फरवरी, 1992. अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर के महंत लालदास की हत्या के बाद नए महंत की खोज हो रही थी. वह राम मंदिर आंदोलन और उससे उठे राजनीतिक बवंडर का दौर था इसलिए प्रशासन के माथे पर बल पड़े हुए थे. उसे एक ऐसा महंत ढूंढ़ना था जिसकी छवि साफ-सुथरी हो. दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा संत जो किसी भी तरह के आपराधिक आरोप और राजनीतिक झुकाव से मुक्त हो. यही सबसे बड़ी समस्या थी. पूरी अयोध्या में ऐसा एक भी संत खोजे नहीं मिल रहा था. जो भी मिलता उस पर या तो कोई मामला दर्ज होता या फिर वह किसी राजनीतिक दल से जुड़ा होता. बहुत ढूंढ़ने के बाद प्रशासन को सत्येंद्र दास मिले. वे आज भी रामजन्मभूमि स्थान के महंत हैं.
वर्तमान में लौटते हैं. इसी साल 21 जुलाई, 2013 को अयोध्या में दो महंत जमीन के एक छोटे-से टुकड़े को लेकर भिड़ गए. भावनाथ दास और हरिशंकर दास नाम के इन दो महंतों ने एक-दूसरे पर अपने समर्थकों के साथ फायरिंग शुरू कर दी. इस हिंसा में एक व्यक्ति की जान चली गई और दर्जन भर घायल हो गए.
करीब दो दशक के ओर-छोर पर खड़ी ये घटनाएं रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की गवाह रही अयोध्या की एक अनकही और स्याह कहानी कहती हैं. दरअसल राम की यह नगरी रामनाम जपने वाले साधु-संतों के शैतान बनने की गवाह बन गई है. जिस संत के हाथों में कंठी-माला होनी चाहिए, उसके हाथों में शराब और बंदूक है. जिसे मोह माया से ऊपर माना जाता है, वह दूसरे मंदिर की संपत्ति हड़पने की फिराक में है. जो बाबा इंद्रियों पर काबू करने का दम भरते हैं, उन पर नाबालिग बच्चों के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हैं. गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहने वाले साधुओं पर अपने ही गुरुओं की हत्या के आरोप हैं.
अयोध्या के एसएसपी रहे और इन दिनों बरेली रेंज के डीआईजी आरके एस राठौड़ कहते हैं, ‘ अयोध्या के साधुओं का एक बड़ा वर्ग विभिन्न तरह के अपराधों में शामिल है.’ फैजाबाद में लंबे समय तक तैनात रहे धर्मेंद्र सिंह का कहना है, ‘मैं जब वहां एसएसपी था तो शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जब अयोध्या का कोई बाबा संपत्ति या किसी अन्य चीज से जुड़ा विवाद लेकर मेरे पास नहीं आता हो. मुझे यह देखकर दुख होता था. मैं सोचता था कि जब यही सब करना था तो साधु क्यों बने. अयोध्या के क्षेत्राधिकारी (सीओ) अयोध्या तारकेश्वर पांडे कहते हैं, ‘रावण सीता जी का अपहरण करने के लिए 500 दूसरे रूप धर सकता था, लेकिन उसने साधुवेश ही धारण किया. अयोध्या के कई साधु अपने आप को दुनियावी चीजों से दूर नहीं कर पाए हैं. इनमें से 50 फीसदी अपराधी हैं जिनका मांस, मदिरा और महिला से अभिन्न रिश्ता है.’
सरयू कुंज राम जानकी मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री कहते हैं, ‘भगत जगत को ठगत है, भगत को ठगत है संत, संतों को जो ठगत है, तो को कहो महंत.’ एक दूसरे संत दूसरी दिलचस्प पंक्ति सुनाते हैं,’ चरण दबा कर संत बने हैं, गला दबा कर महंत, परंपरा सब भूल गए हैं, भूल गए हैं ग्रंथ’. ऐसी कई लाइनें अयोध्या में सुनने को मिल जाती हैं क्योंकि स्थानीय साधु समाज के एक बड़े वर्ग पर ये पूरी तरह से लागू होती हैं.
कुछ समय पहले ही शहर के चर्चित मंदिर हनुमानगढ़ी के महंत हरिशंकर दास पर हमला हुआ. उन्हें छह गोलियां लगीं. हमला कराने का आरोप हरिशंकर के ही एक शिष्य पर लगा. बीते साल हनुमानगढ़ी के गद्दीनशीन महंत रमेश दास ने अपनी हत्या की आशंका जताई थी. उनका कहना था कि साधु बिरादरी के ही कुछ लोग हनुमानगढ़ी पर अपनी मनमानी करना चाह रहे हैं और इसके लिए वे उनकी हत्या की योजना बना रहे हैं. इसके चंद दिनों बाद ही अखिल भारतीय निर्वाणी अनी अखाड़ा के महामंत्री व हनुमानगढ़ी के पुजारी गौरीशंकर दास ने भी अपनी हत्या होने की आशंका जताई. उनका आरोप था कि उनके गुरु रामाज्ञा दास की हत्या कराने वाले महंत त्रिभुवन दास अब उनकी हत्या कराना चाहते हैं. 2012 में ही हनुमानगढ़ी के संत हरिनारायण दास को पुलिस ने गोंडा के पास मुठभेड़ में मार गिराया था. उन पर हत्या सहित कई मामले दर्ज थे.
