भारत विभाजन क्यों हुआ?
- Tuesday, 30 April 2013 03:48
मार्क्सवादी
अमेरिकी इतिहासकार और चिंतक पैरी एंडरसन ने योरोप और विश्व इतिहास पर
महत्वपूर्ण काम किया है। वह 1962 से न्यू लैफ्ट रिव्यू के संपादक हैं।
एंडरसन ने इधर भारतीय इतिहास पर काम करना शुरू किया है। उनके भारत संबंधी
लेखों का संग्रह द इंडियन आइडियालॉजी शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह लेख
पहले प्रसिद्ध ब्रितानवी पत्रिका लंदन रिव्यू आफ बुक्स में ‘व्हाई पार्टीशन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस लंबे लेख का यह प्रारंभिक एक तिहाई अंश यथावत दिया जा रहा है।
सन्
1945 तक गांधी का युग खत्म होकर नेहरू का जमाना शुरू हो गया था। दोनों के
बीच के फर्कों पर बात करने की मानो परंपरा-सी रही है, पर इन फर्कों का
स्वतंत्रता के संघर्ष के परिणाम से संबंध ज्यादातर अंधेरे में रहा है। न ही
वे फर्क हमेशा साफ-साफ पकड़ में आते हैं। नेहरू एक पीढ़ी छोटे, देखने में
सुंदर, काफी ऊंचे सामाजिक वर्ग से आए, पश्चिम की अभिजात शिक्षा प्राप्त,
धार्मिक विश्वासों से रहित थे और उनके कई प्रेम-संबंध भी थे, ये बातें सभी
को पता हैं। गांधी के साथ उनका अनोखा संबंध यहां राजनीतिक तौर पर ज्यादा
प्रासंगिक है। राष्ट्रीय आंदोलन में अपने अमीर पिता, जो 1890 के दशक से ही
कांग्रेस के स्तंभ थे, द्वारा भर्ती करवाए गए नेहरू पर गांधी का जादू तब
चला जब वह तीस की उम्र के करीब थे और जब उनके अपने राजनीतिक विचार उतने
विकसित नहीं हुए थे। एक दशक पश्चात् जब उन्होंने स्वतंत्रता और समाजवाद की
संकल्पनाएं ग्रहण कर ली थीं जिनसे गांधी इत्तफाक नहीं रखते थे और लगभग
चालीस के हो चुके थे तब भी वह गांधी को लिख रहे थे, ‘क्या मैं आप ही की
राजनीतिक औलाद नहीं हूं, गो कि किसी कदर नाफरमां-बरदार और बिगड़ी औलाद?’
वल्दियत वाली बात अपनी जगह सही है; पर नाफरमानी (या अवज्ञा) दरअसल नाफरमानी
कम, नखरा ज्यादा था। बहुतों की तरह 1922 में गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन
की हवा निकाल देने से हताश, 1932 में अछूतों का निर्वाचन मंडल शुरू करने के
खिलाफ उनके अनशन से निराश, 1934 में सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने
के गांधी के कारणों से चकित, नेहरू फिर भी हर बार अपने सरपरस्त के फैसले के
आगे अपने आपको झुका देते।
राष्ट्रीय
आंदोलन का पवित्रीकरण? ‘हमारी राजनीति में इस धार्मिक तत्व के बढऩे से मैं
कभी-कभी परेशान हो जाता,’ मगर ‘मुझे अच्छी तरह पता था कि उसमें कोई और चीज
है, जो मनुष्यों की गहन आतंरिक लालसा की पूर्ति करती है।’ असहयोग आंदोलन
की असफलता? ‘आखिर वह (गांधी) इसके लेखक और प्रवर्तक थे और वह आंदोलन क्या
था और क्या नहीं इस बात का निर्णय उनसे बेहतर कौन कर सकता था। और उनके बिना
हमारे आंदोलन का अस्तित्व ही कहां था?’ पूना का आमरण अनशन? ‘दो दिनों तक
मैं अन्धकार में था और आशा की कोई किरण नहीं नजर आती थी, गांधीजी जो कर रहे
