धरती पर जीवन की दास्तान बयाँ करते हैं जीवाश्म
मैमथ का जीवाश्म (साभार: गूगल सर्च) |
आज, लाखों साल पहले
धरती पर पाए जाने वाले जीवों (पौधे और जंतुओं) के आकार-प्रकार, जीवन-यापन
के तरीकों के बारे में जानना कितना रोचक और रोमांचक होता है! जीवाश्मों का
अध्ययन हर किसी के मन में उत्साहजनक अनुभूति पैदा करता है। वेबस्टर्स
डिक्शनरी के अनुसार ’जीवाश्म‘ प्राचीन भूवैज्ञानिक युग के जंतु या पौधे का
अवशेष होता है जो पृथ्वी की भूपर्पटी में प्राकृतिक रूप से परिरक्षित रहता
है। जीवाश्म को अंग्रेजी में फॉसिल कहते हैं और यह शब्द लैटिन के फोसस से
व्युत्पन्न हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ’खुदाई करके निकाला हुआ‘।
आनुवंशिकीविद् और विज्ञान संचारक जे.बी.एस. हाल्डेन ने जीवाश्मों के विषय
में अपनी पुस्तक ‘एवरीथिंग हैज ए हिस्ट्री‘ में लिखा था, ‘‘जीवाश्मों में
हमारी रूचि दो अलग कारणों से है। पहले तो इसलिए कि वे हमें ऐसे जंतुओं और
पौधों के बारे में बताते हैं जो प्राचीन काल में पाए जाते थे, वे कैसे थे
और उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई। दूसरे, इसलिए कि वे चट्टानों के
काल-निर्धारण में भी हमारी मदद करते हैं।’’ हाल्डेन ने जीवाश्मों के संबंध
में आम जन में सहज अभिरूचि के विकास के लिए अनेक लोकप्रिय विज्ञान लेख लिखे
थे जो बेहद प्रेरक और ज्ञानवर्धक हैं। जीवाश्म और इसका विज्ञान अपने आप
में बहुत दिलचस्प है। पृथ्वी पर जीवन के इतिहास को समझने की दिशा में
जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन एक उपयोगी औजार साबित हुआ है।
जेनोफेंस (570-480 ईसा पूर्व) ने
समुद्री जीवाश्मों (सी शैल) के बारे में लिखा और अरस्तू (384-322 ईसा
पूर्व) का मत था कि जीवाश्म प्राचीन जीवन के अवशेष होते हैं। इटली के
चित्रकार, दार्शनिक और वैज्ञानिक लियोनार्दो दा विंसी ने जीवाश्मों के
संबंध में अरस्तु के समान निष्कर्ष दिए थे। सन् 1027 में पारसी चिकित्सक और
दार्शनिक इब्न सिना ने अपनी पुस्तक ‘दि बुक ऑफ हीलिंग’ में जीवाश्मों के
बारे में लिखा था। चीनी अन्वेषक शेन कुओ (1031-1095) ने समुद्री जीवाश्मों
का अध्ययन किया था और भूभौतिक प्रक्रियाओं से उनके संबंध की व्याख्या की
थी। यूरोपीय दार्शनिक कोनरेड जेसनर और जॉर्ज एगरीकोला ने जीवाश्मों के
भौतिक और रहस्यपूर्ण गुणों की विवेचना की। उनके अध्ययन ने प्रकारांतर से
जीवाश्मों की उत्पत्ति की व्याख्या को उत्प्रेरित किया।
सन् 1665 ई. में जर्मन विद्वान
एथनासीयस कीरचर और अंग्रेज प्रकृति दार्शनिक रॉबर्ट हुक ने जीवाश्मीकृत
काष्ठ का वैज्ञानिक विश्लेषण किया था। सन् 1667 में डेनमार्क के
भूवैज्ञानिक निकोलस स्टीनो नामक वैज्ञानिक ने शार्क मछली के सिर का
विच्छेदन किया और शार्क के दांतों तथा जीवाश्म का तुलनात्मक अध्ययन किया।
चट्टानों में दबे शार्क के दांत पत्थर की वस्तुओं से समानता रखते थे। शार्क
के दांतों पर स्टीनों के कार्य से यह तथ्य सामने आया कि मृत जीवों के अंग
