बुधवार, 13 जून 2012

Hindu Dhram la hi
"हिन्दू धर्म,धर्म ही नहीं है"-ये शीर्षक मैंने इसलिए रखा है कि धर्म का कोई नाम होता ही नहीं है।धर्म तो कर्म या कर्तव्य होता है।जैसे अगर कोई स्त्री अपने पति के प्रति एकनिष्ठ होती है तो इसे पतिव्रता-धर्म कहते हैं।एक पुत्र का अपने पिता के प्रति जो कर्त्तव्य होता है उसे पितृ-धर्म कहते है।राष्ट्र के प्रति जो कर्त्तव्य होता है उसे राष्ट्र-धर्म कहते हैं।धर्म कर्तव्य का ही दूसरा नाम है।कर्तव्य अनंत हैं।हरेक तरह के कर्तव्य का अलग-अलग नाम होता है तो फिर धर्म को कोई एक नाम कैसे दिया जा सकता है???हमारे ग्रन्थों में तो हर जगह धर्म के नाम पर कर्तव्य की ही बात की गई है;पूजा-पाठ की नहीं,फिर लोग इतने भटक कैसे गए!!!?।जैसे-सीता जी पर जब सारी प्रजा संदेह करने लगे और उसे त्यागने की बात करने लगे तो राम जी अपने गुरु वशिष्ठ जी के पास गए और उनसे पूछते हैं कि उनका धर्म क्या है?वो अपना राजा होने का धर्म निभाएँ या पति होने का।कुछ लोग राम जी पर एक अयोग्य और अन्यायी पति होने का दोष देते हैं पर वे यह नहीं जानते कि उस समय उनके लिए राज्य-धर्म,पत्नी धर्म से बढ़कर था जिसे निभाना पड़ा उन्हें।जो सीता उन्हें प्राणों से भी प्रिय थी उसे धर्म की खातिर त्यागना पड़ा उन्हें।

दूसरा सबसे अच्छा उदाहरण देखिए---अर्जुन को जब अपनों का मोह होता है तो वो युद्ध छोडकर सन्यास धारण करने की बात करता है।अब जरा सोचिए कि जो व्यक्ति राज्यसुख त्यागकर भिक्षा मांगकर साधु-सन्यासी बनना चाहता है तो ये बात तो धर्म के अंतर्गत आनी चाहिए पर उल्टे ये बात अधर्म और पाप बन जाता है उस समय।तब अर्जुन कहते हैं कि- हे केशव!बताईए कि इस समय मेरा धर्म क्या है?तब कृष्ण जी कहते हैं कि क्षत्रिय का धर्म युद्ध करना है।लोग सोचते हैं कि तपस्वी बनना सबसे बड़ा पुण्य का काम है और हिंसा करना पाप का पर यहाँ तो बात बिलकुल उल्टी है।इसलिए धर्म को कोई नाम नहीं दिया जा सकता।इसीकारण हमारे भारत-वर्ष में धर्म का कोई नाम नहीं था।इसे नाम तो अज्ञानी विदेशियों ने दिया।जरा सोचिए कि जिस भातीयों ने पूरी दुनिया का नामकरण किया उसने अपने धर्म को कोई नाम क्यों नहीं दिया था??सिंधु किनारे बसने के कारण भारतीयों को वे लोग हिन्दू कहने लगे और भारतीयों के हरेक कर्म को उसने एक हिन्दू-धर्म का नाम दे दिया।इस्लाम धर्म सिर्फ कुराण और मुहम्मद तक ही सीमित है।ईसाई के अनुसार सिर्फ बाईबिल में विश्वास कर लिया तो स्वर्ग और नहीं किया तो नरक।यानि बस एक बाइबिल पर विश्वास करके धर्म का काम कर लो बाँकी चोरी-डकैती लूट-पाट जो करना है करते रहो,सब सही है।इस्लाम के अनुसार भी धर्म बस मुहम्मद और कुराण पर विश्वास करना ही है।यानि कुरान पर विश्वास करके तो धर्म का काम पूरा हो ही गया।अब तो कुछ बचा नहीं इसलिए अपनी बिरादरी को बढ़ाने के लिए चोरी-बलात्कार,हिंसा आदि करते रहो कोई फर्क नहीं पड़ेगा।चूंकि इनलोगों का धर्म बाइबिल या कुरान तक ही सीमित था इसलिए अपनी अत्यंत छोटी बुद्धि का परिचय देते हुए इनहोंने मानव-धर्म को पूजा-पाठ करने तक सीमित करके उसे हिन्दू धर्म का नाम दे दिया और दुख इस बात का है कि अब तक भारतीय अंग्रेजों और मुसलमानों की उसी छोटी बुद्धि में जकड़े हुए है।

मैं यह बात फिर से कह रहा हूँ कि धर्म को ना तो कोई पुस्तक तक सीमित किया जा सकता है ना ही कोई नाम दिया सकता है।धार्मिक पुस्तकें बस मार्गदशन कर सकती हैं।कुराण-बाइबिल जैसी एक-दो की बात तो क्या हजार पुस्तकों में भी धर्म को नहीं बांधा जा सकता।धर्म को अगर बांधा जा सकता है तो भावनाओं में।अच्छी और परोपकारी भावना धर्म तथा दूसरों को क्षति पहुंचाने वाली भावना अधर्म।कहा जाता है कि जब व्यास ने 18 पुराणों की रचना की और नारद को उसे लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा तो नारद जी ने उतनी सारी पुस्तकें पढ़ने से मना कर दी और उसका सार पूछ लिया।तो व्यास जी ने कहा कि परोपकार करना धर्म है,पुण्य है और दूसरों को किसी प्रकार हानि पहुंचाना अधर्म या पाप है,बस यही इन पुस्तकों का सार है।