ऐसी घटनाओं की सूची बहुत लंबी है. सार यह है कि सात हजार से ज्यादा मंदिरों वाली अयोध्या के अधिकांश मठ और मंदिर आज गंभीर अपराधों के केंद्र बन गए हैं. कहीं शिष्यों पर महंतों की हत्या के आरोप हैं तो कहीं महंतों को उनके शिष्यों ने जबरन मंदिर से बाहर निकाल दिया है. यही नहीं, पिछले कुछ सालों में अयोध्या के कई साधु पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए हैं. यहां 250 से अधिक साधुओं और महंतों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. कइयों के खिलाफ तो एक से अधिक हत्या के मामले दर्ज हैं. कई बाबा हैं जो विभिन्न आपराधिक मामलों में जेल जा चुके हैं तो कई ऐसे भी हैं जो जेल से वापस आकर महंत की कुर्सी पर बने हुए हैं. किसी साधु पर अपराधियों की मदद से दूसरे मठ या मंदिर पर अवैध कब्जा करने का आरोप है तो अपराधियों द्वारा महंत की हत्या करके या उसे बाहर निकालकर अपने किसी आदमी को महंत बनवा देने के किस्से भी हैं. (देखें बॉक्स 1) कहते हैं कि मोह-माया और भय से मुक्ति संत की पहचान होती है, लेकिन यहां साधुओं में जमीन-जायदाद से जुड़ी मुकदमेबाजी और असलहे या बॉडीगार्ड रखने की होड़ आम है.
जानकार बताते हैं कि अयोध्या में अपराधीकरण की शुरुआत वैसे तो 1960 में ही हो गई थी, लेकिन आज यह अपने चरम पर है. वैरागी साधु रामानंद कहते हैं, ‘अपराधियों को अयोध्या में प्रवेश कराने का काम हनुमानगढ़ी के उज्जैनिया पट्टी के महंत त्रिभुवन दास ने किया. उसने ही अयोध्या में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपराधियों का सहारा लिया.’ रामानंद बताते हैं कि जटा में पिस्तौल खोंसकर घूमने वाले त्रिभुवन दास के आपराधिक चरित्र को देखते हुए ही उसे हनुमानगढ़ी से बाहर निकाल दिया गया था. इसके बाद त्रिभुवन ने अपना एक अलग मठ स्थापित किया और वहीं से अपनी आपराधिक गतिविधियां चलाईं. हनुमानगढ़ी के महंत गौरीशंकर दास कहते हैं, ‘अयोध्या में होने वाली अधिकांश हत्याओं में त्रिभुवन दास की ही भूमिका रही है. इसने अयोध्या में अब तक 100 से अधिक साधुओं की हत्या कराई है. इसी आदमी ने अयोध्या में अपराध की नर्सरी स्थापित की.’
हालांकि त्रिभुवन दास के बारे में कहा जाता है कि उसने कभी कोई हत्या खुद नहीं की बल्कि इस काम के लिए अपने शिष्यों का सहारा लिया. गौरीशंकर कहते हैं, ‘त्रिभुवन के जितने भी शिष्य हुए, सभी एक से बढ़ कर एक अपराधी हुए. साधु दीक्षा देते हैं तो आदमी संत बनता है लेकिन जितने लोग त्रिभुवन से जुड़े वे एक से बढ़ कर एक शैतान हुए. ये आदमी अधिकांश समय जेल में ही रहा. जेल में ही इसने अपने अधिकतर शिष्य बनाए. जेल से छूटने के बाद वे अपराधी सीधे अयोध्या में इसके पास चले आते थे.’ रामचरितमानस भवन के महंत अर्जुन दास कहते हैं, ‘त्रिभुवन ने बड़ी संख्या में अपराधियों को लाकर अपने मठ पर रखा. बिहार से आने वाले अपराधियों के लिए उसका मठ शरणस्थली रहा है.’ त्रिभुवन दास आज भी जिंदा है और अयोध्या में ही है. उस पर आज भी दर्जनों गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
रामजन्मभूमि न्यास के प्रमुख एवं रामचंद्र परमहंस के उत्तराधिकारी महंत नृत्य गोपाल दास भी कई गंभीर आरोपों के घेरे में रहे हैं. जान का डर बताकर नाम न छापने की शर्त पर अयोध्या के एक बड़े महंत कहते हैं, ‘यह आदमी संत नहीं है बल्कि गुंडा और भूमाफिया है. आज अयोध्या में जो भी अपराध और अराजकता है उसका स्रोत यही है. स्थिति यह है कि अगर इन्हें आपकी जमीन या मंदिर पसंद आ गया तो आपके पास उसे इन्हें सौंपने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. या तो आप अपनी जमीन दें या फिर जान देने के लिए तैयार रहें.’
