व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून से सधेंगे दीर्घकालीन हित
• डॉ. दर्शन सिंह भूपाल
कु छ ही दिनों में हम 62 वां गणतंत्र दिवस धूमधाम से मनाएंगे, इस दिन हम भारत के लोगों ने अपने लिए अपना संविधान तैयार करके लागू किया। संविधान में हमने अपने-आपको कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं। उनमें से एक है जीने का अधिकार। जीवित रहना बिना आवश्यक भोजन के भी सम्भव हो सकता है, ऐसा कौन सोच सकता है? अगर इस अधिकार के लिए लोग लड़ नहीं सकते या अदालत नहीं गए तो इसका अर्थ ये नहीं की वे इस अधिकार से वंचित किए जा सकते है। यह मसला तो मानवाधिकार का भी है। हर सरकार का प्रमुख कर्तव्य अपने नागरिकों की जान-माल की सुरक्षा करना होता है। बाकी सब अधिकार बाद में आते हैं। चाहे वो विचार की आजादी हो, निजता का अधिकार हो, या राजनीतिक अधिकार हों। जान-माल में भी पहला स्थान जान का है, माल की सुरक्षा बाद में आती है। वैसे भी जब हर दूसरा व्यक्ति गरीबी रेखा पर जीवनयापन कर रहा हो तो हम किस मुंह से विश्व शक्ति होने का दावा कर सकते हैं। योजना आयोग की 26 रुपए रोजाना कमाने की सीमा पर भी 41 फीसद लोग हों, या हर दूसरा बच्चा कुपोषण के कारण अमूल्य जीवन खोने को मजबूर हो, या ऐसे मरने वाले बच्चों की रोजाना संख्या 3000 हो, जिनकी जान हम चाहें तो आसानी से बचा सकते हैं।
मूल सुविधाएं
आज से ठीक 50 वर्ष पहले, 1961 में, मद्रास के मुख्यमंत्री के. कामराज ने कोव्ल्पत्ति में चिदंबरम स्मृति भवन का उद्घाटन करते हुए कहा था कि लोगों को राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिली मगर सरकार की जिम्मेदारी है कि उनको न्यूनतम और मूल सुविधाएं जैसे, खाद्यान्न, कपड़ा, घर और शिक्षा प्रदान करे।
देश को राजनेता 21वीं शताब्दी में ले गए, देश ने खूब तरक्की कर डाली, आठ हजार से ज्यादा अरबपति बन गए, मगर लोगों को ये अधिकार नहीं मिले। भोजन सामग्री इतनी कि भंडार करने की जगह नहीं, मगर देश के आम लोग बड़ी संख्या में खाली पेट सोने को मजबूर, 27 मंजिले भवन इतने आलीशान कि दुनिया जाने, जंगल- पहाड़, सब खोद-खोद कर, रेलवे, रक्षा विभाग की जमीन पर कानूनी-गैरकानूनी व्यापक निर्माण हुआ, मगर लोग फुटपाथों पर ठिठुरने को मजबूर। हम दुनिया को ज्ञान बांटने वाले, आधुनिक तकनीक का स्रोत देश बने मगर आधी आबादी अनपढ़। बच्चे स्कूल, खेल के मैदानों के बजाए घरों, होटलों, खेतों में मजदूरी को मजबूर। बीच-बीच में गरीबी उन्मूलन, 20 सूत्री कार्यक्रम, रोजगार गारंटी योजना, आदि कितने ही कार्यक्रम बने, सुधरे और समय के गर्त में दफन हो गए। रोजगार, शिक्षा, भोजन जीवन के सबसे अहम कारकों की चर्चा देश में पहली बार लोगों के कानूनी अधिकार के रूप में हुई हैं। कानून बनने के बावजूद यह कहना कि तंत्र बेईमान है इसलिए ऐसे उपाय नहीं किए जाने चाहिए, स्वार्थ से ओत प्रोत है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि कुछ ठीकठाक समझदार लोग भी भ्रान्तियों के शिकार हैं।
तर्क-कुतर्क
खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के खिलाफ जो तर्क-कुतर्क सामने आए है उनमें से कुछ इस तरह हैं :-
4 हमारे पास इतने व्यापक स्तर पर इस अधिकार को पूरा करने वाला तन्त्र नहीं है।
4जो तंत्र मौजूद है, वह बेईमान है।
4 उसके लिए देश में उपलब्ध खाद्यान्न पूरा नहीं पड़ेगा।
4 मांग पूरी करने के लिए खाद्यान्न आयात करना पड़ेगा।
