किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में होती जा रही है बढ़ोतरी।
इन दिनों देश में किसानों की आत्महत्या का विषय पुन : चर्चा में है। वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध के मात्र 120 घंटों के बाद ही रोक हटाकर पुन: निर्यात करने की घोषणा क्यों कर दी, इस पर शंका की सुई उनकी तरफ उठना स्वाभाविक था। लोकसभा में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले शिवसेना के सदस्यों ने इस पर भारी क्षोभ व्यक्त किया। महाराष्ट्र देश का एक बड़ा कपास उत्पादक प्रदेश है। कपास उत्पादक किसान आत्महत्या के लिए क्यों मजबूर होते हैं? इसकी जांच-पड़ताल की बातें तो होती हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस निर्णय देश के सामने नहीं आया है। शिवसेना के प्रयासों से इस बार इस ज्वलंत प्रश्न पर डेढ़ घंटे की चर्चा का समय लोकसभा में निश्चित किया गया है। जब इस पर चर्चा होगी तो महाराष्ट्र की तरह देश में अन्य प्रदेशों के किसानों की आत्महत्या का मामला भी अवश्य उठेगा। कृषि राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत आती है, लेकिन इसके आयात-निर्यात और ऋण संबंधी मामलों में केन्द्र सरकार का दखल निश्चित रूप से होता है। जब आत्महत्या का मामला सामने आता है तो यह कानून और व्यवस्था का भी एक अंग है। इसलिए केन्द्र सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती है।
सिर्फ चिंता : "नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो" द्वारा प्रस्तुत किये गए आंकड़ों के अनुसार 1995 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की है। महाराष्ट्र के किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की। भारत में धनी और विकसित कहे जाने वाले महाराष्ट्र में अब तक आत्महत्या का आंकड़ा 50 हजार 860 तक पहुंच चुका है। 2011 में मराठवाड़ा में 435, विदर्भ में 226 और खानदेश (जलगांव क्षेत्र) में 133 किसानों ने आत्महत्याएं की है। महाराष्ट्र के पश्चात् कर्नाटक, आंध्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का नम्बर आता है। आंकड़े बताते हैं कि 2004 के पश्चात् स्थिति बद से बदतर होती चली गई। 1991 और 2001 की जनगणना के आंकड़ों को तुलनात्मक देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किसानों की संख्या कम होती चली जा रही है। 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया। 2011 के आंकड़े बताते हैं कि उपरोक्त पांच राज्यों में कुल 1534 किसान अपने प्राणों का अंत कर चुके हैं। प्रत्येक किसान समय पर अपना कर्ज खत्म करने का प्रयास करता है, किंतु फसलों की बर्बादी से वह ऐसा नहीं कर पाता है। इस चिंता में वह भीतर से टूट जाता है और अंतत: आत्महत्या का मार्ग चुन लेता है। कृषक बंधु अब खेती को घाटे का धंधा मानते हैं। इसलिए उनकी आने वाली पीढ़ी अपने मां-बाप की तरह कर्ज में न तो मरना चाहती है और न ही आत्महत्या करना चाहती है।
सूखे और बाढ़ का प्रकोप : किसान के सिर पर सूखे और बाढ़ का प्रकोप तो तलवार बन कर लटकता ही रहता है, लेकिन इसके साथ-साथ कभी फसल अच्छी हो गई तो पैदावार का सही मूल्य दिलाने में सरकार उत्साहित नहीं होती। खराब और घटिया प्रकार का बीज उसका दुर्भाग्य बन जाता है। लागत की तुलना में जब आय ठीक नहीं होती है तो वह सरकारी कर्ज चुकाने में असफल रहता है। किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने इस बात का दावा किया था कि वर्ष 2010 में 365 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी एक दिन में एक, इनमें से मात्र 65 ने कर्ज के कारण आत्महत्या की थी। लेकिन राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो इस दावे की पूरी तरह से पोल खोल देता है। अब सवाल यह है कि जब सरकार लागत के अनुसार कपास की कीमत नहीं देती है तो फिर उसके निर्यात पर प्रतिबंध क्यों लगाती है? इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। पिछले दिनों यह घटना घटी। 