शुक्रवार, 29 जून 2012

भारत में ‘सम्मान हत्याएँ’ : एक शर्मनाक अध्याय

भारत मेंसम्मान हत्याएँ’ : एक शर्मनाक अध्याय



[यह शोध लेख देश के एक शर्मनाक अध्याय पर है । क्योंकि शोधलेख है इसलिए इसमें वैसी विचारोत्तेजना नहीं जैसी अक्सर लेखों में होती है या होनी चाहिए । गंभीर और कुछ बड़ा भी है इसलिए धैर्य की अपेक्षा है । हम दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था और महाशक्ति वगैरह होने का दावा कर रहे हैं । ऐसे में समाज का यह रूप कहां फिट होता है ! एक हत्या हजार सुकर्मों को मिटा देती है। पिछले दिनों दुनिया में जितने सर्वेक्षण हुए उनमें गलत चीजों में हम सबसे ऊपर और अच्छी चीजों में सबसे नीचे रहे हैं । ऐसे में यह महामारी तो रहे-सहे पर भी पानी फेरने वाली है । बाहर के लोगों की सुविधा के लिए इसे अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया है।]
प्रस्तावना
प्रारंभ में ही यह स्पष्ट करना जरूरी है कि इस आलेख के केंद्रीय विषय के रूप में जिन हत्याओं को लिया गया है उन्हें अंग्रेजी में ‘आनर किलिंग’ (सम्मान हत्याएँ) के नाम से जाना जाता है । हत्याओं के साथ ‘आनर’ या ‘सम्मान’ शब्द जोड़ना इसलिए अटपटा लगता है कि इस शब्द के माध्यम से इनके पीछे की नृशंसता और बर्बरता ओझल हो जाती है । अनेक लोगों ने इसे ‘सांस्कृतिक अपराध’ कहने की कोशिश की है । लेकिन क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और समुदाय के बीच यही शब्द प्रचलित हो गया है इसलिए यहां उसी शब्द का प्रयोग किया गया है । इसी के साथ यह कहना जरूरी है कि हालांकि इस समस्या के सभी संभव पहलुओं पर यहां विचार किया गया है,फिर भी एक सांस्कृतिक क्षेत्र के व्यक्ति के नाते उसमें सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष पर जोर हो तो यह स्वाभाविक ही होगा ।
आजादी के बाद से लगातार भारतीय समाज नारी भ्रूण हत्या और दहेज प्रथा और उसके लिए की जाने वाली महिलाओं की हत्याओं के अभिशाप से जूझ रहा था कि उसमें एक नई प्रकार की जघन्य हत्याओं का अध्याय जुड़ गया । पिछले कुछ वर्षों में भारत में हत्याओं का एक नया रूप सामने आया है,जिन्हें सामान्यतः ‘सम्मान हत्याओं’ का नाम दिया गया है । इन हत्याओं के संबंध में किसी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था ने आंकड़े जुटाने का काम नहीं किया है इसलिए उनकी वास्तविक संख्या के बारे में अलग-अलग अनुमान ही लगाए जा सकते हैं । वर्ष २००२-३ में महिला हितों की रक्षा करने वाली संस्था ‘अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन’ ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक जिले मुजफ्फर नगर में पड़ताल करने पर पाया कि जहां २००२ में दस हत्याओं के मामले सामने आए वहां २००३ के पहले नौ महीनों में ही तेरह हत्याएँ हो चुकी थीं । इनमें वे पैंतीस जोड़े शामिल नहीं हैं जिन्हें ‘लापता’ घोषित कर दिया गया । ये आंकड़े केवल एक ही जिले के हैं और थाने में दर्ज की गई रिपोर्टों के आधार पर हैं । सभी जानते हैं कि इन हत्याओं के मामले अक्सर पुलिस तक पहुंचते ही नहीं,उन्हें आत्म-हत्या,प्राकृतिक कारणवश मृत्यु या पुराने रोग से हुई मृत्यु के नाम पर छिपा लिया जाता है । और क्योंकि समाज के शक्तिशाली तबके,प्रशासनिक तंत्र और पुलिस तंत्र मिलीभगत से काम करते हैं इसलिए ये मामले कभी सामने नहीं आते । सन २०१० में चंडीगढ़ के दो वकीलों (अनिल और रंजीत मल्होत्रा) ने इन मामलों की पड़ताल करने पर पाया कि भारत में हर साल लगभग एक हजार ‘सम्मान हत्याएँ’ होती हैं । उनके अध्ययन के अनुसार इनमें से लगभग नौ सौ हत्याएँ अकेले पंजाब,हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होती  हैं ।
पहले यह मान लिया जाता था कि इस तरह के कुकृत्य अशिक्षा और सामंती सोच के गढ़ माने जाने वाले बिहार,पूर्वी उत्तर प्रदेश या उड़ीसा आदि के पिछड़े ग्रामीण इलाकों में ही होते हैं । लेकिन हाल में हुई इन हत्याओं और उनपर हुए अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया कि ये हत्याएँ उन क्षेत्रों में अधिक हुईं जिन्हें खेती में हरित क्रांति या आधुनिक पूंजीवादी विकास के संपन्न क्षेत्र माना जाता है । यही नहीं,यह भी देखा गया कि केवल गांवों में ही नहीं,बल्कि कस्बों,शहरों और यहां तक कि महानगर के समृद्ध इलाकों में भी ये घटनाएँ   घटीं । ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि इस समस्या का व्यापक संदर्भों में गहन अध्ययन किया जाय ।
सम्मान हत्याओं का सामान्य अर्थ
‘सम्मान हत्या’ सामान्यतः परिवार के एक सदस्य या सामाजिक समूह की दूसरे परिवार सदस्यों या सामाजिक समूह द्वारा की गई हत्या है जिसमें हत्या करने वाले या समुदाय यह मानकर चलते हैं कि ‘अपराधी’ व्यक्ति ने परिवार या समुदाय के सम्मान को ठेस पहुंचाई है । सिद्धांत रूप से इन हत्याओं का शिकार होने वाला किसी भी लिंग का हो सकता है – पुरुष या स्त्री । लेकिन सच्चाई यह है कि इन हत्याओं की अधिकांश शिकार महिलाएँ और युवा लड़कियां ही हुई हैं और हो रही हैं । जहां पुरुषों को इसका शिकार बनाया गया उसके मूल में भी महिलाएँ या लड़कियां ही कारणभूत रही हैं । इससे यह मानना होगा कि इन जघन्य हत्याओं के पीछे पुरुष-प्रधान समाजों और उनमें महिला असमानता और उत्पीड़न के प्रचलित दृष्टिकोण के अवशेष सक्रिय हैं ।
परिवार या समाज जिन कारणों से ‘असम्मान’ या ‘बेइज्जती’ अनुभव करता है उनमें प्रायः ये व्यवहार या तो पाए गए या उनका शक किया गया – (अ) शादी से संबंधितः इसके अंतर्गत जब कोई स्त्री या तो परिवार द्वारा तयशुदा शादी से इन्कार करे या तयशुदा की गई शादी की अवमानना करने या उससे बाहर आने की कोशिश करे । इसी के अंतर्गत,जब कोई महिला या लड़की जाति या वर्ग की सीमाओं को लांघ अपनी इच्छा से अपनी शादी का चुनाव करे । (आ) तथाकथित यौन दुष्कर्मः जब कोई स्त्री पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से शारीरिक संबंध बनाए या ऐसे किसी भावात्मक संबंध का शक हो । समलैंगिक संबंध भी यौन दुष्कर्म और ‘सम्मान हत्याओं’ के दायरे में आते हैं ।(इ) वेशभूषा के कोड का उल्लंघनः ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब परिवार या समुदाय महिलाओं के लिए एक विशेष वेशभूषा का आग्रह करें और स्त्री शिक्षा,स्वतंत्रता,आधुनिकता आदि कारणों से उसका उल्लंघन करे ।

‘सम्मान हत्याओं’ की व्याप्ति
