भरपूर खाद्यान्न के बावजूद भारत में कुपोषण
शनिवार, 25 अगस्त, 2012 को 07:31 IST तक के समाचार
देशराज की उम्र दो साल है लेकिन
देखने में वो शायद ही किसी नवजात शिशु से बड़ा दिखाई दे. उसके सिर पर घने
बाल नहीं हैं, उसकी टांगे सींक सी पतली हैं. वो इतना कमजोर है कि चल भी
नहीं सकता.
देशराज भारत के उन करोड़ों बच्चों में शामिल है जो
कुपोषण का शिकार है. यानी वो समस्या जिसे भारत के प्रधानमंत्री 'राष्ट्रीय
शर्म' बताते हैं.भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बावजूद कुपोषण लगातार एक बड़ी समस्या बनी हुई है.
अनुमान है कि दुनिया भर में कुपोषण के शिकार हर चार बच्चों में से एक भारत में रहता है. ये तादाद अफ्रीका के सब-सहारा इलाके से भी ज्यादा है.
भारत का पिछड़ापन
भूख के कारण कमजोरी का शिकार बच्चों में बीमारियों से ग्रस्त होने का खतरा लगातार बना रहता है. यही कारण है कि भारत में हर साल दसियों हजार बच्चों की मौत होती है."वो बीमार पड़ गया था और उसने खाना पीना बंद कर दिया था. हम उसे एक बार डॉक्टर के पास ले गए थे. इसके बाद दिखाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे और वो दिन ब दिन कमजोर होता गया."
ब्रजमोहन, कुपोषण से मरने वाले बच्चे के पिता
भारत बाल विकास के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है. 'सेव द चिल्ड्रन' नाम के संगठन का अध्ययन कहता है कि भारत अपने बच्चों को पूरा पोषण मुहैया कराने के मामले में पड़ोसी बांग्लादेश या फिर बेहद पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीकी देश डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो से भी पीछे है.
कागजों में देखें तो भारत में देशराज जैसे बच्चों की देखभाल के लिए अरबों डॉलर की लागत वाली योजनाएं चल रही हैं.
लेकिन भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कारण कभी भी जरूरतमंद तक इन योजनाओं का फायदा पहुंच ही नहीं पाता है.
सवाल ये है कि मध्य प्रदेश के शिवपुरी के नजदीक देशराज के गांव मड़खेदा जैसे दूर दराज के इलाकों की मदद के लिए स्थानीय अधिकारी क्या कर रहे हैं.
लचर जन वितरण प्रणाली
ग्रामीणों का कहना है कि गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजारने वाले लोगों को बेहद कम दामों पर राशन मुहैया कराने के उद्देश्य से बनाई गई जन वितरण प्रणाली की दुकानें आम तौर पर बंद ही रहती है. लेकिन जब बीबीसी की टीम वहां पहुंची तो इत्तेफाक से ये दुकान खुली थी लेकिन वो खाली थी. सिर्फ कोने में कुछ आपात खाद्य सामग्री पड़ी थी.
अधिकारी भूले बिसरे ही इस तरह के इलाकों की खबर लेते हैं.
इसी गांव में दिनेशी और उनके पति ब्रजमोहन एक झोड़पी बैठे हैं और वे अब तक कुछ हफ्तों पहले अपने चार साल के बेटे कलुआ के गुजर जाने के सदमे से नहीं उबरे हैं.
ब्रजमोहन बताते हैं, “वो बीमार पड़ गया था और उसने खाना पीना बंद कर दिया था. हम उसे एक बार डॉक्टर के पास ले गए थे. इसके बाद दिखाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे और वो दिन ब दिन कमजोर होता गया.”
आसपास कोई डॉक्टर नहीं है और इन लोगों के पास दूर जाने-आने के लिए कोई परिवहन का अपना साधन नहीं है. ब्रजमोहन टोकरी बनाकर अपने परिवार की गुजर बसर करते हैं.
इच्छा शक्ति की 'कमी'
पिछले साल केंद्र सरकार ने खाद्य सुरक्षा अधिनियम पेश किया था जिसमें सभी के लिए खाने का अधिकार संरक्षित है. लेकिन कोई नहीं जानता कि देश के मौजूदा राजनीतिक गतिरोध के बीच ये अधिनियम कब पारित होगा.कुछ आलोचकों का कहना है कि भुखमरी की समस्या से निपटने के लिए अब भी पर्याप्त राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है.
दूसरी तरफ मुक्त बाजार के हिमायती खाद्य सब्सिडी और खाद्य सुरक्षा की गारंटी जैसी योजनाओं पर ही सवाल उठाते हैं.
भारत में भुखमरी की ये हालत तब है जब करोड़ों टन अनाज खुले में पड़ा सड़ जाता है. पिछले कई वर्षों से भारत अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा कर रहा है.
केंद्रीय मंत्री सचिन पायलट कहते हैं कि अब स्थिति एक दशक पहले के मुकाबले बेहतर है. लेकिन वो कहते हैं कि इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.
भारत में आबादी का बड़ा हिस्सा युवा है और राजनेता इसे देश की पूंजी बताते हैं. लेकिन इतनी बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार होंगें तो इस पूंजी का शायद ही देश को कोई ज्यादा फायदा हो.
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