अपनी किताब ‘पोट्रेट्स फ्रॉम अयोध्या’ में नृत्य गोपाल दास से जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए शारदा दुबे लिखती हैं, ‘अयोध्या के प्रमोद वन इलाके में एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी का घर नृत्य गोपाल दास को पसंद आ गया. उन्होंने घर खरीदने के लिए घर के मालिक, जो एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी था, के पास कई बार संदेश भिजवाया. लेकिन वह घर नहीं बेचना चाहता था. कुछ दिन बाद ही खबर आई कि कुछ अनजान लोगों ने उस पर जानलेवा हमला कर दिया है. इस घटना के चंद दिनों बाद वह आदमी परिवार सहित दूसरे राज्य में शिफ्ट हो गया.’
एक और घटना मणिराम दास की छावनी से सटे बिंदु सरोवर मंदिर से जुड़ी है. उसके महंत त्रिवेणी दास थे. बताते हैं कि मंदिर के कुछ मामलों को लेकर उनकी नृत्य गोपाल दास से कुछ कहासुनी हो गई. घटना के कुछ दिन बाद रोज की तरह त्रिवेणी दास सुबह चार बजे सरयू में स्नान करने जा रहे थे. रास्ते में एक ट्रक ने उन्हें कुचल दिया और वहीं उनकी मौत हो गई. अयोध्या में कई ऐसे लोग हैं जो दबी जुबान में इस घटना के पीछे नृत्य गोपाल दास का हाथ बताते हैं.
वैसे तो नृत्य गोपाल दास पर अयोध्या में दूसरों की जमीन-जायदाद हड़पने के कई गंभीर आरोप हैं लेकिन उनमें से सबसे बड़ा मामला मारवाड़ी धर्मशाला पर कब्जे से जुड़ा है. इस घटना के गवाह रहे साधु प्रेमशंकर दास बताते हैं, ’1990 की बात है. धर्मशाला में अयोध्या के आस-पास के गांवों से आए 70-80 लड़के रहा करते थे. एक दिन दोपहर में जब बच्चे अपने कॉलेज गए हुए थे तब हथियारों से लैस साधुओं ने धर्मशाला पर अपना कब्जा जमा लिया. छात्रों की किताबों, दस्तावेजों, कपड़ों एवं अन्य चीजों को एक जगह रखकर उसे आग लगा दी गई.’ प्रेमशंकर के मुताबिक उस घटना में शामिल होने के आरोप में नृत्य गोपाल दास और अन्य कई लोगों के खिलाफ आईपीसी की धारा 347,348 और 436 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी. ऐसे ही और भी मामले हैं.
हालांकि अयोध्या में फैले अपराध का शिकार नृत्य गोपाल दास भी हुए. मई, 2001 की बात है. सुबह पांच बजे वे अपने शिष्यों के साथ सरयू नदी में स्नान के लिए जा रहे थे जब उन पर देसी बमों से हमला किया गया. हमले में वे बुरी तरह से घायल हुए. इस हमले के पीछे उन्होंने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ बताया. लेकिन कुछ समय बाद पता चला कि इसमें उनकी ही बिरादरी अर्थात साधु समाज के ही एक महंत देवराम दास वेदांती का हाथ था. हमले से कुछ समय पहले ही नृत्य गोपाल दास ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए वेदांती को राम वल्लभ मंदिर के महंत पद से बर्खास्त करवा दिया था. कहा गया कि इसी का बदला लेने के लिए वेदांती ने नृत्य गोपाल पर हमला करवाया.
‘मेरे ही मंदिर में मुझे घुसने नहीं दे रहे’
जून, 2002 की बात है. अयोध्या के रंग निवास मंदिर के 80 वर्षीय महंत रामरूप दास ने अपनी जगह अपने सबसे योग्य शिष्य रघुनाथ दास को महंत बना दिया. रंग निवास मंदिर के बिहार के समस्तीपुर में भी कई मंदिर हैं. शिष्य रघुनाथ को अयोध्या का जिम्मा सौंपने के बाद रामरूप दास समस्तीपुर जाकर वहां के मंदिर की देखरेख करने के उद्देश्य से वहां चले गए. पांच महीने ही हुए थे कि उन्हें रघुनाथ की मौत की खबर मिली. खबर सुनकर भागे-भागे रामरूप दास अयोध्या पहुंचे. उन्होंने देखा कि हथियारबंद नागा साधुओं ने मंदिर को चारों तरफ से घेर रखा है.
