सोमवार, 28 सितंबर 2015

ऐसे पांच देश जहां होते हैं सबसे अधिक बलात्‍कार


ऐसे पांच देश जहां होते हैं सबसे अधिक बलात्‍कार


ऐसे पांच देश जहां होते हैं सबसे अधिक बलात्‍कार


मल्‍टीमीडिया डेस्‍क। साल 2012 के दिसंबर महीने में दिल्‍ली में हुए निर्भया बलात्‍कार कांड के बाद देश की छवि को बहुत गहरा धक्‍का लगा था। इस क्रूर घटना के बाद भारत एक ऐसे देश की तरह गिना जाने लगा जहां महिलाएं सुरक्षित नहीं है। भारत के दिल्‍ली, मुंबई समेत तमाम छोटे-बड़े शहर में विदेशी सैलानियों ने बड़ी संख्‍या में घूमने आना बंद कर दिया। भारत को महिलाओं के लिए महफूज देश नहीं माना जाने लगा है लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार धारणा पूरी तरह से गलत है।
मीडिया रिपोर्टों की मानें तो विश्‍वभर में ऐसे कई देश हैं जो महिलाओं के लिए महफूज नहीं हैं। इसके साथ ही इन देशों में हर साल होने वाले बलात्‍कार के मामले भारत से कहीं अधिक हैं। आइए जानते हैं इन्‍हीं देशों के बारे में और देखते हैं कि ऐसे देश जहां बलात्‍कार की संख्‍या भारत से कहीं अधिक है। :

दक्षिण अफ्रीका
एक रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण अफ्रीका में हर साल तकरीबन 5,00,000 बलात्‍कार के मामले दर्ज किए जाते हैं। इस तरह दक्षिण अफ्रीका में बलात्‍कार के मामले सबसे अधिक होते हैं। बताया जाता है कि यहां रहने वाली तकरीबन 40 फीसद से भी अधिक महिलाओं के साथ जीवन में एक बार बलात्‍कार किया जा चुका होता है।
स्‍वीडन
बलात्‍कार के सबसे अधिक मामले दक्षिण अफ्रीका के बाद स्‍वीडन में दर्ज किए जाते हैं। एक रिसर्च के मुताबिक, यहां रहने वाली हर चार में से एक महिला के साथ बलात्‍कार की घटना हो चुकी होती है। स्वीडिश राष्ट्रीय परिषद के अनुसार, साल 2013 में स्‍वीडन पूरे यूरोप सबसे बड़ा देश बनकर सामने आया जहां बलात्‍कार की संख्‍या सबसे अधिक थी।
अमेरिका
एक मैगजीन के अनुसार, अमेरिका में हर 107 सेकेंड में कोई-ना-कोई महिला बलात्‍कार का सामना करती है। इसके अलावा 68 फीसद दुष्‍कर्म पीडि़त महिलाएं पुलिस के सामने मामले को दर्ज तक नहीं कराती हैं। यहां शर्मनाक यह है कि 98 फीसद बलात्‍कारी महज एक भी दिन जेल में नहीं बिताते हैं।
इंग्‍लैंड
साल 2013 में जारी हुई एक रिपोर्ट 'इंग्‍लैंड और वेल्‍स में होने वाले बलात्‍कार के मामले का निरीक्षण' के अनुसार, यहां हर साल तकरीबन 85 हजार महिलाएं बलात्‍कार का सामना करती हैं। इसी रिपोर्ट में हर पांच में से एक महिला को जीवन में बलात्‍कार का सामना करने की भी बात कही गई है।
भारत
बलात्कार और यौन हिंसा भारत में एक भारी समस्या है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ होने वाले मामलों में साल 2010 से तकरीबन 7.5 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। साल 2012 में यह संख्‍या जहां 24,923 थी तो वहीं 2013 में यह संख्‍या 33 हजार को पार कर गई। भारत में हर 10वें मिनट में महिला से बलात्‍कार की भी बात इस रिपोर्ट में सामने आई है।
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रविवार, 6 सितंबर 2015

चुनाव नज़दीक आते ही देश में क्यों बढ़ रहा है साम्प्रदायिक तनाव?