120 घंटे तक सरकार ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए रखा। लेकिन न जाने क्या बात है कि हड़बड़ी में लगाए गए इस प्रतिबंध को सरकार ने कुछ शर्तों के साथ रद्द कर दिया। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का तो कहना है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है। लेकिन आनंद शर्मा ने इसका लूला-लंगड़ा बचाव किया। किन मिल मालिकों एवं धन्ना सेठों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने यह निर्णय लिया ये तो वे ही जानें। लेकिन जो समाचार मिल रहे हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने कुछ शक्तिशाली लोगों के लिए यह निर्णय लिया। उसके समाचार सारे देश में पहुंचे और सरकार आलोचना का शिकार बने इससे पहले ही अपने पाप को छिपाने का भरपूर प्रयास किया। निर्यात पर प्रतिबंध लगते ही भाव घटे जिसमें दलालों और पूंजीपतियों की चांदी हो गई। पिछले वर्ष भी ऐसा ही नाटक खेला गया था, जिसमें गुजरात के ही किसानों को 14 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था। इस बार कितना हुआ इसके आंकड़े अब तक उपलब्ध नहीं हुए हैं।
दूरदर्शिता की कमी : पिछली बार जब यह घटना घटी थी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि जब हमने प्रतिबंध लगाया उस समय चीन ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने कपास का भारी जत्था बेचने के लिए निकाला उससे चीन को भारी आय हुई। भारत सरकार में तनिक भी दूरदर्शिता होती तो इसका लाभ भारतीय किसान को मिलता। इस प्रकार का लाभ पहुंचाकर क्या भारत सरकार ने चीन के हौसले बुलंद नहीं किये? सरकार की इस अपरिपक्वता के रहते कोई किस प्रकार विश्वास कर सकता है कि हम चीन से आगे निकलेंगे और एक दिन महाशक्ति के पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। भारत में हर समय चीन की बात होती है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा चीन से है। चीन दुनिया में सबसे अधिक कपास पैदा करता है। विश्व में जितने हेक्टेयर पर कपास पैदा की जाती है उनमें हर चार में एक हेक्टेयर भारत के हिस्से में आता है। भारत में कुल 90 लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती है। चीनी किसान का कपास पैदा कर के वारा-न्यारा हो जाता है, लेकिन भारतीय किसान के भाग्य में तो कपास के नाम पर आत्महत्या ही लिखी हुई है। 13 राज्यों के 40 लाख से अधिक किसान कपास की खेती करते हैं। 2009 में भारत के कुल निर्यात में 38 प्रतिशत कपास था, जिससे देश को 80 करोड़ रु. की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई थी। इसकी खेती के लिए मात्र कृषि मंत्रालय ही उत्तरदायी नहीं है, बल्कि वस्त्र और वाणिज्य मंत्रालया भी उत्तरदायी हैं। कॉटन कारपोरेशन आफ इंडिया की स्थापना 1970 में की गई, जो किसानों से कपास की खरीदी करती है। बेचारा किसान खुले बाजार में इसे नहीं बेच सकता है। इसलिए सरकार ही उसकी भाग्य विधाता बनकर उसका मूल्य तय करती है।
