48 लाख करोड़ का थोरियम घोटाला (भाग एक)
संसद के मानसून सत्र में कोयले घोटाले की आंच ने सरकार को संसद में बैठने नहीं दिया. 1.86 लाख करोड़ के घोटाले ने हर भारतीय के दिमाग की नसें हिला दी है. पहली बार किसी ने इतने बड़े घोटाले के बारे में पढ़ा है. इस बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और जनमानस भी इससे काफी वाकिफ हो चूका है. लेकिन इन सबके बीच एक और घोटाला ऐसा हुआ है जिसके बारे में व्यापक जनमानस अब तक अनजान ही है. ये एक ऐसा घोटाला है जिसमें हुई क्षति वैसे तो लगभग अमूल्य है लेकिन कहने के लिए द्रव्यात्मक तरीके से ये तकरीबन 48 लाख करोड़ का पड़ेगा.
प्रो कल्याण जैसे सचेत और सचेष्ट नागरिकों के प्रयास से ये एकाधिक बार ट्विट्टर पर तो चर्चा में आया लेकिन व्यापक जनमानस अभी भी इससे अनजान ही है. ये घोटाला है थोरियम का-परमाणु संख्या 90 और परमाणु द्रव्यमान 232.0381. इस तत्व की अहमियत सबसे पहले समझी थी प्रो भाभा ने. महान वैज्ञानिक होमी जहागीर भाभा ने 1950 के दशक में ही अपनी दूर-दृष्टि के सहारे अपने प्रसिद्ध-“Three stages of Indian Nuclear Power Programme” में थोरियम के सहारे भारत को न्यूक्लियर महा-शक्ति बनाने का एक विस्तृत रोड-मेप तैयार किया था.
उन दिनों भारत का थोरियम फ्रांस को निर्यात किया जाता था और भाभा के कठोर आपत्तियों के कारण नेहरु जी ने उस निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाया.भारत का परमाणु विभाग आज भी उसी त्रि-स्तरीय योजना द्वारा संचालित और निर्धारित है.एक महाशक्ति होने के स्वप्न के निमित्त भारत के लिए इस तत्व(थोरियम) की महत्ता और प्रासंगिकता को दर्शाते हुए प्रमाणिक लिंक निचे है-
http://en.wikipedia.org/wiki/
http://www.dae.nic.in/
अब बात करते है थोरियम घोटाले की. वस्तुतः बहु-चर्चित भारत-अमेरिकी डील भारत की और से भविष्य में थोरियम आधारित पूर्णतः आत्म-निर्भर न्यूक्लियर शक्ति बनने के परिपेक्ष्य में ही की गयी थी.भारत थोरियम से युरेनियम बनाने की तकनीक पर काम कर रहा है लेकिन इसके लिए ३० वर्षो का साइकिल चाहिए.इन तीस वर्षो तक हमें युरेनियम की निर्बाध आपूर्ति चाहिए थी.उसके बाद स्वयं हमारे पास थोरियम से बने युरेनियम इतनी प्रचुर मात्र में होते की हम आणविक क्षेत्र में आत्म-निर्भरता प्राप्त कर लेते.रोचक ये भी था की थोरियम से युरेनियम बनने की इस प्रक्रिया में विद्युत का भी उत्पादन एक सह-उत्पाद के रूप में हो जाता (http://www.world-nuclear.org/
एक उद्देश्य यह भी था कि भारत के सीमित यूरेनियम भण्डारो को राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से आणविक-शश्त्रों के लिए आरक्षित रखा जाये जबकि शांति-पूर्ण उद्देश्यों यथा बिजली-उत्पादन के लिए थोरियम-युरेनियम मिश्रित तकनीक का उपयोग हो जिसमे युरेनियम की खपत नाम मात्र की होती है. शेष विश्व भी भारत के इस गुप्त योजना से परिचित था और कई मायनो में आशंकित ही नहीं आतंकित भी था.उस दौरान विश्व के कई चोटी के आणविक वेबसाईटों पर विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों के बीच की मंत्रणा इस बात को प्रमाणित करती है. सुविधा के लिए उन मंत्रणाओ में से कुछ के लिंक नीचे दे रहा हूँ-
http://phys.org/news205141972.
http://leadenergy.org/2011/03/
http://www.world-nuclear.org/
किन्तु देश का दुर्भाग्य की महान एवं प्रतिभा-शाली वैज्ञानिकों की इतनी सटीक और राष्ट्र-कल्याणी योजना को भारत के भ्रष्ट-राजनीती के जरिये लगभग-लगभग काल-कलवित कर दिया गया. आशंकित और आतंकित विदेशी शक्तियों ने भारत की इस बहु-उद्देशीय योजना को विफल करने के प्रयास शुरू कर दिए और इसका जरिया हमारे भ्रष्ट और मुर्ख राजनितिक wyawastha को banaya.वैसे तो १९६२ को लागू किया गया पंडित नेहरु का थोरियम-निर्यात प्रतिबन्ध कहने को आज भी जारी है. किन्तु कैसे शातिराना तरीके से भारत के विशाल थोरियम भंडारों को षड़यंत्र-पूर्वक भारत से निकाल ले जाया गया!!