मिट्टी में दब जाते हैं और हजारों-लाखों साल गुजरने के बाद वे पत्थर जैसे
हो जाते हैं।
अंग्रेज अभियंता विलियम स्मिथ
(1769-1839) ने पत्थरों से निर्माण कार्य के दौरान इस बात पर ध्यान दिया कि
पत्थर विभिन्न युगों से संबंधित होते हैं और इनमें उस काल-खंड के जीवाश्म
परिरक्षित होकर दबे रहते हैं। इस प्राकृतिक प्रक्रिया की व्याख्या के लिए
इसे उन्होंने ‘जीव क्रमिकता का सिद्धांत’ नाम दिया था। चूंकि स्मिथ चार्ल्स
डार्विन के पूर्ववर्ती थे इसलिए वह प्रकृति में होने वाले जीव विकास की
प्रक्रिया से अनभिज्ञ थे। चार्ल्स डार्विन (1809-1882) के द्वारा
प्रतिपादित जीव विकास संबंधी सिद्धांत में जीवाश्म अध्ययन की महत्वपूर्ण
भूमिका रही। अपनी बीगल यात्रा के दौरान डार्विन ने दक्षिणी अमेरिका के
जंगलों से जंतुओं के अनेक जीवाश्म खोजे और उनसे प्रभावित हुए। डार्विन ने
पत्थरों की विभिन्न परतों में मौजूद प्राचीन जीवाश्मों को जीवों के विकास
से जोड़ कर देखा और यह सिद्ध किया कि जीव विकास की प्रक्रिया पृथ्वी पर
अनवरत चलती रहती है।
जीवाश्म के स्वरूप और अस्तित्व को
लेकर वैज्ञानिकों में जो दुविधाएं थीं उन्हें दूर करने में जार्जेस कूवियर
नामक फ्रांसीसी प्रकृतिविज्ञानी का योगदान महत्वपूर्ण है। 18वीं सदी में
कूवियर ने जंतुओं के विलुप्त होने के कारणों की वैज्ञानिक व्याख्या की
जिससे जीवाश्म विज्ञान की वास्तविक रूप में नींव पड़ी। इसके बाद अध्ययन की
इस नई शाखा के अंतर्गत विश्व के अलग-अलग स्थानों में खोजे गए जीवाश्मों पर
तेजी से शोध कार्य शुरू हुआ।
डायनासोर का जीवाश्म (साभार: गूगल सर्च) |
सन् 1796 में कूवियर ने
जीवाश्म विज्ञान पर पहला व्याख्यान दिया जो शोध-पत्र के रूप में सन् 1800
में प्रकाशित हुआ था। इस शोध-पत्र में उन्होंने भारतीय और अफ्रीकी हाथियों
तथा मैमथ के जीवाश्मीकृत कंकालों का विश्लेषण कर तथ्य सामने रखा कि अफ्रीकी
और भारतीय हाथी पृथक प्रजातियां हैं और ये मैमथ एक भिन्न और लुप्त प्रजाति
हैं। सन् 1796 में ही कूवियर ने जीवाश्म विज्ञान और जंतुओं के विलोप के
तुलनात्मक अध्ययन पर केंद्रित शोधपत्र प्रकाशित किया जिसके बाद वैज्ञानिक
मंडलियों में जीवाश्म विज्ञान और जीवों की विलुप्ति पर चर्चाएं शुरू हो
गईं।
कूवियर के इस शोध-पत्र के
प्रकाशित होने से पहले विश्व में यह मान्यता थी कि पृथ्वी पर मौजूद कोई भी
जीव कभी विलुप्त नहीं हुआ है। सन् 1770 के दशक की शुरूआत में फ्रांसीसी
प्रकृति वैज्ञानिक जार्जेस बुफॉन ने दावा किया था कि यूरोप में गैंडे और
मैमथ के जीवाश्म पाए गए, जबकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वे जीवित थे।
कूवियर ने इन बातों का खंडन किया और यह बताया कि हिमयुग सहित पृथ्वी पर आए
अनेक प्रलय से जंतुओं की अनेक प्रजातियां विलुप्त होती रही हैं। कूवियर ने
सरीसृपों, मोलस्क, मछलियों और स्तनी जंतुओं के जीवाश्मों और उनकी विलुप्ति
पर गहन शोध कार्य किया था। कूवियर का मानना था कि सभी खोजे गए जीवाश्मों
वाली लगभग सभी जीव प्रजातियां वर्तमान में विलुप्त हो चुकी होती हैं।
जीवाश्मों के विस्तृत अध्ययन से