 चुनाव नज़दीक आते ही देश में क्यों बढ़ रहा है साम्प्रदायिक तनाव?
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।

चुनाव नज़दीक आते ही देश में क्यों बढ़ रहा है साम्प्रदायिक तनाव?
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।

कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।

किसानों की आत्महत्या : राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं

kisan-hatya
जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान. लोकतंत्र में जय उसी की होती है, जिसकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा होती है. लाल बहादुर शास्त्री जी ने 1965 के युद्ध में जय जवान का नारा लगाया और हरित क्रांति के दौर में जय किसान का. और, सफल परमाणु परीक्षण के बाद अटल जी ने जय विज्ञान का नारा गढ़ा. लेकिन, सवाल है कि जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान के बीच आज किसान कहां पर खड़ा है? क्या किसान आज सचमुच जय की हालत में है? एक जवान की मौत पर सारा देश एक साथ सवाल खड़े करता है, लेकिन पिछले 20 वर्षों में लाखों किसानों की आत्महत्या पर हर तऱफ खामोशी छाई है. ऐसा क्यों? जय किसान का नारा लगाने वाले इस देश में आ़िखर किसानों की आत्महत्या राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बन पाई? उदारवादी अर्थव्यवस्था अपनाए हुए 25 वर्ष हो गए हैं. 1991 में जब इसकी शुरुआत हो रही थी, तब कहा गया था कि इससे देश में खुशहाली आएगी. आज 25 वर्ष बाद की एक स्याह तस्वीर या कहें कि आंकड़े देखिए. 1995 से 2014 के बीच देश में आधिकारिक तौर पर तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं. आइए, किसान आत्महत्या के आंकड़ों एवं कारणों पर बात करने से पहले हम देश के कुछ ऐसे किसान परिवारों से मिलते हैं, जो आज़ादी की 69वीं वर्षगांठ के मौक़े पर दिल्ली तो आए, लेकिन जश्न मनाने नहीं. वे दिल्ली आए थे, प्रधानमंत्री, मंत्री और मीडिया को अपनी दु:खभरी कहानी सुनाने. यह अलग बात है कि मानसून सत्र से जूझ रहे प्रधानमंत्री या किसी मंत्री को उनकी कहानी सुनने की फुर्सत नहीं मिली या कहें भारत की यह स्याह तस्वीर देखने में किसी की दिलचस्पी ही नहीं थी. अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में क़रीब ढाई सौ ऐसे किसान परिवार दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंचे, जिनके किसी न किसी सदस्य ने फसल क्षति या कर्ज के दबाव में आत्महत्या कर ली. जब चौथी दुनिया ने इन परिवारों से बातचीत की, तो बिना कोई खास शोध-पड़ताल के यह तथ्य सामने आया कि आ़िखर देश के किसान आत्महत्या क्यों करते हैं?
जैसे ही आप चालीस वर्षीय रेखा वाडगुडे को देखते हैं, तो उनसे कोई सवाल पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती. वर्धा ज़िले के पवनार निवासिनी रेखा के पति मनोहर महादेव वाडगुडे ने बीते नौ जुलाई को आत्महत्या कर ली. रेखा का चेहरा देखकर ही उनके परिवार की बदहाली का अंदाज़ा लग जाता है. बाकी बातचीत उनके 17 वर्षीय बेटे विक्की से होती है, जो अपनी मां के साथ दिल्ली आया था. विक्की बताता है कि बैंक, साहूकार और स्वयं सहायता समूह का कुल कर्ज क़रीब दो लाख रुपये था. 3.5 एकड़ ज़मीन में कपास और सोयाबीन लगाया था, लेकिन भारी बारिश की वजह से फसल बर्बाद हो गई. इस साल फिर बुवाई के लिए पैसे की ज़रूरत थी, उधर साहूकार और बैंक वाले उधारी चुकाने के लिए दबाव डाल रहे थे, जिसे उसके पिता झेल नहीं पाए और उन्होंने आत्महत्या कर ली. विक्की बताता है कि पुलिस ने आत्महत्या की रिपोर्ट भी लिखी, लेकिन ज़िला प्रशासन से अभी तक कोई राहत नहीं मिली है. वर्धा ज़िले के ही अष्टा गांव निवासी समीर तावड़े के पिता गजानंद तावड़े ने भी 2010 में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. समीर के मुताबिक, 2010 में फसल बर्बाद होने और कर्ज न चुका पाने की वजह से उसके पिता ने आत्महत्या की, लेकिन आज तक उसे एक पैसे का न तो मुआवजा मिला और न किसी तरह की सरकारी मदद. समीर बताता है कि उसके गांव में पिछले चार वर्षों में चार किसान आत्महत्या कर चुके हैं. महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के आठ ज़िलों में बीते वर्ष यानी 2014 में 574 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं 2015 के अप्रैल माह तक दो सौ से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
पिछले 25 सालों में कांग्रेस की सरकार रही, भाजपा की रही और अन्य दलों की भी रही. किसानों की आत्महत्या दर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि केंद्र या राज्य में किसकी सरकार है. और, किसी सरकार को भी यह सोचने की फुर्सत नहीं मिली कि आ़िखर इस विकराल समस्या का स्थायी समाधान क्या हो सकता है? यूपीए ने 65,000 करोड़ रुपये के किसान कर्ज मा़फ करने की घोषणा की, जिसका फायदा शायद ही उन किसानों को मिला हो, जो सही मायनों में हक़दार थे. बाद में स्वामीनाथन आयोग बना (देखें बाक्स). आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी, सुझाव दिए और उन सुझावों को चुनावी जुमलों के तौर पर खूब इस्तेमाल भी किया गया. लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ज़ोर-शोर से कहा कि लागत का 50 फीसद किसानों को अलग से एमएसपी के तौर पर दिया जाएगा. उनकी सरकार भी बन गई, लेकिन अभी तक उनकी घोषणा और स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर कोई अमल नहीं हो सका है.