थे उस काम के चंद परिणामों के बारे में सोच कर मेरा दिल बैठता जाता …फिर
एक अजीब-सी बात हुई। एकदम भावनात्मक संकट जैसा हुआ और उसके बाद मुझे शांति
महसूस हुई और भविष्य उतना अंधकारमय नहीं लगा। मनोवैज्ञानिक क्षण में सही
चीज करने का अद्भुत कौशल गांधीजी के पास था और मुमकिन है कि उनके किए के –
जिसे सही ठहराना मेरे दृष्टिकोण से नामुमकिन सा था- बहुत अच्छे परिणाम
होंगे।’ और वह दावा कि बिहार में भूकंप भेज कर ईश्वर ने सविनय अवज्ञा
आंदोलन के प्रति अप्रसन्नता दर्शाई थी? बापू की घोषणा ने नेहरू को उनके
विश्वास के ‘लंगर से दूर खदेड़ दिया’ मगर यह मानकर कि उनके सरपरस्त का किया
सही है उन्होंने ‘जैसे-तैसे समझौता कर लिया।’ क्योंकि ‘आखिरकार गांधीजी
क्या ही अद्भुत व्यक्ति थे।’ ये सारी घोषणाएं 1936 के जमाने की हैं जब
नेहरू अपने समूचे कैरियर के किसी भी कालखंड के मुकाबले राजनीतिक तौर पर
सबसे ज्यादा रैडिकल थे। इतने कि साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखते
थे। 1939 के आते-आते वे सीधे-सीधे यह प्रमाणित कर रहे थे, ‘भारत का उनके
(गांधी के) बिना कुछ नहीं होगा।’
अप्रतिम अभिभावकी
मनोवैज्ञानिक अवलंब की इस मात्रा में अलग-अलग सूत्र आपस में गुंथे हुए थे। नेहरू के गांधी के प्रति संतानवत विमोह में कुछ अनोखा नहीं था। मगर नेहरू के प्रति गांधी के अभिभावकीय स्नेह की गहराई – जो उन्होंने अपनी संतानों के प्रति विशेष सख्ती बरतते हुए अमूमन नहीं दिखाई- अप्रतिम थी। इन भावनात्मक बंधनों में परस्पर हितों का गणित भी समाविष्ट था। जब तक वह कांग्रेस के दायरे में रह कर काम करते रहे, गांधी नेहरू पर यह भरोसा कर सकते थे कि वह वयस्क राजनीतिक मुद्दे उनके समक्ष नहीं उठाएंगे, जबकि गांधी के प्रिय होने की वजह से नेहरू यह मान कर चल सकते थे कि वह कांग्रेस की अगुआई करने और आजादी के बाद देश पर राज करने में अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ देंगे। फिर भी उन दोनों के बीच क्या उतनी भी बड़ी बौद्धिक खाई थी ही नहीं? एक बुनियादी संदर्भ में वास्तव में एक खाई थी। गांधी के अलौकिक स्वप्नों और दुनियावी अप्रचलितों की खातिर नेहरू के पास वक्त नहीं था। उद्योगों और आधुनिकता के फायदों में उनका पूरी तरह लौकिक स्तर पर भरोसा था। फिर भी जब तक राजसत्ता पहुंच से दूर थी तब तक यह विभाजन रेखा उतनी महत्त्वपूर्ण न थी। जहां तक ब्रिटिश राज के तहत राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक नजरिए का संबंध है, तो गुरु और चेले में उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विभेद की बनिस्बत बहुत कम फर्क है।
गांधी
के यहां पुस्तकीय ज्ञान अधिक न था। लंदन में उन्हें कानून की अपनी
पाठ्य-पुस्तकें रुचिपूर्ण लगीं- संपत्ति कानून पर आधारित पुस्तिका को पढऩा
‘उपन्यास पढऩे जैसा था’ – मगर बेंथम को समझना बेहद मुश्किल था। दक्षिण
अफ्रीका में उन्हें इल्हाम हुआ रस्किन और टॉल्सटॉय की पुस्तकों का। भारत