बीसवीं सदी के अंत में जीवाश्म वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि
पृथ्वी पर जीवन का इतिहास कम से कम 3-5 अरब साल पुराना है। इस दिशा में
जैसे-जैसे नई खोजें होने लगीं वैसे-वैसे पृथ्वी पर जीवन के इतिहास और उनके
क्रमिक विकास की गुत्थी सुलझने लगी। जीवों के विकास को समझने में जीवाश्मों
का अध्ययन अत्यधिक सहायक सिद्ध हुआ है।
जीवाश्म विज्ञान में प्रमाणिक तौर
पर जीवों के उसी अवशेष को ‘जीवाश्म’ कहते हैं जो कम से कम 10,000 वर्ष
पुराना हो। ये जीवाश्म एककोशीय जीवाणु जितने सूक्ष्म आकार (एक माइक्रोमीटर
व्यास) के भी हो सकते हैं और कई मीटर लंबे तथा अनेक टन वजनी डाइनासॉरों
जितने विशालकाय भी। पृथ्वी के सबसे प्राचीन जीवाश्म स्वरूप को
स्ट्रोमेटोलाइट कहते हैं। ये संस्तरी जीवाश्म होते हैं जो सायनोबैक्टीरिया
की परतों से निर्मित होते हैं। स्ट्रोमेटोलाइट की आयु 3-4 अबर वर्ष आंकी गई
है। वर्तमान समय में जीवाश्मों के अध्ययन में गणित, इंजीनियरिंग, भौतिकी,
जैव-रसायन जैसी विज्ञान की अनेक शाखाएं काम में आ रही हैं।
वास्तव में जीवाश्म किसी जंतु या
पौधे का पृथ्वी में दबा हुआ अवशेष होता है और यह हजारोंलाखों साल पहले का
हो सकता है। जीवों के शरीर के अंग, हड्डियां या प्राचीन जंतुओं द्वारा
इस्तेमाल किया जाने वाला मार्ग या सुरंग, इन रूपों में जीवाश्म हो सकते
हैं। जीवाश्मों का अपना अनोखा संसार है। कुछ जीवाश्म इतने छोटे होते हैं कि
वे हमें कोरी आंखों से नहीं दिखाई देते। इन्हें सूक्ष्म जीवाश्म या
माइक्रो-फॉसिल कहते हैं। कभीकभी भू-भौतिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप पत्थर
में लवण के कारण किसी जीवाश्म के समान पैटर्न बन जाता है। इन्हें भूलवश
वास्तविक जीवाश्म मान लिया जाता है जबकि इनके निर्माण और विकास में किसी भी
प्रकार की जैविक प्रक्रिया शामिल नहीं होती। इस प्रकार के जीवाश्म को
आभासी जीवाश्म कहते हैं। कभी-कभी अवसादी शैलों की परतों के बीच में
प्राकृतिक रूप से गोल या अंडे के आकार विकसित हो जाते हैं। इन्हें अक्सर
त्रुटिवश डाइनोसॉर का अंडा मान लिया जाता है।
अगर अपमार्जकों और जीवाणु जैसे
सूक्ष्मजीवों द्वारा मृत पौधे या जंतु का संपूर्ण शरीर उपभोग कर लिया जाए
तो प्रकृति में कोई भी जीवाश्म नहीं बन सकता। होता यह है कि इन अपमार्जकों
और सूक्ष्मजीवों द्वारा कई बार मृत जीव शरीर को पूरा नहीं नष्ट किया जाता
और इसके कुछ अंग जैसे हाथ, पैर, सिर आदि मिट्टी में यूं ही पड़े रह जाते
हैं। कभी-कभार इनके ऊपर कीचड़, मिट्टी या धूल जमा हो जाती है। समय के साथ
पौधे या जंतु के शरीर के इन अंगों के मुलायम हिस्से जीवाणुओं द्वारा नष्ट
कर दिए जाते हैं। कोशिकीय अंतरालों में खनिज भर जाते हैं और इनके क्रिस्टल
बन जाते हैं। मूल पौधे या जंतु की आकृति पत्थर में परिरक्षित हो जाती है।
कभी-कभी तो मूल पदार्थ विघटित हो जाता है और रूपआकार ही शेष बचता है मगर
कोई भी कार्बनिक पदार्थ शेष नहीं रहता। कवच, हड्डी या लकड़ी जैसे कठोर