दिसंबर, 2014 में खबर आई कि आईबी ने केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट दी है, जिसमें बताया गया है कि कैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक एवं पंजाब में किसान आत्महत्या का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है. कहा गया कि यह रिपोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा और कृषि मंत्रालय भेजी गई थी. रिपोर्ट में बताया गया कि आत्महत्या की वजह कमज़ोर मानसून, बढ़ता कर्ज, कम उपज, कमज़ोर सरकारी खरीद और फसल क्षति है. यह रिपोर्ट मानव जनित कारणों में प्राइसिंग पॉलिसी और  अपर्याप्त मार्केटिंग सुविधा को किसानों की समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार बताती है. रिपोर्ट सा़फ तौर पर बताती है कि सरकारी राहत पैकेज से भी किसानों का भला नहीं होने वाला, क्योंकि ज़्यादातर किसान साहूकारों से कर्ज लेते हैं, जो 24 से लेकर 50 फीसद तक ब्याज वसूलते हैं, जिसका कोई समाधान ऐसे आर्थिक राहत पैकेज नहीं दे सकते.
अब सवाल यह है कि ऐसी रिपोर्ट मिलने के बाद क्या मौजूदा केंद्र सरकार कोई ठोस कृषि या किसान कल्याण नीति बनाएगी, जिससे इस समस्या का स्थायी समाधान निकल सके या फिर कृषि मंत्रालय का नाम किसान कल्याण मंत्रालय कर देने मात्र से समाधान हो जाएगा? मौजूदा सरकार आने के बाद भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रुक नहीं रहा है. संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2014 के अप्रैल माह तक महाराष्ट्र में 204, तेलंगाना में 69, गुजरात, केरल एवं आंध्र प्रदेश में तीन-तीन किसानों ने आत्महत्या की. हालांकि, कई सामाजिक संगठनों ने इसे आंकड़ों की बाजीगरी बताया. वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने कहा है कि किसानों की आत्महत्या के आंकड़े कम करके बताए जा रहे हैं, ऐसा एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) द्वारा आंकड़े एकत्र करने के तरीके में बदलाव की वजह से है (देखें बाक्स).
बहरहाल, किसान आत्महत्या जैसी गंभीर समस्या की वजहों और इसे लेकर देश भर के किसान संगठनों की प्रतिक्रियाओं को जानना ज़रूरी है. यह भी जानना ज़रूरी है कि किसान आंदोलन चलाने वाले किसान नेता आ़िखर ऐसा क्या काम कर रहे हैं या नहीं कर पा रहे हैं, जिससे यह समस्या एक राष्ट्रीय मुद्दा बन सके. इस बारे में जब चौथी दुनिया ने अखिल भारतीय किसान सभा के नेता हन्नान मोल्ला से बातचीत की, तो उन्होंने बताया कि उनका संगठन पिछले कुछ समय में देश के ऐसे 500 किसान परिवारों से मिल चुका है, जिनके किसी न किसी सदस्य ने फसल बर्बादी या कर्ज की वजह से आत्महत्या कर ली. हन्नान साहब बताते हैं कि हमने उन परिवारों से मिलकर जानकारियां जुटाईं और उसे राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का फैसला किया. इसी कड़ी में किसान सभा 10 एवं 11 फरवरी को ऐसे क़रीब सौ परिवारों को लेकर जंतर-मंतर पहुंची. संगठन ने अरुण जेटली को पत्र लिखकर मिलने की अपील भी की, लेकिन समय नहीं मिल सका. संगठन की मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक लागत का 50 फीसद उन्हें बतौर एमएसपी मिले और साथ ही ऐसे परिवारों को दस लाख रुपये का मुआवज़ा भी दिया जाए. संगठन की योजना है कि इस मुद्दे पर देश के विभिन्न हिस्सों और प्रत्येक राज्य की राजधानी में आंदोलन चलाया जाए, ताकि लोगों को इस समस्या के बारे में पता चल सके. चौथी दुनिया ने भारतीय किसान यूनियन (राकेश टिकैत) के नेता राकेश टिकैत से भी बातचीत की. उनका कहना था कि जब तक फसलों के उचित दाम नहीं मिलेंगे, तब तक आत्महत्या होती रहेगी. हम सरकार से लगातार यह मांग कर रहे हैं कि वह किसानों को फसल का उचित मूल्य देने की व्यवस्था करे. हम इसके लिए लगातार लड़ाई लड़ते रहेंगे.
ज़ाहिर है, वक्त आ गया है कि भारतीय संसद किसानों और कृषि क्षेत्र से संबंधित पिछले 25 वर्षों में अपनाई गई नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करे, क्योंकि यही नीतियां बढ़ते कृषि संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं, इन्हीं की वजह से देश में लाखों किसानों ने आत्महत्या की और अभी भी आत्महत्या का दौर जारी है. क्यों नहीं केंद्रीय स्तर पर आत्महत्या पीड़ित परिवारों का बकाया कर्ज मा़फ करने के लिए केरल की तरह कर्ज सहायता कमीशन गठित किया जाना चाहिए? क्यों नहीं यह नियम बने कि मेहनतकश किसानों, बटाईदारों एवं खेतिहर मज़दूरों को खेती के लिए ब्याज मुक्त कर्ज दिया जाए और अन्य किसानों से चार प्रतिशत से ज़्यादा ब्याज न वसूला जाए? क्या यह ज़रूरी नहीं है कि भूमिहीन मज़दूरों के लिए मनरेगा के तहत कम से कम 200 दिनों का रोज़गार मिले, न्यूनतम 300 रुपये दैनिक मज़दूरी मिले और मनरेगा को पूरे देश में लागू किया जाए?
लेकिन, सबसे बड़ा सवाल सरकार की नीति और नीयत का है. कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार की नीति और नीयत को अगर समझना है, तो एक और आंकड़ा देखिए. आज़ादी के बाद शुरुआती सालों में जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 53.1 फीसद थी. 60 वर्षों बाद यह घटकर 13 फीसद रह गई. वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में योजना आयोग ने विजन-2020 बनाया था, जिसके मुताबिक, 2020 तक जीडीपी में कृषि (किसानी) योगदान कम करके छह फीसद करने का लक्ष्य तय किया गया था. यानी सरकार चाहे जिसकी हो, अगर इसी लक्ष्य पर काम होता रहा, तो आने वाले समय में इस देश में जय किसान की जगह एक था किसान का नारा गढ़ा जाना तय है.

