www.dae.nic.in/writereaddata/.
अब बात करते है थोरियम घोटाले की, वस्तुतः बहु-चर्चित भारत-अमेरिकी सौदा भारत की और से भविष्य में थोरियम आधारित पूर्णतः आत्म-निर्भर न्यूक्लियर शक्ति बनने के परिपेक्ष्य में ही की गयी थी। भारत थोरियम से यूरेनियम बनाने की तकनीक पर काम कर रहा है परन्तु इसके लिए ३० वर्षो का साइकिल चाहिए। इन तीस वर्षो तक हमें यूरेनियम की निर्बाध आपूर्ति चाहिए थी। उसके पश्चात स्वयं हमारे पास थोरियम से बना यूरेनियम इतनी प्रचुर मात्र में होता की हम आणविक क्षेत्र में आत्म-निर्भरता प्राप्त कर लेते। रोचक ये भी था की थोरियम से यूरेनियम बनाने की इस प्रक्रिया में विद्युत का भी उत्पादन एक सह-उत्पाद के रूप में हो जाता (www.world-nuclear.org/info/
www.phys.org/news205141972.
www.leadenergy.org/2011/03/
www.world-nuclear.org/info/
किन्तु देश का दुर्भाग्य कि महान एवं प्रतिभा-शाली वैज्ञानिकों की इतनी सटीक और राष्ट्र-कल्याणकारी योजना को भारत के भ्रष्ट-राजनीती के कारन लगभग काल-कलवित कर दिया गया। आशंकित और आतंकित विदेशी शक्तियों ने भारत की इस बहु-उद्देशीय योजना को विफल करने के प्रयास शुरू कर दिए और इसका जरिया हमारे भ्रष्ट और मूर्ख राजनितिक व्यवस्था को बनाया। वैसे 1962 को लागू किया गया नेहरु का थोरियम-निर्यात प्रतिबन्ध कहने को आज भी जारी है। किन्तु कैसे शातिराना तरीके से भारत के विशाल थोरियम भंडारों को षड़यंत्र-पूर्वक भारत से निकाल ले जाया गया !! दरअसल थोरियम स्वतंत्र रूप में रेत के एक सम्मिश्रक रूप में पाया जाता है, जिसका अयस्क-निष्कर्षण अत्यंत आसानी से हो सकता है। थोरियम की यूरेनियम पर प्राथमिकता का एक और कारण ये भी था क्यूंकि खतरनाक रेडियो-एक्टिव विकिरण की दृष्टि से थोरियम यूरेनियम की तुलना में कही कम (एक लाखवां भाग) खतरनाक होता है, इसलिए थोरियम-विद्युत-संयंत्रों में दुर्घटना की स्थिति में तबाही का स्तर कम करना सुनिश्चित हो पाता। विश्व भर के आतंकी-संगठनो के निशाने पर भारत के शीर्ष स्थान पर होने की पृष्ठ-भूमि में थोरियम का यह पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक था। साथ ही भारत के विशाल तट-वर्ती भागो के रेत में स्वतंत्र रूप से इसकी उपलब्धता, यूरेनियम के भू-गर्भीय खनन से होने वाली पर्यावरणीय एवं मानवीय क्षति की रोकथाम भी सुनिश्चित करती थी।
कुछ 2008 के लगभग का समय था। दुबई स्थित कई बड़ी रियल-स्टेट कम्पनियां भारत के तटवर्ती क्षेत्रों के रेत में अस्वाभाविक रूप से रूचि दिखाने लगी। तर्क दिया गया की अरब के बहुमंजिली गगन-चुम्बी इमारतों के निर्माण में बजरी मिले रेत की आवश्यकता है। असाधारण रूप से महज एक महीने में आणविक-उर्जा-आयोग की तमाम आपत्तियों को नजरअंदाज करके कंपनियों को लाइसेंस भी जारी हो गए। थोरियम के निर्यात पर प्रतिबन्ध था किन्तु रेत के निर्यात पर नहीं। कानून के इसी तकनीकी कमजोरी का फायदा उठाया गया। इसी बहाने थोरियम मिश्रित रेत को भारत से निकाल निकाल कर ले जाया जाने लगा या यूँ कहे रेत की आड़ में थोरियम के विशाल भण्डार देश के बाहर जाने लगा। हद तो यह हुई जिन कंपनियों को लाइसेंस दिए गए उससे कई गुना ज्यादा बेनामी कम्पनियाँ गैर-क़ानूनी तरीके से बिना भारत सरकार के अनुमति और आधिकारिक जानकारी के रेत का खनन करने लगी। इस काम में स्थानीय तंत्र को अपना गुलाम बना लिया गया। भारतीय आणविक विभाग के कई पत्रों के बावजूद सरकार आँख बंद कर सोती रही। विशेषज्ञों के अनुसार इन कुछ सालों में ही ४८ लाख करोड़ का थोरियम निकाल लिया गया। भारत के बहु-नियोजित न्यूक्लियर योजना को गहरा झटका लगा लेकिन सरकार अब भी सोयी है।