तब से आज तक वे अपने मंदिर में नहीं घुस सके. अब वे पास के एक मंदिर में अपने एक परिचित के यहां शरण लिए हुए हैं. बातचीत करने की कोशिश में वे बिलख कर रो पड़ते हैं. पास खड़े अन्य साधुओं के ढाढ़स बंधाने के बाद वे कुछ देर बाद सामान्य हो पाते हैं. कहते हैं, ‘मेरे शिष्य की मृत्यु के बाद स्थानीय भाजपा नेता मनमोहन दास ने मेरे मंदिर पर कब्जा कर लिया. मेरे अपने मंदिर में वे मुझे घुसने नहीं दे रहे हैं. वह कहता है कि मेरे शिष्य के मरने के बाद इस मंदिर के महंत पद पर उसका हक है.’
उधर, मनमोहन दास का दावा है कि रघुनाथ के बाद मंदिर की महंती पर उनका हक है. मनमोहन के मुताबिक रंग निवास मंदिर आने के पहले रघुनाथ दास हनुमानगढ़ी में उसके गुरु सत्यनारायण दास का शिष्य था. इस तरह वे दोनों गुरुभाई हुए और गुरुभाई की मृत्यु के बाद महंती पर उनका अधिकार है.
उधर, रामरूप कहते हैं, ‘मैं दशकों इस मंदिर का महंत रहा हूं. मैंने अपना उत्तराधिकार अपने शिष्य को दिया था. अब वह नहीं रहा. मैं जीवित हूं तो फिर महंती स्वाभाविक रुप से मेरे पास वापस आ जाती है.’ रामरूप अपने शिष्य की मृत्यु को स्वाभाविक नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘मेरे शिष्य की उम्र 45 साल से भी कम थी. मुझे तो आज तक पता नहीं चला कि उसकी मौत कैसे हुई. वह मेरे साथ सालों से था. स्वस्थ और तंदुरुस्त था. मुझे शक है कि कहीं उसकी हत्या तो नहीं की गई है.’
कहानी यहीं खत्म नहीं होती. जब अपने मंदिर से निकाले गए रामरूप दास पागलों की तरह तमाम साधु-महंतों के यहां अपने साथ हुई त्रासदी की पीड़ा बयान कर रहे थे तो उसी समय उनसे अयोध्या के युवा संत अर्जुन दास ने संपर्क किया और कहा कि वह उनकी मदद कर सकता है. लेकिन इसके लिए पैसे खर्च करने होंगे. वे तैयार हो गए. कुछ दिन बाद ही अर्जुन दास को रामरूप दास ने अपना उत्तराधिकारी बना दिया. रामरूप दास कहते हैं, ‘वे बहुत शक्तिशाली लोग हैं. मैं उनसे नहीं लड़ पाता. न मेरे जीवन में इतना समय बचा है कि लड़ाई कर सकूं और न मैं दांव- पेंच जानता हूं. अर्जुन ने मेरी मदद करने के लिए कहा तो मैंने स्वीकार कर लिया. अब वही मेरा उत्तराधिकारी है.’
इधर मनमोहन ने मंदिर को अपने कब्जे में लेने के बाद उसे विश्व हिंदू परिषद से जुड़े साधु राजकुमार दास को दे दिया, जिसके खिलाफ हत्या के कई मामले चल रहे हैं. रंग निवास मंदिर का मामला कोर्ट में है और फिलहाल पूरे परिसर को पुलिस ने अपने कब्जे में ले रखा है.
महंत देवराम दास वेदांती का खुद का किस्सा भी कालिखमय है. वेदांती को
1995 में पुलिस ने एक नाबालिग लड़की के साथ बिहार में भागलपुर के एक होटल
से गिरफ्तार किया था. वेदांती पर उस लड़की को अगवा करने का आरोप था. उस समय
पुलिस ने वेदांती के पास से एक स्पैनिश पिस्तौल भी बरामद की थी.जून, 2002 की बात है. अयोध्या के रंग निवास मंदिर के 80 वर्षीय महंत रामरूप दास ने अपनी जगह अपने सबसे योग्य शिष्य रघुनाथ दास को महंत बना दिया. रंग निवास मंदिर के बिहार के समस्तीपुर में भी कई मंदिर हैं. शिष्य रघुनाथ को अयोध्या का जिम्मा सौंपने के बाद रामरूप दास समस्तीपुर जाकर वहां के मंदिर की देखरेख करने के उद्देश्य से वहां चले गए. पांच महीने ही हुए थे कि उन्हें रघुनाथ की मौत की खबर मिली. खबर सुनकर भागे-भागे रामरूप दास अयोध्या पहुंचे. उन्होंने देखा कि हथियारबंद नागा साधुओं ने मंदिर को चारों तरफ से घेर रखा है.