हिस्से कभी-कभी नष्ट नहीं होते। इनके आस-पास मौजूद खनिज इनसे चिपक जाते हैं
जो बरसों के बाद पत्थर में बदल जातें है प्रकृति में मौजूद इस प्रकार के
जीवाश्मों के पाषाणीकृत जीवाश्म कहते हैं।
डाइनोसॉर की हड्डियों और वृक्षों
की लकड़ियों के जीवाश्म दुनिया के कई हिस्सों में पाए गए हैं। एरीज़ोना,
अमेरिका में स्थित पेट्रिपाइड फॉरेस्ट नेशनल पार्क में बड़ी खूबसूरती के साथ
समूचे जीवाश्म वृक्ष को सहेज कर रखा गया है। कभी-कभी किसी वृक्ष की पत्ती
की छाप या मकड़ी, चींटी या मछली का शरीर जीवाश्म के रूप में पत्थरों में
पाया जाता है। जीवाश्मों के एक अन्य महत्वपूर्ण स्वरूप को ऐंबर जीवाश्म
कहते हैं। ऐंबर कठोर हो चुके रेज़िन होते हैं। रेज़िन, वृक्षों से रिसने वाला
एक प्रकार का तरल पदार्थ होता है। चीड़ के वृक्षों में पाए जाने वाले रेजिन
से तारपीन बनाया जाता है। वृक्षों को चोट लगने पर वे रेजिन का स्राव
चिपचिपे पदार्थ के रूप में करते हैं। इनके चिपचिपा होने के कारण असंख्य
कीट, मकड़ियां आदि इनसे चिपक कर इनमें फंस जाते हैं। रेजिन में निहित रसायन
कीटों का परिरक्षण करता है और इस प्रकार इन कीटों का अवशेष सैंकड़ो-हजारों
वर्षों तक नष्ट नहीं होता। समय बीतने के साथ रेजिन कठोर होकर ऐंबर बन जाता
है और इसमें फंसे हुए कीट-पतंगों का समूचा शरीर भी ज्यों का त्यों पड़ा रहता
है।
लाखों साल पहले किसी वृक्ष के
रेजिन में फंसे उस जमाने के कीटों को आज के जीवाश्म वैज्ञानिकों ने ढूँढ
निकाला है और प्राचीनकाल के कीटों के स्वरूप की भी जानकारी हासिल की है।
बर्फ के भीतर भी जीवाश्म पाए जाते हैं। मैमथ नामक प्राचीन हाथियों की एक
प्रजाति के जीवाश्म अलास्का और साइबेरिया में हिमाच्छादित पहाड़ियों के भीतर
मिले हैं। बर्फ में जमे हुए इन जीवाश्मों को एस्किमो लोगों ने अपने
कुत्तों को भोजन के रूप में भी खिलाया। एक समय पूरी दुनिया में होने वाले
हाथी दांत की आपूर्ति का आधा हिस्सा इन बर्फ में जमे हुए मैमथ के विशाल
जीवाश्मों से हासिल किया जाता था। वैज्ञानिकों द्वारा मैमथ के जीवाश्मों से
मिली रक्त वाहिनियों, मांसपेशियों, बाल, त्वचा और शरीर के अन्य अंगों का
परिरक्षण करके उनका अध्ययन किया जा रहा है। मैमथ के कुछ जीवाश्म म्यूजियमों
में भी रखे गए हैं।
मैमथ का एनीमेटेड चित्र |
प्राचीन जंतुओं के
पैरों के निशान भी जीवाश्म की श्रेणी में आते हैं। मकड़ी, पक्षी, चौपाया
जंतु या डाइनोसॉर के पैरों के निशान अतीत में गीले कीचड़ या रेत में छूट गए
होंगे। इनमें से पैरों के कुछ निशान प्रकृति ने सहेजकर रखे हैं। कीचड़ या
रेत बाद में पत्थर में बदल गई मगर उसमें मौजूद उन पैरों के निशान ज्यों के
त्यों रह गए। प्रोटोसेराटॉप्स नामक डाइनोसॉर पाए जाते थे जिनके शरीर की
लंबाई 1.5-2 मीटर तक होती थी जो बालू में अपने अंडे देते थे जैसे कि आजकल
कछुए देते हैं। वैज्ञानिकों को उन डाइनोसॉरों के अंडों के जीवाश्म मिले हैं
जो तकरीबन 750 लाख साल पुराने हैं। जब जीवाश्म वैज्ञानिकों ने पत्थर बन
चुके इन अंडों में से कुछ को तोड़कर उनके भीतर झांका तो उन्हें यह देखकर
