बालश्रम से तात्पर्य:-
बाल श्रम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है बाल और श्रमिक। बाल से अभिप्राय उस बालक से है जो अभी अपने माता-पिता पर आश्रित है और जिसके लालन - पालन का दायित्व उसके माता-पिता का है और जो १४ वर्ष की आयु का नही है। श्रमिक उसे कहा जाता है जो आर्थिक उद्देश्य हेतु शारीरिक श्रम करके धन अर्जित करता है। जब कि श्रमिकों के अन्तर्गत एक मात्र वे स्त्री और पुरूष आते है जो व्यस्क हों लेकिन यह हमारे समाज की विडम्बना है कि बच्चों को पढ़ने-लिखने की आयु में कठोर परिश्रम करना पडता है। जिस से वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं और अस्वस्थ जीवन जीने तथा शारीरिक विकृति के साथ जीने के लिये विवश होते है।
ये व्यवस्था आज की व्यवस्था नही है बल्कि प्राचीन काल से चली आने वाली व्यवस्था। वैदिक काल में सम्पूर्ण समाज चार भागों में विभाजित था जिसमें सवर्णों को ही शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। जिस से निम्न श्रेणी के बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नही था जिस से वे या तो अपने पैतृक व्यवसाय को अपनाते थे या गरीबी के कारण पेट पालन के लिये श्रम करते थे। कौटिल्य युग में बच्चों की खरीदा व बेचा जाता था। मध्यकाल में अपने पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने के लिये जो अपने पुश्तैनी व्यवसायों को अपना लेते थे उनसे सम्बन्धित व्यवसायों के लिये प्रशिक्षण देना भी उचित नही समझा जाता था। पीर कम होने की जगह ओर बढ गयी कि १७वी और १८वी शताब्दी में बाल श्रमिकों की संख्या अत्यधिक बढ़ गयी जिसके कारण वे अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग बन गये।
बाल श्रमिकों का उदय:-
बालश्रमिकों को आज की आश्चर्यजनक घटना न माने यह तो प्राचीन काल में उत्पन्न प्राचीन सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक विषमताओं का परिणाम है जो दिन प्रतिदिन विकराल रूप को धारण करती जा रही है। औद्योगीकरण और शहरीकरण ने बाल श्रमिकों के घाव को भरने की जगह ओर अधिक गहरे कर दिये है। जिसने अथक परिश्रम के द्वारा समाप्त की गयी बन्धुआ वृति को पुनः प्रारम्भ कर दिया है। आज स्वयं लाचार माता-पिता आर्थिक लाभ के लिये अपने बच्चो को बन्धुआ बना रहे है।
भारत कृषि प्रधान देश है यहाँ की समस्याओं को यहाँ के ही परिदृश्य के द्वारा ही समाप्त या कम किया जा सकता है। अन्य देश की नकल के द्वारा नही हर देश की अपनी संस्कृति है जो उसको बनाये रखे में सहयोग करती है। भारत गाँव में बसता है उसकी आधे से अधिक जनसंख्या गाँव में निवास करती है इसलिये उन समस्त सुविधाओं को गाँव में पहुँचाना होगा जो शहर में है। वैश्वीकरण,औद्योगिकरण और शहरीकरण के चकाचौंध भरे वातावरण ने कृषि करने वाले और गरीब लोगों के लिये ओर अधिक परेशानियाँ खडी कर दी हैं । शहर के वातावरण में वे न्यूनतम वृति पर काम करने के लिये मजबूर होते है जिस से वे ओर अधिक गरीब होते जाते है। वे स्वयं तो शिक्षित नही हैं और पैसे की तंगी में बच्चों को भी शिक्षित नही कर पाते बल्कि वे बाल श्रमिकों की संख्या वृद्धि में सहयोग करते है। कम आमदनी के कारण न वे स्वच्छ वातावरण में निवास करते हैं न शिक्षित हो पाते हैं न स्वस्थ नागरिक बन पाते हैं बल्कि अज्ञानता के कारण जनसंख्या वृद्धि का कारण बनते हैं ।
आज के बच्चे ही देश के भविष्य निर्माता हैं। इनके कंधों पर देश का भविष्य है।–पं0 जवाहर लाल नेहरू
बालक में पिता की उन्नत सम्भावनाओं के दर्शन किये थे। - कवि विलियम वर्ड्सवर्थ
