शुक्रवार, 20 मार्च 2015

आइवीएफ कारोबार: सेहत से खिलवाड़

नि:संतान दंपत्तियों में बच्चे की चाहत एक भावनात्मक मसला है, लेकिन जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उग आए आइवीएफ क्लीनिक इन्हीं भावनाओं का कारोबार करने और मुनाफा बनाने में लगे हैं. इनके चंगुल में आकर न केवल नि:संतान दंपत्ति, बल्कि थोड़े से पैसों के लिए गरीब औरतें भी अपनी सेहत दांव पर लगा रही हैं. ये एग डोनर महिलाएं चाहे-अनचाहे कैंसर और कोमा जैसी स्थितियों का शिकार हो रही हैं. कइयों को अपनी जान भी गंवानी पड़ रही है. इंसान की सबसे कोमल भावनाओं के इस क्रूर कारोबार का सच.
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गीता (बदला हुआ नाम) की शादी को चार साल हो गए थे, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी. गीता और उनके पति की इकलौती चाहत यही थी कि उनका एक बच्चा हो. दोनों ने गाइनी सर्जन से संपर्क किया तो पता चला कि गीता की फैलोपियन ट्यूब में ट्यूबरकुलर इंफेक्शन है, जिसकी वजह से वह गर्भधारण नहीं कर सकतीं.
इसके बाद गीता ने करीब एक साल तक इलाज कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. फिर उनकी गाइनी ने उन्हें आइवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन – एक तरह का कृत्रिम गर्भाधान) कराने की सलाह दी. दंपत्ति ने इस बारे में रिसर्च की, जिसमें उन्हें पता चला कि आइवीएफ क्लीनिक सिर्फ दो बार ही आइवीएफ करवाने की सलाह देते हैं. सारी खोजबीन के बाद गीता और उनके पति नई दिल्ली के एक इनफर्टिलिटी क्लीनिक में गए और वहां पर ट्रीटमेंट शुरू हुआ. गीता और उनके पति ने दो बार कोशिश की, लेकिन दोनों बार नाकामयाब रहे. इस प्रक्रिया में उनके दो लाख से ज्यादा रुपये खर्च हो गए, लेकिन इसका फायदा कुछ नहीं हुआ.
इससे गीता और उनके पति को बहुत धक्का लगा. गीता बताती हैं, ‘डॉक्टरों ने हमसे कहा था कि इससे हमारे सपने पूरे हो जाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. हमारे सपने बिखर गए.’ गीता और उनके पति की तरह हजारों नि:संतान दंपत्ति संतान की चाहत में ऐसे क्लीनिकों के झांसे में आ जाते हैं, जिनका मकसद ग्राहकों से पैसा ऐंठना होता है. ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए वे ऐसे सफल मामलों का हवाला देते हैं, जिनमें दिखावा ज्यादा और सच्चाई कम होती है.
BABy by Trilochan sk (6)
आइवीएफ क्लीनिक तेजी से बढ़ रहे हैं क्योंकि सेरोगेसी का कारोबार काफी मुनाफे का सौदा है
आइवीएफ क्लीनिक के अंडरवर्ल्ड में आपका स्वागत है, जहां पर बच्चे का लालच देकर आपसे पैसे ऐंठे जाएंगे. आज पूरे देश में आइवीएफ तकनीक का बोलबाला है. इससे संबंधित विज्ञापन आपको जगह-जगह देखने को मिल जाएंगे, जिनमें इस बात का दावा किया गया होगा कि अब नि:संतान दंपत्तियों को निराश होने की जरूरत नहीं है, अब वे आइवीएफ तकनीक की मदद से संतान सुख पा सकते हैं. इन विज्ञापनों को पढ़कर संतान की चाहत लिए दंपत्ति जब वहां जाते हैं, तो बदले में उन्हें निराशा ही मिलती है.