पशुपालन का सत्यानाश : भारत सरकार को क्या यह पता नहीं है कि सदियों से कृषि के साथ-साथ किसान कोई न कोई अन्य सहायक व्यवसाय भी करता रहा है। इसमें पशुपालन और मुर्गीपालन प्रमुख रूप से रहे हैं। भारत के असंख्य कुटीर उद्योग खेती पर ही निर्भर रहे हैं। लेकिन बड़े उद्योग लगाकर सरकार ने उन सबको किसान से छीन लिया है। दूध की डेरियां स्थापित करके पशुपालन का सत्यानाश कर दिया है। इसमें जो गाय और बैल का महत्व था उसे भुला दिया गया। महाराष्ट्र में पुणे के निकट तलेगांव के चंद्रकांत पाटिल का कहना है कि भारत में लगभग आठ करोड़ बैल हैं। एक बैल आधा हॉर्स पावर बिजली का काम कर सकता है। पाटिल ने खेती और रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन में बैल का उपयोग करके एक क्रांति पैदा की है। भारत सरकार बिजली तो दे नहीं सकती लेकिन इन बैलों से चार करोड़ होर्स पावर बिजली बचाने पर भी विचार नहीं कर सकती।
महाराष्ट्र में जब शिवसेना-भाजपा की सरकार थी, उस समय राज्य योजना आयोग में नियुक्त वरिष्ठ प्राध्यापक सरोजराव ठुमरे ने एक रपट पेश की थी जिसमें महाराष्ट्र के 20 जिलों का अध्ययन कर उन्होंने यह सुझाव दिया था कि जिस जिले में जिस चीज का उत्पादन होता है उसके आधार पर वहां लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना की जा सकती है। सूरत के नौसारी कृषि विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक ने केले के तने और पत्ते के रेशों से उच्चकोटि का कागज बनाने की खोज की है। केले की खेती करने वाले कुछ देशों में इस कागज के नोट छापे जाते हैं। इससे दोहरा लाभ है। एक तो यह अपने देश की उपज से बनने के कारण सस्ता होता है और दूसरा उसकी नकल नहीं की जा सकती है। भारत सरकार किसानों को "आर्थिक पैकेज" का नाटक बंद करके वहां की स्थानीय खेती पर आधारित वस्तुओं का उत्पादन करने का मन बना ले तो किसानों की मौत का यह तांडव बंद हो सकता है।
मुजफ्फर हुसैन
इन दिनों देश में किसानों की आत्महत्या का विषय पुन : चर्चा में है। वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध के मात्र 120 घंटों के बाद ही रोक हटाकर पुन: निर्यात करने की घोषणा क्यों कर दी, इस पर शंका की सुई उनकी तरफ उठना स्वाभाविक था। लोकसभा में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले शिवसेना के सदस्यों ने इस पर भारी क्षोभ व्यक्त किया। महाराष्ट्र देश का एक बड़ा कपास उत्पादक प्रदेश है। कपास उत्पादक किसान आत्महत्या के लिए क्यों मजबूर होते हैं? इसकी जांच-पड़ताल की बातें तो होती हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस निर्णय देश के सामने नहीं आया है। शिवसेना के प्रयासों से इस बार इस ज्वलंत प्रश्न पर डेढ़ घंटे की चर्चा का समय लोकसभा में निश्चित किया गया है। जब इस पर चर्चा होगी तो महाराष्ट्र की तरह देश में अन्य प्रदेशों के किसानों की आत्महत्या का मामला भी अवश्य उठेगा। कृषि राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत आती है, लेकिन इसके आयात-निर्यात और ऋण संबंधी मामलों में केन्द्र सरकार का दखल निश्चित रूप से होता है। जब आत्महत्या का मामला सामने आता है तो यह कानून और व्यवस्था का भी एक अंग है। इसलिए केन्द्र सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती है।