तब से आज तक वे अपने मंदिर में नहीं घुस सके. अब वे पास के एक मंदिर में अपने एक परिचित के यहां शरण लिए हुए हैं. बातचीत करने की कोशिश में वे बिलख कर रो पड़ते हैं. पास खड़े अन्य साधुओं के ढाढ़स बंधाने के बाद वे कुछ देर बाद सामान्य हो पाते हैं. कहते हैं, ‘मेरे शिष्य की मृत्यु के बाद स्थानीय भाजपा नेता मनमोहन दास ने मेरे मंदिर पर कब्जा कर लिया. मेरे अपने मंदिर में वे मुझे घुसने नहीं दे रहे हैं. वह कहता है कि मेरे शिष्य के मरने के बाद इस मंदिर के महंत पद पर उसका हक है.’
उधर, मनमोहन दास का दावा है कि रघुनाथ के बाद मंदिर की महंती पर उनका हक है. मनमोहन के मुताबिक रंग निवास मंदिर आने के पहले रघुनाथ दास हनुमानगढ़ी में उसके गुरु सत्यनारायण दास का शिष्य था. इस तरह वे दोनों गुरुभाई हुए और गुरुभाई की मृत्यु के बाद महंती पर उनका अधिकार है.
उधर, रामरूप कहते हैं, ‘मैं दशकों इस मंदिर का महंत रहा हूं. मैंने अपना उत्तराधिकार अपने शिष्य को दिया था. अब वह नहीं रहा. मैं जीवित हूं तो फिर महंती स्वाभाविक रुप से मेरे पास वापस आ जाती है.’ रामरूप अपने शिष्य की मृत्यु को स्वाभाविक नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘मेरे शिष्य की उम्र 45 साल से भी कम थी. मुझे तो आज तक पता नहीं चला कि उसकी मौत कैसे हुई. वह मेरे साथ सालों से था. स्वस्थ और तंदुरुस्त था. मुझे शक है कि कहीं उसकी हत्या तो नहीं की गई है.’
कहानी यहीं खत्म नहीं होती. जब अपने मंदिर से निकाले गए रामरूप दास पागलों की तरह तमाम साधु-महंतों के यहां अपने साथ हुई त्रासदी की पीड़ा बयान कर रहे थे तो उसी समय उनसे अयोध्या के युवा संत अर्जुन दास ने संपर्क किया और कहा कि वह उनकी मदद कर सकता है. लेकिन इसके लिए पैसे खर्च करने होंगे. वे तैयार हो गए. कुछ दिन बाद ही अर्जुन दास को रामरूप दास ने अपना उत्तराधिकारी बना दिया. रामरूप दास कहते हैं, ‘वे बहुत शक्तिशाली लोग हैं. मैं उनसे नहीं लड़ पाता. न मेरे जीवन में इतना समय बचा है कि लड़ाई कर सकूं और न मैं दांव- पेंच जानता हूं. अर्जुन ने मेरी मदद करने के लिए कहा तो मैंने स्वीकार कर लिया. अब वही मेरा उत्तराधिकारी है.’
इधर मनमोहन ने मंदिर को अपने कब्जे में लेने के बाद उसे विश्व हिंदू परिषद से जुड़े साधु राजकुमार दास को दे दिया, जिसके खिलाफ हत्या के कई मामले चल रहे हैं. रंग निवास मंदिर का मामला कोर्ट में है और फिलहाल पूरे परिसर को पुलिस ने अपने कब्जे में ले रखा है.
हनुमानगढ़ी अयोध्या का सबसे बड़ा मंदिर है. यहां करीब 700 नागा वैरागी साधु रहते हैं. हनुमानगढ़ी के हिस्से भी अयोध्या में हुए अपराधों का एक बड़ा हिस्सा दर्ज है. 1984 में यहां के महंत हरिभजन दास को उन्हीं के शिष्यों ने गोली मार दी थी. 1992 में यहां गद्दीनशीन महंत दीनबंधु दास पर कई बार जानलेवा हमले हुए. लगातार हो रहे हमलों से वे इतने परेशान हुए कि गद्दी छोड़ कर अयोध्या में गुमनामी का जीवन बिताने लगे. सितंबर, 1995 में मंदिर परिसर में ही एक साधु नवीन दास ने अपने चार साथियों के साथ मिलकर गढ़ी के ही महंत रामज्ञा दास की हत्या कर दी थी. 2005 में दो नागा साधुओं ने किसी बात को लेकर एक-दूसरे पर बमों से हमला कर दिया था जिसमें दोनों को गंभीर चोटें आईं. 2010 में गढ़ी के एक साधु बजरंग दास और हरभजन दास की किसी ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.
