रविवार, 2 नवंबर 2014

मुफलिसी की सरमाएदारी में अतुल्य भारत

मुफलिसी की सरमाएदारी में अतुल्य भारत 

प्रणय विक्रम सिंह
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पर हाथ रखकर कहिये देश क्या आजाद है? जनकवि अदम गोंडवी की ये पंक्तियां मौजूदा परिदृश्य में चरितार्थ होती दिख रही है। आज भारत में वैभव का आभास, अनवरत नवीन प्रतिमानों के प्रस्तर खण्ड उत्कीर्ण कर रहा है। चहुंओर गगनचुम्बी भवन, चमचमाती लग्जरी गाड़ियां, शोर मचाते कल कारखाने व विपणन के लिए आधुनिक माल आदि इसके प्रतीक केंद्र हैं। पर इन सबके इतर भी एक भारत है जहां निर्धनता के न्यूनतम मापदण्डों पर अभी भी बहस जारी है। चांद तक पर शोध चल रहा है। इसरो ने अपने उपलब्धियों का शतक पूरा कर लिया है। किंतु अतुल्य भारत में निर्धनता के मापदण्ड क्या होंगे यह अभी अभी विचारधीन है। यह राष्ट्रीय शोक ही है कि विश्व का हर तीसरा कुपोषित नौनिहाल हिंदुस्तानी है। विडंम्बना है 21 वीं सदी की महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर भारत का भविष्य कुपोषित होगा।
खैर अतुल्य भारत की वर्चुअल व अभासी किरदार से बाहर निकलते हुए देश में जीवन जीने के लिए तय किए गए न्यूनतम मापदण्डों पर यदि दृष्टिपात करें तो विदित होता है कि रोटी कपड़ा और मकान बुनियादी सवाल है। किंतु रोटी तो सबकी बुनियाद है। आइए निर्धनता के गर्भ से प्रसवित आम अवाम के नजरिए से रोटी की पैमाइश करते है। विश्व बैंक के अनुसार प्रतिदिन 1.25 डालर से कम आय वाले गरीबी रेखा से नीचे दर्ज होंगे। एशियाई विकास बैंक के मुताबिक यदि कोई प्रतिदिन 1.35 डालर से कम अर्जित करता है तो वह निर्धन कहा जाएगा। यदि एशियाई विकास बैंक के आंकड़ों को पैमाना मानें तो भारत में 55 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। यह लगभग तय है कि भारत सरकार इस आंकड़े को खारिज करना चाहेगी, क्योंकि उसके अपने हिसाब-किताब से देश में निर्धन आबादी का प्रतिशत 3० के आसपास है। ज्यादातर संस्थाएं भोजन में कैलोरी की मात्रा के आधार पर गरीबी का निर्धारण करती हैं। प्रो.टीडी लकड़वाला समिति के अनुसार शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 21०० कैलोरी और ग्रामीण क्षेत्रों में 24०० कैलोरी भोजन लेने वाले गरीब नहीं हैं। कुछ वैश्विक संस्थाएं अलग तरह से गरीबी का आंकलन करती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र मानव सूचकांक की रपटों से यही सामने आ रहा है कि भारत में कुपोषित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक देश के लगभग 23 करोड़ लोगों को दोनों वक्त भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है। यानी दोनों वक्त भरपेट भोजन न करने वाले लोगों की तादाद देश की आबादी का लगभग एक चौथाई है। इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वीकार किया है कि भारत में दुनिया की एक बहुत बड़ी आबादी, जो 1 साल से 6 साल के बीच की है, कुपोषण की शिकार है। ऐसे कुपोषित बच्चे जिनकी तादाद 25 लाख से भी ज्यादा है, हर साल मौत की नींद सो जाते हैं। देश की दो तिहाई आबादी बेहद दयनीय परिस्थितियों में जीने को मजबूर है।
उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल समेत भारत के आठ राज्यों में सबसे अधिक गरीबी है। इन राज्यों में गरीबों की संख्या 26 अफ्रीकी देशों के गरीबों से भी अधिक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज भी 42 करोड़ लोग पेट भरे बिना नींद के आगोश में आ जाते हैं। अगर गांवों की बात करें तो शायद हालात और बदतर है। ग्रामीण भारत में 23 करोड़ लोग अल्पपोषित है, 5० फीसदी बच्चों की मत्यु का कारण कुपोषण है। यही नहीं दुनिया की 27 प्रतिशत कुपोषित जनसंख्या केवल भारत में रहती है। यद्यपि अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्बारा प्रत्येक वर्ष जारी होने वाले वैश्विक भूख सूचकांक की ताजा रिपोर्ट में भारत की बदहाली एक हद तक कम हुई है। सूची में शामिल 76 देशों में अब भारत 55वें स्थान पर है,जबकि पिछली मर्तबा 63वीं पायदान पर था। यानी मोदी सरकार के आते ही बेहतरी का स्तर 8 अंक तक सुधर गया। 