एनसीआरबी के आंकड़ों की सच्चाई कुछ और है..
वर्ष 2014 के आंकड़े बताते हैं कि किसानों की आत्महत्या के मामले कम हुए हैं. 2014 में यह संख्या 5,660 थी, जबकि 2013 में 11,772. आ़िखर यह संख्या कम कैसे हुई? दरअसल, आंकड़े तैयार करने वाली एजेंसी एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के अधिकतर मामले नए वर्ग में डाल दिए हैं. इससे हुआ यह कि किसानों की आत्महत्या के मामलों की संख्या कम हो गई, लेकिन अन्य वर्ग-श्रेणी में यह संख्या बढ़ गई. एनसीआरबी ने 2014 में ऐसे किसानों, जो भूमिहीन हैं, को खेतिहर मज़दूर बताया है. हालांकि, एनसीआरबी का मानना है कि नए आंकड़ों की विश्वसनीयता की जांच नहीं की जा सकी है. फिर सवाल यह भी है कि जहां आत्महत्या की घटनाएं होती हैं, वहां के स्थानीय अधिकारी, खासकर पुलिस विभाग के लोग क्या किसान आत्महत्या के मामले उचित तरीके से दर्ज करते हैं? एनसीआरबी के 2014 के आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान और बिहार में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की. ग़ौरतलब है कि एनसीआरबी के पास आत्महत्या से जुड़ी दो कैटेगरी हैं, एक स्व-रा़ेजगार (खेती) और दूसरी स्व-रा़ेजगार (अन्य). उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या (खेती) का आंकड़ा कम हो रहा है, जबकि अन्य कैटेगरी में बढ़ रहा है. यही मध्य प्रदेश में हुआ, जहां किसान आत्महत्या के 82 मामले घटे, वहीं अन्य कैटेगरी में 236 मामलों की वृद्धि हुई है.

