शनिवार, 9 जून 2012

इस सरदार की समझ पर तरस आता है

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जैसे-जैसे गरीबी कम होती है, महंगाई बढ़ती जाती है। अर्थशास्त्र की कोई स्थापना भले ही इसे मानने से इनकार करे, लेकिन मशहूर अर्थशास्त्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ऐसा ही मानते हैं। विकसित देशों के योजनाकार जिस तरह 2008 में आई भयानक मंदी के लिए तेज आर्थिक विकास को ही जिम्मेदार मानते थे, मोंटेक सिंह का बयान भी कुछ ऐसा ही है। चूंकि अहलूवालिया अर्थशास्त्री हैं, प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं, देश के वित्त सचिव रह चुके हैं, सबसे बड़ी बात यह कि वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में भी नौकरी कर चुके हैं। जाहिर है उनके विचार को तरजीह दिया ही जाएगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या उनका यह विचार स्वीकार के काबिल है?
जिस व्यक्ति पर देश की योजनाएं बनाने और उसका फायदा गरीब से गरीब व्यक्ति तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है, उसका यह आकलन स्वीकार करने लायक भी है। ऐसा कहते वक्त मोंटेक सिंह अपने ही पुराने साथी सचिन डी तेंदुलकर की उस रिपोर्ट को भी भूल गए, जिसे उन्होंने योजना आयोग के ही कहने पर तैयार किया था और पिछले साल सितंबर में पेश किया था। प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार सचिन डी तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा है कि आर्थिक उदारीकरण के तमाम चमकीले दावों के बावजूद देश में गरीबों की संख्या में करीब 10 फीसदी का इजाफा हुआ है। इस समिति का कहना था कि भारतीय गांवों और शहरी स्लम में रह रहे गरीब लोगों की संख्या में आर्थिक उदारीकरण के दौरान करीब 11 करोड़ की वृद्धि हुई है। इसके पहले वंदना शिवा की स्वयंसेवी संस्था नवधान्य ने भी भारतीय गरीबों को लेकर एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक देश में करीब 21 करोड़ लोगों को कम से कम एक शाम भूखा रहना पड़ता है। मोंटेक सिंह मानते हैं कि गांवों के गरीबों की हालत सुधरी है, लिहाजा उनकी क्रय शक्ति बढ़ी और वे पहले की तुलना में खाने-पीने पर ज्यादा खर्च करने लगे हैं। यही वजह है कि महंगाई दर कम नहीं हो पा रही है। सबसे पहले गरीबों की सुधर रही हालत के मोंटेक के दावे पर ही विचार किया जाना जरूरी है।
फिलहाल खाद्य महंगाई दर करीब सोलह फीसदी है और इसमें कमी नहीं आ पा रही है तो बकौल मोंटेक इसके लिए गरीब जिम्मेदार हैं। इसका मतलब तो यह हुआ कि देश के गरीबों की हालत में पिछले एक साल में ही काफी सुधार आया है, क्योंकि सचिन तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट एक साल पहले ही आई थी। लेकिन सभी जानते हैं कि पिछले साल पूरे उत्तर भारत में भयानक सूखा पड़ा था। देश की जीडीपी में खेती का महज पंद्रह फीसदी योगदान है, जबकि तमाम दावों के बावजूद आज भी देश की करीब 65 फीसदी आबादी की रोजी-रोटी सीधे तौर पर खेती पर ही आधारित है। ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि देश के गरीबों की हालत पूरी तरह सुधर गई है। केंद्र में सरकार चला रहे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का मानना है कि मनरेगा के जरिए गांवों में क्रांति आई है। यह सच है कि गांवों में मनरेगा ने लोगों की हालत सुधारने में मदद दी है, लेकिन हालत इतनी बेहतर हो गई है कि गरीब ज्यादा खाने लगे हैं, इसे मोंटेक भले ही मानते हों, सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में शामिल खाद्य सुरक्षा मामलों के जानकार ज्यां द्रेज और हर्ष मंदर तक इसे मानने से इनकार करते रहे हैं। अगर गांवों के गरीबों की खरीद क्षमता में इतनी ही बढ़त हो गई होती तो आज भी भूख से मरने वाली खबरें अखबारों में आए दिन नहीं छपती रहतीं। फिर खाद्य सुरक्षा के लिए कानून बनाने की जरूरत ही नहीं रह जाती। मोंटेक सिंह ऐसा कहते वक्त अपने ही एक पूर्व सहयोगी अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट को ही भूल गए। करीब चार साल पहले सेन गुप्ता कमेटी ने एक रिपोर्ट दी थी। उस रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 83 करोड़ 70 लाख लोग ऐसे थे, जिनकी रोजाना की आमदनी महज बीस रुपये या इससे भी कम थी यानी पांच साल में यूपीए सरकार और योजना आयोग ने ऐसी क्रांति ला दी है कि इस हालत में बदलाव आ गया है।
दरअसल, मोंटेक सिंह का यह बयान उनकी पश्चिमी सोच का ही परिचायक है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भी 2008 की महंगाई के लिए भारतीयों को जिम्मेदार ठहराया था। बुश जैसे लोगों की नजर में समूचे भारतीयों की वकत कुछ वैसी ही है, जैसी मोंटेक जैसों की नजर में गरीबों की है। तब बुश ने कहा था कि भारतीय भकोसने लगे हैं। लिहाजा, दुनिया में अनाज कम पड़ रहा है। गनीमत है कि अपने योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने ऐसा नहीं कहा है, लेकिन उनका बयान बुश के बयान से तासीर के मामले में कुछ अलग नहीं है। यह सच है कि मनरेगा जैसी योजनाओं ने गांवों से मजदूरों का पलायन रुका है, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि उन मजदूरों और मजबूरों की खरीद क्षमता में क्रांतिकारी बदलाव आ गया है। भारतीय वित्त संस्थान के निदेशक जेडी अग्रवाल मानते हैं कि महंगाई की असल वजह कुछ और है। उनका कहना है कि पिछले बजट में सरकार ने सर्विस टैक्स 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत जैसे ही किया, तब उनके जैसे कई अर्थशास्ति्रयों ने आशंका जताई थी कि महंगाई बढ़ेगी। आज जो महंगाई है, उसमें एक बड़ी वजह यह भी है।
पिछले साल मुद्रा बाजार में जब डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमतें गिरने लगीं, तब हमारी सरकार और उसके अर्थशास्ति्रयों ने इसे आर्थिक विकास के तौर पर देखा था। इसे लेकर अच्छी-अच्छी बातें भी की गई थीं, लेकिन हकीकत यह है कि इसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार से दाल या चीनी की खरीद के लिए हमारे व्यापारियों को पहले की तुलना में ज्यादा पैसा देना पड़ा। जाहिर है कि उनकी खरीद कीमत बढ़ी, जिसके चलते बाजार में महंगाई के दैत्य का मुंह लगातार बढ़ता जा रहा है। सेंसेक्स में तेजी को अर्थव्यवस्था के विकास के तौर पर गिनाया गया, लेकिन ऐसा भी नहीं था। वहां की तेजी बनावटी थी, जिसका असर रियल स्टेट में बनावटी तेजी के तौर पर दिखा। जाहिर है, बाजार से पैसा गायब हो गया। इसका भी असर महंगाई को बढ़ाने में सहायक रहा। सरकार चाहे जो भी दावा करे कि वह महंगाई पर काबू नहीं पा सकती। हकीकत तो यह है कि वह जो भी उपाय कर रही है, उसकी जानकारी बाजार को पहले ही हो जा रही है। इससे जमाखोरी बढ़ रही है। जमाखोरी कालाबाजारी को लेकर आती है। ऐसे में कीमतें नहीं बढ़ें, ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन सरकार का ध्यान उस पर नहीं है। इन उपायों के जरिए महंगाई पर काबू पाने की बजाय सरकार गरीबों को ही जिम्मेदार ठहराने में जुटी हुई है। बेहतर तो यह होता कि योजना आयोग के उपाध्यक्ष महंगाई बढ़ने के कारणों की उचित मीमांसा करते और उसे रोकने के लिए भारतीय परिस्थितियों के मुताबिक अर्थशास्त्रीय नजरिया अख्तियार करते।

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