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काली मिर्च
विश्व
व्यापार में काली मिर्च का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, और संभवतः बना ही
रहेगा. इसमें इतनी शक्ति थी कि इसने विश्व के इतिहास को ही बदल डाला.
पश्चिम से जितनी भी समुद्री यात्राएं हुई हैं वे सब इसी वस्तु के खोज के
लिए की गयीं थीं. अमरीकी महाद्वीप भी इसी के चक्कर में अनायास ही
यूरोपीयों के हाथ लगी. यह एक विडम्बना ही है कि इस काली मिर्च की
उपस्थिति ने जहाँ भारत को समृद्ध किया था वहीँ अंततः विदेशियों का गुलाम
भी बना दिया. भारत ही एक ऐसा देश था जहाँ अनादिकाल से इसका उत्पादन होता
रहा है जिसके कारण हमारे व्यापारिक सम्बन्ध अरबों, यहूदियों, रोम के
साम्राज्य तथा चीन से बने हुए थे. काली मिर्च को काला सोना भी कहा जाता था
और सोने के बदले जहाज़ों में अन्य मसालों, सुगन्धित द्रव्यों आदि के साथ लद
कर रोम तक जाया करता था. वहां से और कुछ अरब देशों से भी स्थल मार्ग
द्वारा यूरोप के अन्य देशों को भेजा जाता था जहाँ इसका प्रयोग अधिकतर मांस
को लम्बे समय तक सुरक्षित रखने के लिए किया जाता था. कहते हैं भारत से
लम्बे समय तक चले काली मिर्च की खरीदी से रोम का स्वर्ण भंडार समाप्त
प्रायः हो चला था. दक्षिण भारत के तटीय नगरों/क्षेत्रों से अब तक प्राप्त
रोमन स्वर्ण मुद्राओं के अनेकों जखीरे इस बात की पुष्टि करते प्रतीत
होते हैं.
काली
मिर्च के अतिरिक्त अपने यहाँ दूसरे कई प्रकार के मसालों का उत्पादन भी
होता आया है, जैसे लौंग, इलाईची, दालचीनी, जायफल आदि. कालीमिर्च तो भारत
से ही उपलब्ध हुआ करता था परन्तु अन्य मसाले दक्षिण पूर्व एशिया के कई
देशों में भी बहुतायत से पाए जाते थे/हैं. २०
मई १४९८ हमारे लिए एक काला दिन था जब पुर्तगाली अन्वेषक वास्को डा गामा का
आगमन, अपने जहाजी बेड़े के साथ, भारत के दक्षिणी पश्चिमी समुद्र तट पर,
कालीकट के बंदरगाह में हुआ. परिणाम स्वरुप १६ वीं सदी के पूर्वार्ध से ही
पुर्तगालियों ने न केवल भारत में अपने व्यापारिक अड्डे स्थापित कर लिए थे
अपितु उन्होंने अपना व्यावसायिक साम्राज्य अन्य दक्षिण पूर्वी एशिया के
देशों में भी फैला लिया. मसालों के व्यापार में इस तरह पुर्तगालियों का
एकाधिकार हो चला था. यूरोप की अन्य शक्तियां भी कहाँ
पीछे रहने वाली थीं. उन्होंने भी भारत और दक्षिण पूर्व का रुख किया और १७
वीं सदी तक तो भारत में पुर्तगालियों के अतिरिक्त डच (होलेन्ड/निदरलेंड),
ब्रिटिश, डेंस (डेनमार्क) और फ्रांसीसियों के अड्डे, कालीमिर्च तथा अन्य
मसालों के क्रय/भण्डारण हेतु स्थापित हो चले थे. उन शक्तियों द्वारा
भारत के उपनिवेशीकरण का मार्ग शनै शनै प्रशस्त होता गया.
हमारे
घर में भी कालीमिर्च के कई बेल हैं जो आम/सुपारी के पेड़ों पर फैले हैं
परन्तु उनकी उत्पादकता, सही देख रेख के अभाव में उत्साहवर्धक नहीं रही. इस
बार अपवाद स्वरुप एक बेल में कुछ अधिक गुच्छों में फल लगे दिखे. वे हरे ही
थे तो ख्याल आया कि क्यों न उनका अचार बनाया जावे. कहते हैं कि किसी भी
गुच्छे में एक भी फल लाल दिखे तो समझ लो वे तोड़ने लायक हो चले हैं. जिस
बेल से मैंने उन्हें तोडना चाहा था उसमे एक गुच्छे में एक दाना लाल हो चला
था. ऐसे में उन्हें तोड़ लेना श्रेयस्कर था अन्यथा लाल होते दानों से पक्षी
आकृष्ट होते हैं और उन्हें नोच डालते हैं. मेरा दुर्भाग्य यह रहा कि अब वे
अचार डालने लायक नहीं रह गयीं थीं क्योंकि अन्दर के बीज कड़े हो गए थे.
खैर तोड़ने का मन बना ही लिया था, जितना पहुँच के अन्दर था उन गुच्छों को
तोड़ डाला और जो बच गए थे उन्हें सीढ़ी की सहायता से उतार लिया. लगभग २.५०
किलो इकट्ठी हुई जिन्हें सुखाने के लिए धूप में रखा गया.
हरे
हरे फलों/बीजों के सूख जाने पर वे काले पड़ जाते हैं और ऊपर के छिलके के
सिकुडन के कारण काली मिर्च खुरदरी हो जाती है जब की अन्दर का बीज तो गोल ही
रहता है. काली मिर्च के ऊपर के छिलके को साफ़ कर दिए जाने पर केवल सफ़ेद
बीज ही बच रहता है जिसे सफ़ेद काली मिर्च कहते हैं. ऐसा किये जाने पर उस के
मूल गुणों में ह्रास होता है. इसी प्रकार हरी और लाल काली मिर्च भी होती
है. यह कोई अलग प्रकार नहीं है बल्कि रासायनिक क्रिया द्वारा उसके मूल रंग
को बनाये रखने का प्रयास मात्र है.
चौके या डाइनिंग टेबल पर काली मिर्च की उपयोगिता अथवा
इसके आयुर्वेद में रोगाणुरोधक के रूप में प्रयोग की जानकारी जग जाहिर है.
कोलरा और ब्रोंकाइटिस के इलाज़ में भी यह प्रयुक्त किया जाता है. कुछ
अन्वेषणों से यह पता चला है कि काली मिर्च शरीर के चर्बी को घटाने में मदद
करती है। इसमें पाए जाने वाले “कैप्सैसिन” नामक तत्व वसा की कोशिकाओं
(फैट सेल्स) को आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है। इस तत्व से ही
मिर्ची को इसका विशिष्ट स्वाद मिलता है। अपना वजन कम करने की चाहत रखने
वालों के लिए हरी मिर्च के पर्याय के रूप में काली मिर्च का सेवन लाभकारी
रहेगा. केंसर, गैस्ट्रिक अल्सर तथा गठिया वात में भी शोधकर्ताओं ने इसे
उपयोगी पाया है. इसके लिए महंगे केप्सूल या गोलियां भी बनने लगेंगी और
विदेशी कम्पनियाँ अपना पेटेंट करवाने से भी नहीं हिचकेंगी.
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