में जेल में वह इस नतीजे पर पहुंचे कि गिबन महाभारत का घटिया संस्करण है और
यह कि वह स्वयं पूंजी को मार्क्स से बेहतर लिख सकते थे। जहां पर आकर उनकी
दृष्टि जमी वह थी उन चंद पुस्तकें पर जो उन्होंने हिंद स्वराज लिखना शुरू
करने से पहले तक पढ़ रखी थीं और कुछ गिने-चुने हिंदू क्लासिक्स। दक्षिण
अफ्रीका छोड़ते समय दुनिया के बारे में उनके मूलभूत विचार मूलत: परवान चढ़
चुके थे। सत्य दूसरी किताबों में नहीं बल्कि खुद उनमें मौजूद था। एक भारतीय
आलोचक ने ‘एक अधभरे दिमाग की ऐसी समाश्वस्तता’ के खतरों के प्रति आगाह
करते हुए लिखा था कि ‘गांधी जैसी बेफिक्र स्वच्छंदता से प्रथम पुरुष का
इस्तेमाल करने वाला, लगभग वैसी ही परिस्थितियों में रहा हुआ दूसरा कोई भी
व्यक्ति बहुत खोजने पर भी मुझे नहीं मिला।’
गांधी
को जो उच्च शिक्षा नहीं मिली थी वह नेहरू को हासिल हुई, और वह बौद्धिक
विकास भी जिसमें अत्यधिक धार्मिक आस्था ने अड़ंगा नहीं डाला था। लेकिन इन
सुअवसरों का जो प्रतिफलन हुआ वह अपेक्षा से कम था। प्रतीत होता है कि
उन्होंने कैम्ब्रिज में बहुत कम सीखा, जैसे-तैसे प्राकृतिक विज्ञान में औसत
डिग्री हासिल की जिसका बाद में नामोनिशां तक न रहा, वकालत के इम्तहानों
में उनका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा और लौटने पर अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते
हुए वकालत की प्रैक्टिस में भी उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। कैम्ब्रिज
में दर्शन के मेधावी छात्र रहे सुभाष चंद्र बोस, जो आई.सी.एस. (इंडियन
सिविल सर्विस) के एलीट ओहदे की परीक्षा पास करने वाले और फिर देशभक्ति की
वजह से उसमें प्रवेश करने से इनकार करने वाले पहले देशी थे, के साथ नेहरू
का अंतरध्यान खींचता है। मगर एक मामूली किस्म का आगाज आगे आने वाली बहार को
नहीं रोक सकता, और नेहरू समयानुसार एक समर्थ वक्ता और सफल लेखक बन गए। मगर
फिर भी वह नाम मात्र की भी साहित्यिक अभिरुचि या बौद्धिक अनुशासन नहीं
हासिल कर पाए। उनकी सबसे महत्त्वाकांक्षी कृति द डिस्कवरी ऑफ इंडिया (भारत
की खोज), जो 1946 में प्रकाशित हुई थी, श्वेर्मराई (अति भावुकता) के
वाष्प-स्नान जैसी है। अछूतों के नेता आम्बेडकर बौद्धिक स्तर में कांग्रेस
के बहुत से नेताओं से काफी ऊपर थे और कुछ हद तक जिसका कारण लंदन स्कूल ऑफ
इकॉनॉमिक्स और कोलंबिया विश्वविद्यालय में हुई उनकी गंभीर शिक्षा-दीक्षा
थी। उनसे नेहरू की तुलना करना उचित नहीं होगा। आम्बेडकर को पढऩा मतलब किसी
दूसरी दुनिया में प्रवेश करना है। द डिस्कवरी ऑफ इंडिया – और उसकी
पूर्ववर्ती कृति द यूनिटी ऑफ इंडिया को तो रहने ही दीजिये- ये न केवल उनमें
औपचारिक विद्वत्ता की कमी और रूमानी मिथकों के प्रति लत को दर्शाती हैं,
बल्कि उससे भी कुछ गंभीर बात यह है कि ये बौद्धिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक
सीमा दिखाती है। खुद को धोखा देने का ऐसा सामर्थ्य जिसके दूरगामी राजनीतिक
