शुक्रवार, 9 मई 2014

देवदासी प्रथा : धर्म के नाम पर लड़कों के साथ भी होता था यौनाचार

हमारे देश में देवदासी प्रथा का अस्तित्व अत्यंत प्राचीन काल से रहा है। देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मिलता है। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी इस शब्द का उल्लेख मिलता है। फिर भी इस प्रथा की शुरुआत कब हुई, इसके बारे में सुनिश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आज ‘गे’ सेक्स को सामाजिक और कानूनी मान्यता कई देशों में मिल चुकी है। देखा जाए तो इस तरह के रिश्तों की जड़े हमारी परंपरा में मिलती हैं। उल्लेखनीय है कि देवदासी प्रथा के अंतर्गत ‘गे’ सेक्स संबंधों का भी प्रचलन था। यह स्पष्ट है कि इस प्रथा के तहत निम्न वर्ग की बालिकाओं को देवी को समर्पित कर उनका यौन शोषण किया जाता रहा और इसे धर्म सम्मत माना गया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में सभी नेताओं, समाज सुधारकों और भारतीय नवजागरण के अग्रणी विचारकों ने इस घृणित प्रथा के खिलाफ व्यापक अभियान चलाया, पर इसके वावजूद यह प्रथा हाल-हाल तक बनी रही और अब तो अधिकांश देवदासियां वेश्यालयों में शरीर बेच कर अथवा भीख मांग कर जीवन-यापन करने को मजबूर हैं। खास बात यह है कि इस प्रथा के तहत सिर्फ बालिकाओं को ही देवी को अर्पित नहीं किया जाता था, बल्कि बालकों को भी। 

धर्म की आड़ में उनका भी यौन शोषण किया जाता था।माना जाता है कि दसवीं से 12वीं सदी के दौरान देवी को बालिकाओं के साथ ही बालक समर्पित करने की प्रथा शुरू हुई। देवी के साथ बालक का विवाह कराने में भी वही सारी विधियां पूरी की जाती थीं, जो देवी को कन्या अर्पित करने में। खंडोबा को समर्पित बालक को वाघ्या, येल्लमा को समर्पित बालक को जोग्या, जोगत्या या जोगप्पा कहा जाता था। हनुमान जी को समर्पित बालक को 'दास' कहा जाता था। वयस्क होने पर इन्हें विवाह करने की स्वतंत्रता हासिल थी, पर वाघ्या और जोग्या विवाह नहीं कर सकते थे। येल्लमा देवी को समर्पित बालक के लिए साड़ी-चोली पहनना और स्त्रियोचित व्यवहार करना अनिवार्य था।यह स्पष्ट है कि इन बालकों का समलैंगिक शोषण धर्म के नाम पर पंडे-पुजारियों और अभिजात वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता रहा। यह मान लिया जाता है कि जोग्या नपुंसक होते हैं, पर यह सच नहीं है। उन्हें स्त्री रूप में रहने की दीक्षा दी जाती है, पर उनमें संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है।समय के साथ जोग्या को कई नाम दिये गये, पर देवी का दास होने के बावजूद समाज में उसे हिजड़ा, छक्का, पौने आठ आदि अपमानजनक नामों से पुकारा जाता रहा है। इन्हें मुंबई में पहले 'पवया' और 'फातड़ा' कहा जाता था। गुजरात में इन्हें 'खसुआ' और चेन्नई में 'खोजा' कहा जाता है। पहले धर्म के नाम पर इनके साथ समलैंगिक सेक्स किया जाता था, अब ये स्वयं देह बेचने पर मजबूर हो चुके हैं।कई बार इन्हें जबरन हिजड़ा बनाया जाता है।