स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर अमल क्यों नहीं…
भूमि सुधार
-सीलिंग सरप्लस और बंजर भूमि का वितरण.
-मुख्य कृषि भूमि और जंगल कॉरपोरेट क्षेत्र को ग़ैर कृषि प्रयोजनों के लिए देने पर रोक.
-आदिवासियों और चरवाहों को जंगल में चराई का अधिकार.
-एक राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाहकार सेवा की स्थापना.
-कृषि भूमि की बिक्री विनियमित करने के लिए एक तंत्र की स्थापना.
आत्महत्या कैसे रुकेगी
-सस्ता स्वास्थ्य बीमा प्रदान करें, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को पुनर्जीवित करें.
-माइक्रोफाइनांस नीतियों का पुनर्गठन, जो आजीविका वित्त के तौर पर काम करें.
सस्ती क़ीमत, सही समय-स्थान पर गुणवत्ता युक्त बीजों और अन्य सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित करें.
-कम जोखिम और कम लागत वाली प्रौद्योगिकी, जो किसानों को अधिकतम आय प्रदान करने में मदद कर सके.
-जीवन रक्षक फसलों के मामले में बाज़ार हस्तक्षेप योजना की आवश्यकता.
-अंतरराष्ट्रीय मूल्य से किसानों की रक्षा के लिए आयात शुल्क पर तेजी से कार्रवाई की आवश्यकता.
किसानों की प्रतिस्पर्धा
-न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कार्यान्वयन में सुधार. धान और गेहूं के अलावा अन्य फसलों के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की जानी चाहिए.
-न्यूनतम समर्थन मूल्य उत्पादन की औसत लागत की तुलना में कम से कम 50 ़फीसद अधिक होना चाहिए.
-ऐसे बदलाव की ज़रूरत है, जो घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए स्थानीय उत्पाद की ग्रेडिंग, ब्रांडिंग, पैकेजिंग और विकास को बढ़ावा दे.

किसानों की दुर्दशा पर नेताओं ने जो कहा…
किसानों को खुद अपना बचाव करने दें. अगर फसल बर्बाद होती है, तो वे खुद सोचेंगे कि क्या करना है. मर रहे हैं, तो मरने दें. जो खेती कर सकेगा, करेगा और जो नहीं कर सकेगा, नहीं करेगा.
-संजय धोत्रे, भाजपा सांसद, अकोला, महाराष्ट्र.
फसल बर्बाद होने से कोई भी आत्महत्या नहीं कर रहा है. मध्य प्रदेश में किसान व्यक्तिगत समस्याओं की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं.
-कैलाश विजयवर्गीय, भाजपा महासचिव.
आत्महत्या करने वाले लोग डरपोक और अपराधी होते हैं, भारतीय क़ानून में आत्महत्या अपराध है.
-ओम प्रकाश धनकड़, कृषि मंत्री, हरियाणा.
दिल्ली में अपने घर के पौधों को मैं अपने मूत्र से सींचता हूं. यह मुफ्त की खाद है. यह तरीका किसानों को बेहतर पौधा उपजाने में मदद करेगा.
-नितिन गडकरी, केंद्रीय मंत्री.
सरकार के पास किसानों की आत्महत्या रोकने का कोई विकल्प नहीं है.
-एकनाथ खड़से, कृषि मंत्री, महाराष्ट्र.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों की आत्महत्या के कारणों में ऋण ग्रस्त होना, फसल न होना या खराब हो जाना, सूखा आदि तो हैं ही, साथ ही पारिवारिक समस्याएं, बीमारी, नशे की लत, बेरा़ेजगारी, संपत्ति विवाद, व्यवसायिक या रा़ेजगार संबंधी समस्या, प्रेम प्रसंग के मामले, बांझपन एवं नपुंसकता, विवाह न होना या विवाह विच्छेद, दहेज समस्या, सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी आदि कारण भी जुड़े हैं.
-राधा मोहन सिंह, केंद्रीय कृषि मंत्री.

हम किसान आत्महत्या का मुद्दा पूरे देश में ले जाएंगे और प्रत्येक राज्य की राजधानी में आंदोलन करेंगे. हमारी मांग है कि किसानों को सस्ती खाद, सस्ती बिजली और सस्ता कर्ज मिले और प्रत्येक मृतक के परिवार को दस लाख रुपये का मुआवज़ा मिले.
-हन्नान मोल्ला, अखिल भारतीय किसान सभा.
किसानों की दुर्दशा का मुख्य कारण फसल का उचित मूल्य न मिलना है. सरकार से हमारी लड़ाई इसी बात को लेकर है. जब तक उचित मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक आत्महत्या को नहीं रोका जा सकता है.
-राकेश टिकैत, भारतीय किसान यूनियन.
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मोदी के विदेश दौरों पर 37 करोड़ खर्च, ऑस्‍ट्रेलिया में केवल टैक्‍सी का बिल 2.4 करोड़

मोदी के विदेश दौरों पर 37 करोड़ खर्च, ऑस्‍ट्रेलिया में केवल टैक्‍सी का बिल 2.4 करोड़



