प्रेमचंद की परंपरा के मठाधीश आदिवासियों को नहीं जानते
7 August 2009
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♦ अश्विनी कुमार पंकजप्रेमचंद और प्रेमचंद की परंपरा में आदिवासी समाज कहां है? अपनी यह जिज्ञासा मैंने 2 अगस्त 2009 को भारत के समर्थ हिंदी समाज के सामने रखी थी। इस पर किस तरह की टिप्पणियां सामने आयी हैं, उसे आप देख ही रहे हैं। मेरा सवाल प्रेमचंद के बहाने प्रेमचंद की परंपरा से ज़्यादा था। लोग इस पर बात ही नहीं कर रहे हैं। प्रवचन दे रहे हैं कि आदिवासी समाज को क्या करना चाहिए। यदि ऐसा ही है तो हिंदी साहित्य ‘आम जन’ का ‘मसीहा’ बनने पर क्यों तुला हुआ है? दिलीप जी ठीक कहते हैं, ‘उसमें सामंतवाद विरोध और उत्पीड़ित जनता का यथार्थ तलाशेंगे, तो निराशा हाथ लगेगी।’ इसी के साथ यह भी जान लेना ज़रूरी होगा कि जो सबसे ज़्यादा सत्य, न्याय और राष्ट्रप्रेम का दंभ भरता है, वही सबसे ज़्यादा इन चीज़ों से डरता है। समर्थ समाज और राजनीति किस कदर सच से डरता है, इसका ताज़ा उदाहरण है छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार द्वारा 3 अगस्त को चरणदास चोर पर पाबंदी लगा देना। जो समाज एक नाटक से डरता है, वह अपने साहित्य में सच को आने से भला क्यों नहीं रोकेगा? हिंदी समाज के ठेकेदार और प्रगतिशीलता के मठाधीश यह जान लें कि दुनिया के आदिवासी समाजों ने अपनी लड़ाइयां खुद ही लड़ी हैं। इतिहास में भी और आज भी। दुनिया भर की विभिन्न भाषाओं में रचित लाखों टन क्रांतिदर्शी व मार्गदर्शी साहित्य के शब्दों ने उनकी कोई मदद नहीं की है। वे आज भी अलिखित समाज हैं। विश्वास न हो तो सरकार के आंकड़े उठा कर देख लीजिए, उनकी साक्षरता दर क्या है। वे स्वावलंबी जीवन जीते हैं। हमारी तरह नहीं कि उनके संसाधनों को लूट लेने के बाद भी उनके नाम पर पिछले साढ़े छह दशक से विकास का पैसा खा रहे हैं।
500 के प्रिंटऑर्डर वाले मुख्यधारा के महान साहित्य से नाउम्मीद ही रहें तो बेहतर!
♦ दिलीप मंडलहिंदी साहित्य की मुख्यधारा प्रभावशाली प्रभुत्वशालियों की धारा है। वरना भारतीय साहित्य में स्पार्टाकस जैसी रचनाएं नदारद क्यों हैं। स्पार्टाकस का विद्रोह तो हज़ारों साल पुराना है। सिर्फ श्रुति परंपरा में ज़िंदा था। हार्वर्ड फास्ट ने उसे साहित्य का हिस्सा बना दिया और ऐसे लेखन के लिए अकल्पनीय दंड सहे। भारतीय साहित्य में सिद्धू-कान्हू पर फिक्शन क्यों नहीं लिखा गया? ये तो दो सौ साल पुरानी बात भी नहीं है, जब संताल विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों की सत्ता को हिला कर रख दिया था। सिद्धू-कान्हू, बिरसा मुंडा, चांद-भैरव पर किसी मसीहा साहित्यकार ने क्यों नहीं लिखा, ये सवाल अश्विनी जी पूछते हैं, तो लोगों को अश्लील लगता है।
मुझे ऐतराज़ इस बात पर नहीं है कि प्रेमचंद ने आदिवासियों के बारे में ज़िक्र तक क्यों नहीं किया? मुझे प्रेमचंद को, एक साहित्यकार से बढ़ कर, दबे-कुचले लोगों का मसीहा साहित्यकार कहे जाने पर विरोध है।
हालांकि जो लोग पंकज जी के उठाये सवाल पर चल रही इस बहस में शामिल हैं, वो हिंदी साहित्य की मुख्यधारा के सही प्रतिनिधि नहीं हैं। मुख्यधारा का हिंदी साहित्य तो ऐसे सवालों को सिर्फ नज़र फेरकर मार देने की कोशिश करता है। ऐसे सवालों की मौजूदगी से इनकार कर देना उनके हाथों का सबसे प्रभावशाली हथियार है। इसलिए अश्विनी जी, अब भारत का स्पार्टाकस और ऐसी रचनाएं वो लिखें, जो खुद हाशिये पर हैं और वो जो इसकी पीड़ा को समझते हैं। ये साहित्य 500 के प्रिंटऑर्डर वाले मुख्यधारा के महान साहित्य से अलग होगा। दमदार और असरदार होगा।
इंटरनेट पर ‘झारखंड’ सर्च मारिए। महेंद्र सिंह धोनी मिलेंगे। जयपाल सिंह मुंडा नहीं, जिन्होंने 1928 के ओलंपिक में भारतीय हॉकी की कप्तानी की थी और स्वर्ण जीतकर लाये थे। बाज़ार के उन्मादी ‘भारतीय’ देसी हॉकी की शान जयपाल सिंह मुंडा को नहीं जानते हैं। वैसे ही हिंदी में प्रेमचंद की परंपरा के मठाधीश आदिवासियों को नहीं जानते हैं। उनकी इतिहास की लड़ाइयों को और आज के संघर्षों को नहीं जानते हैं। यूनेस्को के अनुसार, देश की 196 जन भाषाओं का अस्तित्व ख़तरे में है। इनमें अधिकांश भारत की आदिवासी भाषाएं हैं। उनकी चिंता किसी को नहीं है। भारत की दो करोड़ से भी ज़्यादा आबादी नगरीय सज्जनों को सुख-सुविधा देने के एवज़ में ग्रामीण-आदिवासी नक्शे से ‘डिलीट’ हो चुकी है, इंडिया को क्या फर्क पड़ता है। नहीं जानना बुरा नहीं है। जान कर नहीं जानना सबसे बुरा है। मुख्यधारा का हिंदी साहित्य यही कर रहा है। साहित्य यदि बाज़ार के लिए नहीं है, मनुष्य और मनुष्यता के लिए है, तो हिंदी साहित्य की प्रस्तुति आदिवासी समाज के बगैर क्यों है?
अंत में, नवंबर 1947 में हुई वार्ता के दौरान पटेल ने नेहरू ओर मौलाना आज़ाद से क्या कहा था, इसे ज़रूर जान लेना चाहिए। पटेल ने कहा था, “we don’t fight the tribals. These people fought wars of independence years before 1857. They are the original nationalists.”
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