फ़ख़्र होता है दिल्ली पर, लेकिन...'
पिछले सौ सालों में दिल्ली की शहरी योजना का सफ़र जानने के लिए आपको ज़्यादा समय नहीं चाहिए. बस शहर की किसी भी सड़क को पकड़ लीजिए.
अगर दिल्ली शहर का भ्रमण किया जाए, तो इस शहर के
भीतर ही बहुत से छोटे-छोटे शहर दिखाई दे जाएंगे, जो कि एक-दूसरे से बिल्कुल
अलग लगते हैं.एक ओर दिखाई देगा किसी मंत्री का विशालकाय बंगला, और उससे जुड़ी गली का रास्ता नापें, तो धोबी घाट दिखाई दे जाएगा.
रेलवे स्टेशन का रुख़ करिए तो वहाँ रुकने वाली रेलगाड़ियों से उतरने वालों की तादाद ट्रेन में चढ़ने वाले लोगों से कहीं ज़्यादा दिखेगी.
और इस बात में कोई हैरानी भी नहीं है. आख़िरकार तेज़ी से समृद्ध होते इस शहर में हर साल क़रीब पाँच लाख लोग एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करने आते हैं.
देखा जाए तो ये ही विभिन्नताएं दिल्ली को एक परिभाषा देती हैं. लेकिन जब बात आती है सभी के लिए बराबर जन-सुविधाओं की, तो दिल्ली शहर एक अविकसित बस्ती की तरह लगता है, जहाँ उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं जो इस शहर की जीवन-रेखा कहलाते हैं.
ऐसा क्यों है कि तेज़ी से पड़ोसी राज्यों में पांव पसारता ये शहर कहीं-कहीं घुटन का आभास देता है?
क्यों यहां की योजना की परिभाषा सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सी नज़र आती है?
'दिल्ली: कल आज और कल' के इस लेख में आइए जानते हैं कि किस तरह पिछले 100 सालों में भारत की राजधानी दिल्ली की योजना विभिन्न मोड़ों से गुज़री ओर वो कितनी सफल या विफल रही.
1911 – 1947: ब्रितानी राजधानी दिल्ली की योजना
तभी तो रायसीना पहाड़ी के इर्द-गिर्द ही ज़्यादातर निर्माण कार्य हुआ, चाहे वो आवासीय हो, प्रशासनिक हो या जन सुविधाओं से जुड़ा कार्य.
1911 में जब ब्रितानी राज ने दिल्ली में बसावट की शुरुआत की, तो राजधानी की जनसंख्या मात्र ढाई लाख के आस-पास थी.
लेकिन साल 1947 दिल्ली के इतिहास में एक ऐसा चरम बिंदु था, जिसने इस शहर की शक्ल को हमेशा के लिए बदल दिया.
"चूंकि दिल्ली राजाधानी थी और यहां व्यवसाय के अवसर ज़्यादा दिखाई देते थे, इसलिए ज़्यादार शरणार्थियों ने इसे ही अपने शहर के रूप में चुना. सरकारी नियंत्रण न होने की वजह से जिस शरणार्थी को जहां कहीं भी जितनी जगह मिली, उसने वहीं अपना घर बना लिया."
नारायणी गुप्ता, इतिहासकार
दिल्ली के इतिहास पर कई किताबें लिख चुकी लेखक नारायणी गुप्ता कहती हैं, “जब विभाजन हुआ, तो उम्मीद की जा रही थी कि पाकिस्तान की ओर से आने वाले ज़्यादातर शरणार्थी पंजाब और हरियाणा जैसे इलाक़ों में बस जाएंगें. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. चूंकि दिल्ली राजधानी थी और यहां व्यवसाय के अवसर ज़्यादा दिखाई देते थे, इसलिए ज़्यादातर शरणार्थियों ने इसे ही अपने शहर के रूप में चुना. सरकारी नियंत्रण न होने की वजह से जिस शरणार्थी को जहाँ कहीं भी जितनी जगह मिली, उसने वहीं अपना घर बना लिया.”
अनियमित निर्माण का ये दौर 1955 तक चला जब सरकार ने घोषणा की कि दिल्ली को एक योजना के तहत बसाया जाएगा.
लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी और शहर की इस शक्ल की शुरुआती बनावट अपना रूप ले चुकी थी.
