास करते-करते उन्होंने अपना निशाना ग़ज़ब का बना लिया था.
प्रभाकरन के जीवनी लेखक नारायणस्वामी कहते हैं, "कभी-कभी प्रभाकरन अपनी कमीज़ के भीतर रिवॉल्वर रखकर धीरे-धीरे चला करते थे और अचानक तेज़ी से मुड़कर एक काल्पनिक दुश्मन पर निशाना लगाया करते थे. बाद में एलटीटीई ने आदेश दिया था कि उसके सभी सैनिकों के पास चमड़े का होल्सटर होना चाहिए. इसका आइडिया प्रभाकरन को हॉलीवुड फ़िल्मों से मिला था."
प्रभाकरन का बंकर
उनका हुक्म था कि एलटीटीई का हर लड़ाका अपने गले में साइनाइड कैप्सूल पहनकर चले और पकड़े जाने की स्थिति में उसे खाकर अपनी जान दे दे. उनकी गर्दन में भी काले धागे से एक साइनाइड कैप्सूल टंगा रहता था जिसे वह अक्सर अपनी कमीज़ की जेब में एक आईडेंटिटी कार्ड की तरह डाल लेते थे.
प्रभाकरन को खाना बनाने का शौक था. अपने चेन्नई प्रवास के दौरान शाम को प्रभाकरन अपने साथियों के साथ सब्ज़ियां काटते थे. उनका प्रिय भोजन था चिकन करी.
लेकिन मुश्किल के दिनों में वह ब्रेड और जैम से भी काम चला सकते थे. वह साफ़ पानी के बारे में हमेशा सतर्क रहते थे और कभी भी बिना उबाले पानी नहीं पीते थे.
बैठकों के दौरान वह सिर्फ़ सोडा पिया करते थे और वह भी तब जब बोतल उनके सामने खोली जाए.
1987 में जब प्रभाकरन जाफ़ना में इरोस के दफ़्तर गए तो उसके प्रमुख बालाकुमार ने उन्हें पीने के लिए कोक ऑफ़र की. उनका साथी एक ट्रे में कोक की तीन बोतलें और बॉटल ओपनर लेकर आया.
प्रभाकरन ने एक बोतल खोली और बालाकुमार की तरफ़ बढ़ाई. बालाकुमार ने जब तक कोक का एक घूँट नहीं ले लिया तब तक प्रभाकरन ने अपने लिए बोतल नहीं खोली.
प्रभाकरन अपने विश्वस्त सहयोगी एंटन बालाकुमार के साथ
नारायणस्वामी कहते हैं एक बार उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा था, "मैं चाय तभी पीता हूँ अगर उसे मैंने स्वयं या फिर मेरी पत्नी ने बनाया हो."

सफ़ाई का जुनून

वह रोज़ अपनी दाढ़ी बनाते थे. जैसे-जैसे एलटीटीई का सितारा परवान चढ़ा, प्रभाकरन का सफ़ाई के प्रति जुनून भी बढ़ता गया.
वह जब भी किसी सोफ़े पर बैठते, तो सबसे पहले उसके हत्थे पर लगी गर्द साफ़ करते थे. उनको मकड़ी के जालों से नफ़रत थी. देखते ही वह उन्हें साफ़ करने के आदेश देते थे.
सुव्यवस्था को वह इतनी गंभीरता से लेते थे कि एलटीटीई के चेन्नई दफ़्तर में सभी कमरों और आधा दर्जन मोटर साइकिलों की चाबियाँ एक निश्चित स्थान पर टंगी रहती थीं. उनके साथियों को निर्देश थे कि टॉयलेट्स हर हालत में साफ़-सुथरे रहने चाहिए.
प्रभाकरन एक बार चेन्नई में तमिल नेता नेदूमरण के घर ठहरे थे. एक दिन नेदूमरण ने देखा कि वह कुछ कपड़े धो रहे हैं, जो उनके अपने नहीं हैं. उन्होंने पूछा कि यह आप क्या कर रहे हैं?
प्रभाकरन का जवाब था, "मैं आज ख़ाली हूं. इसलिए सोचा कि अपने साथियों के कपड़े धो दिए जाएं."
चेन्नई के एक मशहूर पत्रकार सदानंद मेनन का कहना है कि उन्होंने प्रभाकरन से ज़्यादा शांत इंसान नहीं देखा. भारत में सीएनएन की पूर्व ब्यूरो प्रमुख अनीता प्रताप का भी यही मानना है.

फ़ोटोग्राफ़िक याद्दाश्त

प्रभाकरन
एक बार प्रभाकरन का इंटरव्यू लेने के बाद उन्होंने लिखा था, "मुझे तो वह बेइंतहा साधारण इंसान लगे. हल्के नीले रंग की कमीज़ और सिलेटी पैंट पहने प्रभाकरन को बहुत आसानी से एक तमिल व्यापारी समझने की ग़लती की जा सकती थी."
जब भी वह पत्रकारों को इंटरव्यू देते, तो अपने सामने एक कलाई घड़ी रखते थे और जैसे ही तय किया गया समय समाप्त होता, वह इशारा करते थे कि बातचीत बंद कर दी जाए.
उनकी याद्दाश्त फ़ोटोग्राफ़िक थी. जिससे वह एक बार मिल लेते थे, उसे कभी नहीं भूलते थे.
1986 में जब भारत श्रीलंका समझौते पर मंत्रणा हो रही थी तो प्रभाकरन को भारत लाने के लिए भारत ने श्रीलंका की अनुमति से भारतीय वायुसेना के दो हेलिकॉप्टर जाफ़ना भेजे थे. उसमें भारतीय विदेश सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हरदीप पुरी भी गए थे.
एक एलटीटीई सदस्य ने हरदीप पुरी के कान में फुसफुसाया, "आप हमारे राष्ट्रीय ख़ज़ाने को साथ ले जा रहे हैं."
पुरी ने तुरंत जवाब दिया, "मैं आपको वचन देता हूं कि हम जिस जगह से प्रभाकरन को ले जा रहे हैं, उसी जगह उन्हें छोड़कर जाएंगे, चाहे बातचीत का परिणाम कुछ भी हो."

चपाती और पिस्तौल

प्रभाकरन का बंकर
चेन्नई हवाई अड्डे के वीआईपी लाउंज में हरदीप पुरी ने यह सोचकर चिकन करी और चावल का ऑर्डर किया कि ये चीज़ें प्रभाकरन को पसंद आएंगी. लेकिन प्रभाकरन ने कहा कि वह चपाती खाएंगे, चावल नहीं क्योंकि इसको खाने से पिस्तौल का ट्रिगर दबाने वाली उंगली पर असर पड़ता है.
दिल्ली पहुंचने पर उन्हें अशोक होटल में ठहराया गया. 25 जुलाई को हरदीप पुरी ने उन्हें समझौते की शर्तें पढ़कर सुनाईं, जिसका प्रभाकरन के साथी बालासिंघम ने उनके लिए तमिल में अनुवाद किया.
इसे सुनते ही प्रभाकरन ने ऐलान किया कि ये शर्तें उन्हें मान्य नहीं हैं और वह तमिल ईलम की मांग नहीं छोड़ेंगे. उन्होंने मांग की कि बातचीत में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमजीआर को भी शामिल किया जाए.
राजीव गांधी ने उनकी मांग मान ली. एमजीआर तुरंत दिल्ली पहुंचे. राजीव गांधी ने अपने अफ़सरों पर दबाव बनाया कि प्रभाकरन को समझौते के लिए किसी भी तरह से मनाया जाए.
राजीव गांधी
राजीव गांधी के क्षत-विक्षत शव को ताबूत में लाया गया था.
उनका कहना था, "वह ज़िद्दी ज़रूर हैं, लेकिन इस समझौते में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है."
प्रभाकरन और उनके प्रतिनिधिमंडल को किसी पत्रकार से नहीं मिलने दिया गया. उनको यह आभास हुआ कि उनसे ज़बरदस्ती समझौते पर दस्तख़त कराए जा रहे हैं.
बहुत मुश्किल से उन्हें राजीव गांधी से मिलने के लिए तैयार करवाया गया. तमिलनाडु के एक मंत्री और उनके साथी बालासिंघम उनके साथ गए. प्रभाकरन ने कहा श्रीलंका सरकार पर विश्वास नहीं किया जा सकता.
राजीव गांधी ने कहा कि वह तमिलों के हित के लिए काम कर रहे हैं. अतत : प्रभाकरन भारत श्रीलंका समझौते को एक मौक़ा देने के लिए तैयार हो गए.

बुलेटप्रूफ़ जैकेट

नारायणस्वामी बताते हैं कि राजीव गांधी इससे बहुत खुश हुए. उन्होंने तुरंत प्रभाकरन के लिए खाना मंगवाया.
जब वह उनके घर से निकलने लगे तो राजीव ने राहुल गांधी को बुलाया और उनसे अपनी बुलेटप्रूफ़ जैकेट लाने के लिए कहा. उन्होंने वह जैकेट प्रभाकरन को देते हुए मुस्कराते हुए कहा, "आप अपना ख़्याल रखिएगा."
राजीव गांधी की हत्या की ख़बरें
राजीव गांधी के मंत्रिमंडल के एक सदस्य ने उनसे कहा कि प्रभाकरन को तब तक भारत में रखा जाए, जब तक एलटीटीई के लोग हथियार नहीं डाल देते.
राजीव गांधी ने इसे अस्वीकार कर दिया और कहा, "प्रभाकरन ने मुझे अपनी ज़ुबान दी है. मैं उन पर विश्वास करता हूं."
प्रभाकरन ने वह वचन कभी पूरा नहीं किया और अंतत: राजीव गांधी की हत्या करने का आदेश दे दिया.

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

भारत मुक्ति मोर्चा का चौथा राष्ट्रीय अधिवेशन



भारत मुक्ति मोर्चा का चौथा राष्ट्रीय अधिवेशन 28 ​िदसेम्बर से 29 ​िदसेम्बर 2014 को स्थान-​िबहार लेनिन जगदेव प्रसाद नगर (के.पी.नगर) मगध विश्वविद्यालय के दक्षिण, जयहिन्द प​िब्लक स्कूल बोद्ध गया ​िबहार में जो जा रहा है। सभी मूलनिवासी बहुजनाें को इस अधिवेशन में भारी संख्या में उपस्थित रहकर  तन-मन-धन के साथ सहयोग करें।- जय मूलनिवासी
इस अधिवेशन के सभी सत्राें की अध्यक्षता भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मा.वामन मेश्राम साहब करेंगे।

31वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन बामसेफ और राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ







बामसेफ और राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ का 31वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन 25 ​िदसेम्बर से 27 ​िदसेम्बर 2014 को स्थान-​िबहार लेनिन जगदेव प्रसाद नगर (के.पी.नगर) मगध विश्वविद्यालय के दक्षिण, जयहिन्द प​िब्लक स्कूल बोद्ध गया ​िबहार में जो जा रहा है। सभी मूलनिवासी बहुजनाें को इस अधिवेशन में भारी संख्या में उपस्थित रहकर तन-मन-धन के साथ सहयोग करें।- जय मूलनिवासी
इस अधिवेशन के सभी सत्राें की अध्यक्षता बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मा.वामन मेश्राम साहब करेंगे।

नागपूर पर्यटन






































































विपिन सर (Maths Masti) और मैं

  विपिन सर (Maths Masti) और मैं विपिन सर (Maths Masti) और मैं