परिणाम सामने आए।
‘भारत मेरे खून में था और उसमें ऐसा बहुत कुछ था जो सहज रूप से मुझे रोमांचित करता था,’ वह अपने पाठकों को बताते हैं।
”वह
बहुत ही प्यारा है और उसकी संतानें उसे नहीं भुला सकतीं चाहे वे कहीं भी
चले जाएं या उन पर कैसी भी विपत्तियां आएं। क्योंकि वह अपनी महानता और
कमजोरियों में भी उनका हिस्सा है और उसकी संतानों का अक्स उसकी गहरी आंखों
में है जिन्होंने बहुत कुछ जीवन का आवेग, हर्ष और मूर्खता को देखा है और
ज्ञान के कुएं में भी झांका है।”
समूची
डिस्कवरी ऑफ इंडिया पुस्तक इस किस्म की बिलकुल नहीं है। मगर बारबरा
कार्टलैंड (अपने रोमांटिक उपन्यासों के मशहूर बीसवीं सदी की एक प्रमुख
अंग्रेज लेखिका) प्रवृत्ति-सतह से कभी दूर न थी:
”शायद
अब भी हम प्रकृति के रहस्यों को अनुभव कर पाएं और उसके जीवन और सौंदर्य
राग को सुन पाएं और उससे सत हासिल कर पाएं। यह राग चुनिंदा जगहों पर नहीं
गाया जाता और अगर उसे सुन सकने वाले कान हमारे पास हों तो हम उसे लगभग कहीं
भी सुन सकते हैं। मगर कुछ जगहें होती हैं जहां वह उन्हें भी लुभा लेता है
जो उसके लिए तैयार नहीं होते और कहीं दूर बज रहे तेज वाद्य के गहरे स्वरों
की तरह आता है। ऐसी ही पसंदीदा जगहों में है कश्मीर, जहां सुंदरता का बसेरा
है और एक इंद्रजाल हमारे होश फाख्ता कर देता है।”
ऐसा
गद्य लिखने वाले दिमाग से राष्ट्रीय आंदोलन के सामने खड़ी कठिनाइयों के
बारे में अधिक यथार्थवाद दिखाने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
आम्बेडकर का महत्व
जब
गांधी डॉ. आम्बेडकर को यह मांग स्वीकार करने के लिए ब्लैकमेल कर रहे थे कि
अछूतों के साथ जाति व्यवस्था के परित्यक्तों की तरह नहीं बल्कि उसी के
अंतर्गत निष्ठावान हिंदुओं के तौर पर बर्ताव किया जाएगा, तब नेहरू ने
आम्बेडकर के समर्थन में या उनके प्रति एकजुटता दर्शाने वाला एक भी लफ्ज न
कहा। गांधी अनशन पर थे और बावजूद इसके कि तब अछूतों का भविष्य एक गौण बात
थी, जैसे कि नेहरू ने बड़े जोरदार तरीके से उसे खारिज कर दिया, उनका चुप
रहना काफी था। हालांकि यहां पर, जिस किसी मुद्दे पर वह राजनीतिक स्टैंड
लेते थे उसके विषय में गांधी के साथ असहमति प्रदर्शित करने को लेकर एक
मामूली-सी अनिच्छा वाला मामला भर नहीं था। नेहरू, जैसा कि उन्होंने कई बार
स्वयं माना है, आस्तिक नहीं थे। हिंदू धर्म के सिद्धांतों की उनकी नजर में
बहुत कम या नहीं के बराबर कीमत थी। मगर गांधी की ही तरह एकदम सरल तौर पर वह
धर्म को राष्ट्र से जोड़ते थे यह कहते हुए कि ‘हिंदू धर्म राष्ट्रवाद का
प्रतीक बन गया था। वह वास्तव में राष्ट्रीय धर्म था जिसमें नस्ली और
सांस्कृतिक, सभी गहन प्रवृत्तियों को आकर्षित करने की क्षमता थी और यही चीज
आज हर तरफ राष्ट्रवाद की बुनियाद बनी है।’ उसके विपरीत बौद्ध धर्म भारत
में उत्पन्न होने के बावजूद इसलिए पिछड़ गया क्योंकि वह ‘अनिवार्यत:
अंतरराष्ट्रीय’ था। इस्लाम, जो भारत में उपजा भी नहीं था, तो और भी कम