हनुमानगढ़ी के महंत प्रहलाद दास जब तक जीवित रहे तब तक उनकी पहचान लंबे समय तक ‘गुंडा बाबा’ के रूप में बनी रही. कारण यह था कि प्रहलाद पर फैजाबाद स्थानीय प्रशासन ने गुंडा एक्ट लगाया था. प्रहलाद पर हत्या समेत दर्जनों गंभीर अपराध दर्ज थे. 2011 में प्रहलाद दास की साधुओं के एक गैंग ने गोली मारकर हत्या कर दी.
यह तो हुई साधुओं के आपसी झगड़ों की बात. अयोध्या में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए साधुओं की भी एक लंबी सूची है. पिछले साल ही हनुमानगढ़ी के संत हरिनारायण दास को पुलिस ने गोंडा के पास मुठभेड़ में मार गिराया था. हरिनारायण पर हत्या समेत कई अपराधों में शामिल होने का आरोप था. महंत रामप्रकाश दास 1995 में अयोध्या के बरहटा माझा इलाके में पुलिस की गोली से मरे थे. कई आरोपों से घिरे साधु रामशंकर दास भी पुलिस की गोली से मारे गए. पुलिस के सूत्र बताते हैं कि पिछले एक दशक में ही अयोध्या में 200 से अधिक संत-महंत मारे गए हैं.
क्यों चलते हैं संत अपराध की राह
संतों द्वारा अपराध करने के कई कारण हैं. जानकारों के मुताबिक सबसे बड़ा कारण है महंत बनने का लालच. वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह कहते हैं,‘आज अयोध्या के बुजुर्ग महंत डरे हुए हैं, उन्हें भय है कि पता नहीं किस दिन गद्दी हथियाने के लिए उनका चेला ही उनकी हत्या ना कर दे.’ साधु रामनारायण दास कहते हैं, ‘शिष्यों को आज इतनी जल्दी है कि महंत जी की सांस से पहले उनके सब्र का बांध टूट रहा है. वे खुद ही उन्हें परलोक पहुंचा दे रहे हैं. सभी को जल्द से जल्द महंत बनना है.’ अयोध्या में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें शिष्यों ने अपने गुरुओं को वास्तव में रास्ते से हटा दिया. ऐसे भी मामले हैं कि शिष्य ने गुरु को मृत दिखाकर धोखे से उनकी गद्दी हथिया ली. कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जहां शिष्यों ने महंत की गद्दी हथियाने के लिए गुरु को जबरन मंदिर से बाहर कर दिया.
जानकी घाट, बड़ा स्थान के महंत मैथिली रामशरण दास की सड़ी हुई लाश उनके कमरे में पाई गई थी. उनकी हत्या का आरोप उनके ही शिष्य जन्मेजय शरण पर है जो अब महंत बन गए हैं. रामखिलौना मंदिर की कथा भी कुछ ऐसी ही है. श्री बिदेहजा दुल्हा कुंज के साधु बिमला बिहारी शरण कहते हैं, ‘इस मंदिर के महंत पर उनके शिष्य शंकर दास ने दबाव डालकर मंदिर की महंती अपने नाम करा ली. उसके बाद उसने धक्का मारकर अपने गुरु को मंदिर के बाहर निकाल दिया. बेचारे गुरूजी अगले 10 साल तक सरयू के किनारे भीख मांगकर अपना गुजारा करते रहे.’
ऐसे भी उदाहरण हैं जहां गुरु कुछ समय के लिए अयोध्या से बाहर क्या गया, चेले ने गुरु के मरने की अफवाह फैलाकर मंदिर और महंतई पर कब्जा कर लिया. यही नहीं, उसने गुरूजी की याद में मृत्युभोज तक दे दिया. गुरु जब वापस आए तो कोई यह मानने को तैयार ही न था कि वे जिंदा हैं. (देखें बॉक्स)
दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह बताते हैं कि अयोध्या में ऐसे महंत बड़ी संख्या में हैं जिन्होंने अपने गुरु की हत्या करके वह पद पाया है. अयोध्या के साधुओं में बढ़ती इस आपराधिक प्रवृत्ति पर वे कहते हैं,‘ जिस तरह से समाज में मान-सम्मान का आधार पैसा और सत्ता हो गया है, उससे ये साधु भी अछूते नहीं हैं. उन्हें भी सत्ता चाहिए, पैसा चाहिए और वह भी जल्द से जल्द. इन साधुओं ने भगवा चोला पहन रखा है, दाढ़ी बढ़ा ली है, टीका लगा लिया है लेकिन इससे ही कोई संन्यासी नहीं हो जाता. मन तो उनका मैला ही है.’