4 इस अधिकार को लागू करने से मंहगाई बढ़ेगी।
4 विरोध में इन सबसे भी बड़ी बात यह कही जा रही है कि आर्थिक वृद्धि दर पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
आइए जांचते हैं कि आखिर इन तर्कों की की हकीकत क्या है?—
4 इसमें कोई शक नहीं कि तन्त्र निश्चित रूप से बेईमान है, असहनीय सीमा तक।
4 उसके बावजूद इसे तो इस बात का कोई आधार नहीं बनाया जा सकता कि लोगों को तंत्र बेईमान होने के कारण भूखा मरने दिया जाए।
4 माना कि अधिकारी-कर्मचारी सब भ्रष्ट हैं।
4 अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ, सख्त कानून नहीं बने या जो बने थे उनको ठीक से लागू नहीं किया गया तो इसका मतलब सरकार की जरूरत ही नहीं है।
4 सुरक्षा विभाग की भी जरूरत नहीं है, टेलिकॉम विभाग की भी नहीं।
4 बेईमानी तो देश के बेशकीमती खनिजों के खनन में भी जमकर हो रही है।
4 इसलिए खनन भी बंद कर दूना चाहिए।
और एक उदाहरण लें——हमने वोट बनाने की पूर्ण रूप से वैज्ञानिक पद्धति अपनाई है। चुनाव आयोग पहले मोहल्ला, गली, घर सूचीबद्ध करता है, फिर एक-एक जने का नाम, आयु, लिंग आदि विस्तार से दर्ज करता है।
4 दिल्ली में द्वारका सहकारी समितियों में बसी उप-नगरी है, जहां सोसाइटी, फ्लैट, फ्लैट के बाशिंदे, बिना गलती के सूचीबद्ध होने चाहिए, मगर सूची में महाराजा अग्रसेन सोसाइटी में 150 फ्लैट के बजाए 268 फ्लैट लिखे गए ।
4 फ्लैट नंबर भी ऐसे जिनका वजूद इस सोसायटी में ही नहीं बल्कि आस -पास भी नहीं है। कुल बसावट थी 100 फ्लैट में, लोग, लुगाई, बच्चों समेत थे कुल 500 से कम बाशिंदे, मगर वोट बने एक हजार से भी अधिक।
4 सोसाइटी के रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के प्रेसिडेंट को भी तब पता लगा जब वोटर लिस्ट आई ।
4 आपत्ति के बावजूद लगभग 900 लोग मतदान भी कर आए।
4 बाद में लिखापढ़ी करके सूची में सुधार करवा लिया गया है, मगर बेईमानी के हिसाब से तो चुनाव तन्त्र भी ख़त्म कर देना चाहिए।
इस उदाहरण से साफ है कि आजादी से पहले अंग्रेजों का तर्क सही था कि भारत देश, यहां के लोग आजादी लायक ही नहीं हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज जिस तरह से लोग उठे हैं, और जिस तरह सरकार गतिशील हुई है, उससे साफ लगता है कि हम इस दानव से कम से कम अब तो पीछा जरूर छुड़ा पाएंगे। सूचना के अकेले अधिकार ने ही सरकारी तन्त्र को बुरी तरह हिला दिया है। मजबूत लोकपाल लागू होने प���, जिसका बनना, लागू होना निश्चित जान पड़ता है, भ्रष्टाचार की सर्वव्यापी समस्या से बहुत हद तक छुटकारा मिलेगा।
विचारणीय तथ्य
खाद्य सुरक्षा योजना के लिए खाद्यान्न के पूरा पड़ने पर हो रही शंका का जहां तक सवाल है तो निम्नलिखित मुद्दे विचारणीय हैं : -
4 देश में कुल अनाज का उत्पादन लगभग 24 करोड़ टन से भी ज्यादा हो रहा है।
4 सार्वजानिक वितरण के लिए मात्र करीब छह करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी जो कुल उत्पादित सालाना अनाज के 25 फीसद के आसपास होगा।
4 दूसरे जो अन्न समुचित भंडारण न होने से सड़ता है, उसका भी समय रहते उपयोग हो सकेगा।
4कृषि को गति मिलेगी।
4 मांग सतत होगी तो उत्पादन अपने आप बढ़ेगा।
4 किसानों को अधिक और सतत आय होगी।
4भुखमरी का कलंक दूर होगा।
4कम कुपोषण के शिकार होंगे।
4उससे बीमार भी कम होंगे।
4 उससे चिकित्सा खर्च में कमी आएगी।
4मृत्यु दर घटेगी।