आज का शरणार्थी
उनमें से एक हैं मोहम्मद फ़ख़रुद्दीन जो करीब दो दशक पहले एक बेहतर ज़िंदगी की तलाश में आगरा से दिल्ली आए थे.
उन्होंने भले ही दिल्ली को गले लगाया हो, लेकिन दिल्ली उन्हें गले नहीं लगा पाई.
मोहम्मद कहते हैं, “एक छोटे शहर से दिल्ली जैसे बड़े शहर में बसना अपने आप में ही फ़ख़्र महसूस करने वाली बात है, लेकिन दिल्ली जैसे शहर में अपने लिए सुविधाओं के अभाव को देख कर थोड़ा दुख तो पहुंचता है. हमारी झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती विश्व स्वास्थ्य संगठन के भारतीय मुख्यालय के ठीक पीछे है, लेकिन ये अजीब विडम्बना है कि हमारी पूरी बस्ती गंदे नाले से घिरी हुई है. यहां हम सब कीड़े-मकोड़ों की तरह रहते हैं. घरों में शौचालय बनाने की अनुमति नहीं है और बस्ती का एकमात्र शौचालय बंद पड़ा रहता है. ऐसे में हमें शौच के लिए रेलवे की पटरी पर जाना पड़ता है. हमारे गांव से जब लोग हमारे घर आते हैं, तो सोचते हैं कि हम कूड़ेदान में रह रहे हैं.”
लेकिन सुविधाओं के अभाव और रोज़मर्रा की परेशानियों के बावजूद मोहम्मद अब वापस गांव नहीं जाना चाहते.
उनके जैसे लाखों लोगों के लिए ये शहर एक चुंबक की तरह है. लेकिन यहां आने वाले लोगों के लिए रहने की कोई व्यवस्था नहीं है, जिसके कारण आज झुग्गी-झोंपड़ियां और अवैध बस्तियां शहर में एक आम नज़ारा है.
दूरदर्शिता का अभाव
शहरीकरण की प्रक्रिया की ये एक विडम्बना है कि शहरों को बनाने वाले ग़रीब लोग उसी शहर में अपने लिए दो गज़ ज़मीन के भी हक़दार नहीं होते.
दिल्ली को बनाने वाले और उसकी अर्थव्यवस्था में सबसे ज़्यादा योगदान देने वाले वर्ग को किसी भी मास्टर प्लान में तवज्जो नहीं दी गई.
न तो इस वर्ग की आवासीय ज़रूरतों को संबोधित किया गया और न ही उनकी सुविधाओं के लिए बनाई गई योजनाएं कभी सफल साबित हुईं.
"एक छोटे शहर से दिल्ली जैसे बड़े शहर में बसना अपने आप में ही फ़ख़्र महसूस करने वाली बात है, लेकिन दिल्ली जैसे शहर में अपने लिए सुविधाओं के अभाव को देख कर थोड़ा दुख तो पहुंचता है. यहां हम सब कीड़े-मकौड़ों की तरह रहते हैं. घरों में शौचालय बनाने की अनुमति नहीं है और बस्ती का एकमात्र शौचालय बंद पड़ा रहता है. ऐसे में हमें शौच के लिए रेलवे की पटरी पर जाना पड़ता है. हमारे गांव से जब लोग हमारे घर आते हैं, तो सोचते हैं कि हम कूड़ेदान में रह रहे हैं."
कई बार झुग्गी-झोंपड़ियों का पुनर्वास करने की कोशिशें भी नाकाम साबित हुईं क्योंकि सरकार की ओर से दिए गए घरों को ज़्यादातर निवासी बेच कर वापस झुग्गियों में आकर बसने लगे.
इसका मुख्य कारण ये था कि मज़दूर वर्ग को अपने व्यवसाय से जुड़े क्षेत्र से दूर रहना रास नहीं आया.
ऐसा ही कुछ हुआ था पिछले साल आयोजित हुए राष्ट्रमंडल खेलों से पहले, जब दिल्ली को ‘वर्ल्ड क्लास सिटी’ बनाने की मुहिम के तहत राज्य सरकार ने शहरी इलाके में झुग्गियां बना कर रहे रहे लोगों का स्थानान्तरण कर दिया था.
योजनाकार अनिल लाल सरकार की इस योजना की कड़ी आलोचना करते हुए कहते हैं, “राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान दिल्ली सरकार का व्यवहार एक ऐसे व्यक्ति की तरह था जिसने एक साफ़-सुथरे अंग्रेज़ की तरह कोट-पैन्ट पहन रखा हो. लेकिन असलियत ये थी कि उस अंग्रेज़ी पतलून के नीचे एक फटा हुआ जांघिया था, जिसे ख़ुद से अलग नहीं किया जा सकता.”