यह मानने का कोई कारण नहीं है कि सम्मान हत्याएँ केवल भारत या भारतीय समाज तक सीमित हैं । इस समस्या के अध्ययन से पता चलता है कि इसका प्रसार अत्यंत व्यापक है । यह कहा जा सकता है कि विश्व इतिहास और भूगोल के  बड़े हिस्से इसके प्रभाव में रहे हैं । दुनिया के प्राचीन इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जब ‘सम्मान हत्या’ के ऊपर दिए कारणों में से किसी के आधार पर स्त्रियों की हत्या की गई । दुनिया में सबसे पुराना लिखित कोड बैबीलोनिया के हम्मुराबी कोड के नाम से मशहूर है जो १७०० शताब्दी ईसापूर्व लिखा गया और जिसका एक तिहाई हिस्सा पारिवारिक रिश्तों,स्त्री के आचरण आदि के संबंध में है । इसमें स्त्री के गलत आचरण(?) पर हत्या का विधान है ।[iii] स्वयं रोमन साम्राज्य में ‘परगमन’ करने वाली स्त्री की हत्याओं की घटनाएँ हैं । भारत में ये घटनाएँ अनेकानेक मिथकों के नीचे छिपी मिलती हैं । इसलिए यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि यदि इस दृष्टि से शोध किया जाय तो पाएँगे कि विश्व इतिहास में ‘सम्मान हत्याओं’ की भरमार है । इसमें कोई सभ्यता या संस्कृति किसी से पीछे नहीं है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की जनसंख्या फंड की रिपोर्ट के तीसरे अध्याय[iv] के अनुसार दुनिया में हर साल ५००० स्त्रियों और लड़कियों की हत्या उसके परिवार या समुदाय के लोगों द्वारा की जाती है । समुदायों द्वारा की जाने वाली इन ‘सम्मान हत्याओं’ का संबंध स्त्री की ‘विशुद्धता’ और ‘कौमार्य’ रक्षा से है । इस तरह का जघन्य कार्य करने वाले अक्सर मामूली सजाओं से ही छूट जाते हैं क्योंकि परिवार की इज्जत का मामला क्षम्य अपराध मान लिया जाता है । इस तरह की हत्याएँ बंगला देश,पाकिस्तान,ब्राजील,एक्वाडोर,मिस्र,भारत,पाकिस्तान,मध्य एशिया के देशों,तुर्की जैसे देशों में की गईं । [v] इन देशों की सूची में कुछ पश्चिमी देशों का भी नाम है,लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि वहां ये घटनाएँ उन प्रवासियों द्वारा की गईं जो उपर्युक्त देशों से वहां जाकर बसे थे । मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया के देशों के अनेक महिला संगठनों ने इस रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हत्याओं के ये आंकड़े अधूरे हैं क्योंकि अकेले पाकिस्तान में ही इतनी हत्याएँ होती हैं । उनके अनुसार,हत्याओं की संख्या कम-स-कम इससे चार गुना तो है ही ।
रिपोर्ट में कितने ही देशों में की जा रही इन हत्याओं के रोंगटे खड़े कर देने वाले बयान हैं । रिपोर्ट के अनुसार यह  भीषण त्रासदियां,भयभीत करने वाली घटनाएँ और मानवता के विरुद्ध किए गए भीषण अपराध हैं जिनमें महिलाओं और युवा लड़कियों के सिर काटे गए,उन्हें जिंदा जलाया गया,पत्थरों से मार डाला गया,उन्हें छुरे घोंपे गए,फांसी पर लटकाया गया,बिजली के झटके दे मारा गया,जिंदा दफ्नाया गया,तेजाब फेंक शरीर विकृत किया गया,उन्हें सड़कों पर नंगा घुमाया गया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया ।[vi]
‘सम्मान हत्याए’ -  मुस्लिम समाज तक सीमित होने का मिथ


संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा २ जुलाई,२००२ को जब ‘ सम्मान के नाम पर स्त्रियों के विरुद्ध अत्याचारों की समाप्ति के लिए’ अपने पूर्व के पारित प्रस्ताव संख्या ५५/६६ पर हुए कामों का जायजा लेने के लिए बैठी तो महासचिव ने अपनी रिपोर्ट में देशों से प्राप्त जो तथ्य पेश किए उनसे ऐसा आभास मिलता था कि इन सम्मान हत्याओं का मुख्य जिम्मेदार मुस्लिम समाज है । उसके लिए मुस्लिम देश भी उतने ही जिम्मेदार ठहरे क्योंकि उनमें से अनेक में न केवल इन हत्याओं को रोकने,अपराधियों को दंड देने के लिए कोई कानून नहीं हैं बल्कि अनेक में उसे अपराध तक भी स्वीकार नहीं किया जाता । इस प्रस्ताव पर प्रस्तुत इस रिपोर्ट में कहा गया –
“ अधिकांश ‘ सम्मान अपराध ‘ या तो मुस्लिम देशों में होते हैं या प्रवासी मुस्लिम समुदायों में । यूरोप के देशों में भी इस तरह के अपराधों के लिए प्रवासी मुस्लिम समुदाय ही जिम्मेदारहै । ….यह भी एक विडंबना है कि स्वयं इस्लाम सम्मान संबंधित हत्याओं के लिए प्रस्तावित मृत्युदंड का समर्थन नहीं करता और अनेक इस्लामी नेताओं ने धर्म के आधार पर इस तरह की सजा की मुखालफत की है ।…. इस तरह की तथाकथित ‘सम्मान हत्याओं’ के मामले में सख्त कदम उठाने में निष्क्रियता उन देशों में देखी जाती है जो जो उन्हें समुदाय की परंपरा या रिवाज ठहराते हैं (लेबनन,पाकिस्तान,जोर्डन आदि)…कुछ देश समझते हैं कि रीति-रिवाज और परंपराएँ किसी भी देश या समुदाय की संस्कृति की अभिव्यक्ति होती हैं इसलिए उनका सम्मान किया जाना चाहिए और उन्हें मानव अधिकारों की वैश्विक उद्घोषणा के आधार पर नहीं परखा जाना चाहिए । यह समझ एकदम गलत है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की दिसंबर,१९९३ की ‘स्त्रियों के विरुद्ध तमाम हिंसा रोको’ की उद्‍घोषणा में स्पष्ट कहा गया है कि ‘ कोई देश इसके पालन में अपने रिवाजों या परंपराओं का हवाला नहीं देगा।‘ ” [vii]
संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न समितियों,सभाओं और रिपोर्टों में यह बात उभर कर आई कि यह जघन्य अपराध मुख्यतः मुस्लिम देशों या मुस्लिम समाजों में होते हैं जिसके कारण पितृसत्तात्मकता,धार्मिक कट्टरता,पिछ्ड़ापन,कबीलाई मानसिकता,सामंती सोच और ‘ज़र,ज़ोरू,ज़मीन’ की निपट भौतिकता में थे ।  लेकिन धीरे-धीरे जब अन्य देशों और समुदायों से इन अपराधों के बढ़ने की सूचनाएँ आने लगीं तो मुस्लिम देश केंद्रित इस विवेचन में फेरबदल होना शुरू हुआ । भारत में ‘सम्मान हत्याओं’ की तेजी से बढ़ती घटनाओं ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान कुछ अन्य कारकों की तरफ आकृष्ट किया ।
भारत को आज़ाद हुए आधी शताब्दी से अधिक बीत गई और यहां के जनतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र कहा गया । भारतीय संविधान में स्वतंत्रता,समानता,धर्म-निरपेक्षता को सबसे ऊंचा दर्जा दिया गया । हिंदू समाज में व्याप्त जाति-आधारित भेद-भाव को दूर करने के लिए न केवल संवैधानिक प्रावधान किए गए बल्कि समय-समय पर जाति आधारित आरक्षण नीतियों को लागू करके विभेद को पाटने की कोशिश की गई । यह भी तथ्य है कि चींटी की चाल से ही सही,भारत ने आर्थिक क्षेत्र में अन्य तीसरी दुनिया के देशों की तुलना में अधिक विकास किया और फिलहाल तो वह चीन के बाद सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थ-व्यवस्था है । पिछले अनेक वर्षों में उसके दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की चर्चा जोरों पर है । ऐसी स्थिति में ‘सम्मान हत्याओं’ का इतनी तेजी से उभार और फैलाव विश्व समुदाय और स्वयं भारत के विचारकों के लिए आश्चर्य की बात थी ।
भारत में ‘सम्मान हत्याओं ‘ का आधुनिक इतिहास