दरअसल भारत के पास इतने बड़े थोरियम भंडार को देख अमेरिकी प्रशासन के होश उड़ गए। भारत के पास पहले से ही थोरियम के दोहन और उपयोग की एक सुनिश्चित योजना और तकनीक के होने और ऐसे हालात में भारत के पास प्रचुर मात्र में नए थोरियम भंडारों के मिलने से उसकी चिंता और बढ़ गयी। इसलिए इसी सर्वे के आधार पर भारत के साथ एक मास्टर-स्ट्रोक खेला गया और इस काम के लिए भारत के उस भ्रष्ट तंत्र का सहारा लिया गया जो भ्रष्टता के उस सीमा तक चला गया था जहाँ निजी स्वार्थ के लिए देश के भविष्य को बहुत सस्ते में बेचना रोज-मर्रा का काम हो गया था। इसी तंत्र के जरिये भारत में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हुई की राम-सेतु को तोड़ कर यदि एक छोटा समुद्री मार्ग निकला जाये तो भारत को व्यापक व्यापारिक लाभ होंगे, सागरीय-परिवहन के खर्चे कम हो जायेंगे। इस तरह की मजबूत दलीलें दी गयी और हमारी सरकार ने राम-सेतु तोड़ने का बाकायदा एक एक्शन प्लान बना लिया। अप्रत्याशित रूप से अमेरिका ने इस सेतु को तोड़ने से निकले मलबे को अपने यहाँ लेना स्वीकार कर लिया, जिसे भारत सरकार ने बड़े आभार के साथ मंजूरी दे दी। योजना मलबे के रूप में थोरियम के उन विशाल भंडारों को भारत से निकाल ले जाने की थी। अगर मलबा अमेरिका नहीं भी आ पता तो समुंद्री लहरें राम-सेतु टूट जाने की स्तिथी में थोरियम को अपने साथ बहा ले जाती और इस तरह भारत अपने इस अमूल्य प्राकृतिक संसाधन का उपयोग नहीं कर पाता।
लेकिन भारत के प्रबुद्ध लोगों तक ये बातें पहुँच गयी। गंभीर मंत्रनाओं के बाद इसका विरोध करने का निश्चय किया गया और भारत सरकार के इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर हुई। किन्तु एक अप्रकाशित और इसलिए अप्रमाणिक, उस पर भी विदेशी संस्था के रिपोर्ट के आधार पर जीतना मुश्किल लग रहा था और विडंबना यह थी की जिस भारत सरकार को ऐसी किसी षड़यंत्र के भनक मात्र पर समुचित और विस्तृत जाँच करवानी चाहिए थी, वो तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को उपलब्ध करवाने पर भी इसे अफवाह साबित करने पर तुली रही। विडंबना यह भी रही की इस काम में शर्मनाक तरीके से जिओग्रफ़िकल सर्वे ऑफ इंडिया की विश्वसनीयता का दुरूपयोग करने की कोशिश हुई। उधर व्यवस्था में बैठे भ्रष्ट लोग राम-सेतु तोड़ने के लिए कमर कस चुके थे। लड़ाई लम्बी हो रही थी और हम कमज़ोर भी पड़ने लगे थे लेकिन डा. सुब्रमनियन स्वामी के तीक्ष्ण व्यावहारिक बुद्धि जो उन्होंने इसे करोड़ों भारतीय के आस्था और ऐतिहासिक महत्व के प्रतीक जैसे मुद्दों से जोड़कर समय पर राम सेतु को लगभग बचा लिया। अन्यथा अवैध खनन के जरिये खुरच-खुरच कर ले जाने पर ही 48 लाख करोड़ की क्षति देने वाला थोरियम यदि ऐसे लुटता तो शायद भारतवर्ष को इतना आर्थिक और सामरिक नुकसान झेलना पड़ता जो उसने पिछले 800 सालों के विदेशी शासन के दौरान भी न झेला...
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