आयात करने का जो प्रश्न है तो अगर हम कृषि में, विशेष तौर पे ढांचागत, सिंचाई, बीज सुधार, तकनीक उन्नत्ति में, जरूरी निवेश बनाए रखते है तो उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
महंगाई
महंगाई बढ़ने की बात के पीछे तर्क यह है कि लोगों को सस्ता अनाज मिलेगा, उनकी आमदनी का भोजन पर खर्च होने वाला हिस्सा कम होगा, बची हुई आमदनी से और चींजे खरीदेंगे जिससे मांग बढ़ेगी, कीमतों में उछाल आएगा। पहली बात तो यह कि मांग में बढ़ोतरी बहुत कम होगी जिसको पूरा किया जा सकता है, क्योंकि बकौल वित्त मंत्री अर्थव्यवस्था में क्षमता है। उत्पादन बढ़ने की सम्भावना बनेगी जिसकी उद्योग को आज सबसे ज्यादा जरूरत है। उससे आर्थिक वृद्धि दर बढ़ने में भी सहायता मिलेगी। दूसरे अगर कीमतों में मामूली वृद्धि हुई तो तात्क��लिक होगी, लम्बी अवधि की नहीं। फिर वर्तमान कीमतों में वृद्धि के कारण तो और है जिनके लिए देश की गरीब जनता कतई जिम्मेवार नहीं। सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि क्या इस तर्क के आधार पर लोगों को भूखा रखा जा सकता है?
वृद्धि दर पर नकारात्मक असर की बात इसलिए की जा रही है कि सरकार को अन्न अवाप्त करना पड़ेगा, जिससे वित्तीय भार पड़ेगा, जिसका असर उद्योगों को मिलने वाली राहत पर पड़ सकता है। उनकी निर्यात छूट में, अनुदान में कमी की जा सकती है, कर भार बढ़ाया जा सकता है, आदि । यह धारणा निर्मूल है, क्योंकि उद्योगों के पास अपनी बात मनवाने, छूट हासिल करने के अनगिनत तर्क हैं। उन पर तो सरकार हमेशा मेहरबान बनी ही रहेगी। हां अगर सस्ता भोजन मिलता है, गरीब की आमदनी में वृद्धि होती है तो उद्योंगो को चिर स्थाई बढ़ी हुई मांग का फायदा स्वत:स्फूर्त होगा, सरकार के ऊपर निर्भर होकर नहीं।
कु छ ही दिनों में हम 62 वां गणतंत्र दिवस धूमधाम से मनाएंगे, इस दिन हम भारत के लोगों ने अपने लिए अपना संविधान तैयार करके लागू किया। संविधान में हमने अपने-आपको कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं। उनमें से एक है जीने का अधिकार। जीवित रहना बिना आवश्यक भोजन के भी सम्भव हो सकता है, ऐसा कौन सोच सकता है? अगर इस अधिकार के लिए लोग लड़ नहीं सकते या अदालत नहीं गए तो इसका अर्थ ये नहीं की वे इस अधिकार से वंचित किए जा सकते है। यह मसला तो मानवाधिकार का भी है। हर सरकार का प्रमुख कर्तव्य अपने नागरिकों की जान-माल की सुरक्षा करना होता है। बाकी सब अधिकार बाद में आते हैं। चाहे वो विचार की आजादी हो, निजता का अधिकार हो, या राजनीतिक अधिकार हों। जान-माल में भी पहला स्थान जान का है, माल की सुरक्षा बाद में आती है। वैसे भी जब हर दूसरा व्यक्ति गरीबी रेखा पर जीवनयापन कर रहा हो तो हम किस मुंह से विश्व शक्ति होने का दावा कर सकते हैं। योजना आयोग की 26 रुपए रोजाना कमाने की सीमा पर भी 41 फीसद लोग हों, या हर दूसरा बच्चा कुपोषण के कारण अमूल्य जीवन खोने को मजबूर हो, या ऐसे मरने वाले बच्चों की रोजाना संख्या 3000 हो, जिनकी जान हम चाहें तो आसानी से बचा सकते हैं।
मूल सुविधाएं
आज से ठीक 50 वर्ष पहले, 1961 में, मद्रास के मुख्यमंत्री के. कामराज ने कोव्ल्पत्ति में चिदंबरम स्मृति भवन का उद्घाटन करते हुए कहा था कि लोगों को राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिली मगर सरकार की जिम्मेदारी है कि उनको न्यूनतम और मूल सुविधाएं जैसे, खाद्यान्न, कपड़ा, घर और शिक्षा प्रदान करे।
देश को राजनेता 21वीं शताब्दी में ले गए, देश ने खूब तरक्की कर डाली, आठ हजार से ज्यादा अरबपति बन गए, मगर लोगों को ये अधिकार नहीं मिले। भोजन सामग्री इतनी कि भंडार करने की जगह नहीं, मगर देश के आम लोग बड़ी संख्या में खाली पेट सोने को मजबूर, 27 मंजिले भवन इतने आलीशान कि दुनिया जाने, जंगल- पहाड़, सब खोद-खोद कर, रेलवे, रक्षा विभाग की जमीन पर कानूनी-गैरकानूनी व्यापक निर्माण हुआ, मगर लोग फुटपाथों पर ठिठुरने को मजबूर। हम दुनिया को ज्ञान बांटने वाले, आधुनिक तकनीक का स्रोत देश बने मगर आधी आबादी अनपढ़। बच्चे स्कूल, खेल के मैदानों के बजाए घरों, होटलों, खेतों में मजदूरी को मजबूर। बीच-बीच में गरीबी उन्मूलन, 20 सूत्री कार्यक्रम, रोजगार गारंटी योजना, आदि कितने ही कार्यक्रम बने, सुधरे और समय के गर्त में दफन हो गए। रोजगार, शिक्षा, भोजन जीवन के सबसे अहम कारकों की चर्चा देश में पहली बार लोगों के कानूनी अधिकार के रूप में हुई हैं। कानून बनने के बावजूद यह कहना कि तंत्र बेईमान है इसलिए ऐसे उपाय नहीं किए जाने चाहिए, स्वार्थ से ओत प्रोत है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि कुछ ठीकठाक समझदार लोग भी भ्रान्तियों के शिकार हैं।
तर्क-कुतर्क
खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के खिलाफ जो तर्क-कुतर्क सामने आए है उनमें से कुछ इस तरह हैं :-
4 हमारे पास इतने व्यापक स्तर पर इस अधिकार को पूरा करने वाला तन्त्र नहीं है।
4जो तंत्र मौजूद है, वह बेईमान है।
4 उसके लिए देश में उपलब्ध खाद्यान्न पूरा नहीं पड़ेगा।
4 मांग पूरी करने के लिए खाद्यान्न आयात करना पड़ेगा।
4 इस अधिकार को लागू करने से मंहगाई बढ़ेगी।
4 विरोध में इन सबसे भी बड़ी बात यह कही जा रही है कि आर्थिक वृद्धि दर पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
आइए जांचते हैं कि आखिर इन तर्कों की की हकीकत क्या है?—
4 इसमें कोई शक नहीं कि तन्त्र निश्चित रूप से बेईमान है, असहनीय सीमा तक।
4 उसके बावजूद इसे तो इस बात का कोई आधार नहीं बनाया जा सकता कि लोगों को तंत्र बेईमान होने के कारण भूखा मरने दिया जाए।
4 माना कि अधिकारी-कर्मचारी सब भ्रष्ट हैं।
4 अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ, सख्त कानून नहीं बने या जो बने थे उनको ठीक से लागू नहीं किया गया तो इसका मतलब सरकार की जरूरत ही नहीं है।
4 सुरक्षा विभाग की भी जरूरत नहीं है, टेलिकॉम विभाग की भी नहीं।
4 बेईमानी तो देश के बेशकीमती खनिजों के खनन में भी जमकर हो रही है।
4 इसलिए खनन भी बंद कर दूना चाहिए।
और एक उदाहरण लें——हमने वोट बनाने की पूर्ण रूप से वैज्ञानिक पद्धति अपनाई है। चुनाव आयोग पहले मोहल्ला, गली, घर सूचीबद्ध करता है, फिर एक-एक जने का नाम, आयु, लिंग आदि विस्तार से दर्ज करता है।
4 दिल्ली में द्वारका सहकारी समितियों में बसी उप-नगरी है, जहां सोसाइटी, फ्लैट, फ्लैट के बाशिंदे, बिना गलती के सूचीबद्ध होने चाहिए, मगर सूची में महाराजा अग्रसेन सोसाइटी में 150 फ्लैट के बजाए 268 फ्लैट लिखे गए ।
4 फ्लैट नंबर भी ऐसे जिनका वजूद इस सोसायटी में ही नहीं बल्कि आस -पास भी नहीं है। कुल बसावट थी 100 फ्लैट में, लोग, लुगाई, बच्चों समेत थे कुल 500 से कम बाशिंदे, मगर वोट बने एक हजार से भी अधिक।
4 सोसाइटी के रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के प्रेसिडेंट को भी तब पता लगा जब वोटर लिस्ट आई ।