महंत बनने को लेकर कहीं शिष्यों की अपने गुरु से लड़ाई है तो कहीं महंत और मंदिर पर अपना एकाधिकार स्थापित करने को लेकर गुरुभाइयों (गुरु के शिष्य) में भी संघर्ष हो रहा है. ऐसी ही एक घटना ने कुछ साल पूर्व पूरी अयोध्या को दहला दिया था. महंत स्वामी सुदर्शनाचार्य मुमुक्षु भवन के महंत हुआ करते थे. एक दिन अचानक वे मंदिर से गायब हो गए. काफी खोजबीन हुई लेकिन सब बेकार. गुरु की अनुपस्थिति में उनके एक शिष्य जीतेंद्र पाण्डेय मंदिर के महंत बने. अभी जीतेंद्र को महंत बने महीना भर भी नहीं बीता था कि एक दिन सुबह जीतेंद्र भी मंदिर से गायब पाए गए. लेकिन वे स्वामी सुदर्शनाचार्य की तरह अकेले गायब नहीं हुए थे बल्कि अपने साथ मंदिर का पूरा सोना-चांदी और पैसा लेकर चंपत हो गए थे.
खैर, महंत स्वामी सुदर्शनाचार्य के भाई हरिद्वार से अपने भाई के गायब होने की खबर सुनकर मंदिर आए. यहां आकर उन्होंने मंदिर में कुछ निर्माण कार्य कराना शुरू किया. एक दिन उन्होंने सीवर टैंक की साफ-सफाई करने के लिए मजदूरों को बुलाया. टैंक खोला गया तो उसमें ताजी सूखी मिट्टी भरी थी. उन्हें संदेह हुआ कि मिट्टी के नीचे कुछ है. उन्होंने तत्काल पुलिस को सूचना दी. पुलिस ने मिट्टी हटवाई तो उसमें से दो लोगों की लाशें मिलीं. लाशों को कई टुकड़ों में काटकर ठिकाने लगाया गया था. उनमें से एक दो महीने से गायब चल रहे महंत सुदर्शनाचार्य की लाश थी तो दूसरी उनकी शिष्या की. वर्तमान में मंदिर के महंत रामचंद्र आचार्य जो जीतेंद्र पाण्डेय के गुरुभाई थे, कहते हैं, ‘पुलिस ने जीतेंद्र को कुछ समय बाद गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ में उसने स्वीकारा कि उसने ही भाड़े के गुंडों से महंत जी की हत्या करवाई थी. शिष्या की हत्या उसने इसलिए की क्योंकि वह गुरु जी की हत्या की गवाह थी. जीतेंद्र महंत बनने के लिए बेचैन था. उसे यह भी डर था कि कहीं महंत जी मुझे अपना उत्तराधिकारी न बना दें. महंत बनने के लालच ने उसे पागल बना दिया.’ राम जन्मभूमि मंदिर के सहायक पुजारी रहे रामचंद्र बताते हैं कि अयोध्या में महंती के लिए हत्या आम बात हो चुकी है.
लेकिन महंत बनने की लालसा साधुओं के अपराध करने का अकेला कारण नहीं है. अयोध्या में ऐसे मामलों की भी भरमार है, जहां दूसरे के मंदिर पर कब्जा करने और अपने आदमी को महंत बनाने के लिए तरह-तरह के आपराधिक षड़यंत्र रचे जा रहे हैं. ऐसा ही एक मामला रंग निवास मंदिर का है, जहां साधुओं के एक समूह ने एक महंत को उसके अपने मंदिर में ही घुसने से रोक दिया. दशकों तक उस मंदिर का महंत रहा यह व्यक्ति आज अयोध्या में दर-दर की ठोकरें खा रहा है. (देखें बॉक्स-3)
ऐसा नहीं है कि संत समाज द्वारा अयोध्या में महंतों के चयन का कोई तरीका नहीं निकाला गया है. महंतों के चयन को लेकर पहले से ही परंपरा मौजूद है. सामान्य प्रक्रिया तो यह है कि महंत अपने जीते जी किसी शिष्य को महंत बना दे या यह कह दे कि उसके बाद अमुक शिष्य ही उसका उत्तराधिकारी होगा. अगर ऐसा नहीं होता तो अयोध्या के संतों की एक समिति उस मंदिर के लिए अगले महंत का चुनाव करती है. इसमें अयोध्या के अलग-अलग मठ-मंदिर के संत-महंत होते हैं.
यहीं से तो लॉबीइंग या लामबंदी की शुरुआत होती है. एक तरफ तमाम संत महंत बनने के लिए समिति के महंतों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं तो दुसरी तरफ समिति के सदस्य अर्थात महंत अपने किसी विश्वासपात्र को उस मंदिर का महंत बनाने के लिए जोड़-तोड़ शुरू कर देते हैं, ताकि अयोध्या में उनके प्रभाव का और विस्तार हो सके. इस प्रक्रिया में साम दाम दंड भेद, हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं.
