सोमवार, 10 जून 2013

तिरूपति बालाजी एक प्राचानी बौद्ध क्षेत्र-डा.के.जमनादास

तिरूपति बालाजी एक प्राचानी बौद्ध क्षेत्र-डा.के.जमनादास
भगवान तिरूपती बालाजी एक बौद्ध क्षेत्र है यह लेखक का दावा है सशक्त सिद्धान्तों पर तथा सभी विद्वानों द्वारा स्वीकार लिय गये सबूतों पर निर्भर है। तिरूपति को बौद्ध क्षेत्र माने जाने के लिए कुछ मूलभूत सवालां का सही-सही जवाब मिलना जरूरी है ऐसे सवाल जिन को लेखक ने सही तरीके से उठाया है। वे है।
1.मूर्ति के गुण लक्षणों की जनता के सामने खुलेआम चर्चा क्यों नहीं करने दी जाती?
2.तिरूपति मंदिर के परिवार देवता नहीं है-ऐसा क्याें?
3.समूचे भारत में यहीं केवल एक मात्र एक देवता विष्णू मंदिर क्याें है?
4.तिरूपति में 966 र्इ. तक नियमित पूजा अर्चना नहीं होती थी ऐसा क्यों?
5.यहां के मूर्तियाें को उन के आगमीय क्यों नहीं जाना जाता है?
तिरूमलार्इ मूर्ति को 'स्वयं व्यक्त संज्ञा लगाये जाने का मतलब है मूर्ति पहले से ही थी और उसी जगह पर थी एक शूद्र रंगदास ने उसे खोजा उसका पुनरोद्धार किया और पूजा अर्चना शुरू हुर्इ। मुसिलम आने से पहले केवल बौद्ध ही ब्राह्राणें के विरोधक थे। लेकिन कोइर्ह भी बौद्ध राजा या बौद्ध जनता ब्राह्राणों के प्रति अनुदार नहीं थी। आजतक किसी भी विद्वान ने ऐसा कोर्इ सबूत पेश नहीं किया है जो यह बताय कि कोर्इ बौद्ध राजा किसी राजा ने या बौद्ध प्रजा ने किसी भी ब्राह्राणीय मूर्ति को या ब्राह्राण स्थल को क्षति पहुँचाने का प्रयास किया हो। वस्तु ब्राह्राणों ने सैकड़ो ऐसे कार्य किये है वे ही वास्तव में बौद्धों के शत्रू थे। इसलिए मूर्ति को बगैर देखभाल के त्याग दिया हो और बाद में उस मूर्ति के बारे में शैव वैष्णवों में संघर्ष हुआ ऐसा कभी भ्ळाी किसी भी मुलत: ब्राह्राणीय मर्ति के विषय में नहीं होता है। सौभाग्यवस आज तक इस भगवान के विषय में गलतफहमिया है तथा शिव या विष्णु के रूप में उन्हें गलत समझा जा रहा है। और जैसे-जैसे वैष्णव और शैव इस देवता पर अपना-अपना दावां जजाते है वैसे-वैसे देवता की महिमा बढ़ती है वास्तव में यह क्षेत्र तथा मूर्ति बौद्ध ही है जो सब जनता को मंगलता का संदेश अनन्तकाल से दे रहा है।
मंदिर संस्था का निर्माण बौद्ध ने किया। इनके गौरव को अपना के लिए बौद्ध मंदिरों को केवल अपने स्वार्थी उíदेश्य पूर्ति के लिए ब्राह्राणों ने हथिया लिया। और प्रजा को लुभाकर आकृष्ट करने के लिए उनकी रचना में हिन्दू धर्म योग्य परिवर्तन करके उन्हें हिन्दू मंदिर बना दिया, ऐसा बहुत पहले ही कर्इ  विद्वानाें ने साबित किया है। आर.जी. भांडारकर, पर्सी ब्राउन, जी.एस.घुर्ये, एल.एम.जोशी, डी.डी.कोशांबी, के.ए.एन.शास्त्री के आर.वैधनाथन आदि विद्वानों के विचारों का और उनके द्वारा प्रस्तुत कर्इ स्रोतों का तथा सबूतों का परामर्श ठीक ढंग से पूरी तरह लिया गया है।
ऐतिहासिक दृषिट से और उपलब्ध स्रोताें के प्रमाणों से, अबतक तिरूमलार्इ की हकीकत, उसे बौद्ध क्षेत्र बताती है, उसके नाम से लेकर उसके चाल, ढाल, वेश भूषा लोकाचार आदि के ढंग को लेकर उसके रीतिरिवाजाें जैसे कि मुंडन, केशदान, रथयात्रा आदि सबको एक साथ लेकर बौद्ध पद्धति है। ब्राह्राणी जीवन पद्धति में रथयात्रा का उदगम नहीं होता क्याेंकि यहां जाति पद्धति है अस्पृश्यता का कÍरता से पालन है। किसी को भी स्पर्श नहीं किया जाता जिन्हाेंने स्नान नहीं किया हो भले ही वे अपने सगे संबंधी हो या स्वयं के रक्त की महिला ही क्याें न हो इन परिसिथतियों में रथ यात्रा की परंपरा का उदगम बौद्ध पद्धति से हुआ है और जहां-जहां इस प्रथा का पालन हो रहा है वे सभी स्थल तथा वहां के देवी देवतायें निश्चीत ही बिना किसी सक के बौद्ध ही है।






2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Ye kitab kahan se milegi.pls.batye.

Unknown ने कहा…

Ye kitab kahan se milegi.pls.batane ka kast karen

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