जिस तरह संतान की चाहत रखनेवाले दंपत्ति होते हैं, ठीक उसी तरह एग डोनेट करनेवाले भी होते हैं, जो कुछ पैसों के लिए में एग बैंक को एग डोनेट करते हैं. अभी हाल ही में इसी मसले पर विकी डोनर नाम से एक फिल्म भी आई थी, जिसमें एग डोनेशन के इसी कारोबार का एक दूसरा पहलू दिखाया गया था. विज्ञान कहता है कि महिलाओं में हर महीने एग डेवलप होते हैं, जो गर्भधारण के लिए जरूरी होते हैं और ये हजारों की संख्या में होते हैं, जो बेकार हो जाते हैं, ऐसी ही बातें सुनाकर एग बैंकवाले अशिक्षित महिलाओं को एग डोनेट करने के लिए फुसलाते हैं. अगर ये कहें कि अब ऐसी महिलाओं के साथ एग्सप्लॉयटेशन (कोख का शोषण) हो रहा है, तो गलत नहीं होगा. अपनी सेहत की चिंता किए बगैर ये औरतें बिना किसी स्वास्थ्य जांच के एग डोनेट करती हैं, परिणामस्वरूप कई लाइलाज बीमारियों का शिकार हो जाती हैं.
अवैध तरीके से चलनेवाला आइवीएफ का व्यवसाय बड़ी तेजी से पूरे भारत में फैल रहा है. कई मायनों में यह कारोबार अनैतिक भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह अवैध सेरोगेसी के व्यापार को बढ़ावा दे रहा है. संयुक्त राष्ट्र की एक टीम ने साल 2012 में इस बारे में एक सर्वेक्षण किया था, जिसके मुताबिक भारत में इससे संबंधित बाजार 40 करोड़ डॉलर का है. इसमें छोटे से लेकर बड़े स्तर तक के लोग जुड़े हुए हैं. एजेंट जरूरतमंदों को थोड़े पैसे का लालच देकर उनसे एग लेते हैं और फिर उस एग को जरूरतमंद दंपत्तियों को लाखों रुपये में बेचते हैं.
आइवीएफ की सफलता की दर काफी कम है. जिन लोगों को बच्चे का सपना दिखाया जाता है, उनमें से कुछ लोगों की ही चाहत पूरी हो पाती है, अधिकांश लोगों के हाथ निराशा ही लगती है
इस कारोबार पर तहलका ने जो पड़ताल की, उससे पता चलता है कि आइवीएफ का यह धंधा इंसानी लालच की एक जीती-जागती मिसाल है. इसके जरिए कुछ लोगों का गिरोह नि:संतान परिवारों की भावनाओं से खेल रहा है. समस्या यह है कि जो लोग संतान की चाहत रखते हैं, उनकी इच्छा फिर भी पूरी नहीं हो रही है. क्लीनिक उनकी भावनाओं पर अपने धंधे की उड़ान भर रहे हैं. आइवीएफ की सफलता की दर काफी कम है. जिन लोगों को बच्चे का सपना दिखाया जाता है, उनमें से कुछ लोगों की ही चाहत पूरी हो पाती है, अधिकांश लोगों के हाथ निराशा ही लगती है.
भारत बन सकता है दुनिया का सेरोगेसी कैपिटल Screen shot 2014-12-04 at 3.03
सेरोगेसी से जुड़ी औरतों के स्वास्थ्य के प्रति चिंतित लोगों और चिकित्सा जगत के बीच चल रहा द्वंद्व जल्द ही खत्म होे सकता है. केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में इस बारे में एक विधेयक- असिस्टेड रीप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजीज रेगुलेशन बिल पेश किया जानेवाला है. इस विधेयक के कानून का रूप ले लेने के बाद भारत दुनिया का सरोगेसी कैपिटल बन सकता है.
साल 2008 में उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी की थी कि कॉमर्शियल सेरोगेसी ने व्यवसाय का रूप ले लिया है, क्योंकि अमीर परिवार अपने घरों में टेस्ट ट्यूब संतानों की किलकारियां सुनना चाहते हैं और गरीब औरतें कुछ पैसों के बदले अपनी कोख किराए पर दे रही हैं. उसी साल इस विधेयक का मसौदा तैयार किया गया, ताकि इस बाजार का नियमन किया जा सके.
इस विधेयक को 2010 और 2013 में संशोधित किया गया, लेकिन इन दोनों ही विधेयकों में आशय स्पष्ट था. यह विधेयक कुछ सुरक्षा शर्तों के साथ सेरोगेसी और एग डोनेशन को अनुमति देता है, लेकिन इन कामों से जुड़ी चिकित्सा प्रक्रियाओं के संभावित दुष्परिणामों को देखते हुए महिला स्वास्थ्य विशेषज्ञ इन शर्तों को सुरक्षित नहीं मानते.