निस्वार्थ कर्म करना धर्म है जो मोक्ष देने वाला होता है।अपने कर्त्तव्य को बिना अपने लाभ-हानि की चिंता किए निभाना ही धर्म है ।अपने कर्तव्य को बिलकुल निःस्वार्थ भाव से करना यानि की उस कर्म में मोक्ष प्राप्ति का भी स्वार्थ नहीं होना चाहिए।कर्म बिलकुल निःस्वार्थ होना चाहिए।जैसे कि भीष्म जी ने किया था।जीवन भर निःस्वार्थ होकर सारे दुःख दूसरों के लिए सहते रहे और मोक्ष को प्राप्त हुए।उन्होंने जो किया वो एक कठिन तपस्या से कम नहीं था।

जरा सोचिए आज भारत में इतना भ्रष्टाचार क्यों है?स्वार्थ की वजह से ही ना?अगर सब धर्म का सही अर्थ समझ लें और निःस्वार्थ होकर अपना कर्त्तव्य निभाने लगें तो क्या ये भारत स्वर्ग नहीं बन जाएगा?

सारे धर्मों में राष्ट्र-धर्म सबसे बड़ा धर्म होता है।कितना अच्छा होता कि भारत में सबका एक ही धर्म होता राष्ट्र-धर्म यानि भारत-धर्म।एक ही जाती होती भारतीय जाति।एक देश,एक धर्म,एक जाति।सारा झगड़ा ही खत्म हो जाता।

कोई ना कोई कर्म ही धर्म या अधर्म कहलाता है और हिन्दू किसी प्रकार का कोई कर्म नहीं है इसलिए हिन्दू कोई धर्म नहीं है।हिन्दू तो भारत में रहने वाले लोग हैं।यानि हिन्दू का अर्थ भारतीय है।भारत के रहने वाले सारे लोग हिन्दू कहलाने चाहिए ना कि मूर्ति-पूजक लोग।इस सिद्धान्त से भारत में रहने वाले लोग चाहे वो मुसलमान हों या ईसाई हों सबको हिंदु की संज्ञा देनी चाहिए और उन्हें हिंदु कहकर ही संबोधित करना चाहिए।चूंकि मेरे अनुसार तो धर्म का कोई नाम नहीं हो सकता है इसलिए मुसलमान या ईसाई भी मेरे लिए कोई धर्म नहीं है एक संप्रदाय है।और हिंदु वो संप्रदाय है जो भारतीयों की सभ्यता-संस्कृति का प्रतीक है।हम हिंदुओं को अपने आपको एक भारतीय समझना चाहिए ना कि हिंदु धर्म वाले लोग।विदेशी तो हम भारतीय को अलग-अलग धर्म-संप्रदाय में बांटेंगे ही पर ये हमलोगों का कर्तव्य है कि हम अपने आपको ना भूलें।अपने आपको पहचानना हमारा अपना कर्तव्य है।भारत की सारी परंपरा,हर तरह के रीति-रिवाज,कर्म-काण्ड,सोच-विचार,चाल-ढाल पहनावा-ओढ़ावा सब एक हिंदु में समाहित होता है।एक हिंदु ही भारत का प्रतिनिधित्व करता है,कोई मुसलमान या ईसाई नहीं।मुसलमान अरब देश का प्रतिनिधित्व करता है और ईसाई पश्चिमी देशों का।हिंदु और भारतीय दोनों शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं।हिंदु यानि भारतीय।धर्म के नाम पर लोगों को मुसलमानों ने और ईसाईयों ने बाँटा।उसके बाद भारत देश को हिंदु के बदले धर्म-निरपेक्ष देश कहकर गांधी ने बाँटा।कोई भी कर्म या तो धर्म होता है या अधर्म।धर्म-निरपेक्ष का कोई अर्थ नहीं है।आपने चोरी की तो अधर्म या ना किया तो धर्म।

फिर धर्म-निरपेक्ष का मतलब क्या???धर्म के बाद सिर्फ अधर्म ही बचा रहता है।धर्म-निरपेक्ष अधर्म का ही पर्याय है।धर्म-निरपेक्ष शब्द धर्म को जबर्दस्ती घुसेड़ देता है समाज में क्योंकि निरपेक्षता की बात तब आती है जब धर्म की बात की जाएगी।यानि जब भी धर्म की बात आएगी तभी धर्म-निरपेक्षता की बात आएगी और इस धर्म-निरपेक्ष में धर्म किसी कर्म का प्रतिनिधित्व ना करके हिंदु,मुसलमान और ईसाई आदि संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।यानि धर्म-निरपेक्ष शब्द लोगों को हिंदु-मुसलमान आदि संप्रदायों में बांटते हैं।इस सिद्धान्त से धर्म-निरपेक्ष का नारा लगाने वाले सब मूर्ख हैं ,अधार्मिक अर्थात पापी हैं और देश को तोड़ने वाले देश-द्रोही हैं।अतः धर्म-निरपेक्षता का नारा लगाने वाले देश के दुश्मनों को कटघरे में खड़ा कर देना चाहिए।भारत धर्म-निरपेक्ष की बजाय एक धार्मिक देश होता तो धर्म के नाम पर इतनी हिसा ना हुई होती।

अंत में मैं सबसे यही कहना चाहूँगा कि विदेशी जिसे भी धर्म का नाम दें या जिस चीज को भी हिंदु धर्म समझें पर आप जरूर समझने का प्रयास करिए कि धर्म क्या है।पूजा-पाठ,ध्यान-साधना,ईश-भक्ति आदि धर्म का एक हिस्सा है धर्म नहीं।

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