राष्ट्रीय था।
इसका
नतीजा यह हुआ कि जिस व्यवस्था के हिंदू धर्म की आधारशिला होने की बात पर
गांधी जोर देते थे और जिसने इतिहास में उसे बिखरने से बचाया था, उसे सजीले
रूप में पेश करना जरूरी था। बेशक जाति की अपनी विकृतियां (कुरूपताएं) थीं
और गांधी को भी यह बात तस्लीम करनी पड़ी। नेहरू ने बतलाया था कि वृहत
परिप्रेक्ष्य में मगर भारत को उसके लिए शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी।
‘जाति कार्य और प्रयोजन पर आधारित एक समूह व्यवस्था थी। उसका मतलब था एक
सर्व-समावेशी व्यवस्था जिसमें कोई साझा सिद्धांत न हो और हर समूह को पूरी
स्वतंत्रता मिले।’ सौभाग्य से जिस चीज ने यूनानियों को अक्षम बनाया था वह
इसमें नहीं थी और ‘यह निम्नतम स्तर वालों के लिए दासप्रथा के मुकाबले बहुत
ज्यादा बेहतर थी। हर जाति के अंतर्गत समानता और कुछ हद तक स्वतंत्रता थी;
हर जाति उपजीविकाजन्य थी और स्वयं को अपने विशिष्ट कार्य में प्रयुक्त करती
थी। इस कारण दस्तकारी और शिल्पकारिता में ऊंचे दर्जे की विशेषज्ञता और
कौशल पैदा हो पाया वह भी उस समाज व्यवस्था के अंतर्गत जो प्रतिस्पर्धात्मक
और अर्जनशील नहीं थी।’ वास्तव में किसी पदानुक्रमता (हाइरार्की) के
सिद्धांत को मूर्त रूप देने से बहुत दूर जाकर जाति ने ‘हर समूह में
लोकतांत्रिक प्रवृत्ति बनाए रखी।’ बाद की पीढिय़ां, जिन्हें यह मानने में
दिक्कत पेश आ रही होगी कि नेहरू ने ऐसी भयावह बातें लिखी हैं, उन
परिच्छेदों की ओर इशारा कर सकती हैं जहां उन्होंने जोड़ा था कि ‘वर्तमान
समाज के संदर्भ में – (कालखंड रहित) अतीत के विपरीत- जाति ‘प्रगति की
अवरोधक’ बन गई थी, जो राजनीतिक या आर्थिक लोकतंत्र से सुसंगत नहीं थी। जैसा
कि आम्बेडकर ने बड़े तीखेपन से नोट किया था, नेहरू ने अस्पृश्यता का कभी
जिक्र भी नहीं किया था।
यह
मानना भूल होगी कि नेहरू द्वारा जाति को अलंकरण प्रदान करना रणनीतिक अथवा
सिनिकल था। भारतीय चरित्र और दीगर चीजों पर बहु-सहस्त्राब्दिक ‘एकात्मता की
छाप’ की उनकी खोज की ही भांति यह भी उसी ‘श्वेर्मराई’ का हिस्सा था। गांधी
ने लिखा था कि इतिहास प्रकृति का व्यवधान है। और इस बात का प्रमाण
अप्रासंगिक है। जिस बात का दावा गांधी ने स्वयं के लिए किया था, नेहरू ने
उसका सामान्यीकरण कर दिया। नेहरू ने द डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में लिखा, ‘सत्य
क्या है। मैं निश्चित तौर पर नहीं जानता। मगर व्यक्ति मात्र के लिए सत्य
कम से कम वह है जो वह खुद महसूस करता है और जानता है कि वह खरा है। इस
व्याख्या के आधार पर अपने सत्य पर दृढ़ रहने वाला गांधी जैसा दूसरा नहीं
देखा।’ राष्ट्र के कारज में ‘हमें ऊपर उठाने और सत्य के लिए बाध्य करने
हेतु अविचल सत्य के प्रतीक के तौर पर गांधी सदैव उपस्थित थे।’ ऐसे
ज्ञानमीमांसात्मक प्रोटोकालों के कारण ही नेहरू एक पृष्ठ पर जाति की समानता
और स्वतंत्रता का भली भांति अनुमोदन कर सकते थे और दूसरे पन्ने पर उसके
