राम मंदिर विवाद कांग्रेस ने पैदा किया-II:- मूर्ति किसने रखी, किसने रखवाई
22 दिसंबर, 1949 को बाबरी मस्जिद परिसर में रामलला प्रकट हुए और 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वस्त की गई. 40 से अधिक वर्षों के इस अंतराल के दौरान सार्वजनिक रूप से जो कुछ घटा, उसे तो हम सब जानते हैं, पर पर्दे के पीछे जो कुछ घटता रहा, उससे हम में से अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं. फैज़ाबाद से छपने वाले दैनिक जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह पर्दे के नेपथ्य में और सार्वजनिक रूप से घटने वाली बहुत-सी गतिविधियों के चश्मदीद गवाह रहे हैं. कई प्रधानमंत्री, विपक्षी राजनेता, पत्रकार एवं एक्टिविस्ट सूचनाओं के लिए उनके ऊपर निर्भर रहे हैं. शीतला सिंह ने अपनी जानकारी और अनुभवों को लिपिबद्ध कर बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद से संबंधित कई तथ्य उजागर किए हैं, जो अब तक लोगों को मालूम नहीं हैं. - See more at:
करीब 7 बजे सुबह के जब मैं जन्मभूमि पहुंचा, तो मालूम हुआ कि तखमीनन 50-60 आदमियों का मजमा कुफल जो बाबरी मस्जिद के कंपाउंड में लगे हुए थे, तोड़ कर व नीज दीवार द्वारा सीढ़ी फांद कर अंदर मस्जिद मदाखिलत करके मुरति श्री भगवान की स्थापित कर दिया और दीवारों पर अंदर व बाहर सीता राम जी वगैरह गेरु व पीले रंग से लिख दिया. का.नं. 70 हंसराज मामूरा डियूटी मना किया, नहीं माने. पीएसी की गारद जो वहां मौजूद थी, इमदाद के लिए बुलाया, लेकिन उस वक्त तक लोग अंदर मस्जिद में दाखिल हो चुके थे. अफसरान वाला ज़िला मौक़ा पर तशरीफ लाए और मसरूफ इन्तिजाम रहे. बादहू मजमां तखमीनन 5-6 हज़ार इकट्ठा होकर मजहबी नारे व कीर्तन लगाकर अंदर जाना चाहते थे, लेकिन माकूल इंतजाम होने की वजह से राम सकल दास, सुदर्शन दास व 50-60 आदमी नाम नामालूम बलवा करके मस्जिद में मदाखिलत करके मुरति स्थापित करके मस्जिद नापाक किया है. मुलाजिमान मामूरा डियूटी के बहुत से आदमियों ने इसको देखा है. उपरोक्त विवरण पुलिस थाना अयोध्या में मुकदमा संख्या 215 अपराध संख्या 167 पर 23.12.1949 को 19 बजे दर्ज किया गया. 23 दिसंबर, 1949 को प्रात: 9 बजे कांस्टेबिल नंबर 07 माता प्रसाद ने थाना अयोध्या ज़िला फैजाबाद में पहुंच कर जो विवरण सब-इंस्पेक्टर रामदेव दूबे, थानाध्यक्ष को बोलकर बताया और जिसे हेड मोहर्रिर परमेश्वर सिंह ने लिखकर प्रमाणित किया, उसके अनुसार, 22/23 दिसंबर की रात बलवाइयों की एक भीड़ ने बाबरी मस्जिद में जबरदस्ती घुसकर मस्जिद को नापाक करते हुए वहां रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी थी. किसी को अनुमान नहीं था कि धारा 147/295/ 448 ताजीराते हिंद या इंडियन पेनल कोड के तहत दर्ज यह मुकदमा अगले 60 वर्षों तक भारतीय राज्य को दु:ख देगा और भारतीय संविधान में निहित धर्म निरपेक्षता जैसे मूल्यों के लिए ख़तरा बना रहेगा. यहां डीबी राय का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है कि किस प्रकार तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है, वह