क्या ये लोगों की सम्भावनाओं को दर्शाने वाले वाक्य आज बड़ा प्रश्न खड़ा नही करते है कि वे बालक जो शिक्षित नही, स्वस्थ नही वो किस प्रकार से समाज का निर्माण करेंगे और वे किसी भी देश के सशक्त सजग और सबल नागरिक बने में समर्थ हैं । जो स्वयं खुश नही वह क्या किसी को खुशी दे सकता है। उस से राष्ट्र निर्माण में किस योगदान की आशा की जा सकती है।
बाल श्रमिकों की समस्या:-
जब देश आजाद भी नही हुआ उस से पूर्व ही वह भुखमरी और गरीबी का शिकार था। देश अत्यधिक बुरी स्थिति में आजाद हुआ अनेकानेक समस्यायें मुँह खोले थीं जिनमें बाल श्रमिक भी एक बडी समस्या थी। आंकडे बताते हैं कि १९६१ की जनगणना में बाल श्रमिकों की संख्या १.४५ करोड़ थी और ये आकडे निरन्तर बढते ही चले गये और विश्व स्वास्थ्य संगठन की १९९० की रिपोर्ट में ये आकडे ५ करोड हो गये हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मान ना है कि विश्व का हर चौथा बच्चा बाल श्रमिक है।
बाल श्रम के कारण बच्चो का बचपन छिन गया है उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ा है। जिस से उनका शारीरिक मानसिक विकास नही हो पाता और वे उचित पोषण, शिक्षा, मनोरंजन, खेलकूद, प्यार और दुलार से वंचित रह जाते हैं ।
सभी बाल श्रम योजनाओं के लिए बजट और व्यय
वर्ष
|
बजट आवंटन (अंतिम) (लाखों में)
|
व्यय (लाखों में)
|
१९९५-९६
|
३४४०.००
|
३४२९.७१
|
१९९६-९७
|
५६००.००
|
३३८३.५०
|
१९९७-९८
|
७८४३.००
|
१३१७.७६
|
१९९८-९९
|
५०००.००
|
२७३१.२१
|
१९९९-२०००
|
३४००.००*
|
३७९६.७८
|
२०००-२००१
|
३६००.००
|
३७९८.६९
|
२००१-२००२
|
६७००.००
|
६१९१.६७
|
२००२-२००३
|
८०१०.००
|
६५१३.७७
|
२००३-२००४
|
७२४३.००
|
६७८३.००
|
२००४-२००५
|
९९०५.००
|
९३१५.८०
|
२००५-२००६
|
१२४७९.००
|
११५०३.८२
|
२००६-२००७
|
१२७००.००
|
१२०५५.०७
|
२००७-२००८
|
१४३१८.००
|
१४३३१.००
|
२००८-२००९
|
१४७५१.००
|
१४७२१.००
|
२००९-२०१०
|
९२६२.९३
|
९५२७.००
|
२०१०-२०११
|
९२८०.००
|
९२७१.००
|
२०११-२०१२
|
१४३००.००
|
१४२६६.००
|
२०१२-२०१३
|
१५०००.००
|
स लूटतन्त्र के सताये एक नाबालिग मज़दूर की कहानी
पिंटू, गुड़गाँव
मै पिण्टू, माधोपुरा बिहार का रहने बाला हूँ, अपने घर में बहन-भाई में सबसे बड़ा मैं ही हूँ। मेरी उम्र 15 साल है। मुझसे छोटी मेरी दो बहने हैं। 2010 मे मेरे पापा गुजर गये, तो अब मेरी माँ व हम तीन भाई-बहन ही हैं। ग़रीबी तो पहले से ही थी, लेकिन पापा के गुजरने के बाद दुनिया के तमाम नाते-रिश्तेदारों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया। गाँव के कुछ लोग गुड़गाँव मे काम करते थे तो मेरी माँ ने बड़ी मुसीबत उठाकर 4 रुपये सैकड़ा पर 1000 रुपये लेकर व जो काम करते थे उनसे हाथ जोड़कर मुझे जैसे-तैसे गुड़गाँव भेज दिया। क्योंकि घर मे सबसे बड़ा मैं ही था और गाँव पर भी मेरी माँ और मैं मज़दूरी करके ही पेट पाल रहे थे। खेत व जमीन मेरे पास कुछ नहीं है, बस रहने के लिए गाँव में एक झोपड़ी है।
2012 में मैं गुड़गाँव आ गया बहुत फ़ैक्टरियों में चक्कर लगाये मगर काम नहीं मिला क्योंकि मैं अभी बच्चा था। 