बीत जाने की उम्मीद भी जता सकते थे।
एकाधिकारवादी मनोवृत्ति
अगर
राष्ट्रीय धर्म और उसके मूलभूत संस्थानों के बारे में उनका यह मत था, तो
उन धर्मों के मानने वालों की उनके दृष्टिकोण में क्या स्थिति थी जो न तो
अपने उद्गम में राष्ट्रीय थे न विस्तारण में? राजनीतिक नेता के तौर पर
नेहरू की पहली असली परीक्षा 1937 के चुनावों के साथ आई। अब वह गांधी के
सहायक नहीं थे, जो 1934 के बाद नेपथ्य में चले गए थे। चुनावों में कांग्रेस
की जीत और उसकी प्रथम क्षेत्रीय सरकारों के गठन के साल में वह कांग्रेस के
अध्यक्ष थे। चुनाव परिणामों को लेकर शेखी बघारते हुए नेहरू ने घोषणा की कि
भारत में महत्त्व रखने वाली अब दो ही शक्तियां हैं : कांग्रेस और अंग्रेज
सरकार। इसमें जरा भी शक नहीं कि खुद को धोखा देने वाले घातक अंदाज में
उन्हें इस बात पर भरोसा भी था। दरअसल यह एक इकबालिया जीत थी। इस समय तक
कांग्रेस का सदस्यत्व 97 फीसदी हिंदू था। भारत भर के लगभग 90 फीसदी मुसलमान
संसदीय क्षेत्रों में उसे खड़े होने के लिए मुसलमान उम्मीदवार तक नहीं
मिले। नेहरू के अपने प्रांत उत्तर प्रदेश में, जो अब की तरह उस समय भी भारत
का सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र था, कांग्रेस ने सभी हिंदू सीटें जीत ली
थीं। मगर एक भी मुस्लिम सीट वह हासिल नहीं पर पाई थी। फिर भी, चुनाव प्रचार
के दौरान तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के ताल्लुकात खराब नहीं थे और जब
नतीजे आए तो लीग ने तब लखनऊ में बनने वाले मंत्रिमंडल में कुछ प्रतिनिधित्व
हासिल करने के लिए दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन करना चाहा। ‘निजी तौर पर
मुझे पक्का यकीन है कि हमारे और मुस्लिम लीग के बीच कोई भी समझौता या
गठबंधन बेहद हानिकारक होगा।’ तो नेहरू के आदेश पर मुस्लिम लीग को बड़ी
रुखाई से बता दिया गया कि ऐसा कुछ चाहने से पहले वह अपने आप को कांग्रेस
में विलीन कर दे। ऊंची जाति के हिंदुओं की मनोवृत्ति को आगे चलकर आम्बेडकर
ने एकाधिकारवादी बताया था। इस सामान्यीकरण की वैधता चाहे जो हो, यकीनन
संदेहास्पद है, मगर इस बात में कोई शक नहीं कि स्वतंत्रता संघर्ष की वैधता
के एकाधिकार पर कांग्रेस का दावा उसका केंद्रीय वैचारिक तत्त्व था।
फिर
क्यों आम मुसलमानों ने, दीगर हिंदुस्तानियों की तरह पर्याप्त संख्या में
कांग्रेस को वोट नहीं दिया? इस पर नेहरू का जवाब यह था कि उन्हें चंद
मुस्लिम सामंतों ने बहकाया था और हिंदू भाइयों के साथ अपने साझा सामजिक
हितों को जान जाने पर पर वे कांग्रेस के समर्थन में आ जाएंगे। उनके नेतृत्व
में मुसलमानों को यह समझाने के लिए एक व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया गया
था। मगर बोस के विपरीत नेहरू का जनता के साथ सहज संपर्क बेहद कम था और वह
कोशिश जल्द ही ठप्प पड़ गई। जमीनी स्तर पर लामबंदी करने की वह उनकी आखिरी