दरअसल थोरियम स्वतंत्र रूप में रेत के एक सम्मिश्रक रूप में पाया जाता है,जिसका अयस्क-निष्कर्षण अत्यंत आसानी से हो सकता है. थोरियम की युरेनियम पर प्राथमिकता का एक और कारण ये भी था की क्यूंकि खतरनाक रेडियो-एक्टिव विकिरण की दृष्टि से थोरियम युरेनियम की तुलना में कही कम (एक लाखवां भाग) खतरनाक होता है,इसलिए थोरियम-विद्युत-संयंत्रों में दुर्घटना की स्थिति में तबाही का स्तर कम करना सुनिश्चित हो पाता. विश्व भर के आतंकी-संगठनो के निशाने पर भारत के शीर्ष स्थान पर होने की पृष्ठ-भूमि में थोरियम का यह पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक था. साथ ही भारत के विशाल तट-वर्ती भागों के रेत में स्वतंत्र रूप से इसकी उपलब्धता, यूरेनियम के भू-गर्भीय खनन से होने वाली पर्यावरणीय एवं मानवीय क्षति की रोकथाम भी सुनिश्चित करती थी.
वर्ष २००८ के लगभग का समय था. दुबई स्थित कई बड़ी रियल-स्टेट कम्पनियां भारत के तटवर्ती इलाको के रेत में अस्वाभाविक रूप से रूचि दिखाने लगीं. तर्क दिया गया की अरब के बहुमंजिली गगन-चुम्बी इमारतों के निर्माण में बजरी मिले रेत की जरुरत है. असाधारण रूप से महज एक महीने में आणविक-उर्जा-आयोग की तमाम आपत्तियों को नजरअंदाज करके कंपनियों को लाइसेंस भी जारी हो गए. थोरियम के निर्यात पर प्रतिबन्ध था किन्तु रेत के निर्यात पर नहीं. कानून के इसी तकनीकी कमजोरी का फायदा उठाया गया.
इसी बहाने थोरियम मिश्रित रेत को भारत से निकाल निकाल कर ले जाया जाने लगा.या यूँ कहे रेत की आड़ में थोरियम के विशाल भण्डार देश के बाहर जाने लगे. हद तो ये हो गयी की जितने कंपनियों को लाइसेंस दिए गए उससे कई गुना ज्यादा बेनामी कम्पनियाँ गैर-क़ानूनी तरीके से बिना भारत सरकार के अनुमति और आधिकारिक जानकारी के रेत का खनन करने लगी.इस काम में स्थानीय तंत्र को अपना गुलाम बना लिया गया. भारतीय आणविक विभाग के कई पत्रों के बावजूद सरकार आँख बंद कर सोती रही. विशेषज्ञों के मुताबिक इन कुछ सालों में ही ४८ लाख करोड़ का थोरियम निकाल लिया गया. भारत के बहु-नियोजित न्यूक्लियर योजना को गहरा झटका लगा लेकिन सरकार अब भी सोयी है.
अब आते हैं इसी थोरियम से सम्बंधित एक और मसले पर- राम-सेतु से जुड़ा हुआ. दरअसल अमेरिका शुरू से ही जानता था की भारत के उसके साथ परमाणु करार की असल मंशा इसी थोरियम आधारित तीसरे अवस्था के आणविक-आत्मनिर्भरता को प्राप्त करना है. पूरे विश्व को पता था की थोरियम का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत के पास है. लेकिन फिर थोरियम पर नासा के साथ यू एस भूगर्भ संसथान के नए सर्वे आये. पता चला कि जितना थोरियम भारत के पास अब तक ज्ञात है उससे कही ज्यादा थोरियम भंडार उसके पास है.