हालांकि भारत में तथाकथित सम्मान हत्याओं का सतत सिलसिला हाल के वर्षों की बात है,लेकिन ऐसा नहीं है कि इस तरह की हत्याओं से इससे पहले समाज परिचित नहीं था या कि नारी ने इनकी यातना नहीं सही थी । विभाजन की विभीषिका में उसका घिनौना रूप सामने आया था । विभाजन के दौरान बहुत सी महिलाओं को जबरन विवाह करना पड़ा जिसमें भारत की स्त्री और पाकिस्तान का पुरुष या उसके एकदम उलट विवाह किए गए । लेकिन जब ये स्त्रियां अपने घर लौटीं तो उन्हें समाज या धर्म से बहिष्कृत करने की जगह सरल रास्ता हत्या का खोजा गया जिससे कि परिवार का ‘सम्मान’ बचाया जा सके । इस तरह सैकड़ों महिलाओं की हत्या हुई । लेकिन क्योंकि ये वर्ष काफी अफ़रा-तफ़री और संकट के थे,इसलिए इस पर किसी ने अधिक ध्यान नहीं दिया । ये ह्त्याएँ बर्बरता के इतिहास में उल्लेख योग्य स्थान भी नहीं बना पाईं । इस मुसीबत को शरणार्थियों के जीवन की अनेकानेक मुसीबतों में से ही एक मान लिया गया । और क्योंकि देश नया आज़ाद हुआ था और स्वतंत्र देश का संविधान तक नहीं था इसलिए ये बर्बर ‘सम्मान हत्याएँ’ गुमनामी के गर्त में दबकर रह गईं ।
‘सम्मान हत्याओं’ का  नया दौरः (अ) जाति आधारित हत्याएँ

   

यह बता पाना तो मुश्किल है कि स्वतंत्रता के बाद इस तरह की हत्याओं की वास्तविकता क्या है क्योंकि इस तरह के कोई आंकड़े तैयार नहीं किए गए । समस्याग्रस्त देश में यह भी एक समस्या है कि कितनी समस्याओं का लेखा-जोखा रखा जाय । जब जो समस्या सबसे उग्र रूप धारण कर प्रकट होती है और एक सिलसिले के रूप में सामने आने लगती है,तभी उसपर ध्यान केंद्रित हो पाता है । उससे पहले होने वाली छिटपुट घटनाओं की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता । इसीलिए उसके न तथ्य उपलब्ध होते हैं,न आंकड़े ।  स्वतंत्रता के बाद नारी पर अत्याचार और बर्बरता के जो दो मुख्य स्वरूप सामने आए उनमें एक था गर्भ में लड़की की भ्रूण हत्या का और दूसरा था दहेज हत्याओं का । इन दोनों पर ही जन संचार माध्यमों और लोगों का ध्यान केंद्रित रहा । इसलिए इस बीच यदि ये ‘सम्मान हत्याएँ’ भी होती रहीं तो उनकी इन दो ह्त्याओं से तुलनात्मक न्यूनता के कारण इनकी ओर अधिक ध्यान नहीं गया ।
‘सम्मान हत्याओं’ पर ध्यान पिछले एक दशक में गया जब एक-के-बाद-एक सैकड़ों हत्याओं का सिलसिला सामने आया । पिछले कई वर्षों से कोई दिन ऐसा नहीं रहा जब कहीं से ‘सम्मान हत्या’ का समाचार न मिला हो । इसलिए यह कहना होगा कि नारी के प्रति बर्बरता का यह नया अध्याय पिछले एक दशक में सबसे विकराल रूप धारण कर सामने आया । इसकी वस्तुस्थिति,कारणों,व्याख्या-विश्लेषण और निराकरण-निदान में जाने से पहले उसके कुछ भिन्नतामूलक पहलुओं को समझना जरूरी है । इसके लिए पिछले दिनों हुई हत्याओं में से कुछेक घटनाओं को उदाहरण स्वरूप लिया जाना जरूरी है जो सारे परिदृश्य को सामने लाने वाले हों ।
जाति आधारित हत्याओं में बड़ी संख्या ऐसी हत्याओं की है जिनमें लड़के या लड़की में से कोई एक निम्न जाति से संबंधित रहा है । लड़के या लड़की में से एक जरूरी नहीं कि ब्राहमण या क्षत्रिय जाति का ही हो । वह उच्च या मध्यवर्ती जातियों या पिछड़ी जातियों का भी हो सकता है । लेकिन एक निम्न जाति का होता है ।
जाति आधारित सम्मान हत्याओं में १९९१ का मेहराना कांड पहली ध्यान खींचने वाली घटना माना जा सकता है  । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उपर्युक्त जाट गांव की लड़की रोशनी निम्न जाति मानी जाने वाली जाटव जाति के लड़के विजेंद्र के साथ घर छोड़ कर भाग गई । इसमें लड़के के एक दोस्त ने भी मदद की । लेकिन तीनों पकड़े गए । जाट पंचायत रात भर बैठी जिसमें उन पर रात भर ज़ुल्म ढहाए गए । सुबह उन्हें पेड़ से लटका कर जिंदा जला दिया गया । यह भीषण हत्याकांड सारे गांव के लोगों के सामने हुआ । सारे गांव के लोगों ने प्रेस और पुलिस के सामने इस हत्या को गांव की इज्जत बचाने के नाम पर सही ठहराया । यहां तक कि उस जाति के किसान नेता भी गांव के साथ थे ।[viii]
केवल यही नहीं कि उच्च और निम्न जातियों के बीच सबंध बनाने की कोशिशों के कारण हत्याएँ की गईं,अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें लड़का और लड़की में से कोई भी निम्न जाति का नहीं था,बल्कि दोनों ही उच्च या मध्य जातियों से थे । इस तरह की घटनाओं में अगस्त,२००१ में उत्तरप्रदेश के नगर मुजफ्फरनगर में एक जाट की लड़की सोनू का ब्राह्मण लड़के विशाल से प्रेम संबंध हुआ तो पहले तो लड़की सोनू के पिता ने उसे गले में रस्सी डालकर मार दिया । फिर लड़के विशाल के ब्राह्मण परिवार से भी उनके लड़के को मारने के लिए कहा और उन्होंने भी विशाल को मार दिया । गांव में यह घटना सबकी जानकारी में थी लेकिन किसी ने उसे स्वीकार नहीं किया ।[ix] 
 (आ) समगोत्रिक हत्याएँ


इन हत्याओं में जातिगत आधार नहीं था बल्कि लड़का और लड़की एक ही जाति के थे । यहां मामला एक गांव या गोत्र का होने का है । उदाहरण के लिए मनोज और बबली नामक युवक-युवती को लिया जा सकता है । दोनों जाट समुदाय से थे और समुदाय के एक ही गोत्र ‘बनवाला’ से थे । यह माना जाता है कि एक गोत्र के लोग कई पीढ़ी पहले एक ही माता-पिता की संतान रहे होंगे,भले ही वे अलग गांवों या इलाकों में पाए जाते  हों । इस विश्वास के अनुसार एक गोत्र के लड़के-लड़की को भाई-बहन माना जाता है  और धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसी शादी को अनुचित ठहराया जाता है । लेकिन बबली और मनोज ने इसकी परवाह किए बिना प्रेम-विवाह कर लिया । दोनों घर छोड़कर भाग रहे थे कि लड़की के घर वालों ने उन्हें रास्ते में पकड़ लिया और बेरहमी से मारकर दोनों की लाशों को बोरियों में बंद कर नहर में दबा दिया गया । [x]
‘सम्मान हत्याओं’ संबंधी तथ्यों का आकलन
इन हत्याओं की हजारों घटनाओं के आधार पर यदि निष्कर्ष निकाले जाएँ तो कुछ सामान्य बातें सामने आती हैं । सबसे पहली बात तो यही है कि इन हत्याओं के शिकार युवा वर्ग के लोग हुए हैं,जिनकी औसत आयु १८ से २८ वर्ष के बीच है । दूसरे,सभी मामले इन युवाओं ने परिवार की सहमति और इच्छा को त्याग स्वतंत्र आधार पर या तो प्रेम किया है या एक-दूसरे को अपना जीवन साथी बनाने का निर्णय लिया है । उनमें से अनेक का विवाह संपन्न भी हुआ और कई ने पुलिस और राज्य को इसकी सूचना देकर अपनी सुरक्षा की अपील भी   की । तीसरे,अधिकांश हत्याएँ जातिगत आधार पर ही की गई हैं । भारत के ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ द्वारा अभी तक ह्त्या के ३२६ मामलों का सर्वेक्षण करने के बाद यह निष्कर्ष निकला कि इनमें ७२ % जोड़ों ने जाति की सीमाओं का उल्लंघन किया था और केवल ३% प्रतिशत मामले सगोत्र प्रेम या विवाह के थे । चौथे,पहले आम तौर पर यह माना जाता था कि इस तरह की घटनाएँ सामंती सोच के गढ़ रहे पिछड़े  ग्रामीण क्षेत्रों में ही होती हैं । इसके लिए बिहार और उड़ीसा का नाम अक्सर लिया जाता था । लेकिन तथ्यों से यह स्पष्ट हुआ कि अधिकांश हत्याएँ पंजाब,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन क्षेत्रों में हुईं जो आर्थिक दृष्टि से ही अधिक संपन्न नहीं हैं बल्कि जिन्हें काफी हद तक सामंतवाद की जकड़ से मुक्त समझा जाता था । कॄषि में हरित क्रांति का सफल प्रयोग यहीं हुआ । पांचवे,यह सही है कि इन हत्याओं के अधिकांश मामले मुख्य रूप से पंजाब,हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सामने आए लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि ये इन्हीं तक सीमित हैं । आंध्र,तमिलनाडु,मेघालय,बिहार आदि अनेक प्रांतों से इन हत्याओं की सूचनाएँ मिली हैं । छठे,यह माना जाता रहा है कि ये हत्याएँ पिछड़े ग्रामीण झेत्रों में ही होती हैं,शहरों में नहीं । लेकिन अहमदाबाद,दिल्ली,चेन्नई जैसे शहरों में इनका होना यह सिद्ध करता है कि इनका प्रसार गांव-शहर सबमें है । सातवें,यह माना जाता रहा है कि यह रोग अशिक्षित और निरक्षर लोगों के बीच ही है,जबकि पत्रकार निरुपमा पाठक समेत अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें सुशिक्षित वर्ग भी शामिल है ।
इस तथ्य आकलन से इतना तो स्पष्ट है कि इनका विश्लेषण प्रचलित विश्वासों और पूर्वाग्रहों के आधार पर नहीं किया जा सकता । घटनाओं के तथ्यों और उनके आकलन से कुछेक बातें स्पष्ट होती हैं । विश्व के अन्य देशों और विशेषकर मुस्लिम देशों और समुदाय में प्रचलित ‘सम्मान हत्याओं’ से भारत में होने वाली सम्मान हत्याओं की भिन्नता यह है कि वहां इन हत्याओं का शिकार लड़कियों को बनाया गया । जबकि भारत में होने वाली हत्याओं में युवक और युवती दोनों की हत्याएँ की गईं और ये हत्याएँ परिवार,जाति या समुदाय का तथाकथित ‘सम्मान’ बचाने के लिए परिवार के लोगों द्वारा अपने युवक या युवती की ही नहीं बल्कि उसके साथी दूसरी जाति और समुदाय के लड़के या लड़की की भी की गई । यदि उच्च-निम्न जाति के आधार पर की गई हत्याओं और उच्च-मध्य जातियों  के आधार पर की गई हत्याओं का ध्यान से अध्ययन करें तो पाएँगे कि जहां उच्च-मध्य जातियों की हत्याओं में प्रायः अपने परिवार के संलग्न युवक या युवती की हत्या उसके अपने परिवार ने की लेकिन दूसरी जाति और परिवार पर भी वैसा ही करने का दबाव बनाया गया ।  दूसरी विशेष बात यह सामने आई कि हत्या की जिम्मेदार ऊंची जातियां रहीं । हालांकि अपने चुनाव के आधार पर किए विजातीय प्रेम या विवाह में दो जातियों से जुड़े युवक-युवती बराबर के हिस्सेदार रहे लेकिन ह्त्याओं की पूरी जिम्मेदारी उच्च जाति के परिवार या समुदाय की ही रही । निम्न जाति के युवक या युवती की हत्या दंडस्वरूप सबक सिखाने के लिए की गईं और कई बार तो निम्न जाति के परिवार के लोगों या पूरे समुदाय को भी ‘सबक’ सिखाया  गया ।
‘सम्मान हत्याएँ’ और पुलिस की भूमिका
परिवार,जाति,समुदाय के सम्मान की सुरक्षा के नाम पर जितनी हत्याएँ की जाती हैं उनमें पुलिस की भूमिका वास्तविक अपराधियों को खोजने,पकड़ने और दंड देने की न होकर स्वयं अपराध में शामिल हो जाने की रही है । सभी जानते हैं कि इस तरह के स्वतंत्र संबंध के निर्णय को परिवार या समुदाय की स्वीकृति नहीं मिलने तथा जीवन भय के कारण युगल को भागने के अलावा और कोई रास्ता नहीं सूझता । यहीं व्यवस्था को उन्हें अपराधी ठहराने और दंड देने का पूरा अवसर मिल जाता है । ऐसे सभी मामलों में यदि लड़की उच्च जाति से है तो उसके परिवार वाले पहले तो उसे नाबालिग सिद्ध कर अगुआ किए जाने की रिपोर्ट दर्ज कराते हैं । और तथ्य चाहे जो हों पुलिस और पूरी व्यवस्था इस तरह के प्रेम-संबंध या प्रेम-विवाह को अपराध सिद्ध कर विवाह के परंपरागत सांस्कृतिक रूपों की सुरक्षा के काम में जुट जाती है । पुलिस द्वारा युगल को पकड़ लिए जाने पर लड़की को या तो उसके परिवार के सुपुर्द कर दिया जाता है या मानसिक रूप से अस्थिर रोगियों के स्थानों में भेज दिया जाता है और लड़के को लड़की का अपहरण करने,उसे फुसलाने या बलात्कार आदि के आरोप में जेल भेज दिया जाता है । समय बीतने पर लोग इन घटनाओं को भूल जाते हैं और लड़की को परिवार की मर्जी से पारंपरिक विवाह के लिए मना लिया जाता है । इस तरह सैकड़ों मामले ‘सम्मान हत्या’ होने से बच जाते हैं । बाकी मामले ‘सम्मान हत्याओं’ द्वारा निपटा दिए जाते हैं । ऐसे अनेक मामले भी सामने आए जब युगल ने पुलिस और न्यायालय को अपनी जान के लिए खतरे की सूचना देकर सुरक्षा प्रदान करने की अपील की । इसका परिणाम प्रायः उलटा ही हुआ । पुलिस ने प्राप्त सूचना को परिवार के लोगों को बता दिया जिससे युगल को ढूंढकर उनकी हत्या करने में उन्हें सुविधा हुई ।
खप पंचायतें और ‘सम्मान हत्याएँ



जबसे इन तथाकथित ‘सम्मान हत्याओं’ का नया सिलसिला शुरू हुआ है तब से विशेष रूप से हरियाणा,पंजाब,राजस्थान और उत्तरप्रदेश में जाति-आधारित खप पंचायतें अत्यधिक सक्रिय हो उठी हैं । इन हत्याओं के अनेक मामले न केवल इन पंचायतों के निर्णय के आधार पर हुए बल्कि अनेक उनकी बैठकों में ही हुए । हाल में इन खप पंचायतों ने न केवल जाति के अंदर समान गोत्र के मामलों में हत्या,दंड और जाति बहिष्कार के निर्णय सुनाए हैं बल्कि ये अंतर्जातीय विवाहों के मामलों में भी फैसले देने लगी हैं । इन पंचायतों ने दलितों पर जुल्मों की नई मिसाल कायम की हैं । हरियाणा के हिसार जिले में मिर्चपुर में हाल में हुई घटनाएँ इसका केवल एक उदाहरण हैं ,(हिंदू,जून १,२०१०) जिसमें गांव के सारे दलितों को घर छोड़कर भागना पड़ा । ये खप पंचायतें अपने को प्रासंगिक बनाने के लिए समुदाय की जनतांत्रिक,संगठित और प्रातिनिधिक संस्था होने का दावा कर रही हैं और गांवों में जातीय विभाजन को,जातिगत ऊंच-नीच की संहिताओं को बरकरार रखने के लिए नए शक्ति केंद्रों के रूप में सामने आ रही हैं । पिछले दिनों ‘सम्मान हत्याओं’ में इनकी भूमिका खुलकर सामने आई और इन्होंने हत्याओं में अपनाई गई क्रूरताओं के नए प्रतिमान गढ़े ।
ये खप पंचायतें हत्याओं के सिलसिले को कायम रखने,बढ़ाने और क्रियान्वयन में ही सक्रिय नहीं हैं बल्कि जाति-व्यवस्था को कायम रखने,उसे और मजबूत करने और मध्ययुगीन सामंती सोच को दॄढ़ करने के मुख्य केंद्र बन गईं हैं । अपने जातिगत संगठनों के माध्यम से वे राजनीतिक प्रक्रियाओं,राजनीतिक नेतृत्व,जनतांत्रिक विधि-विधानों को बेहतर बनाने के लिए प्रस्तावित फेरबदल को उलटने में प्रयत्नशील हैं । सभी जानते हैं कि ‘सम्मान हत्याओं’ के मामले में खप पंचायतों के सभी निर्णय गैर-कानूनी हैं । हिंदू विवाह कानून में न तो अंतर्जातीय विवाह गैर-कानूनी हैं और न ही सगोत्र-विवाह । इसका प्रमाण इसी बात से मिल गया जब हरियाणा-पंजाब के उच्च न्यायालय ने खप पंचायत द्वारा मनोज और बबली की ‘सम्मान हत्या’ को न केवल भयंकर अपराध करार दिया बल्कि हत्या करने वाले पांच लोगों को मौत की सजा सुनाई और दो को उम्रकैद की सजा दी । यह अपने आप में खप पंचायतों और ‘सम्मान हत्याओं’ पर स्पष्ट मत था । लेकिन न केवल पंचायतें अदालत के फैसले को गलत बताने में जुटी हैं बल्कि राजनीतिज्ञों पर इस बात के लिए दबाव बना रही हैं कि वे हिंदू विवाह कानून में इस तरह परिवर्तन कराएँ कि सगोत्र विवाह अवैध ठहराए जाएँ । (हिंदू,मई २७,२०१०) वोट-बैंक की राजनीति के चलते,इस बात को लेकर बहस चल पड़ी है कि हिंदू विवाह कानून में खप पंचायतों के दबाव में आकर ऐसे संशोधन किए जाएँ जो सगोत्र विवाह,अंतर्जातीय विवाह,प्रेम-विवाह आदि को गैर-कानूनी ठहरा दें या सके विपरीत ऐसे परिवर्तन किए जाएँ जो ‘सम्मान हत्याओं’ के सिलसिले को रोकने के लिए इस कानून को अधिक लोकतांत्रिक बनाएँ और अपराधियों को सख्त सजा देने के और प्रावधान करें ।
हिंदू विवाह कानून,भारतीय न्याय व्यवस्था और ‘सम्मान हत्याएँ


यह कहने की अलग से आवश्यकता नहीं है कि भारत में ‘सम्मान हत्याओं’ का पूरा मामला समाज की संस्कृति में मौजूद जातिवादी,पितृसत्तात्मक,भेदभावपूर्ण संरचनाओं से जुड़ा है और अंततः इनका स्थाई समाधान भी इस संरचनागत परिवर्तन से ही होगा । लेकिन इस परिवर्तन को संभव बनाने में समाज और देश  व्यवस्था के अन्य निकाय अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इन निकायों में कानून,न्याय-व्यवस्था सबसे पहले आते हैं ।
यहां हमारा उद्देश्य जातिप्रथा और विवाह व्यवस्था के मूल में जाना नहीं है,लेकिन उसके संबंध में कुछ प्राथमिक बातें कहना जरूरी है । हम जानते हैं कि हिंदू शास्त्र-सम्मत ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में स्त्री जाति-व्यवस्था को बनाए रखने का सबसे महत्वपूर्ण साधन रही है । यह अकारण ही नहीं है कि आज जाति और स्त्री के सवाल आपस में इतने जुड़े हुए हैं । स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण से ही जाति की रक्त शुद्धता को बचाया जा सकता था । इसमें ऊंची जाति की स्त्री बहुत बड़ी भूमिका अदा करती थी,इसलिए अन्य जातियों से संपर्क से बचाए रखने के लिए विवाह के कड़े नियम बनाए गए । भले ही विवाह संबंधी नियमों का ब्यौरेवार उल्लेख न मिलता हो लेकिन इतना निश्चित है कि उसके धर्मशास्त्र के अलिखित नियम थे जो जाति के आधार पर मनमाने ढंग से परिभाषित और व्याख्यायित किए जाते  थे । इन्हें अंग्रेजी राज के समय जब सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया गया और १८७२ के अधिनियम ३ (जिससे भारत में सिविल विवाह की नींव पड़ी) को इस रूप में परिवर्तित करने की कोशिश की गई कि अंतर्धामिक और अंतर्जातीय विवाहों को वैध ठहराया जा सके तो पूरे देश में हड़कंप मच गया । जातिगत जकड़बंदी और समाज में उच्च जातियों के वर्चस्व के चलते आम राय यह बनी कि विवाह के लिए सहमति का अधिकार समुदाय के पास होना  चाहिए न कि विवाह करने जा रहे युगल के पास । इस पर सरकार को जो याचिकाएँ दी गईं उनमें ‘प्रेम विवाह’ को ‘जाति और समाज भंजक’,अंतर्जातीय विवाह को ‘घृणास्पद’ आदि कहकर समाज और जाति की रक्षा की गुहार लगाई गई । यही कारण है कि वह अधिनियम अपने प्रस्तावित रूप में पारित नहीं हो पाया और उसमें निहित अमूर्तताओं के चलते विवाह कानून को लेकर भ्रांतियां चलती रहीं ।
भारत का संविधान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दलित नेता अंबेडकर को ही ‘हिंदू कोड बिल’ बनाने का जिम्मा सोंपा गया था जिसे उन्होंने ११ अप्रेल,१९४७ को संविधान सभा में रखा । इस बिल पर चार साल तक विवाद चलता रहा और अंततः हार कर देश के प्रथम विधिमंत्री बने अंबेडकर ने यह कहकर संसद से त्यागपत्र दे दिया कि ‘ बिल की हत्या कर दी गई और वह बिना पारित हुए ही मर गया ।‘[xi]  अंबेडकर का कहना था कि इस बिल के द्वारा वे स्त्रियों को समानाधिकार देना चाहते थे और अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ावा देने के प्रावधान करना चाहते थे । लेकिन बिल के विरोध में इतना उपद्रव हुआ मानो इससे हिंदू समाज खंड-खंड होकर बिखर जाएगा । स्वयं भारत गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इस बिल पर वक्तव्य देते हुए कहा कि यदि यह संसद में पास हो भी गया तो वे इस पर अपनी स्वीकृति नहीं देंगे । इस तरह एक बार फिर हिंदू विवाह संस्था को तार्किक और न्यायोचित रूप देने की संभावनाओं पर पानी फिर गया । बाद में जवाहरलाल नेहरू ने तीन खंडों में करके हिंदू कोड बिल को पेश किया जो १९५५ में संसद में पारित हुआ ।[xii] क्योंकि यह बहुमत के विरोध के सामने एक समझौते के रूप में था इसलिए उसके कारण विवाह को लेकर तमाम व्यावहारिक भ्रांतियां चलती रहीं जिनका परिणाम इन सम्मान हत्याओं के रूप में सामने आ रहा है ।
जैसा कि हमने कुछ पहले उल्लेख किया,इसकी जातिगत और धर्मशास्त्रगत मनमानी व्याख्या पर पहला बड़ा कुठाराघात पंजाब और हरियाणा उच्च-न्यायालय के उस फैसले से हुआ जिसमें खप पंचायत के सगोत्र विवाह के विरुद्ध फैसला सुनाया गया और अपराधियों को मृत्युदंड तथा उम्रकैद की सजाएँ दी गईं । इसी क्रम में २० अप्रैल,२०११ को भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी इस आदेश को लिया जा सकता है जिसमें उसने सभी राज्यों से ‘सम्मान हत्या’ नाम के इस कलंक को पूरी तरह खत्म करने का अदेश दिया ।[xiii] न्यायालय ने सरकारी तंत्र से जुड़े जिम्मेदार अधिकारियों को कहा कि यदि उन्होंने अपराधियों के विरुद्ध कार्यवाही में कोई चूक की तो उन्हें दंडित किया जाएगा । न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और ज्ञानसुधा मिस्र ने आदेश सुनाते हुए कहाः
इन ‘सम्मान हत्याओं’ या अन्य ढहाए जा रहे जुल्मों में कुछ भी सम्मानजनक नहीं है । वास्तव में ये बर्बर और शर्मनाक हत्याएँ हैं ।…हमने इन ‘खप पंचायतों के बारे में सुना है जो अक्सर ‘ विभिन्न धर्मों और जातियों के उन युवक-युवतियों के विरुद्ध सम्मान हत्याओं’ और संस्थागत जुल्मों के फैसले सुनाती हैं या उन्हें बढ़ावा देती हैं,जो अपनी मर्जी से विवाह करना चाहते हैं या विवाह कर चुके हैं,और इस तरह लोगों की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप करती हैं । हमारी राय में यह पूरी तरह गैर-कानूनी है और इसे खत्म किया जाना चाहिए ।…यदि कोई जिलाधिकारी या उच्च पुलिस अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता तो राज्य सरकार को उसे निलंबित कर देना चाहिए ।‘ (दैनिक भास्कर.काम,मई११,२०११)
न्यायालयों के इन निर्णयों और अनेकानेक जन-संगठनों,महिला संगठनों और दलित संगठनों के दबाव में केंद्रीय सरकार ने मंत्रियों के एक समूह को कानून में परिवर्तन का काम सोंपा है जिसमें इस तरह के अपराधों को रोकने और अपराधियों को सख्त सजा देने का प्रावधान होगा । सरकार का कहना है कि यह बिल संसद के मानसून सत्र में ही रखा जायगा । लेकिन दूसरी ओर कई राज्यों की खप पंचायतों ने अपना महाखप पंचायत सम्मेलन करके राजनीतिक दलों,नेताओं पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि वे यदि परिवर्तन करना ही चाहते हैं तो वैसा करें जैसा ये पंचायतें चाहती हैं ।
इस तरह एक दूसरे स्तर पर यह कानूनी संघर्ष जारी है जो ‘सम्मान हत्याओं’ की वस्तुस्थिति को काफी हद तक प्रभावित करेगा ।
‘सम्मान हत्याओं’ के कारणों की पड़ताल
(अ)सांस्कृतिक संरचनाओं की आधारशिला


हत्याओं की घटनाओं के अध्ययन से एक तथ्य तो स्वतः सिद्ध है कि इनका संबंध एक ओर जहां जाति-व्यवस्था को बनाए रखने की आकांक्षाओं से है,वहीं दूसरी ओर स्त्री के आचरण और यौनिकता को पारिवारिक,जातिगत और सामुदायिक नियंत्रण में रखने से है । अधिकांश हत्याएँ जाति सीमाओं के उल्लंघन,प्रेम या विवाह में स्त्री द्वारा निजी चुनाव और निर्णय के अधिकार के उपयोग के कारण हुई   हैं । सार रूप में कहें तो वैवाहिक संस्था से इसका गहर संबंध बनता है । एक मनोविशेषज्ञ की राय मेः
‘ विवाह हिंदू समाज के हृदय स्थल पर निवास करता है । यह हिंदू मानस के अग्रभाग का हिस्सा और समाज की धुरी है । इसका जाति से सीधा जुड़ाव है और जाति किसी हिंदू के लिए उसके अस्तित्व की बुनियाद है । पुरुष की जाति उसके माता और पिता दोनों की जातियों से तय होती है और तत्पश्चात उसके अपने विवाह और यौन संबंध के आधार पर बनी रहती है या बदलती है ।’ [xiv]
वैवाहिक विधान और कर्मकांड को सामान्य रूप से धर्मशास्त्रों पर आधारित माना जाता है । कौन सा धर्मशास्त्र ! क्योंकि ईसाइयों या मुस्लिमों की तरह हिंदुओं का कोई एक ऐसा ग्रंथ नहीं है जिसे  धर्मशास्त्र  मान उससे हवाला दिया जा सके । लगभग दूसरी सदी की रचना ‘मनुस्मृति’[xv] (जिसे दूसरे शब्दों में ‘मानव धर्म शास्त्र’ भी माना गया है ) ही  एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें विस्तार से हिंदुओं के व्यावहारिक जीवन नियमों और कर्मकांडों की व्याख्या दी गई है । हालांकि हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा,विशेषकर उसके आधुनिक शिक्षा प्राप्त और धर्म-निरपेक्ष लोग,‘मनुस्मृति’ को संदेह की दृष्टि से देखता है,लेकिन आम समाज में वही एक तरह का संदर्भ ग्रंथ माना जाता है । पूरे ग्रंथ में मनु की मूल चिंता जाति के आधार पर सबके कर्तव्य-कर्म तय करना और उनका कड़ाई से पालन कराना रही । नियम कहता है कि प्रत्येक वर्ण अपने लिए अनंत काल से निर्धारित आचार पर चले । जिनका सीधा जुड़ाव विवाह,विवाह के अनुष्ठान,उचित-अनुचित आहार,स्त्रियों के लिए निर्धारित दायित्वों,राजा के दायित्व और वैश्यों और शूद्रों के व्यवहार से है । स्त्री और विवाह आदि की संहिताओं में उच्च जाति की स्त्रियों और निम्न जाति की स्त्रियों के आचरण के अलग-अलग नियम हैं,उसी तरह उच्च जाति के विवाह और निम्न जातियों के विवाहों के लिए भी अलग निर्देश हैं । मनु के अनुसार पुरुष-स्त्री संबंधों और विवाहों में  जाति-विधानों का उल्लंघन दो तरह से हो सकता है – उच्च जाति के पुरुष का निम्न जाति की स्त्री से संबंध या उसे पत्नी बनाना ‘अनुलोम’ (मानवविज्ञान की भाषा में हाइपरगैमी) है और उच्च जाति की स्त्री का निम्न जाति के पुरुष के साथ संबंध या विवाह ‘प्रतिलोम’ ( मानवविज्ञान में हाइपोगैमी) है । मनु की दृष्टि में प्रथम प्रकार का संबंध जाति का उल्लंघन तो है लेकिन फिर भी ‘प्राकृतिक’ है,लेकिन दूसरे प्रकार का संबंध अप्राकृतिक,अक्षम्य और धिक्कार योग्य है । पहले प्रकार का संबंध जहां कई नई जातियों को जन्म दे सकता है,वहीं दूसरे प्रकार का संबंध दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है । समगोत्र विवाह का निषेध भी ‘मनुस्मृति’ में है । इन्हीं उल्लंघनों के संदर्भ में ‘वर्णशंकर’ की व्याख्या मनु ने की है ।
यहां हमारा उद्देश्य धर्माशास्त्रों के मूल विवेचन में जाना उतना नहीं है,जितना इस बात को रेखांकित करना है कि आज जाति,विवाह, स्त्री आचरणों और दंड विधानों को लेकर जो व्यवहार सामाजिक स्तर पर देखने को मिलता है और जिसके लिए प्रायः धर्मग्रंथों का हवाला दिया जाता है,वे कोई नई ईजाद नहीं हैं बल्कि उनके श्रोत प्राचीन धर्मग्रंथों में हैं । ये सांस्कृतिक संरचनाएँ सैकड़ों वर्षों से अनवरत चली आ रही हैं । असल सवाल उनके धर्म-सम्मत होने का इतना नहीं है बल्कि यह है कि आधुनिक समय में तमाम तत्कालीन तकाजों को दरकिनार कर उनका आंख बंद कर पालन किया जा रहा है और उनके नाम पर जघन्य अपराध किए जा रहे हैं । यदि ऐसा किया जाता है तो एक हिंदू और एक तालिबान में क्या फर्क रह जाएगा ! दोनों ही धर्मग्रंथों का हवाला दे सकते हैं ।
(आ) नई जातिगत सामाजिक संरचनाएँ


भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास ने अपनी मृत्यु से ठीक पहले बंगलौर के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ एडवांस्ड स्टडीज में एक वक्तव्य दिया था जिसे बाद में आलेख के रूप में ‘व्यवस्था के रूप में जाति का अंत’ नाम से प्रकाशित किया गया । इस वक्तव्य में श्रीनिवास ने जाति व्यवस्था के टूटने और इसके कारण वर्चस्वकारी जातियों और दलितों के बीच तनाव बढ़ने की संभावनाओं पर कहा थाः
‘ तकनीकी और सांस्थानिक परिवर्तनों के साथ लोकतंत्र,वैयक्तिक आत्मसम्मान आदि नए विचार सामाजिक संबंधों की प्रकृति को बदल रहे हैं । यह ऊंची जातियों के प्रति निचली जातियों के और दलितों के बर्ताव में साफ दिखता है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सामान्य तौर पर निचली जातियों के इस अभिमानी व्यवहार पर ऊंची जातियां खफा होती हैं । यह क्षोभ दलितों और आदिवासियों पर अधिक प्रकट होता है ।…दॄढ़निश्चयी दलितों और आक्रामक वर्चस्वकारी जातियों के बीच निकट भविष्य में झड़पें बहुत बढ़ने वाली हैं । इससे अनगिनत गांवों में खूनी झगड़े बढ़ जाएँगे । दुखद बात यह है कि ऐसे झगड़ों का पूर्वानुमान लगाने और उन्हें रोकने के लिए सत्ताधारी लोगों की ओर से कोई कोशिश तक नहीं हो रही ।‘ [xvi]
श्रीनिवास ने जिन भावी खूनी संघर्षों की बात की थी वह उनके सामने ही शुरू हो गए थे ।  लेकिन अधिकांश में इन्हें संघर्ष न कहकर इकतरफा हमलों की संज्ञा दी जाए तो अधिक सही होगा क्योंकि इनमें उंची जाति या मध्य जातियों के दलितों पर हमले ही मुख्य रूप से हैं । इन्हीं का एक रूप इन तथाकथित जातिगत ‘सम्मान हत्याओं’ में दिखाई पड़ता है । सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अभी कल तक जो जातियां शूद्रों की श्रेणी में शुमार की जाती थीं और आज पिछड़ी जातियों के रूप में,वे भी दलितों के ऊपर हमलों के लिए उतनी ही जिम्मेदार हैं जितनी ऊंची जातियां । बल्कि नव प्राप्त धनाढ्यता और सत्ता के कारण वे हमलों में सबसे आगे हैं । अधिकांश खप पंचायतें मुख्य रूप से इन्हीं जातियों के परंपरागत संगठन हैं । यह क्योंकर हुआ ! अभी कल तक जो ब्राहमणवादी व्यवस्था और उच्च जातियों के शोषण और दमन के शिकार थे,वे स्वयं दलितों के उत्पीड़क कैसे बन गए ! इसके समाजशास्त्र को ठीक से समझना होगा ।
लेकिन इस समझदारी के लिए जरूरी है कि हम जातियों के समीकरण और पारिभाषिक स्वरूपों को समझें । अधिकांश में लोग वर्ण-व्यवस्था में सबसे नीचे की शूद्र जाति के रूप में दलितों की पहचान करते हैं । यह सही नहीं है । शूद्र जातियां हमेशा ही श्रम और कृषि पर निर्भर रही हैं और उनमें उनकी बहुसंख्या है जिन्हें आज हम पिछड़ी जातियों के रूप में जानते हैं । दलित वर्ण व्यवस्था के बाहर हैं और जमीन पर उनका कोई हक कभी नहीं  रहा ।
स्वतंत्रता के बाद जो भी आधे-अधूरे भूमि-सुधार या हरित क्रांति जैसे प्रयोग हुए उन्होंने खेतिहर जातियों (शूद्र या पिछड़ी जातियों) को सशक्त और समृद्ध किया । अपनी संख्या के बल पर इन जातियों ने आजादी के बाद,विशेषकर १९७० के बाद सभी राज्यों में राजनीतिक तौर पर अपना दबदबा कायम किया । द्रविड़ मुन्नेत्र कजगम,तेलुगू देशम,समाजवादी पार्टियों के तमाम गुट,जनता पार्टी के अनेकानेक धड़े,शिवसेना आदि में इसे देखा जा सकता है । स्वयं मुख्य पार्टियों – कांग्रेस और भाजपा – में भी इन जातियों का दबदबा बढ़ा है । लेकिन  इसी बीच जमीन से अलग रखे गए दलितों को केवल आरक्षण से जो लाभ मिला सो मिला,आम तौर पर उनकी आर्थिक स्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं हो पाया । फिर भी शिक्षा के प्रसार,आरक्षण के अंतर्गत शिक्षा और नौकरियों की सुलभता ने उनमें स्वाभिमान,बराबरी और मध्यवर्ग में शामिल होने की प्रवृत्ति को बढ़ाया है । नए शिक्षा संस्थानों में सभी जातियों के लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं,परिवहन के सार्वजनिक साधनों में एक साथ सफर करते हैं,उनके मन में पुरानी जातिवादी रूढ़ियां भी कम हो रही हैं । इन सब से जातियों की सीमाओं से बाहर जाकर प्रेमसंबंध बनाने की घटनाओं को जहां बढ़ावा मिलता है वहीं सबल जातियों (जिनमें पुरानी उच्च जातियां तो हैं ही,पिछड़ी जातियां भी शामिल हो गई हैं) के द्वारा प्रतिशोध और उत्पीड़न की घटनाएँ भी बढ़ती हैं । ‘सम्मान हत्याओं’ के संदर्भ में इस कोण से भी विचार करना समीचीन   होगा ।
सामाजिक संरचना में हुए इस बदलाव और उसके राजनीतिक,सामाजिक,जातिगत समीकरणों और अभिप्रायों के संदर्भ में इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि आर्थिक विकास के पूंजीवादी रास्ते को अपनाने की सहज परिणति सामंतवादी संबंधों की क्षीणता में होनी चाहिए थी । सामंतवादी सोच जहां एक ओर जातिवादी आधार को बरकरार रख मजबूत करता है वहीं स्त्री को पण्य वस्तु मान उसके प्रति स्वामी-दास के संबंध बनाता है और पितृसत्तात्मक अधिकारों को मजबूत करता है । पूंजीवाद इन बहुत सी बुराइयों से समाज को मुक्त कर सकता था जैसा कि उसने दुनिया के अन्य विकसित देशों में किया भी है । लेकिन भारत में दुखद बात यह हुई कि अंग्रेजों ने अपने  राजनीतिक स्वार्थों के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में सामंती भूसंबंधों को तोड़ने की जगह उन्हें और मजबूत किया । स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए बुर्जुआ वर्ग ने भी सामंती सबंधों और सामंतवाद पर निर्णायक प्रहार न कर उसे सत्ता में भागीदार बनाकर और मजबूत किया । यही कारण है कि बाकी इलाकों की बात तो छोड़िए,स्वयं जिन इलाकों में हरित क्रांति या पूंजीवादी विकास देखने को मिलता है वहां भी सामंती संबंध और व्यवहार बरकरार रहा । सामंती शक्तियां कमजोर और अप्रासंगिक होने की अपेक्षा और मजबूत हुईं और जमीन और अन्य साधनों पर उनका वर्चस्व न केवल कायम रहा बल्कि और बढ़ा । ये सामंती शक्यियां ही आज दलितों पर अत्याचार,उनके सामाजिक बहिष्कार और ‘सम्मान हत्याओं’ आदि के रूप में स्वयं को व्यक्त कर रही हैं । सामंती शक्तियों और संबंधों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष छेड़ने में शिथिलता और अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें हवा देने की प्रवृत्ति आज भी भारत के बड़े राजनीतिक दलों की विशेषता है । इसका बड़ा कारण ‘वोट बैंक’ की राजनीति भी है जिसमें ये तथाकथित खप पंचायतें जाति के वोटों की मालिक बन गई हैं । आज जब पूरे देश में खप पंचायतों के गैर-कानूनी रवैये और ह्त्याओं के बर्बर निर्णयों पर सवाल उठ रहे हैं,जबकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उनके विरुद्ध वक्तव्य दिया है तो अनेक राजनीतिक दलों के नेता उनके पक्ष में वक्तव्य दे रहे हैं । यह इस बात का प्रतीक है कि अभी भी सत्तासीन दल सामंती शक्तियों और संबंधों पर सीधे आक्रमण करने से बच रहे हैं । भारत की अधिकांश सामाजिक समस्याओं का स्रोत यही अपवित्र गठबंधन है ।
ऊपर से चीजें चाहे जितनी सांस्कृतिक,परंपरागत,धार्मिक नज़र आएँ,सभी के मूल में एक निर्लज्ज भौतिकता भी छिपी होती है । ऐसा नहीं है कि जाति के तंत्र को बने रहने देने के पीछे केवल वैचारिक कारण ही रहे बल्कि ठोस भौतिक कारण भी रहे हैं और आज भी हैं । उदाहरण के लिए प्राचीन समय से उंची जातियों में विधवा को विवाह करने की जो मनाही थी उसके पीछे परिवार की संपत्ति के बटवारे का डर मूल में था । नीची जातियों के मामले में ऐसा कोई डर नहीं था इसलिए मनु तक को उनपर किसी प्रकार की रोकटोक लगाने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई । उनमें  वे सब चीजें आम थीं जिसकी एक उच्च वर्ग की स्त्री के लिए सख्त मनाही थी । स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे सभी राज्यों में संपति पर संतान के अधिकारों में लड़की के अधिकार को भी कानूनी दर्ज़ा दिया गया । इसलिए भूस्वामी जाति की लड़की यदि भूमिहीन जातियों के यहां जाती है तो भूमि वितरण की एक नई प्रक्रिया शुरू हो सकती है  जिसका परिणाम अंततः प्रभु वर्गों की सत्ता के अवसान में हो सकता है । इसलिए यह हिंसक प्रतिक्रिया होती है ।
‘सम्मान हत्याओं’ को रोकने के उपाय
तथाकथित ‘सम्मान हत्याएँ’ पिछले अनेक वर्षों से देश के अंदर ही नहीं,अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की चिंता का विषय बन चुकी हैं । संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने सन्‌ २००० में एक प्रस्ताव (५५/१११) पास करके सरकारों से कहा कि ‘ वे गंभीरता से आवेग या सम्मान के नाम पर की जा रही हत्याओं की पूरी जांज-पड़ताल करें,दोषियों को स्वतंत्र न्यायालयों के सामने पेश करें और यह सुनिश्चित करें कि सरकारों,उसकी मशीनरी या व्यक्तियों द्वारा इस तरह की हत्याओं की अनदेखी न की जाय ।’[xvii] हालांकि उसके बाद के वर्षों में पारित प्रस्तावों में लगातार ‘सम्मान हत्याओं का जिक्र होता रहा,लेकिन २००० में पारित यह प्रस्ताव पहला और केवल इसी समस्या पर केंद्रित था ।[xviii]
 इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि यदि कोई सरकार ऐसा नहीं कर पाती तो वह मानव अधिकारों के उल्लंघन का दोषी करार दी जाएगी । इसी में आगे यह कहा गया कि सरकार द्वारा सबसे पहला कदम तो यही होगा कि इन हत्याओं पर हत्या और अपराध के आम कानून लागू होंगे और उनके बचाव में किसी भी तरह का सांस्कृतिक या अन्य तर्क न तो माना जाएगा और यदि कानून में है तो उसे खत्म कर दिया जाएगा । [xix]
इन प्रस्तावों में देशों की सरकारों को इस समस्या से निपटने के लिए और भी अनेक हिदायतें दी गई हैं । मसलन यह कहा गया है कि सरकारें इस तरह के रिवाजों के विरुद्ध शिक्षा अभियान चलाएँ,हर चुनावी या अन्य अभियान में इसे जरूरी मुद्दा बनाएँ और उसको बढ़ावा देने वाली सांस्कृतिक संरचनाओं या संस्थाओं को अप्रासंगिक बनाने के लिए सक्रिय कार्यवाही करें । लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि सरकारें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के दबावों के तहत उतना नहीं जितना राष्ट्रीय दबावों या अपने अस्तित्व सुरक्षा के लिए सक्रिय होती हैं ।
इस दिशा में सबसे कारगर कदम तो वही माना जा सकता है जो जातिवाद और नारी-विरोधी पितृसत्तात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं को कमजोर करने वाला हो । कायदे से यह कार्य स्वाधीनता के     बाद के इन साठ सालों में हो जाना चाहिए था । लेकिन जैसा हमने कहा कि आजादी के बाद के इन वर्षों में सत्ता में रही सरकारों या राजनीतिक दलों ने अपने अस्तित्व के लिए सामंती सामाजिक शक्तियों से गठजोड़ किया,जिससे वे समाप्त होने की जगह मजबूत होती गईं और आज जनतंत्र और मानवाधिकारों के सामने एक गंभीर चुनौती के रूप में विद्यमान हैं । इसके लिए जनतांत्रिक पद्धतियों और राजनीतिक उद्देश्यों में आमूल परिवर्तन लाने होंगे और तात्कालिकता की स्वार्थगत नीतियों को छोड़ देश और समाज के दूरगामी लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना होगा ।
पिछले दिनों देश में ‘सम्मान हत्याओं’ में आई तेजी और उनके साथ जुड़ी अमानवीयताओं और पाशविक बर्बरताओं से पूरा जनमानस उद्वेलित हुआ है । जनसंचार माध्यमों ने इनसे संबंधित रिपोर्टों को प्रकाशित-प्रदर्शित कर  सकारात्मक भूमिका निभाई है । अनेक गैर-सरकारी संगठन,महिला और दलित संगठनों ने इन हत्याओं का विरोध कर जन मानस को इनके विरुद्ध किया है । स्वयं न्याय-व्यवस्था ने इन हत्याओं के विरुद्ध स्पष्ट निर्णय देकर इन्हें गैर-कानूनी ठहराकर भयंकर अपराध माना है । इसलिए देश में इनके विरुद्ध कानून बनाने का स्वर प्रबल हुआ है और सरकार को आश्वासन देना पड़ा है कि वह शीघ्र ही इस संबंध में कानून संसद में पेश करेगी । इसके लिए उसने मंत्रियों के समूह का गठन करके,राज्य सरकारों की राय भी मांगी है ।
ये सब इस अपराध को रोकने के लिए सही दिशा में उठाए गए कदम हैं । लेकिन इसके साथ ही राजनीति और राजनीतिज्ञों की फौरी रणनीतियों और उलटफेरों के इतिहास को भी नहीं भूलना चाहिए और न ही इस बात को नजरंदाज करना चाहिए कि इसके विरुद्ध खप पंचायतों जैसी परंपरागत संस्थाएँ सक्रिय हैं जो ‘वोट बैंक’ की राजनीति का डर या लालच दिखा परिवर्तन के इस अभियान की धार को कुंद कर सकती हैं । सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन हत्याओं के पीछे जो सांस्कृतिक-सामाजिक संरचनाएँ हैं वे अभी भी अस्तित्ववान ही नहीं,गहरी हैं । उनको कमजोर करने के लिए सभी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में जनतांत्रिक विकल्पों को मजबूत करना होगा,आधुनिक शिक्षा और जन-स्वास्थ्य सेवाओं को फैलाना होगा,विकास का लाभ नीचे तक पहुंचे इसका प्रबंध करना होगा,दलितों और महिलाओं पर अत्याचार रोकने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे ।
उपसंहार
यहां हमने आधुनिक समाजों में प्रचलित ‘सम्मान हत्याओं’ और उनके प्रति अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और समुदायों की प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में भारत में होने वाली ‘सम्मान हत्याओं’ का अध्ययन किया है । उनमें बहुत सी बातों में समानता होने के साथ ही कुछ अंतर मौजूद हैं जो भारत की अपनी सांस्कृतिक विरासत और विशिष्ट सामाजिक संरचनाओं के कारण हैं । इनमें पितृसत्तात्मकता और जाति-व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । उच्च जातियों में नारी की यौनिकता पर नियंत्रण का अनुष्ठान एक ओर जहां जाति की परिशुद्धता और सातत्य को बनाए रखने के निमित्त है वहीं उसके ठोस भौतिक कारण भी रहे हैं ।
अफ़सोस की बात यही है कि स्वाधीनता के बाद देश में जनतांत्रिक संविधान और लोकतंत्र की स्थापना के बाद भी जातिवादी व्यवस्था और पितृसत्तात्मक संरचनाएँ फल-फूल रही हैं । दलित और नारियों पर अत्याचारों का सिलसिला जारी है । हाल के सालों में विजातीय प्रेम और विवाहों में वृद्धि एक तरफ जहां पीड़ित समुदाय के बढ़ते स्वाभिमान और जनतांत्रिक चेतना का प्रतीक हैं,वहीं ‘सम्मान हत्याओं’ में वृद्धि प्रभुत्वशाली जातियों के प्रतिगामी सामंती सोच,प्रतिशोध और बर्बर रवैये का । इसपर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और समुदाय समेत भारत के सचेत वर्गों में भी प्रतिक्रिया हुई है । इससे भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झटका लगा है जिससे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और शक्ति की प्रतिमा को ठेस पहुंची है । इन कुछ हजार हत्याओं के कारण वे हजारों अंतर्जातीय विवाह नज़रंदाज कर दिए जाते हैं जो आए दिन होते हैं ।
पिछले दिनों हत्याओं के इस सिलसिले और उनमें दिखाई गई बर्बरताओं के प्रति देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई है जो न्यायतंत्र से लेकर मीडिया और जनमत में दिखाई पड़ती है । इससे इस व्याधि से निपटने का माहौल बना है और सरकार इसके विरुद्ध कड़े विधान बनाने की घोषणा को मज़बूर हुई है । इससे देश में प्रतिगामी सांस्कृतिक संरचनाओं का ढ़ांचा कमजोर होगा और यदि इसे अन्य क्षेत्रों में आधुनिकता के अभियान से समर्थित किया जाय तो सामंतवाद और रूड़िवादिता की जकड़ से मुक्त एक नए भारत का जन्म हो सकता है जो सभी जातियों और वर्गों को समान अवसर और समान अधिकार प्रदान करे ।      

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