कोशिश थी। दो साल बाद जब वह कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे, उन्होंने बोस को
निकाल बाहर करने में सांठ-गांठ की। सैद्धांतिक तौर पर बोस पार्टी के वाम
पक्ष में उनके हमराह थे मगर नेहरू के विपरीत गांधी के जादू से मुक्त थे और
उन्हें गांधी का उत्तराधिकारी बनने से वंचित रखने में सक्षम प्रतिद्वंद्वी
थे। नेहरू अब भी स्वतंत्र अभिनेता नहीं थे। नेहरू की जीवनीकार जूडिथ ब्राउन
की तथ्यात्मक राय में वह पार्टी के पुराने खूसटों के ‘एकदम भरोसेमंद’ आधार
बने रहे।
दूसरा
विश्व युद्ध छिड़ जाने पर कांग्रेस आलाकमान ने भारत की जनता से पूछे बिना
वायसराय द्वारा जर्मनी के खिलाफ जंग छेड़ देने के विरोध में सभी प्रांतीय
सरकारों को इस्तीफा देने का निर्देश दिया। इसका तुरंत असर यह हुआ कि एक
राजनीतिक खालीपन तैयार हो गया जिसमें जिन्ना ने बड़ी दृढ़ता से अपने पैर
जमा दिए। वह इस बात से बाखबर थे कि अपने सबसे महत्त्वपूर्ण साम्राज्य में
लंदन को रियाया की वफादारी दिखाने की बेहद जरूरत थी। कांग्रेस मंत्रिमंडलों
के अंत को ‘हश्र का दिन’ घोषित कर उन्होंने बिना समय खोये ब्रिटेन की
मुश्किल घड़ी में उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया और उसके बदले में
युद्धकालीन अनुग्रह हासिल कर लिया। लेकिन उनके सामने काम मुश्किल था। अब तक
वह मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन चुके थे। मगर उपमहाद्वीप की दूर-दूर
तक बिखरी हुई मुस्लिम अवाम बिलकुल एकजुट न थी। बल्कि वह पहेली के उन
टुकड़ों की तरह थी जिन्हें साथ मिलाकर कभी एक नहीं किया जा सकता।
मुस्लिम लीग की स्थिति
ऐतिहासिक
तौर पर मुस्लिम एलीट का सांस्कृतिक और राजनीतिक हृदय स्थल उत्तर प्रदेश
में था, जहां लीग सबसे ज्यादा मजबूत स्थिति में थी बावजूद इसके कि एक तिहाई
से भी कम आबादी मुसलमान थी। सुदूर पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान और
उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत में मुस्लिम जबरदस्त रूप से बहुलता में थे।
मगर अंग्रेजों के कब्जे में वे काफी बाद में आए और इस वजह से वे इलाके
देहाती पिछड़े हुए क्षेत्र थे, जहां उन स्थानीय नामी-गिरामियों का वर्चस्व
था जो न उर्दू जबान बोलते थे और न लीग के प्रति कोई वफादारी रखते थे, और न
ही लीग की उन इलाकों में कोई सांगठनिक मौजूदगी थी। पंजाब और बंगाल में, जो
भारत के संपन्नतम प्रांत थे और एक दूसरे से काफी दूर स्थित थे, मुसलमान
बहुसंख्यक थे। पंजाब में उनका संख्याबल जरा ही अधिक था मगर बंगाल में अधिक
मजबूत था। इन दोनों ही प्रांतों में लीग बहुत प्रभावशाली शक्ति नहीं थी।
पंजाब में वह नगण्य थी। यूनियनिस्ट पार्टी जिसका पंजाब प्रांत पर नियंत्रण
था, बड़े मुस्लिम जमींदारों और संपन्न हिंदू जाट किसानों का गठबंधन था और
इन दोनों ही धड़ों के सेना से संबंध मजबूत थे और वे अंग्रेजी राज के प्रति
वफादार भी थे। बंगाल में, जहां लीग के नेता प्रांत के पूर्वी हिस्से में