आश्चर्य हुआ कि उनमें अजन्मे शिशु डाइनोसॉर की पाषाणीकृत हड्डियों भी मौजूद
थीं।
जीवाश्म को ढूंढना वास्तव में एक
कठिन और श्रमसाध्य काम होता है। अवसादी शैलों और नदियों के तल में सर्वाधिक
जीवाश्म पाए जाते हैं। अनेक देशों की सरकारों ने डाइनोसॉर एवं अन्य जीवों
के दुर्लभ जीवाश्मों की उचित खुदाई के लिए कानून बनाए हैं। यह कानून केवल
निपुण वैज्ञानिक को ही इस कार्य की इजाजत देता हैक्योंकि वे जीवाश्म और
उनकी खुदाई के वैज्ञानिक ढंग को भली-भांति जानते हैं। विश्व भर के
संग्रहालयों मे डाइनोसॉर के जीवाश्म हमेशा लोगों के आकर्षण के केंद्र रहे
है। इन सरीसृपों ने मीसोज़ोइक महाकल्प में इस धरती पर लाखों साल निवास किया
था। 65 मिलियन साल पहले एक प्रलय ने पृथ्वी के चेहरे से इन विशालकाय जंतुओं
को मिटा दिया। ‘डाइनोसॉर’ शब्द ब्रिटिश जीवाश्म वैज्ञानिक रिचर्ड ओवेन ने
सन् 1842 में दिया था। यह ग्रीक शब्द डाइनोसॉरस से व्युत्पन्न हुआ है जिसका
अर्थ होता है ‘भयानक छिपकलियां’। दुनियां के अनेक स्थलों सहित भारत के
अनेक इलाकों में भी डाइनासॉरों के जीवाश्म मिले हैं। महाराष्ट्र (नागपुर),
गुजरात (खेड़ा, पंचमहल, कच्छ), आंध्र प्रदेश (अजीलाबाद), मध्य प्रदेश (वाघ
जबलपुर), तमिलनाडु (तिरूचिरापल्ली) और मेघालय (शिलांग के पास) में
डाइनोसॉरों के जीवाश्म मिले हैं। भारतीय वैज्ञानिक बीरबल साहनी (1891-1949)
ने जीवन पर्यंत पादप जीवाश्मों पर कार्य किया। 1949 ई. में उन्होंने लखनऊ,
उत्तर प्रदेश में पुरावनस्पति संस्थान की नींव रखी जो आज बीरबल साहनी
पुरावनस्पति संस्थान के नाम से जाना जाता है। पादप जीवाश्मों के अनुसंधान
के लिए यह संस्थान न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया का अकेला संस्थान है।
जीवाश्म वैज्ञानिकों ने अब तक
डाइनोसॉरों के करीब 500 वंश और 1000 से भी अधिक प्रजातियों को ढूंढ निकाला
है तथा इनके जीवाश्म पृथ्वी के हरेक महाद्वीप में पाए गए हैं। जीवाश्मों के
विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाले गए हैं कि कुछ डाइनोसॉर शाकाहारी थे और
अन्य मांसभक्षी। कुछ डाइनोसॉर भीमकाय होते थे तो कुछ हम मनुष्यों के आकार
के या हमसे भी छोटे होते थे। अधिकांश डाइनोसॉर घोंसले बना कर उनमें अंडे
देते थे। उनका यह व्यवहार आधुनिक पक्षियों से मेल खाता है। डाइनोसॉरों के
जीवाश्मों के अध्ययन से यह प्रकट हुआ है कि जुरासिक युग में डाइनोसॉरों से
ही पक्षियों का उद्भव हुआ है।
अगर हम इतिहास में मुड़कर देंखें
तो यह पाएंगे कि हमारा आधुनिक जीवन उन प्राचीन काल के जीवों के जीवाश्मों
पर ही चल रहा है जो बहुत पहले कभी जीवित थे। लगभग वे सभी ईंधन जिनका हम आज
प्रयोग करते है - कोयला, पेट्रोल और गैस, ये सभी जीवाश्म ईंधन हैं। लाखों
साल पहले पाए जाने वाले पौधों और जंतुओं के जीवाश्मों से ही वास्तव में ये
ईंधन बने होते हैं। इन ईंधनों के बिना कोई मोटरगाड़ी, ट्रेन, बस, वायुयान,
या उद्योग नहीं चलेंगे।
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