अठारहवें विधि आयोग ने साल 2008 में बने इस विधेयक के मूल रूप का विश्लेषण किया था और यह टिप्पणी की थी- ‘भारत में कोख किराए पर है, जो विदेशियों के लिए बच्चे पैदा करती है और भारतीय सेरोगेट माताओं के लिए डॉलर.’ कॉमर्शियल सेरोगेसी का विरोध करते हुए आयोग ने व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए सेरोगसी पर रोक लगाने का सुझाव दिया था.
इस विधेयक के कानून का रूप ले लेने के बाद भारत यूक्रेन, जॉर्जिया और थाइलैंड जैसे देशों की सूची में शामिल हो जाएगा, जहां इसकी अनुमति है. इस विधेयक को उचित ठहराते हुए केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि भारतीय परिवारों के लिए वंश परंपरा काफी अहम होती है. तहलका ने आयुर्वेदिक और यूनानी डॉक्टरों के अलावा बांझपन उपचार से जुड़े केंद्रों के अधिकारियों से जो बातचीत की, उससे भी यह संकेत मिला िक नवविवाहित जोड़ों पर बच्चे के लिए परिवार और समाज की ओर से बराबर दबाव बनाया जाता है. इस संदर्भ में गृह मंत्रालय ने दिशा-निर्देश जारी किया कि केवल विपरीतलिंगी विवाहित जोड़े ही आइवीएफ का इस्तेमाल कर सकते हैं. इस दिशा-निर्देश के तहत सिंगल विमेन, गे और लेस्बियन जोड़ों को इस तकनीक का इस्तेमाल करने से मना किया गया है.
इतना ही नहीं, अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए ये लोग एग डोनर की सेहत की भी अनदेखी करते हैं. सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी हजारों औरतें इनकी लच्छेदार बातों में आकर थोड़े से पैसों के लिए एग डोनेट करने को तैयार हो जाती हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि एग डोनेट करने के बाद सेहत को जो नुकसान होता है, उसका पता एकदम से तो नहीं चलता, लेकिन इसका असर कुछ दिनों बाद दिखना शुरू हो जाता है. मोटे तौर पर एक अनुमान है कि उचित सावधानी अपनाए बगैर एग डोनेशन करने की वजह से लगभग 40 से 45 हजार औरतें गंभीर बीमारियों का शिकार हो चुकी हैं.
दिल्ली के कापसहेड़ा की रहनेवाली विमलेश देवी ने अपने आपको बड़ा भाग्यशाली समझा, जब उन्हें ऐसा मौका मिला. उनके पड़ोसियों की आंखें खुली की खुली रह गईं, जब उन्होंने देखा कि उनके पति राजेश, सिक्योरिटी गार्ड का काम करनेवाले, ने नई बाइक खरीद ली. उसके बाद जल्दी ही उनके छोटे से घर में सुख-सुविधा की सारी चीजें भर गईं. फिर पड़ोसियों को पता चला कि 25 वर्षीया विमलेश की इस समृद्धि की वजह उनका सेरोगेट मदर बनना है.
विमलेश की छोटी उम्र में ही शादी हो गई थी. चार बच्चे होने के बाद उनके पति की मौत हो गई. उसके बाद उनकी मां ने उनकी शादी राजेश से करवा दी, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति खराब ही बनी रही. उसके बाद एक एजेंट ने उन्हें आसानी से पैसे कमाने का लालच देकर एग डोनेट करने के लिए राजी कर लिया. विमलेश और उनकी एक करीबी रिश्तेदार एक एजेंट के जरिए एग डोनेट करने लगीं, जो इससे मिले पैसों में से अपना हिस्सा भी लेता था.
दो बार एग डोनेट करने के बाद विमलेश की जिंदगी में जैकपॉट तब लगा, जब उन्हें सेरोगेट मदर बनने का मौका मिला. इससे उन्हें तीन लाख रुपये मिले. जब बच्चा हो गया, तो उन्हें पैसे मिल गए. इस तरह विमलेश को पैसों का चस्का लग गया. यह बात और है कि एक पैन कार्ड थमा कर उनके पति ने उन्हें यह झांसा दे दिया था कि यह उनके उस खाते का डेबिट कार्ड है, जिसमें उनके पैसे जमा हैं. भले ही उनके साथ यह ठगी हो गई हो, लेकिन अब उनकी तरक्की हो गई थी. वह अब साधारण एग डोनर से एजेंट बन गई थीं. विमलेश अब अपने पड़ोस की महिलाओं को जल्दी पैसे कमाने के लिए एग डोनेट करने के लिए उत्साहित करने लगीं.
विमलेश की यह कहानी ईशानी दत्ता के वृत्तचित्र वॉम्ब्स ऑन रेंट (किराए पर कोख) में दिखाई गई उन चुनिंदा कहानियों में से एक है, जो देश के शहरी इलाकों में चल रही धोखाधड़ी और शोषण की गाथा पेश करती हैं.
कभी-कभी एग डोनेट करनेवाली महिला से संकोचशील सेरोगेट मदर और फिर चालाक एजेंट बनने तक की विमलेश की कहानी इस कारोबार में शामिल लालच और धोखाधड़ी को बखूबी बयान करती है.
खुशियां दिलाने के वादों का कारोबार डॉक्टर गोपीनाथन ने 1996 में दो लाख रुपये लगाकर केरल के इडप्पल में सीआइएमएआर इनफर्टिलिटी क्लीनिक खोला था. आज वह 150 करोड़ रुपये के चिकित्सा व्यवसायी बन गए हैं. उनके इनफर्टिलिटी क्लीनिक और अस्पताल केरल, तमिलनाडु के साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात में भी हैं.
इस हॉस्पिटल चेन पर गलत तरीके से काम करने के कई आरोप हैं, लेकिन इसके बावजूद यह बांझपन के उपचार के नाम पर अभी भी फल-फूल रहा है. तहलका की जांच में यह बात सामने आई कि इनकी आमदनी का मुख्य स्रोत एग डोनेट करनेवाले लोग हैं, जो झारखंड, उड़ीसा, पूर्वोत्तर के राज्यों और नेपाल से लाए जाते हैं.
इसके अलावा सीआइएमएआर की ओर से सरोगेट माताओं के लिए कोच्चि के काडावान्त्रा में अस्पताल चलाया जा रहा है. जब तहलका ने एग डोनेट करनेवालों, उनको दिए जानेवाले पैसों और उनकी स्वास्थ्य सुरक्षा के बारे में पूछताछ की, तो अस्पताल के अधिकारियों ने बताया कि ये सारी चीजें हमारे बिचौलिए निपटाते हैं. इस तरह काफी सहजता से अस्पताल ने इसकी पूरी जिम्मेदारी इन बिचौलियों पर डाल दी. दुख की बात यह है कि ऐसे सारे केंद्रों की यही कहानी है.
केरल दरअसल बांझपन उपचार कारोबार का एक केंद्र बन चुका है. विदेशों में रहनेवाले केरल के लोगों के अलावा अरब देशों से भी लोग यहां पर इस काम के लिए आते हैं.
क्लीनिक पर यह आरोप लगते रहे हैं कि अधिक से अधिक पैसे वसूलने के लिए यह आइवीएफ उपचार की अवधि को जरूरत से अधिक खींचने की कोशिश करता है. हालांकि इस अनैतिक कारोबार में अकेले यही लोग नहीं लगे हैं. ग्राहकों में आइवीएफ उपचार के बारे में जानकारी के अभाव की वजह से यह कारोबार जोरों से फल-फूल रहा है.
जब कोई एग या सीमेन डोनेट करना चाहता है, तो उसके लिए बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है. इसमें कई चिकित्सा जांच भी शामिल होती हैं, लेकिन कोई भी क्लीनिक इन दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करते हैं. कुछ मामलों में ग्राहकों से डॉक्टर यह वादा करते हैं कि वे बड़ी जाति के पुरुष, खास तौर पर ब्राह्मण का स्पर्म मुहैया कराएंगे. इसके लिए ये लोग ग्राहक से भारी कीमत वसूलते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि स्पर्म किसी भी पुरुष से एकत्र कर लिया जाता है.
तहलका की जांच में पता चला है कि कापसहेड़ा की अधिकांश महिलाएं आज विमलेश की कहानी दोहराना चाहती हैं. हालांकि इन महिलाओं को इसकी पूरी प्रक्रिया नहीं पता, लेकिन उनमें भी अपने पति पर निर्भर रहे बगैर कम समय में ज्यादा पैसा कमाने की चाहत पैदा हो गई है. दूसरी ओर विमलेश अपना खुद का बच्चा पैदा नहीं करना चाहती हैं क्योंकि ऐसे में वह फिर से सेरोगेट मदर नहीं बन पाएंगी.