10-15 दिन में वो सारा रुपया ख़र्च हो गया जो माँ ने दिया था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? गुड़गाँव में मेरे कमरे के पड़ोस का आदमी दिहाड़ी (बेलदारी) पर जाता था। उससे हाथ-निहोरे करने पर उसने मुझे अपने ठेकेदार से मिलवा दिया। मेरी उम्र कम थी इसलिए ठेकेदार ने बड़ा एहसान दिखाकर मुझे काम पर रखा लिया और रोज के 150 रुपये देने का तय किया जबकि 2012 में सामान्य मज़दूरी 300 के लगभग थी। सुबह 8:30 बजे से शाम 7 बजे तक मुझे 150 रु. मिलने लगे। तब से आज तक मैं बेलदारी ही कर रहा हूँ। अब जुलाई 2014 में मुझे 250 रु. मिल रहे हैं। सामान्य मज़दूरी 350-400 रु. है। पूरे महीने 10-12 घण्टे काम करने के बाद मुझे 7500 रु. तक मिलते है और अगर काम न हो या छुट्टी हो जाए तो रोज के 250 रु. कट जाते है। बड़ी मुश्किल से अपना ख़र्च निकालकर मैं अपनी माँ व दो बहनों के ख़र्चों के लिए महीने में उसे 4 हज़ार रुपये भेज पाता हूँ। मैं अपनी बहनों की शादी कैसे करूंगा, अगर हारी-बिमारी होगी तो क्या होगा और किसी की जिन्दगी का कोई भरोसा भी तो नहीं कब तक कौन जिन्दा रहेगा। यही तमाम चिन्ताएँ मुझे लगातार सताती रहती है। एक दिन काम करने के दौरान मुझे भैया मिले जिन्होंने मेरी समस्या भी सुनी और मुझे प्यार से समझाया भी कि तुम फालतू में अकेले क्यों परेशान हो। अरे तुम्हारी माँ और बहन लूली-लंगड़ी, अपाहिज तो हैं नहीं, फालतू में उनको गाँव में रख छोड़े हो, उनको यहाँ गुड़गाँव बुलाओ। तुम तो कमा ही रहे हो। मम्मी को भी किसी कम्पनी में 5000 रुपये में काम मिल जायेगा और अपनी बहनों को यहाँ किसी अच्छे स्कूल में नाम लिखवा देना। तुम्हारा पूरा परिवार तुम्हारे साथ रहेगा।
उनकी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी मैंने उनका पता, फोन नम्बर ले लिया और मैं लगातार उनके सम्पर्क में हूँ। और अब मैंने यह तय कर लिया है कि अगले महीने मैं अपनी माँ और दोनों बहनों को गुड़गाँव ले आऊंगा। हम सब मिलजुल कर संघर्ष करेंगे और ज़िन्दगी को बदलने की लड़ाई लड़ेंगे। मुझे पढ़ने-लिखने का मौका कभी जिन्दगी में नहीं मिला इसलिए अपनी ये कहानी मैं इन्ही बिगुल वाले भैया से लिखवा रहा हूँ।
तों में काम करना बाल मजदूरी क्यों नहीं ?
बाल अधिकारों से जुड़ी लगभग सभी संधियों पर दस्तखत करने के बावजूद भारत बाल मजदूरों का सबसे बड़ा घर क्यों बन चुका है? इसी से जुड़ा यह सवाल भी सोचने लायक है कि बाल श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून, 1986 के बावजूद हर बार जनगणना में बाल मजदूरों की तादाद पहले से कहीं बहुत ज्यादा क्यों निकल आती है? मगर हकीकत इससे कहीं भयानक है. दरअसल बाल मजदूरी में फंसे केवल 15 फीसदी बच्चे ही कानूनी सुरक्षा घेरे में हैं. देश के 1.7 करोड़ बाल मजदूरों में से 70 फीसदी बच्चे खेती के कामों से जुड़े हैं, जो कानून के सुरक्षा घेरे से बाहर ही रहते हैं. इसलिए जब तक खेती से जुड़े कामों को भी बाल मजदूरी मानकर उन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाएगा, तब तक बाल मजदूरी को जड़ सहित उखाड़ फेंकना संभव नहीं हो पाएगा. आजादी से 39 साल बाद और अबसे 24 साल पहले बाल श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून 1986 के माध्यम से भारतीय बच्चों को खतरनाक कामों से बाहर निकालने के लिए वैधानिक कार्रवाई शुरू हुई थी. इसके बाद 2006 में इसी कानून में बाल मजदूरी के कई क्षेत्रों और घरेलू कामों को प्रतिबंधित किया गया. कुल मिलाकर तब 16 व्यवसायों और 65 प्रक्रियाओं को भी खतरनाक कामों की सूची में शामिल किया गया, मगर इस सूची से खेती से जुड़े कई खतरनाक काम छूट ही गए. खेत-खलिहानों में काम करने या पशुओं को चराने वाले बच्चों के पास अगर पढ़ने लायक समय भी नहीं बचेगा तो जाहिर है कि उनका आने वाला समय अंधकारमय ही रहेगा. खासतौर से लड़कियों के साथ तो मुसीबतें ज्यादा हैं, क्योंकि उन्हें खेती के कामों के साथ-साथ घर और छोटे बच्चों को भी संभालना पड़ता है. इन बच्चों की हालत भी बाकी क्षेत्रों के बाल मजदूरों जैसी ही है. इसके बावजूद इन्हें बाल मजदूर क्यों नहीं कहा जा सकता