2००9-1० में जब भारत की विकास दर चरम पर रहते हुए 8 से 9 फीसदी थी,तब भी भूखमरी का स्थान 84 देशों की सूची में 67वां था। अब जब हमारी घरेलू उत्पाद दर 5.7 फीसदी है और औद्योगिक उत्पादन घटकर बीते सवा साल में महज ०.4 फीसदी की वृद्धि दर पर टिका हुआ है,तब एकाएक भुखमरी का दायरा कैसे घट गया ? आंकड़ों की बाजीगरी का यह तिलिस्म समझ से परे है। हां, भारत निश्चित तौर पर एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, किंतु इस साम्राज्य का निर्माण भूखे पेट के ऊपर हुआ है! मेरा भारत महान! दरअसल, भारत की गरीबी रेखा भुखमरी रेखा का ही दूसरा नाम है। भारत सरकार ने जो गरीबी रेखा खींची है वह तो पेट भरने में ही चुक जाएगी।
इस रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की श्रेणी में रखा जाता है। इनके लिए सरकार को खाद्यान्न की उपलब्धता सुनिश्चित करनी पड़ती है। इस प्रकार इन लोगों पर सरकार द्बारा गरीबों के भोजन के लिए अनुदान की रकम खर्च होती है। जितने अधिक गरीब होंगे उतना ही अधिक खाद्यान्न अनुदान देना पड़ेगा। अगर सरकार तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर लेती है तो खाद्यान्न अनुदान का बिल 47,917 करोड़ रुपये हो जाएगा, जबकि अब तक गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए खाद्य अनुदान के रूप में मात्र 28,89० करोड़ रुपये ही खर्च किए जा रहे हैं। क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि लोकतंत्र में भूख विद्यमान क्यों रहती है? संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के हालिया हुए सम्मेलन में जारी आंकड़ों से साफ हो जाता है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी को दूर करने में वैश्विक नेतृत्व बुरी तरह विफल रहा है। बढ़ती भुखमरी और कुपोषण इस बात के भी द्योतक हैं कि हमारा नेतृत्व भुखमरी के खिलाफ संघर्ष में ईमानदार नहीं है। भुखमरी सबसे बड़ा घोटाला है। यह मानवता के खिलाफ अपराध है, जिसमें अपराधी को सजा नहीं मिलती। 1996 में विश्व खाद्यान्न सम्मेलन में राजनीतिक नेतृत्व ने संकल्प लिया था कि 2०15 तक भूखों की संख्या आधी से कम हो जाएगी, तब भूखों की संख्या करीब 84 करोड़ थी। मात्र यह संकल्प ही प्रदर्शित करता है कि मानवता के खिलाफ सबसे जघन्य अपराध को लेकर राजनेता कितने बेपरवाह हैं। खाद्य एवं कृषि संगठन के आकलन के अनुसार रोजाना 24 हजार लोग भुखमरी और कुपोषण के दायरे में आ रहे हैं। क्या भूख मिटाना सचमुच इतना कठिन है? इसका जवाब है नहीं? चूंकि भूख से लड़ने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है, इसलिए भूख का व्यापार तेज रफ्तार से फल-फू ल रहा है।
 विश्व आर्थिक वृद्धि के प्रतिमान के मूल सिद्धांत के लक्ष्यों को गरीबी, भुखमरी और असमानता उन्मूलन के रूप में स्वीकार कर रहा है, किंतु वास्तव में यह भुखमरी और असमानता को बढ़ावा दे रहा है। अर्थशास्त्रियों ने पीढ़ियों के दिमाग में इस तरह की बातें भर दी हैं कि हर कोई विश्वास करने लगा है कि गरीबी और भुखमरी मिटाने का रास्ता जीडीपी से होकर गुजरता है। जितनी अधिक जीडीपी होगी, गरीब को गरीबी के दायरे से बाहर निकलने के अवसर भी उतने ही अधिक होंगे। पर इस आर्थिक सोच से अधिक गलत धारणा कुछ हो ही नहीं सकती। भारत के पांव तो निर्धनता के दलदल में धंसे हुए हैं और वह भी तब जब वह दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति वाली अर्थव्यवस्था का तमगा लिए हुए है। यहां यह भी ध्यान रहे कि जो आबादी गरीबी रेखा से तनिक सी ऊपर है उसमें एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो कभी भी इस रेखा के नीचे आ सकता है। यह सही समय है जब इस पर प्राथमिकता के आधार पर विचार हो कि आर्थिक विकास की मिसाल पेश करने वाले देश में निर्धनता जड़ें जमाए क्यों बैठी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि तेज आर्थिक विकास के नाम पर हम संपन्नता के कुछ टापू निर्मित कर रहे हैं? यदि निर्धनता निवारण के लिए ठोस और गंभीर प्रयास नहीं किए गए तो फिर संपन्नता के वे टापू रेत के टीले ही सिद्ध होंगे।

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