अयोध्या निवासी एक ठेकेदार अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘मेरे एक मित्र हैं जो अयोध्या के एक मंदिर में संत थे. उनके गुरु जी का देहांत हो गया. गुरु जी ने अपने मरने से पहले किसी भी शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था. सो अब मामला संतों की कमिटी के पास चला गया. महंत नियुक्त करने के लिए समिति बनी जिसमें चार सदस्य थे. मेरे साधु मित्र ने मुझसे संपर्क किया और महंत बनने की अपनी इच्छा प्रकट की. हालांकि उस समय मंदिर में उनसे वरिष्ठ और कई संत थे. खैर, जो समिति महंतों की नियुक्ति के लिए बनी थी. उसके दो सदस्य मेरे साधु मित्र के पक्ष में थे. बाकी दो विरोध में. ऐसे में उन दोनों में से किसी एक को भी तोड़ लिया जाता तो उनका काम हो जाता.’
वे आगे बताते हैं, ‘मैंने उस दिशा में काम करना शुरू किया. उस समय नोकिया का नया-नया मोबाइल फोन आया था. उन दिनों अयोध्या के किसी साधु के पास मोबाइल नहीं था. मैं एक मोबाइल खरीदकर कमिटी के सदस्य और विरोध में चल रहे महंत के पास गया और कहा, ‘महाराज जी, इस मोबाइल के सिर्फ पांच सेट भारत आए हैं. छठा मैंने विदेश से खास आपके लिए मंगाया है. आप भारत में छठे आदमी होंगे जिसके पास ये मोबाइल है.’ महाराज जी ने पहले तो थोड़ा संदेह से देखा फिर अपने हाथों में लेकर सेट को उलटने-पलटने लगे. फिर अपने सिरहाने रख लिया. थोड़ी देर बाद गंभीर होकर कहा, ‘काम बताओ?’ मैंने उनसे कहा, ‘महाराज जी, ‘शंभुदास (बदला हुआ नाम) वहां के महंत बनना चाहते हैं, आपका आशीर्वाद चाहिए. बाबा मोबाइल को एक नजर देखने के बाद उठे और बोले इससे भी बढ़िया वाला आए तो लेते आना. इतना कहकर वे संतों की मीटिंग में चले गए जहां महंत का चुनाव होना था. मीटिंग में तीन-एक से मेरे साधु मित्र के पक्ष में प्रस्ताव पास हो गया. वे महंत बन गए.’
‘उन साधुओं ने बहन को मार दिया, हमारी आंख फोड़ दी’
12 नवंबर, 1998. सुबह के छह बजे का वक्त था. फैजाबाद शहर से पांच किमी दूर गुप्तार घाट के पास रहने वाले मोहन निषाद की नींद गोलियों की आवाज और लोगों की चीख-पुकार से खुली. बाहर जाकर देखा तो उन्हें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ. मल्लाहों के इस गांव में चार साधु हाथों में बंदूक लिए हुए घूम रहे थे. उनके सामने जो भी पड़ता वे उसे गोली मारते हुए आगे बढ़ जाते. मोहन कहते हैं, ‘एक साधु ने ढोडे निषाद को गोली मारी और वह जमीन पर गिर गया तो उसने अपनी तलवार से उसके हाथ काट दिए.’ रामजी निषाद और लालजी निषाद नाम के दो भाई भी इन साधुओं के सामने पड़े. वे भी गोली का शिकार हुए. गोली लालजी की आंख में लगी. उनकी आंख फूट गई. रामजी को लगी गोली उनकी बाईं आंख छूकर निकल गई और उनकी भी उस आंख की रोशनी चली गई. राम जी और लालजी की 15 वर्षीया बहन को भी बाबाओं ने गोली मारी. उसकी मौके पर ही मौत हो गई. उसी हमले में सुग्रीव निषाद को भी हाथ में गोली लगी. साधुओं द्वारा मचाए गए उस कत्लेआम में चार लोग मारे गए. दर्जन भर से अधिक लोग बेहद बुरी तरह घायल हुए थे.
गांव के ही झिंगुर निषाद कहते हैं, ‘वे पांचों हत्यारे गुप्तार घाट स्थित यज्ञशाला पंचमुखी हनुमान मंदिर के साधु थे. मौनीबाबा मंदिर का महंत था. घटना होने के कुछ समय पहले से उसने मछुवारों की इस बस्ती के लोगों को कहना शुरू कर दिया था कि तुम लोग जिस जमीन पर बसे हो वह मंदिर की है, इसे खाली कर दो.’ मोहन कहते हैं, ‘वे साधु लगभग रोज बंदूक और हथियारों के साथ बस्ती में आते और लोगों को बस्ती खाली नहीं करने पर अंजाम भुगतने की धमकी देकर जाते.’
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