बड़ी रियासतों के मालिक कुलीन जमींदार थे, राजनीतिक प्रभाव केपीपी (कृषक
प्रजा पार्टी) का था जिसका आधार आम किसान वर्ग था। इस तरह प्रांतीय स्तर पर
पर्यवेक्षक जहां भी नजर डालते, मुस्लिम लीग कमजोर नजर आती। हिंदू बहुल
इलाकों में उसे कांग्रेस ने सत्ता से परे रखा हुआ था और मुस्लिम-बहुल
क्षेत्रों में उसे उसके विरोधी संगठनों ने उपेक्षित कर रखा था। अखिल भारतीय
स्तर पर आवश्यक कौशल और जीवट के साथ काम कर सकने वाले एकमात्र मुस्लिम
नेता के तौर पर जिन्ना की प्रतिष्ठा ने लीग को बचा लिया। इसी वजह से
यूनियनिस्ट, केपीपी और दीगर नेतृत्व अपनी-अपनी प्रांतीय जागीरें बनाए रखते
हुए अंग्रेजों के साथ केंद्र में बातचीत की खातिर जिन्ना को अपना नुमाइंदा
बनाने को राजी हुए। यह टुकड़ा-टुकड़ा और असंबद्ध आलम ही 1937 के चुनावों
में कांग्रेस की हेकड़ी का एक कारण था। कांग्रेस आलाकमान के लिए लीग एक
चुकी हुई ताकत थी जिसे नजर-अंदाज किया जा सकता था जबकि दीगर स्थानीय
मुस्लिम पार्टियों को अपने सुभीते के अनुसार चुना जा सकता था और अपना
सहयोगी बनाया जा सकता था।
महायुद्ध
ने इस संरचना को तेजी से बदल देना था। अंग्रेज, जो मुसलमानों को गदर के
बाद अपनी रियाया का सबसे खतरनाक हिस्सा मानते आए थे, बीसवीं सदी के आते-आते
उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे सुरक्षित प्रत्युत्तर के रूप में देखने
लगे। अंग्रेजी राज के खिलाफ साझा संघर्ष में मुसलमान हिंदुओं के साथ गुट न
बना लें यह सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें पृथक निर्वाचक मंडल
भी प्रदान कर दिया। दूसरी तरफ वे यह भी नहीं चाहते थे कि उपमहाद्वीप में
कानून और व्यवस्था कायम करने के उनके दावों की कलई सांप्रदायिक हिंसा खोल
दे और न ही वे अपेक्षाकृत शक्तिशाली हिंदू समुदाय से, जिसमें उनके अनेक
मित्रवत जमींदार और व्यापारी थे, बेजा दुश्मनी ही मोल लेना चाहते थे। सो
उन्होंने ध्यान रखा कि वे अपने अनुग्रहों में एकदम पक्षपाती न हो जाएं। मगर
कांग्रेस मंत्रिमंडलों के पद त्याग देने के बाद और जब लीग युद्ध कार्य में
सरकार को जन समर्थन मुहैया करा रही थी, जिन्ना वायसराय के पसंदीदा संभाषी
बन गए। जीवन पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णत: सेकुलर होने के बावजूद
कांग्रेस ने जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था और कांग्रेस के
समाजशास्त्रीय यथार्थ से वह भली-भांति परिचित थे। जैसा कि सीनियर नेहरू ने,
जो अपने बेटे की तुलना में ज्यादा सुस्पष्ट या यूं कहें कि ज्यादा साफगोई
वाले थे, ध्यान दिलाया था कि कांग्रेस अपनी संरचना में अनिवार्यत: एक हिंदू
पार्टी थी और केंद्र में उसकी सत्ता के उसकी प्रांतीय सरकारों की बनिस्बत
मुसलमानों के प्रति ज्यादा हमदर्द होने की सम्भावना कम थी।
जिन्ना की मुश्किलें, नेहरू की मान्यताएं
जिन्ना ने, जो अभी तक अपनी बुनियाद के कमजोर होने से वाकिफ थे और
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