लिखते हैं :- 22/23 दिसंबर, 1949 की रात में अयोध्या के विवादित भवन के मध्य गुंबद के नीचे कहा जाता है कि एक बहुत तेज अलौकिक रोशनी हुई और सुरक्षा में लगे गार्ड के संतरी, जो एक मुस्लिम था, का कथन है कि रोशनी की चकाचौंध कम होने पर उसकी आंखों ने जो देखा, वह एक आश्चर्यजनक दृश्य था. उसका कथन है कि रोशनी समाप्त होने के बाद वहां पर अपने तीन भाइयों के साथ श्री रामचंद्र की बाल मूर्ति विराजमान थी. जनता के सामने मूर्तियों को हटाना प्रशासन के वश में नहीं था. जनमानस के अनुसार इस घटना की जांच हुई थी और उस समय के ज़िलाधिकारी केकेके नैय्यर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने त्याग-पत्र दे दिया था. किंवदंती के अनुसार, बाबा अभयराम दास एवं अयोध्या के कुछ अन्य संतों ने उस समय के गार्ड में नियुक्त कांस्टेबल शेर सिंह से कहा था कि यदि वास्तव में वह शेर सिंह है, तो उन्हें विवादित भवन में राम की मूर्ति को ले जाने दे. शेर सिंह अक्सर स्वामी अभयराम दास के यहां आता-जाता था. उनके साथ भांग-गांजा का सेवन भी किया करता था. शेर सिंह ने भावनाओं में आकर 22/23 दिसंबर की रात में, जब उसकी ड्यूटी रात 9 बजे से 12 बजे के बीच थी, तो उसने महंत अभयराम दास व अन्य संतों को विवादित भवन में प्रवेश करा दिया और वहां पर इन साधुओं ने अष्टधातु की रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी तथा पूजन में लग गए. किंवदंती के अनुसार, बाबा अभयराम दास एवं अयोध्या के कुछ अन्य संतों ने उस समय के गार्ड में नियुक्त कांस्टेबल शेर सिंह से कहा था कि यदि वास्तव में वह शेर सिंह है, तो उन्हें विवादित भवन में राम की मूर्ति को ले जाने दे. शेर सिंह अक्सर स्वामी अभयराम दास के यहां आता-जाता था. उनके साथ भांग-गांजा का सेवन भी किया करता था. हज़ारों श्रद्धालु भी एकत्रित हो गए, क्योंकि गुप्त रूप से प्रचार किया गया था कि आज रामलला का प्रादुर्भाव होगा. 12 बजे के बाद शेर सिंह एक घंटा तक ड्यूटी पर रहा और फिर एक बजे जाकर उसने अपने साथी मुस्लिम कांस्टेबल को जगाकर संतरी ड्यूटी पर भेजा. जब वह ड्यूटी पर पहुंचा, तो वहां पर रखी रोशनी की चकाचौंध में अष्टधातु की रामलला की मूर्ति का तेज देखकर वह अवाक रह गया. एक घंटा देर से ड्यूटी पर पहुंचने के कारण उसकी भलाई शायद इसी में थी कि प्रादुर्भाव के कथन का समर्थन करता रहे. कांस्टेबल माता प्रसाद द्वारा दर्ज कराई गई रिपोर्ट के उलट ऊपर दिए गए तथ्य अयोध्या 6 दिसंबर का सत्य नामक किताब से उद्धत हैं (पृष्ठ संख्या 24), जिसके लेखक डी बी राय हैं और जिनके बारे में यहां बताना अप्रासंगिक न होगा कि जब 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिराई गई थी, तब यही सज्जन फैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे और मस्जिद गिराने में लगभग उसी भूमिका में थे, जिसमें कोई विश्व हिंदू परिषद का कार्यकर्ता हो सकता था. इनाम के तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दो बार लोकसभा का टिकट दिया और वह दोनों बार जीते. जिन किंवदंतियों का वह उल्लेख कर रहे हैं, उन जैसी असंख्य किंवदंतियां इस विवाद के दौरान फैलाई गई हैं और भोली-भाली जनता उन पर विश्वास करती रही है. डीबी राय के उपरोक्त कथन में कई मजेदार विसंगतियां हैं. ये विसंगतियां किसी असावधानी या ना-जानकारी की उपज नहीं है, बल्कि इन्हें सोचे-समझे तरीकों से मिथ और इतिहास के बीच के फ़़र्क को मिटाने या किंवदंतियों को ही इतिहास मनवाने के प्रयास के रूप में लिया जाना चाहिए. पुनरुत्थानवादी शक्तियां अतीत का गौरव गान करने के लिए पूरी दुनिया में इतिहास के साथ यही सुलूक करती हैं. यदि आप अयोध्या जाएं, तो आपको फुटपाथों पर इतिहास की ऐसी किताबें बिकती मिल जाएंगी कि आपका दिमाग चकरा जाएगा. भ्रष्ट भाषा और खराब शैली में लिखी गईं ये किताबें लाखों- करोड़ों धर्मप्राण हिंदुओं को इतिहास की गंभीर पुस्तकों से अधिक प्रामाणिक लगती हैं. वैसे भी, हम इतिहास को सुरक्षित रखने या मिथ और इतिहास में फ़़र्क करने वाले राष्ट्र नहीं है. डीबी राय के कथन को थोड़ा ध्यान से देखें. राय फैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे और यह मानने का कोई आधार नहीं है कि उन्होंने थाना अयोध्या में कांस्टेबल माता प्रसाद द्वारा 23 दिसंबर को दर्ज कराई गई एफआईआर नहीं देखी होगी, जिसमें उसने स्पष्ट कहा था कि राम सकल दास, सुदर्शन दास व 50-60 आदमी नाम नामालूम बलवा करके मस्जिद में मदाखिलत करके मुरति स्थापित करके मस्जिद नापाक किया है. राय ने कहा जाता है से शुरू कर किसी ऐसे संतरी की कल्पना की है, जो गार्ड ड्यूटी पर था और जिसकी ड्यूटी के दौरान एक बहुत तेज अलौकिक रोशनी हुई और रोशनी की चकाचौंध कम होने पर उसकी आंखों ने जो देखा, वह एक आश्चर्यजनक दृश्य था. उसका कथन है कि रोशनी समाप्त होने के बाद वहां पर अपने तीन भाइयों के साथ श्री रामचंद्र की बाल मूर्ति विराजमान थी. यदि राय अपने लेखन में ईमानदार होते, तो वह यह तथ्य न छिपाते कि 22/23 दिसंबर की उस ऐतिहासिक रात को जब रामलला प्रकट हुए, तब वहां फैज़ाबाद पुलिस लाइन से भेजी गयी गारद में कोई मुसलमान कांस्टेबल नहीं था और गारद का एकमात्र मुस्लिम सदस्य हेड कांस्टेबल नं.9 अबुल बरकत था. मैंने विभूति नारायण राय से, जो खुद उत्तर प्रदेश कैडर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहे हैं, से इस बारे में बात की. उन्होंने डीबी राय के कथन को झूठ का पुलिंदा बताया. उनके अनुसार, उत्तर प्रदेश पुलिस की प्रचलित परंपरा और पुलिस मैनुअल के अनुसार हेड कांस्टेबल सशस्त्र पुलिस गारद का कमांडर होता है और कमांडर संतरी ड्यूटी पर नहीं खड़ा होता. इसलिए इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि रामलला की मूर्ति के प्रगट होने के दौरान कोई संतरी वहां ड्यूटी पर था और उसने अपनी ड्यूटी समाप्त होने के बाद किसी मुस्लिम संतरी को जगाकर ड्यूटी के लिए भेजा होगा. इसी प्रकार एक दूसरे झूठ के रूप में डीबी राय ने किसी शेर सिंह नामक कांस्टेबल की कल्पना की है, जो अक्सर स्वामी अभयराम दास के यहां आता-जाता था. उनके साथ भांग-गांजा का सेवन भी किया करता था. शेर सिंह ने भावनाओं में आकर 22/23 दिसंबर की रात में, जब उसकी ड्यूटी रात 9 बजे से 12 बजे के बीच थी, तो महंत अभयराम दास व अन्य संतों को विवादित भवन में प्रवेश करा दिया और वहां पर इन साधुओं ने अष्टधातु की रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी तथा पूजन में लग गए. पुलिस लाइन के रिकॉर्ड के मुताबिक, 22/23 दिसंबर की रात को बाबरी मस्जिद पर जो सुरक्षा गारद लगाई गई थी, उसमें शेर सिंह नामक कोई कांस्टेबल था ही नहीं. एक फरवरी, 1950 को दाखिल चार्जशीट में भी गवाहों की सूची में शेर सिंह का नाम नहीं है, जबकि गारद कमांडर अबुल बरकत तथा गारद के अन्य सदस्यों के नाम सम्मिलित हैं. निर्मोही अखाड़े के वर्तमान महंत भास्कर दास, जिनकी नियुक्ति उस समय अखाड़े ने जन्म स्थान चबूतरे पर पूजा-पाठ के लिए कर रखी थी, ने मुझसे बात करते हुए बताया था कि शेर सिंह नामक एक पुलिस वाला उनके अखाड़े में आता-जाता था और साधुओं के साथ बैठकर गांजे की चिलम चढ़ाया करता था. उसे साधु यह कहकर चिढ़ाते भी थे कि यदि वह सचमुच का शेर है, तो मस्जिद में रामलला की मूर्ति स्थापित कराने में उनकी मदद करे. इन सारे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जिस समय बल-छल पूर्वक मस्जिद में राम सकल दास और सुदर्शन दास के नेतृत्व में भीड़ ने रामलला की मूर्ति स्थापित की, उस समय कांस्टेबल नं. 70 हंसराज संतरी ड्यूटी पर था. क्या हम मान लें कि डीबी राय, जो खुद फैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे, इन सारे तथ्यों से अवगत नहीं थे. वह जब चाहते, फैज़ाबाद पुलिस लाइन या अयोध्या थाने से मंगाकर रिकॉडर्स देख सकते थे. यह स्वाभाविक ही था कि उन्होंने सच जानने की कोशिश नहीं की. उन्होंने उन अनगिनत हिंदुत्ववादी इतिहासकारों में से एक बनना पसंद किया, जिनके लिए मिथ और इतिहास में कोई फ़़र्क नहीं होता. मेरी सहायिका सुमन गुप्ता ने महंत भास्कर दास से एक लंबा इंटरव्यू लिया था, जिसमें उन्होंने शेर सिंह नामक पुलिस कर्मी के बारे में कई दिलचस्प तथ्य बताए थे और उनमें से एक यह था कि जन्म स्थान चबूतरे के पास चहारदीवार पर अरबी में अंकित अल्लाह शब्द को मिटाने का काम भी शेर सिंह ने ही किया था. अपने स्वास्थ्य एवं समयाभाव के कारण मैं शेर सिंह की अधिक तलाश नहीं कर सका, किंतु मुझे लगता है कि यदि कोई शोधार्थी काम करे, तो उसे कई महत्वपूर्ण सूत्र मिलेंगे. इसी प्रकरण के संबंध में विरक्त साधु एवं कांग्रेस के ज़िला मंत्री रहे अक्षय ब्रह्मचारी लिखते हैं, 23 दिसंबर की प्रात:काल, जिस रात में बाबरी मस्जिद में श्रीराम की मूर्ति रखी गई थी, नौ बजे ज़िलाधीश ने बताया कि मुझे श्री भाईलाल द्वारा प्रात: छह बजे यह ज्ञात हुआ है कि मस्जिद में मूर्ति रख दी गई है. मैं उसे देखने गया था, वहां से मैं अभी लौटा हूं. यह उद्धरण अक्षय ब्रह्मचारी की पुस्तक कौमी एकता की अग्नि परीक्षा (1989) से लिया गया है. अक्षय ब्रह्मचारी 1949 में, जब रामलला की मूर्ति बाबरी मस्जिद में रखी गई थी, फैज़ाबाद ज़िले की कांग्रेस कमेटी के मंत्री थे, घोर आस्तिक वैष्णव साधु थे और राम वल्लभा कुंज मंदिर से संबद्ध थे. उन्होंने न स़िर्फ पूरे देश में इस अन्याय के विरुद्ध गुहार लगाई, बल्कि इसके विरुद्ध उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यालय पर अनशन भी किया. मैंने उपरोक्त विवरण स़िर्फ इस उद्देश्य से दिए हैं कि यहां स्पष्ट हो जाए कि 22/23 दिसंबर, 1949 की आधी रात बाबरी मस्जिद के वीरान प्रांगण में रामलला की मूर्ति किसी अलौकिक चमत्कार की वजह से प्रकट नहीं हुई, बल्कि 50-60 की संख्या में उपद्रवी तत्वों ने योजनाबद्ध तरीके से जबर्दस्ती घुसकर उसे मस्जिद के आंगन में रख दिया था. यह कहना बहुत मुश्किल है कि सुरक्षा में लगी गारद, जिसमें एक हेड कांस्टेबल एवं तीन कांस्टेबल थे और जिनकी मदद के लिए पीएसी की एक टुकड़ी भी तैनात थी, इन उपद्रवियों को रोक क्यों नहीं पाई? क्या उनमें से कोई इन उपद्रवियों से मिला हुआ था? इन प्रश्नों के सही उत्तर अब ढूंढना बहुत मुश्किल है. हिंदुत्व के पुरोधाओं ने ज़रूर कभी किसी मुसलमान संतरी द्वारा अलौकिक ज्योति के दर्शन से आक्रांत होने की बात कहकर या कभी शेर सिंह नामक संतरी की मिलीभगत से मूर्ति रखे जाने की कहानी गढ़कर उपद्रवियों की करतूतों पर पर्दा डालने की कोशिश की है. उन्होंने विशाल हिंदू जन-समुदाय से षड्यंत्र करके बलात् मूर्ति रखने की घटना को छिपाने का सफल प्रयास किया है. मेरा विश्वास है कि यदि सही तथ्य हिंदुओं को पता चले, तो निश्चित रूप से उनमें से बहुत-से लोग इस अन्याय का विरोध करेंगे. सारे उपलब्ध तथ्य इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि मूर्ति रखे जाने के अगले 24 घंटों तक अयोध्या में न तो बहुत तनाव था और न ही मस्जिद के आसपास इतनी भीड़ थी कि यदि प्रशासन मन से चाहता, तो मूर्तियों हटा न पाता. इस संबंध में अक्षय ब्रह्मचारी ज़िला मजिस्ट्रेट केकेके नायर के साथ मौ़के पर गए थे. वह (अक्षय ब्रह्मचारी) लिखते हैं, मैं 12 बजे ज़िलाधीश के साथ बाबरी मस्जिद गया. वहां मूर्ति रखी हुई थी. थोड़े-से आदमी मस्जिद के पास एकत्रित थे. उस समय सुलभता से मस्जिद की रक्षा की जा सकती थी और मूर्ति हटाई जा सकती थी, परंतु ज़िलाधीश ने इसे उचित नहीं समझा. प्रात:काल से ही लाउड स्पीकर द्वारा प्रचार होने लगा कि भगवान प्रकट हुए हैं, हिंदू दर्शन के लिए चलें. मैंने इस प्रचार को ज़िलाधीश के साथ उनकी कार में अयोध्या जाते समय फैज़ाबाद और अयोध्या में ज़िलाधीश को दिखाया. उत्तेजना बढ़ती गई. फिर उत्तर प्रदेश सरकार या फैज़ाबाद के ज़िला प्रशासन ने इस दिशा में कोई प्रयास क्यों नहीं किया? सरकार की ओर से रामदेव दूबे सहायक इंचार्ज थाना अयोध्या ज़िला फैज़ाबाद द्वारा दाखिल चार्जशीट के सभी अभियुक्त जमानत पर थे, लेकिन अभियोजन को उन पर चलाए गए अभियोग की स्थिति और उसकी प्रगति के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है. मुकदमा संख्या 215/1949 धारा 147/295/448 भादवि थाना कोतवाली अयोध्या, फैज़ाबाद 23.12.1949 को तत्कालीन थानाध्यक्ष उप-निरीक्षक रामदेव दूबे की रिपोर्ट पर अभिराम दास, शिवदर्शन, रामसुभग