 बहुचरा देवी को अर्पित बालकों को अत्यंत अमानवीय तरीके से नपुंसक बनाया जाता है। बहुचरा देवी को अर्पित हिजड़े स्त्री रूप में रहते हैं और गांव-गांव में घूम कर पैसे मांगते हैं। अगर किसी ने पैसे नहीं दिये तो ये अश्लील हरकत पर उतारू हो जाते हैं और सरेआम कपड़े उतार कर फेंकने लगते हैं। इन्हें 'पवया' नाम से जाना जाता है। पैसे मिलने पर ये समलैंगिक संबंध बनाने के लिए भी आसानी से तैयार हो जाते हैं। आजकल ट्रेनों में घूम-घूम कर पैसे वसूल करने वाले हिजड़ों में इनकी अच्छी-खासी संख्या है। इस जमात में शामिल होने वालों के लिए नपुंसक होना अनिवार्य है। पूरे धार्मिक रीति-रिवाज के साथ इनका खच्चीकरण यानी इनका लिंग काट डाला जाता है। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि ये स्वयं पर्दे के पीछए बैठ कर गुरु से कान में मंत्र फुंकवा कर उस्तरे से एक झटके में अपना लिंग काट कर अलग कर देते हैं। इसे इनका पुनर्जन्म माना जाता है। इसे बाद ही इन्हें पवैया समाज में प्रवेश मिलता है।खच्चीकरण की इस प्रक्रिया के बाद वे 40 दिनों तक बिस्तर पर रहते हैं और परंपरागत तरीके से इनके जख्मों को भरने के उपाय किये जाते हैं। खच्चीकरण की इस जानलेवा विधि के बावजूद यदि ये जिंदा बच जाते हैं तो स्त्री की वेशभूषा में सज-संवर कर निकलते हैं और फिर धूम-धाम से उत्सव मनाया जाता है। नवागत पवैया अपने साथियों को लड्डू बांटता है और भोज का आयोजन होता है। इसके बाद ये समलैंगिक देह-व्यापार में उतर जाते हैं। खच्चीकरण की विधि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग होती है, पर एक समानता यह है कि हर जगह यह बहुचरा देवी के समक्ष एवं पुजारी के मार्गदर्शन में अत्यंत गोपनीय तरीके से की जाती है। 

इन हिजड़ों के अनेकों उत्सव होते हैं। मेलों का आयोजन भी किया जाता है। तमिलनाडु के कुमागम गांव में हिजड़ों की शोभायात्रा निकाली जाती है। यहां इनके विवाह समारोह का आयोजन भी किया जाता है। उत्तर भारत से आने वाले हिजड़ों को मम्मी और दक्षिण भारतीय हिजड़ों को अम्मा कहा जाता है। विवाह समारोह के बाद ये परस्पर आलिंगनबद्ध हो पति-पत्नी जैसा व्यवहार करते हैं। यहीं से खूबसूरत और कम उम्र के हिजड़ों की खरीद-फरोख्त होती है। समलैंगिक सेक्स के लिए बड़े-बड़े शहरों में इनकी जबरदस्त मांग है।जोग्या और कई नामों से पुकारे जाने वाले देवी को अर्पित बालकों का काम अब मंदिरों व भिक्षाटन से ही नहीं चल पाता। सेक्स के लिए इनकी मांग एक खास उम्र तक ही रहती है। इसके बाद ये बड़े-बड़े शहरों में जाकर वेश्याओं के लिए दलाली का काम शुरू कर देते हैं। कई तो गांवों की लड़कियों को फंसा कर शहर ले जाते हैं और उन्हें देह की मंडियों में बेच देते हैं। कई देवदासियों को देह के धंधे में धकेल कर उनकी कमाई पर जीवन-यापन करते हैं।कुछ भी कहें, इनका जीवन अत्यंत ही विडंबनापूर्ण होता है। यह समाज का सबसे उपेक्षित तबका है। इन्हें जीवन में लगातार अपमान का सामना करना पड़ता है। आज समाज में जिस भारी संख्या में हिजड़े मौजूद हैं, उनमें से अधिकांश देवी को अर्पित किये गये होते हैं। वैसे, अब कम ही बालक देवी को अर्पित किये जाते हैं, फिर भी कानूनी प्रतिबंधों के बावजूद कमोबेश यह घृणित प्रथा जारी ही है।

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