  • Sep 07, 2015, 10:12 AM IST

मोदी 26 मई, 2014 को पीएम बने थे। अगले महीने 15-16 मई को सबसे पहले भूटान गए। 16 अप्रैल, 2015 तक वह 16 देश घूम आए थे। इसके बाद 14 से 19 मई तक वह चीन, मंगोलिया और साउथ कोरिया गए। पिछले महीने वह यूएई के दौरे से लौटे हैं। इस तरह अब तक 20 देशों के दौरे कर चुके हैं।
नई दिल्ली. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2014 से 2015 के बीच 20 देशों की यात्रा की है। इनमें से 16 देशों में भारतीय दूतावासों की ओर से 37.22 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। सबसे ज्यादा महंगी ट्रिप ऑस्ट्रेलिया की रही। वहां केवल किराये की कारों पर 2.5 करोड़ रुपए खर्च किए गए।
यह जानकारी आरटीआई के हवाले से मीडिया में आई है। चार देशों ने जानकारी नहीं दी।
ऑस्ट्रेलिया में करीब नौ करोड़ खर्च
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय दूतावास ने पीएम के ठहरने के लिए 5.60 करोड़ रुपए खर्च किए। उनके डेलीगेशन के लिए कार की बुकिंग में 2.40 करोड़ लगे। इस दौरे पर कुल 8.91 करोड़ रुपए खर्च हुए।
सबसे सस्‍ता दौरा भूटान का
अमेरिका, जर्मनी, फिजी और चीन में भी पीएम के दौरे पर काफी खर्च आया। पीएम का सबसे सस्ता दौरा भूटान का रहा। वहां केवल 41.33 लाख रुपए खर्च हुए थे।
अमेरिकी दौरे पर 6 करोड़ खर्च
पीएम ने सितंबर 2014 में न्यूयॉर्क का दौरा किया था। उस दौरान पीएम की सिक्युरिटी का जिम्मा संभालने वाली एसपीजी डेलीगेशन के होटल में ठहरने के पीछे 9.16 लाख खर्च किए गए थे। पीएम, विदेश मंत्रालय और पीएमओ के अफसरों के लिए 11.51 लाख रुपए में होटल के रूम्स बुक गिए गए थे। पीएम न्यूयॉर्क के पैलेस होटल में ठहरे थे। इस दौरान कुल 6.13 करोड़ रुपए खर्च हुए।
चीन में होटल का बिल 1 करोड़
चीन में होटल में ठहरने पर 1.06 करोड़ रुपए खर्च हुए, जबकि 60.88 लाख में कारें बुक की गई थीं। 5.90 लाख रुपए एयरक्राफ्ट से जुड़ी चीजों पर खर्च की गई।
इन दौरों पर खर्च की नहीं मिली जानकारी
जापान, श्रीलंका, फ्रांस, साउथ कोरिया के दूतावासों ने खर्च की जानकारी देने से इनकार कर दिया। कमांडेंट (रिटायर्ड) लोकेश बत्रा ने सभी 20 देशों के दूतावास या हाईकमिशन में आरटीआई फाइल कर पीएम के दौरे पर किए गए खर्च की जानकारी मांगी थी।
मनमोहन सिंह ने दस साल में जितने विदेश दौरे किए, मोदी उसका आधा एक साल में ही कर चुके हैं
- मनमोहन सिंह 2004 से 2014 के बीच प्रधानमंत्री रहे। इस दौरान 40 देशों के 70 से ज्यादा दौरे किए। यूपीए-1 की सरकार के वक्त 30 और यूपीए-2 की सरकार के वक्त उन्‍होंने 40 विदेश दौरे किए।
कुल दौरों पर खर्च 640 करोड़
मनमोहन सिंह के सभी विदेश दौरों पर 640 करोड़ रुपए का खर्च आया। यह खुलासा तमिलनाडु के अारटीआई कार्यकर्ता डेनियल जेसुदास की अर्जी के जवाब में हुआ। सिंह ने 15 विदेश दौरे संसद का सत्र चलने के दौरान किए थे।
रफ्तार यही रही तो मोदी पांच साल में लगा देंगे शतक
मोदी एक साल में ही 20 देशों के दाैरे कर चुके हैं। यही रफ्तार रही तो मोदी 5 साल में सौ देश घूम चुके होंगे।

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