दास, रामसकल दास एवं 50-60 अन्य व्यक्ति नाम-पता अज्ञात के विरुद्ध पंजीकृत हुआ था. मुकदमे में विवेचनोपरांत अभिराम दास आदि पांच लोगों के विरुद्ध आरोप-पत्र दिनांक एक फरवरी, 1950 को प्रेषित हुआ था. मैंने बहुत प्रयास किया, किंतु प्रकरण पुराना होने के कारण इस मुकदमे के निर्णय आदि के बारे में कहीं से कोई जानकारी नहीं मिल सकी. थाना अभिलेखों में भी इस मुकदमे के परिणाम के बारे में कुछ भी स्पष्ट अंकित नहीं है. फैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने एक अगस्त, 2008 को लखनऊ हाईकोर्ट में इस आशय की एक रिपोर्ट भी दी थी कि बहुत प्रयास करने पर भी मुकदमे के अंतिम निर्णय के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं चला. अभियोग-पत्र में जिनके नाम शामिल किए गए थे, वे थे, अभिराम दास चेला यमुना दास, राम विलास दास, शिवदर्शन दास चेला गोविंद दास, राम सकल दास चेला सरयू दास, वृंदावन दास चेला राम बल्लभ शरण जी एवं राम सुभग दास. इन सभी के विरुद्ध अदालत में अभियोग-पत्र दाखिल करते समय लिखा गया कि दिनांक 22/23 दिसंबर, 1949 को अभियुक्तों ने बाबरी मस्जिद में पुराना मंदिर जानकर मूर्ति स्थापित कर दिया, जिसकी तफ्तीश होकर धारा 147/448/295 ताजीराते हिंद में चालान किया जाता है, कार्यवाही मुनासिब की जाए. अभियोग-पत्र इस अर्थ में दिलचस्प है कि एफआईआर में उल्लिखित यह तथ्य-क़रीब 7 बजे सुबह के जब मैं जन्मभूमि पहुंचा, तो मालूम हुआ कि तखमीनन 50-60 आदमियों का मजमा कुफल जो बाबरी मस्जिद के कंपाउंड में लगे हुए थे, तोड़ कर व नीज दीवार द्वारा सीढ़ी फांद कर अंदर मस्जिद मदाखिलत करके मुरति श्री भगवान की स्थापित कर दिया और दीवारों पर अंदर व बाहर सीता राम जी वगैरह गेरु व पीले रंग से लिख दिया-अभियोग-पत्र से गायब कर दिया गया और विवेचक ने अभियुक्तों की मदद करने के इरादे से उनकी नीयत ही बदल दी, यह लिखकर कि अभियुक्तों ने पुराना मंदिर जानकर उसमें मूर्ति स्थापित कर दी. इस प्रकार इस मुकदमे का स्वरूप ही बदल गया. 29 दिसंबर, 1949 को सिटी मजिस्ट्रेट फैज़ाबाद ने धारा 145 में विवादित भवन को कुर्क करते समय इसके विवरण में तीन गुंबद दर इमारत मय सहन के तथा चहारदीवारी लिखा, जिसकी चौहद्दी उत्तर में छट्ठी पुरान और निर्मोही अखाड़ा, दक्षिण-आराजी परती, पूरब-चबूतरा अंदर श्रीराम जी का ममलूके निर्मोही अखाड़ा व सहन मंदिर, पश्चिम-परिक्रमा लिखी गई. मुकदमे के पक्षों में सरकार बनाम जन्मभूमि (बाबरी मस्जिद). यानी मस्जिद की बजाय कागजी तौर पर उस स्थान को मंदिर का स्वरूप देने की शुरुआत तभी हो गई थी और बाद में आरोप-पत्र (एक फरवरी, 1950 को दाखिल) में भी यही लिखा गया. फैज़ाबाद की हिंदू महासभा के एक महत्वपूर्ण नेता गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी, 1950 को मुंसिफ सदर के यहां वाद संख्या 2/1950 दायर किया कि राम भक्त होने के कारण उन्हें रामलला की पूजा-पाठ की अनुमति दी जाए और मुसलमानों को विवादित स्थल पर जाने से रोका जाए. इस मुकदमे में फैज़ाबाद के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट जयकरन नाथ उग्र ने राज्य व सरकार की ओर से बयान हल्फी 25 अप्रैल, 1950 को दायर की. बयान हल्फी के पैरा 12 में कहा गया था कि मुकदमे से संबद्ध संपत्ति बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है और यह मस्जिद लंबे समय से मुसलमानों द्वारा नमाज व पूजा के लिए इस्तेमाल होती है. इसका उपयोग श्री रामचंद्र जी के मंदिर के रूप में नहीं किया जाता है. इसी बयान हल्फी के पैरा 23 में कहा गया है कि 22 दिसंबर, 1949 की रात में कुछ शरारती तत्वों ने गलत ढंग से इसमें रामचंद्र जी की मूर्ति रख दी, जिसके कारण प्रशासन को शांति व व्यवस्था बनाए रखने के लिए 29 दिसंबर, 1949 को धारा 145 के अंतर्गत अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट मार्कंडेय सिंह के आदेश से कुर्क करना पड़ा. गोपाल सिंह विशारद द्वारा पांच मुसलमानों को इस मामले में प्रतिवादी बनाया गया था, जिनके नाम थे, जहूर अहमद, हाजी फेकू, मोहम्मद खालिक, मोहम्मद शमी एवं मोहम्मद अच्छन मियां. ये सभी साधारण कोटि के अयोध्या के मुस्लिम नागरिक थे. अक्षय ब्रह्मचारी के अनुसार, उन दिनों कहा जा रहा था कि……..पाकिस्तान में एक भी मंदिर नहीं रह गया है, फिर अयोध्या में मस्जिद और कब्रिस्तान क्यों होना चाहिए? हम लोगों को मिलकर अयोध्या से मुसलमानों का चिन्ह मिटा देना चाहिए. यह तभी संभव है, जब कांग्रेस को उखाड़ फेंका जाए. अधिकांश कांग्रेस वाले इस विचार को पसंद करते हैं, परंतु जवाहर लाल और कुछ थोड़े-से व्यक्ति मुसलमानों का साथ दे रहे हैं, उन्हें समाप्त करना होगा. अयोध्या में अक्षय ब्रह्मचारी और सिद्धेश्वरी प्रसाद को नहीं रहने देना चाहिए. ये हिंदू धर्म को नहीं बढ़ने देना चाहते हैं. ज़िलाधीश के ठहाके के बीच नारे लगते थे, अक्षय-सिद्धेश्वरी, का नाश हो, अक्षय-सिद्धेश्वरी, को मार डालो. ये धर्मद्रोही हैं, मुसलमान हो गए हैं. मुसलमानों की रक्षा के लिए कांग्रेस शासन पर प्रभाव डाल रहे हैं, आदि. प्रांतीय सरकार के सभा सचिव गोविंद सहाय जी की एक विराट जनसभा में भी इन लोगों ने हुल्लड़ किया और नारे लगाकर लोगों को उत्तेजित किया. बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के संबंध में नितांत निराधार, तथ्यहीन एवं मनगढ़ंत कहानियों का अनवरत प्रचार विज्ञप्तियों, पुस्तकों एवं पर्चों आदि के माध्यम से किया जाता रहा है और उन्हें सुना-सुनाकर धर्मभीरु सीधे-सादे हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को उभार कर उत्तेजित किया जाता है. इससे देश में सांप्रदायिक विद्वेष, घृणा, प्रतिशोध, तनाव, हिंसा और मुस्लिम विरोध का उन्मादी वातावरण पुन: व्याप्त हो रहा है. मंदिर निर्माण आंदोलन के चलते अनेक स्थानों पर भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए हैं. सैकड़ों निर्दोष व्यक्तियों को हताहत किया गया है और करोड़ों रुपये की संपत्ति नष्ट की गई है. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/11/ram-mandir-vivad-2.html#sthash.paLOhPqO.dpuf
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