इन नवीन भंडारों का एक बहुत बड़ा हिस्सा राम-सेतु के नीचे होने का पता चला. इस सर्वे को शुरुआत से ही गुप्त रखा गया और किसी अंतर-राष्ट्रीय मंच पर इसका आधिकारिक उल्लेख नहीं होने दिया गया. किन्तु गाहे-बगाहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलनों में आणविक-विशेषग्य,परमाणु वैज्ञानिक "ऑफ दी रिकॉर्ड" इन सर्वे की चर्चा करने लगे. अभी हाल में थोरियम-सम्बन्धी मामलों में सबसे चर्चित और प्रामाणिक माने जाने वाली और थोरियम-विशेषग्यो द्वारा ही बनायीं गयी साईट- http://thoriumforum.com/
इस रिपोर्ट में साफ़ बताया गया है कि अमेरिकी भूगर्भीय सर्वे संस्थान ने शुरुआत में भारत में थोरियम की उपलब्धता लगभग 290000 मीट्रिक टन अनुमानित की थी. किन्तु बाद में इसने इसकी उपलब्धता दुगुनी से भी ज्यादा लगभग 650000 नापी जो कुल थोरियम भंडार 1650000 मीट्रिक टन का लगभग40% है. इस तरह अमेरिका मानता है कि भारत के पास थोरियम के 290000 से 650000 मीट्रिक टन के भंडार है. रिपोर्ट के मुताबिक अतिरिक्त 360000 मीट्रिक थोरियम में से ज्यादातर राम सेतु के नीचे है. लेकिन इस रिपोर्ट को कभी आधिकारिक रूप से जारी नहीं किया गया है.
दरअसल भारत के पास इतने बड़े थोरियम भंडार को देख कर अमेरिकी प्रशासन के होश उड़ गए थे. भारत के पास पहले से ही थोरियम के दोहन और उपयोग की एक सुनिश्चित योजना और तकनीक के होने और ऐसे हालात में भारत के पास प्रचुर मात्र में नए थोरियम भण्डारो के मिलने ने उसकी चिंता को और बढ़ा दिया. इसलिए इसी सर्वे के आधार पर भारत के साथ एक मास्टर-स्ट्रोक खेला गया और इस काम के लिए भारत के उस भ्रष्ट तंत्र का सहारा लिया गया जो भ्रष्टता के उस सीमा तक चला गया था जहाँ निजी स्वार्थ के लिए देश के भविष्य को बहुत सस्ते में बेचना रोज-मर्रा का काम हो गया था.
इसी तंत्र के जरिये भारत में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हुई की राम-सेतु को तोड़ कर यदि एक छोटा समुंद्री मार्ग निकला जाये तो भारत को व्यापक व्यापारिक लाभ होंगे, सागरीय-परिवहन के खर्चे कम हो जायेंगे. इस तरह के मजबूत दलीलें दी गयी और हमारी सरकार ने राम-सेतु तोड़ने का बाकायदा एक एक्शन प्लान बना लिया. अप्रत्याशित रूप से अमेरिका ने इस सेतु को तोड़ने से निकले मलबे को अपने यहाँ लेना स्वीकार कर लिया, जिसे भारत सरकार ने बड़े आभार के साथ मंजूरी दे दी. योजना मलबे के रूप में थोरियम के उन विशाल भण्डारो को भारत से निकाल ले जाने की थी. अगर मलबा अमेरिका नहीं भी आ पता तो समुंद्री लहरें राम-सेतु टूट जाने की स्तिथि में थोरियम को अपने साथ बहा ले जाती और इस तरह भारत अपने इस अमूल्य प्राकृतिक संसाधन का उपयोग नहीं कर पाता.
लेकिन भारत के प्रबुद्ध लोगों तक ये बातें पहुंच गयी. गंभीर मंत्रणाओं के बाद इसका विरोध करने का निश्चय किया गया और भारत सरकार के इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर हुई. किन्तु एक अप्रकाशित और इसलिए अप्रमाणिक, उस पर भी विदेशी संस्था के रिपोर्ट के आधार पर जीतना मुश्किल लग रहा था. और विडंबना यह थी कि जिस भारत सरकार को ऐसी किसी षड़यंत्र के भनक मात्र पे समुचित और विस्तृत जाँच करवानी चाहिए थी, वो तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्यो को उपलब्ध करवाने पर भी इसे अफवाह साबित करने पर तुली रही.
विडंबना ये भी रही की इस काम में शर्मनाक तरीके से जिओग्रफ़िकल सर्वे ऑफ इंडिया की विश्वसनीयता का दुरूपयोग करने की कोशिश हुई.उधर व्यवस्था में बैठे भ्रष्ट लोग राम-सेतु तोड़ने के लिए कमर कस चुके थे. लड़ाई लम्बी हो रही थी और हम कमज़ोर भी पड़ने लगे थे लेकिन वो तो भला हो प्रो. सुब्रमनियन स्वामी का कि उन्होंने इसे लाखों हिन्दुओं के आस्था और ऐतिहासिक महत्व के प्रतीक जैसे मुद्दों से जोड़कर समय पर राम सेतु को लगभग बचा लिया. वरना अवैध खनन के जरिये इसका नाश निश्चित था.
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