हमारी जांच में यह पता चला कि इस पूरे धंधे में काफी प्रभावशाली समूह लगे हैं, जिनमें चिकित्सक और एजेंट शामिल हैं. बेहतर जिंदगी का भुलावा और थोड़े से पैसों का लालच देकर औरतों के शरीर और स्वास्थ्य के साथ चल रहा यह खिलवाड़ भयावह है. और जब ये औरतें इस कारोबार में एजेंट की भूमिका में उतर जाती हैं, तब तो वे इस दुष्चक्र के लिए आपूर्ति करने का हिस्सा ही बन जाती हैं.
हमारे देश में विमलेश जैसी हजारों युवतियां हैं, जो एग डोनेशन और सेरोगेसी के इस धंधे में उतरकर अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर रही हैं. अपनी जरूरतों और वित्तीय समस्याओं से जूझ रही ये महिलाएं जब इस तरह के मौके पाती हैं, तो उन्हें यथार्थ से पीछा छुड़ाकर आगे बढ़ने का यह जरिया आसान लगने लगता है.
किसी भी नई तकनीक और उपचार प्रक्रिया की ही तरह आइवीएफ को भी नि:संतान दंपत्तियों के लिए एक वरदान की तरह माना जाता है, लेकिन इस उद्योग में चल रहे अवैध तरीकों की वजह से हजारों निर्दोष जानें खतरे में पड़ रही हैं. पता चला है कि हजारों महिला एग डोनर स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर विसंगतियों से जूझ रही हैं.
जब एग डोनेट करने वाली ये औरतें इस कारोबार में एजेंट की भूमिका में उतर जाती हैं, तब तो वे इस दुष्चक्र के लिए आपूर्ति करने का हिस्सा ही बन जाती हैं
महानगरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक आपको आइवीएफ क्लीनिक के होर्डिंग लटके मिल जाएंगे, लेकिन देशभर में बड़ी संख्या में ऐसे क्लीनिक खुल जाने के बावजूद आइवीएफ प्रक्रिया के बारे में समझ विकसित नहीं हो सकी है. औरतों और स्वास्थ्य से संबंधित मसलों पर काम करनेवाली संस्था समा के आंकड़ों के मुताबिक बेहद कम समय में आइवीएफ क्लीनिकों की संख्या 500 से बढ़कर 2500 तक पहुंच गई है. इनकी संख्या में अचानक हुई यह बढ़ोतरी समाधान पेश करने के बजाय समस्याएं बढ़ानेवाली साबित हो रही है.
आइवीएफ उद्योग का कारोबार काफी तेजी से बढ़ रहा है. कुछ समय पहले की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह कारोबार बीस हजार करोड़ रुपये सालाना के आंकड़े तक पहुंच चुका है. शोषण से की जानेवाली यह मोटी आमदनी मुख्य रूप से उन डॉक्टरों और दलालों की जेब में जा रही है, जो भारत के प्रेगनेंसी टूरिज्म इंडस्ट्री में योगदान कर रहे हैं. सुसंस्कृत शब्दों में कहे जानेवाले स्वास्थ्य पर्यटन का यह एक भयावह संस्करण है.
एग डोनेशन ग्रामीण इलाकों में पैसे कमाने का आसान जरिया बन गया है
एग डोनेशन ग्रामीण इलाकों में पैसे कमाने का आसान जरिया बन गया है
बांझपन के उपचार के नाम पर डॉक्टर ही इस शोषण के मुख्य कर्ताधर्ता हैं. यही वजह है कि बहुत सारे स्त्रीरोग विशेषज्ञ आइवीएफ डिप्लोमा कर इस धंधे को अपनाने को आतुर हैं. यह पूरी तरह से चिकित्सा के सभी नैतिक नियमों के खिलाफ है क्योंकि पैसे कमाने के लिए यहां सभी नियम-कानूनों को ताक पर रख दिया जाता है.
मेडिकल एंथ्रोपॉलिजिस्ट डॉक्टर सुनीता रेड्डी का कहना है, ‘भारत में बांझपन की समस्या से जुड़े अधिकांश विशेषज्ञ दरअसल स्त्रीरोग विशेषज्ञ हैं. कुछ सालों तक प्रैक्टिस करने के बाद ये कुछ मूलभूत कलाएं सीख लेते हैं और महानगरों या छोटे शहरों में क्लीनिक खोल लेते हैं.’