क्या वैध और क्या अवैध
दिल्ली में हर चुनाव से पहले अवैध बस्तियों का मुद्दा उठता है, जिसके बाद शुरु होता है ऐसे वायदों का दौर जिसमें अवैध बस्तियों को वैध में बदलने का ढांढस बंधाया जाता है.
और जब चुनाव ख़त्म होते हैं तो सरकार इन बस्तियों को गिराने की बात करती है.
पत्रकार और लेखक मार्क टली कहते हैं, “सबसे पहला सवाल ये उठता है कि ऐसी बस्तियों और झुग्गी-झोंपड़ियों से सरकार को इतनी ही दिक्कत है, तो सरकार ने इन्हें बसने ही क्यों दिया? क्यों नहीं याद आए उनको अपने क़ानून जब ये बस्तियां बनाई जा रही थी. ये बस्तियां रातों-रात तो खड़ी नहीं हुई. एक शहर की योजना बनाना बहुत आसान काम है, लेकिन उसके प्रावधानों को लागू करना उतना ही मुश्किल है.”
नतीजा ये है कि दिल्ली में लाखों लोग चुनावी वायदों के मोहताज हैं जिन्हें पानी और बिजली जैसी व्यवस्थाएं ख़ुद पर एक एहसान सी लगती हैं.
शहर पर बढ़ती आबादी का बोझ कम करने के लिए 2001 में उत्तर प्रदेश के नोएडा, ग़ाज़ियाबाद और हरियाणा के गुड़गांव की ओर पांव पसारे गए और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र स्थापित करने की योजना बनाई गई.
लेकिन इन क्षेत्रों में भी वही हुआ जो दिल्ली में अब तक होता आ रहा था. वैध बस्तियों के बगल में ही पनपती हुई अवैध बस्तियां और झुग्गी-झोंपड़ियां एक आम नज़ारा हैं.
आशंकाओं और अकांक्षाओं से भरा दिल्ली का भविष्य
लेकिन काल्पनिक दुनिया से ज़मीनी स्थिति का रुख़ किया जाए तो ये भी सच है कि जैसे-जैसे शहर बड़े होते जाते हैं उसकी समस्याएँ बड़ी होती जाती हैं और उससे निपटने की चुनौती भी व्यापक होती जाती है.
दिल्ली शहर एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ एक तरफ़ तो वैश्विक मंच पर उसे दर्ज करवाने की होड़ लगी है, लेकिन दूसरी ओर सभी वर्गों के लिए पानी, बिजली, सड़क, जलनिकासी योजनाएं जैसी मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाना उसके लिए एक चुनौती साबित हो रहा है.
"दिल्ली के मास्टर प्लॉन की सबसे बड़ी विफलता ये रही है कि शहर की योजना बनाने से पहले लोगों की ज़रूरतों और अप्रवासियों की बढ़ती संख्या को कभी ध्यान में नहीं रखा गया. यहां लोगों की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर प्लॉन बनाए जाते हैं और उसके बाद उस प्लान को उन्हीं लोगों पर थोंप दिया जाता है. फिर चाहे वो व्यावहारिक हो या न हो."
अनिल लॉल, शहरी योजनाकार
ऐसे बहुत से शहर हैं जहाँ इस पर कोई नियंत्रण ही नहीं होता कि शहर कैसे विकसित हो रहे हैं या फैल रहे हैं. उन पर सिर्फ़ बाज़ार का नियंत्रण होता है. ऐसे शहरों में आय का बड़ा ध्रुवीकरण होता है और नतीजतन ग़रीबी बढ़ती है.
दिल्ली विकास प्राधिकरण के अनुमान के मुताबिक़ एक करोड़ 80 लाख जनसंख्या वाले इस शहर की जनसंख्या 2021 में 2 करोड़ 20 लाख से ज़्यादा होगी.
ऐसे में तेज़ी से बढ़ते इस शहर का भविष्य आशंकाओं और आकांक्षाओं से भरा दिखाई देता है. आकांक्षा एक आदर्श शहर कहलाने की...और आशंका बाज़ारीकरण के बीच अपने व्यक्तित्व को खो देने की...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें