जहाँ सर्प स्वछन्द घूमते हैं
जुलाई 20, 2009
पांच या छह माह
पूर्व स्थानीय समाचार पात्र में एक खबर छपी थी कि उत्तर प्रदेश के अमरोहा
में एक बिच्छू दरगाह है. ८०० साल पहले सैय्यद सर्बुद्दीन ईरान से यहाँ आये
थे. संभवतः कोई सूफी संत रहे होंगे. उन्हें बिच्छू वाले बाबा भी कहा जाता
है. इस दरगाह के अन्दर अनेकों बिच्छू स्वतंत्र घूमते रहते हैं परन्तु
किसी को डंक नहीं मारते. परन्तु दरगाह के बाहर पाए जाने वाले बिच्छू बाबा
के प्रभाव से मुक्त है तथापि उनसे बचना पड़ता है.
अब हम केरल जा रहे हैं.
यह प्रांत भी सर्पों का प्रदेश कहला सकता है. प्राचीन काल से ही जब वहां
वैदिक धर्म या बौद्ध धर्म का भी प्रवेश नहीं हुआ था, सर्प पूजा वहां की
परंपरा रही है. आदिम जातियों की परम्पराओं को देखे तो बात बिलकुल साफ़ है.
आदमी जिन जिन से भी डरता था उन्हें पूजने लगा था. आज भी केरल के पुराने
घरों के दक्षिण पश्चिम भाग में एक चबूतरा होगा जिसपर सर्पों की प्रतिमाएँ
लगी होती है. इन्हें “पाम्बुम कावु या सर्प कावु” कहा जाता है.
इस भाग में जंगल जैसा वातावरण होता है. प्राकृतिक वनस्पतियों को यों ही
बढ़ने दिया जाता है. हम कह सकते हैं कि सर्पों के लिए निर्मित उस क्षेत्र
में मानव द्वारा किसी भी प्रकार से अतिक्रमण नहीं किया जाता. नित्य चबूतरे
पर दिया भी जलाया जाता है. मान्यता है कि जिन घरों में ऐसी व्यवस्था है
वहां सर्पों का कोई प्रकोप नहीं होता. लगभग सभी संस्कृतियों में सर्पों को
विशिष्ट स्थान प्राप्त है और हाल की खोजों से पता चलता है कि सर्पों की
पूजा का विधान ७०,००० वर्ष पूर्व से ही है. भारत के मंदिरों में भी सर्पों
को किसी न किसी रूप में प्रर्दशित किया गया है. कितनी ही पौराणिक कथाएँ
उनसे जुडी हुई हैं. केरल में भी कई मंदिर सर्पों पर केन्द्रित हैं परन्तु
कुछ एक अति विशिष्ट भी हैं.
मन्नारशाला :
मन्नारशाला, आलापुज्हा
(अलेप्पी) से मात्र ३७ किलोमीटर की दूरी पर है. कोल्लम (quilon) जाने वाले
रस्ते पर हरिपाड नामक छोटे शहर के पास ही. यहाँ पर है एक मंदिर जो नागराज
और उनकी संगिनी नागयक्षी को समर्पित. यह मंदिर १६ एकड़ के भूभाग पर फैला
हुआ है और जिधर देखो आपको सर्पों की प्रतिमाएँ ही दिखेंगी जिनकी संख्या
३०,००० के ऊपर बताई जाती हैं. और तो और अन्दर भी कई सर्प निर्भीक होकर
स्वछन्द विचरण करते पाए जा सकते है. चलते समय सावधानी बरतनी पड़ेगी कि
कहीं हमारे पैर उनपर न पड़ जाएँ. कहा तो जाता है कि वे भक्तों को नहीं डसते
परन्तु आखिर जंगली जीव जो ठैरे . इस कलियुग में हम कैसे भरोसा कर लें.
एक मिथक के अनुसार
महाभारत काल में खंडावा नामक कोई वन प्रदेश था जिसे जला दिया गया था.
परन्तु एक हिस्सा बचा रहा जहाँ वहां के सर्पों ने और अन्य जीव जंतुओं ने
शरण ले ली. मन्नारशाला वही जगह बताई जाती है. मंदिर परिसर से ही लगा हुआ
एक नम्बूदिरी का साधारण सा खानदानी घर (मना/इल्लम) है. मंदिर के मूलस्थान
में पूजा अर्चना आदि का कार्य वहां के नम्बूदिरी घराने की बहू निभाती है.
उन्हें वहां अम्मा कह कर संबोधित किया जाता है. शादी शुदा होने के उपरांत
भी वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दूसरे पुजारी परिवार के साथ अलग कमरे
में निवास करती है. इस मंदिर के सन्दर्भ में हमने “मूलस्थान” का प्रयोग
किया है. जिस मंदिर में हम नागराज के दर्शन करते हैं वह मूलस्थान नहीं है.
यह कुछ ताज महल में मुमताज महल की कब्र की तरह है जहाँ वास्तविक कब्र
नीचे है और ऊपर जहाँ हम देख रहे होते हैं वह दिखावे के लिए है. ऐसा ही कुछ
यहाँ भी है. इस से अधिक हमें जानकारी भी नहीं है..
कहा जाता है कि उस
खानदान की एक स्त्री निस्संतान थी. उसके अधेड़ होने के बाद भी उसकी
प्रार्थना से वासुकी प्रसन्न हुआ और उसकी कोख से एक पांच सर लिया हुआ
नागराज और एक बालक ने जन्म लिया. उसी नागराज की प्रतिमा इस मंदिर में लगी
है. यहाँ की महिमा यह है
कि निस्संतान दम्पति
यहाँ आकर यदि प्रार्थना करें तो उन्हें संतान प्राप्ति होती है. इसके लिए
दम्पति को मंदिर से लगे तालाब (बावडी) में नहाकर गीले कपडों में ही दर्शन
हेतु जाना होता
है. साथ में ले जाना होता है एक कांसे का पात्र जिसका मुह चौडा होता है.
इसे वहां उरुली कहते है. उस उरुली को पलट कर रख दिया जाता है. संतान
प्राप्ति अथवा मनोकामना पूर्ण होने पर लोग वापस मंदिर में आकर अपने द्वारा
रखे गए उरुली को उठाकर सीधा रख देते हैं औरउसमें चढावा आदि रख दिया जाता
है. इस मंदिर से जुडी और भी बहुत सारी किंवदंतियाँ हैं.
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एक वीडियो युट्यूब में प्राप्त हुआ. नीचे दे रहे हैं
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