चुनाव नज़दीक आते ही देश में क्यों बढ़ रहा है साम्प्रदायिक तनाव?
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।
चुनाव नज़दीक आते ही देश में क्यों बढ़ रहा है साम्प्रदायिक तनाव?
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।
विशेष।हाल ही में एक राष्ट्रीय अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की।उसके
आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले कुछ वर्षों में हुए सांप्रदायिक तनावों
में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है।गया, मुज़फ़्फ़रपुर,
बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10
ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा
हुआ है।इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से
22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत।यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही
महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।यही नहीं विधानसभा चुनाव से
पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।दिल्ली
के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थ, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और
बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी।साथ ही दिल्ली के कई
गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे।ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सब कुछ
दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था।इतना ही नहीं चुनाव से पहले
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे।क्या इन सब में
कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है?हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके।कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं।लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है।अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है।उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
कई बार देखा है कि वोटरों को सफलतापूर्वक धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है।ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति ज़्यादा देखने को मिलती है लेकिन उसकी भी एक सीमा है।अगर धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित किया जा सकता तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती।ऐसा इसलिए क्योंकि 90 के दशक की शुरुआत से ही उसे यादवों और मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है।ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी होता क्योंकि उनके साथ भी यादवों और मुसलमानों के वोट हमेशा रहे हैं।लेकिन हम सभी ने देखा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों ही पार्टियों ने कैसा प्रदर्शन किया।वहीं भाजपा ने इन चुनावों में जाति और धर्म पर नहीं बल्कि विकास और नेतृत्व (नरेंद्र मोदी) पर अपना प्रचार किया और एक बड़ी जीत हासिल की।वहीं दिल्ली में 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्या हाल हुआ यह हम सभी जानते हैं।यह चुनाव धार्मिक तनाव की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए थे ऐसे में वोटरों को धर्म के नाम पर संगठित होना चाहिए था।लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।लोगों ने आम आदमी पार्टी को जाति, वर्ग, उम्र और धर्म के मुद्दे से ऊपर उठकर वोट दिया।लोगों को धर्म से ज़्यादा एक अलग तरह की सरकार का वादा अधिक भाया।राजनीतिक पार्टियां वोटरों को संगठित करने के लिए अपने अलग-अलग तरीक़े ईजाद करती रहती हैं।लेकिन भारतीय वोटर कई बार वोटिंग को लेकर एक सजग निर्णय लेता है।
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