दलाल मुख्य रूप से गांवों को ही अपना निशाना बनाते हैं, क्योंकि वे एग डोनर के तौर पर गांवों की औरतों को शिकार बनाते हैं. दलाल लोग अमीर नि:संतान दंपत्तियों से मोटी रकम वसूलते हैं, लेकिन अपने एग डोनेट करनेवाली इन औरतों को काफी कम पैसे देते हैं.
बांझपन के उपचार के नाम पर डॉक्टर ही इस शोषण के मुख्य कर्ताधर्ता हैं. यही वजह है कि बहुत सारे स्त्रीरोग विशेषज्ञ आइवीएफ डिप्लोमा कर इस धंधे को अपनाने को आतुर हैं
सच तो यह है कि बांझपन के उपचार से जुड़ी इन प्रक्रियाओं का मुख्य उद्देश्य पैसे कमाना होता है. उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता है कि एग डोनेट करनेवाली महिलाओं की सेहत खराब हो रही है या फिर आइवीएफ करानेवाले जोड़े को संतान का सुख मिल रहा है या नहीं. जब नि:संतान दंपत्ति बच्चे की चाह में डॉक्टर से आइवीएफ इलाज के लिए संपर्क करते हैं, तो वे इसके लिए उनके सामने मोटी रकम की मांग रख देते हैं. उसके बाद धोखाधड़ी के तरीके अपनाकर और दंपत्तियों में जानकारी के अभाव का फायदा उठाकर ये डॉक्टर उन लोगों से और अधिक रकम वसूलते हैं. हालांकि डॉक्टरों का यह दावा होता है कि वे एग डोनेट करनेवालों को अच्छी-खासी राशि देते हैं, जबकि सच यह है कि इन लोगों को केवल बीस-पच्चीस हजार रुपये ही दिए जाते हैं. बाकी का सारा पैसा डॉक्टर और एजेंट के जेब में जाता है.
तहलका की जांच में पता चला है कि एग डोनेट करनेवाले ज्यादातर लोग अशिक्षित होते हैं. कई तो ऐसे होते हैं, जिन्हें यह भी पता नहीं होता कि पैसे गिनते कैसे हैं. इस संबंध में जेएनयू के सोशल मेडिसिन डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर प्राचीन घोडाजकर का कहना है, ‘पूरी जानकारी अच्छी तरह से देकर सहमति नहीं लिया जाना बड़ी चिंता का विषय है. बहुत सारी औरतें, जिनसे एग डोनेट करने के लिए संपर्क किया जाता है, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी पृष्ठभूमि की होती हैं.’
Surrogate mothers pose for a photograph inside a temporary home for surrogates provided by Akanksha IVF centre in Anand town
एग डोनेशन की प्रक्रिया की बात करें तो एग के प्रोडक्शन की फ्रीक्वेंसी में वक्त की काफी अहम भूमिका होती है, लेकिन पैसे के लालच में एजेंट और डॉक्टर इस बात की परवाह नहीं करते और अपना एग डोनेट करनेवालों के लिए जरूरी चिकित्सा जांच कराए बगैर उनका लगातार शोषण करते रहते हैं. इसकी वजह से एग डोनेट करनेवालों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है. दरअसल कई ऐसे मामले पाए गए हैं जिनमें महिलाओं ने एक महीने में आठ बार अपने एग डोनेट किए.
एग के उत्पादन की क्षमता को बढ़ाने के लिए हार्मोन्स के इंजेक्शन के भारी डोज और दवाएं एग डोनेट करनेवालों को दी जाती हैं.  इस पूरे अमानवीय उपचार के बाद इनसे दवाओं के नाम पर 15 से 20 हजार रुपये वसूल लिए जाते हैं ताकि वे इन प्रक्रियाओं के दुष्प्रभावों से बच सकें.
उस वक्त न तो दलाल और न ही डॉक्टर, कोई भी इन्हें दुष्प्रभावों से बचाने में मदद नहीं करता. नतीजतन ये गरीब औरतें धीरे-धीरे कोमा में चली जाती हैं या फिर मौत की शिकार हो जाती हैं.
(Published in Tehelkahindi Magazine, Volume 6 Issue 24, Dated 31 December 2014)

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