4 आपत्ति के बावजूद लगभग 900 लोग मतदान भी कर आए।
4 बाद में लिखापढ़ी करके सूची में सुधार करवा लिया गया है, मगर बेईमानी के हिसाब से तो चुनाव तन्त्र भी ख़त्म कर देना चाहिए।
इस उदाहरण से साफ है कि आजादी से पहले अंग्रेजों का तर्क सही था कि भारत देश, यहां के लोग आजादी लायक ही नहीं हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज जिस तरह से लोग उठे हैं, और जिस तरह सरकार गतिशील हुई है, उससे साफ लगता है कि हम इस दानव से कम से कम अब तो पीछा जरूर छुड़ा पाएंगे। सूचना के अकेले अधिकार ने ही सरकारी तन्त्र को बुरी तरह हिला दिया है। मजबूत लोकपाल लागू होने प���, जिसका बनना, लागू होना निश्चित जान पड़ता है, भ्रष्टाचार की सर्वव्यापी समस्या से बहुत हद तक छुटकारा मिलेगा।
विचारणीय तथ्य
खाद्य सुरक्षा योजना के लिए खाद्यान्न के पूरा पड़ने पर हो रही शंका का जहां तक सवाल है तो निम्नलिखित मुद्दे विचारणीय हैं : -
4 देश में कुल अनाज का उत्पादन लगभग 24 करोड़ टन से भी ज्यादा हो रहा है।
4 सार्वजानिक वितरण के लिए मात्र करीब छह करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी जो कुल उत्पादित सालाना अनाज के 25 फीसद के आसपास होगा।
4 दूसरे जो अन्न समुचित भंडारण न होने से सड़ता है, उसका भी समय रहते उपयोग हो सकेगा।
4कृषि को गति मिलेगी।
4 मांग सतत होगी तो उत्पादन अपने आप बढ़ेगा।
4 किसानों को अधिक और सतत आय होगी।
4भुखमरी का कलंक दूर होगा।
4कम कुपोषण के शिकार होंगे।
4उससे बीमार भी कम होंगे।
4 उससे चिकित्सा खर्च में कमी आएगी।
4मृत्यु दर घटेगी।
आयात करने का जो प्रश्न है तो अगर हम कृषि में, विशेष तौर पे ढांचागत, सिंचाई, बीज सुधार, तकनीक उन्नत्ति में, जरूरी निवेश बनाए रखते है तो उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
महंगाई
महंगाई बढ़ने की बात के पीछे तर्क यह है कि लोगों को सस्ता अनाज मिलेगा, उनकी आमदनी का भोजन पर खर्च होने वाला हिस्सा कम होगा, बची हुई आमदनी से और चींजे खरीदेंगे जिससे मांग बढ़ेगी, कीमतों में उछाल आएगा। पहली बात तो यह कि मांग में बढ़ोतरी बहुत कम होगी जिसको पूरा किया जा सकता है, क्योंकि बकौल वित्त मंत्री अर्थव्यवस्था में क्षमता है। उत्पादन बढ़ने की सम्भावना बनेगी जिसकी उद्योग को आज सबसे ज्यादा जरूरत है। उससे आर्थिक वृद्धि दर बढ़ने में भी सहायता मिलेगी। दूसरे अगर कीमतों में मामूली वृद्धि हुई तो तात्क��लिक होगी, लम्बी अवधि की नहीं। फिर वर्तमान कीमतों में वृद्धि के कारण तो और है जिनके लिए देश की गरीब जनता कतई जिम्मेवार नहीं। सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि क्या इस तर्क के आधार पर लोगों को भूखा रखा जा सकता है?
वृद्धि दर पर नकारात्मक असर की बात इसलिए की जा रही है कि सरकार को अन्न अवाप्त करना पड़ेगा, जिससे वित्तीय भार पड़ेगा, जिसका असर उद्योगों को मिलने वाली राहत पर पड़ सकता है। उनकी निर्यात छूट में, अनुदान में कमी की जा सकती है, कर भार बढ़ाया जा सकता है, आदि । यह धारणा निर्मूल है, क्योंकि उद्योगों के पास अपनी बात मनवाने, छूट हासिल करने के अनगिनत तर्क हैं। उन पर तो सरकार हमेशा मेहरबान बनी ही रहेगी। हां अगर सस्ता भोजन मिलता है, गरीब की आमदनी में वृद्धि होती है तो उद्योंगो को चिर स्थाई बढ़ी हुई मांग का फायदा स्वत:स्फूर्त होगा, सरकार के ऊपर निर्भर होकर नहीं।
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