सिर्फ चिंता : "नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो" द्वारा प्रस्तुत किये गए आंकड़ों के अनुसार 1995 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की है। महाराष्ट्र के किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की। भारत में धनी और विकसित कहे जाने वाले महाराष्ट्र में अब तक आत्महत्या का आंकड़ा 50 हजार 860 तक पहुंच चुका है। 2011 में मराठवाड़ा में 435, विदर्भ में 226 और खानदेश (जलगांव क्षेत्र) में 133 किसानों ने आत्महत्याएं की है। महाराष्ट्र के पश्चात् कर्नाटक, आंध्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का नम्बर आता है। आंकड़े बताते हैं कि 2004 के पश्चात् स्थिति बद से बदतर होती चली गई। 1991 और 2001 की जनगणना के आंकड़ों को तुलनात्मक देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किसानों की संख्या कम होती चली जा रही है। 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया। 2011 के आंकड़े बताते हैं कि उपरोक्त पांच राज्यों में कुल 1534 किसान अपने प्राणों का अंत कर चुके हैं। प्रत्येक किसान समय पर अपना कर्ज खत्म करने का प्रयास करता है, किंतु फसलों की बर्बादी से वह ऐसा नहीं कर पाता है। इस चिंता में वह भीतर से टूट जाता है और अंतत: आत्महत्या का मार्ग चुन लेता है। कृषक बंधु अब खेती को घाटे का धंधा मानते हैं। इसलिए उनकी आने वाली पीढ़ी अपने मां-बाप की तरह कर्ज में न तो मरना चाहती है और न ही आत्महत्या करना चाहती है।
सूखे और बाढ़ का प्रकोप : किसान के सिर पर सूखे और बाढ़ का प्रकोप तो तलवार बन कर लटकता ही रहता है, लेकिन इसके साथ-साथ कभी फसल अच्छी हो गई तो पैदावार का सही मूल्य दिलाने में सरकार उत्साहित नहीं होती। खराब और घटिया प्रकार का बीज उसका दुर्भाग्य बन जाता है। लागत की तुलना में जब आय ठीक नहीं होती है तो वह सरकारी कर्ज चुकाने में असफल रहता है। किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने इस बात का दावा किया था कि वर्ष 2010 में 365 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी एक दिन में एक, इनमें से मात्र 65 ने कर्ज के कारण आत्महत्या की थी। लेकिन राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो इस दावे की पूरी तरह से पोल खोल देता है। अब सवाल यह है कि जब सरकार लागत के अनुसार कपास की कीमत नहीं देती है तो फिर उसके निर्यात पर प्रतिबंध क्यों लगाती है? इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। पिछले दिनों यह घटना घटी। 120 घंटे तक सरकार ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए रखा। लेकिन न जाने क्या बात है कि हड़बड़ी में लगाए गए इस प्रतिबंध को सरकार ने कुछ शर्तों के साथ रद्द कर दिया। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का तो कहना है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है। लेकिन आनंद शर्मा ने इसका लूला-लंगड़ा बचाव किया। किन मिल मालिकों एवं धन्ना सेठों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने यह निर्णय लिया ये तो वे ही जानें। लेकिन जो समाचार मिल रहे हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने कुछ शक्तिशाली लोगों के लिए यह निर्णय लिया। उसके समाचार सारे देश में पहुंचे और सरकार आलोचना का शिकार बने इससे पहले ही अपने पाप को छिपाने का भरपूर प्रयास किया। निर्यात पर प्रतिबंध लगते ही भाव घटे जिसमें दलालों और पूंजीपतियों की चांदी हो गई। पिछले वर्ष भी ऐसा ही नाटक खेला गया था, जिसमें गुजरात के ही किसानों को 14 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था। इस बार कितना हुआ इसके आंकड़े अब तक उपलब्ध नहीं हुए हैं।
दूरदर्शिता की कमी : पिछली बार जब यह घटना घटी थी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि जब हमने प्रतिबंध लगाया उस समय चीन ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने कपास का भारी जत्था बेचने के लिए निकाला उससे चीन को भारी आय हुई। भारत सरकार में तनिक भी दूरदर्शिता होती तो इसका लाभ भारतीय किसान को मिलता। इस प्रकार का लाभ पहुंचाकर क्या भारत सरकार ने चीन के हौसले बुलंद नहीं किये? सरकार की इस अपरिपक्वता के रहते कोई किस प्रकार विश्वास कर सकता है कि हम चीन से आगे निकलेंगे और एक दिन महाशक्ति के पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। भारत में हर समय चीन की बात होती है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा चीन से है। चीन दुनिया में सबसे अधिक कपास पैदा करता है। विश्व में जितने हेक्टेयर पर कपास पैदा की जाती है उनमें हर चार में एक हेक्टेयर भारत के हिस्से में आता है। भारत में कुल 90 लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती है। चीनी किसान का कपास पैदा कर के वारा-न्यारा हो जाता है, लेकिन भारतीय किसान के भाग्य में तो कपास के नाम पर आत्महत्या ही लिखी हुई है। 13 राज्यों के 40 लाख से अधिक किसान कपास की खेती करते हैं। 2009 में भारत के कुल निर्यात में 38 प्रतिशत कपास था, जिससे देश को 80 करोड़ रु. की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई थी। इसकी खेती के लिए मात्र कृषि मंत्रालय ही उत्तरदायी नहीं है, बल्कि वस्त्र और वाणिज्य मंत्रालया भी उत्तरदायी हैं। कॉटन कारपोरेशन आफ इंडिया की स्थापना 1970 में की गई, जो किसानों से कपास की खरीदी करती है। बेचारा किसान खुले बाजार में इसे नहीं बेच सकता है। इसलिए सरकार ही उसकी भाग्य विधाता बनकर उसका मूल्य तय करती है।
पशुपालन का सत्यानाश : भारत सरकार को क्या यह पता नहीं है कि सदियों से कृषि के साथ-साथ किसान कोई न कोई अन्य सहायक व्यवसाय भी करता रहा है। इसमें पशुपालन और मुर्गीपालन प्रमुख रूप से रहे हैं। भारत के असंख्य कुटीर उद्योग खेती पर ही निर्भर रहे हैं। लेकिन बड़े उद्योग लगाकर सरकार ने उन सबको किसान से छीन लिया है। दूध की डेरियां स्थापित करके पशुपालन का सत्यानाश कर दिया है। इसमें जो गाय और बैल का महत्व था उसे भुला दिया गया। महाराष्ट्र में पुणे के निकट तलेगांव के चंद्रकांत पाटिल का कहना है कि भारत में लगभग आठ करोड़ बैल हैं। एक बैल आधा हॉर्स पावर बिजली का काम कर सकता है। पाटिल ने खेती और रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन में बैल का उपयोग करके एक क्रांति पैदा की है। भारत सरकार बिजली तो दे नहीं सकती लेकिन इन बैलों से चार करोड़ होर्स पावर बिजली बचाने पर भी विचार नहीं कर सकती।
महाराष्ट्र में जब शिवसेना-भाजपा की सरकार थी, उस समय राज्य योजना आयोग में नियुक्त वरिष्ठ प्राध्यापक सरोजराव ठुमरे ने एक रपट पेश की थी जिसमें महाराष्ट्र के 20 जिलों का अध्ययन कर उन्होंने यह सुझाव दिया था कि जिस जिले में जिस चीज का उत्पादन होता है उसके आधार पर वहां लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना की जा सकती है। सूरत के नौसारी कृषि विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक ने केले के तने और पत्ते के रेशों से उच्चकोटि का कागज बनाने की खोज की है। केले की खेती करने वाले कुछ देशों में इस कागज के नोट छापे जाते हैं। इससे दोहरा लाभ है। एक तो यह अपने देश की उपज से बनने के कारण सस्ता होता है और दूसरा उसकी नकल नहीं की जा सकती है। भारत सरकार किसानों को "आर्थिक पैकेज" का नाटक बंद करके वहां की स्थानीय खेती पर आधारित वस्तुओं का उत्पादन करने का मन बना ले तो किसानों की मौत का यह तांडव बंद हो सकता है।
मुजफ्फर हुसैन
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