है? हालांकि यह एक अजीब स्थिति है, मगर कहीं न कहीं सच भी है कि खेती के क्षेत्र में बाल मजदूरों की भारी संख्या के चलते ही इन्हें बाल मजदूर कहने या मानने से परहेज किया जा रहा है. बाल मजदूरों की इतनी भारी संख्या का दबाव कहीं न कहीं कानून और नीति बनाने वालों पर भी रहता है. यह एक असमंजस से भरा सवाल बना हुआ है कि अगर बच्चों ने खेतों में काम करना बंद कर दिया तो फिर क्या होगा? यह भी एक कड़वा सच है कि परिवार वालों के पास उपयुक्त रोजगार का जरिया और पर्याप्त आमदनी न होने के चलते वे अपने बच्चों को काम पर भेजते हैं. एक तबके के मुताबिक, इसमें हर्ज भी नहीं है. मगर इसके आगे यह भी गौर करना जरूरी होगा कि अगर बाजारों में हमेशा बच्चों की मांग बनी भी रहती है तो इसलिए कि उनकी मजदूरी बहुत सस्ती होती है. गरीब और बंधुआ परिवार तो बाजारों की मांग के आगे हमेशा झुके रहे हैं. वे अपने बच्चों को दूरस्थ इलाकों में अच्छा पैसा दिलवाने की उम्मीद पर जिन ठेकेदारों के हाथों सौंपते हैं, वे उन्हें शोषण के रास्ते पर धकेल रहे हैं. कुछ महीने पहले राजस्थान के श्रम विभाग ने केंद्रीय श्रम मंत्रालय को एक पत्र लिखकर सिफारिश की थी कि बाल मजदूरी पर कारगर तरीके से पाबंदी लगाने के लिए श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून में खेती से जुड़े कार्यों को भी जोड़ा जाए. असल में राजस्थान से बहुत सारे बाल मजदूर गुजरात की तरफ पलायन करते हैं. श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून में खेती से जुड़े कार्यों को शामिल न किए जाने से प्रदेश का श्रम विभाग यह मान रहा है कि जहां बाल मजदूरी को बढ़ावा देने वालों को कानूनी आड़ मिल रही है, वहीं वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. बीते साल केवल अगस्त महीने का हाल यह रहा कि उत्तरी गुजरात में कपास की खेती से जुड़े एक दर्जन से भी ज्यादा बाल मजदूर मारे गए. तब इन हादसों के पीछे बीटी कपास में जंतुनाशक दवा के रिएक्शन की आशंका जताई गई थी. यह भी कहने-सुनने में आता है कि अगर काम खतरनाक नहीं है तो बच्चों से काम कराने में कोई हर्ज नहीं है, जैसे खेती. हमें यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि खेती से जुड़े काम मुश्किलों से भरे होते ही नहीं हैं. खेतों में भी खतरनाक मशीनों, औजारों, उपकरणों के इस्तेमाल से लेकर भारी-भरकम चीजों को उठाने और लाने-ले जाने के काम होते हैं. खेतों में भी तो स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल माहौल में काम करना होता है, जिसमें खतरनाक पदार्थों के मामले, दलाल या मालिकों के काम करने के तरीके, मौसम या तापमान और हिंसा भी शामिल हैं. खेती में भी काम का समय तय नहीं होता. एक बच्चे को खेत में कम से कम दस घंटे तो बिताने ही पड़ते हैं. बुआई और कटाई के मौसम में काम का कोई हिसाब-किताब नहीं रहता है. बीड़ जिले की रूपल माने (13) बताती है कि उसे सुबह 9 बजे से शाम 7 बजे तक खेतों में काम करना पड़ता है. इसी तरह लातूर जिले का सुभाष तौर (14) कहता है कि वह 12-13 घंटे खेतों में रहता है और कई-कई हफ्तों तक ढंग से आराम नहीं कर पाता. यहां तक कि महीनों घर लौटने की इजाजत नहीं मिलती. गौर करने वाला तथ्य यह भी है कि देश भर में 5 से 14 साल तक के 42 फीसदी बच्चे इसी तरह के कामों में लगे हुए हैं. जब तक इस मामले में किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा जाता है, तब तक बच्चों से इसी तरह के काम कराने वालों को खुली छूट मिलती रहेगी. - See more at:
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें